Friday, May 20, 2016

नालायक

घर-परिवार या समाज की बात हो या फिर अपने क्षेत्र की, हर तरफ रचनात्मक गतिविधियों और कल्याणकारी प्रवृत्तियों का दौर हर युग में रहा है और रहेगा। अच्छे लोग हर युग में रहे हैं और अच्छे काम भी।
समाज को जिस समय जो आवश्यकता होती है वह उस युग मेंं पूरी करने के लिए प्रकृति पूरा प्रयास करती है। इसके बावजूद समाज और देश हित या सृष्टि के कल्याण की दिशा में जो काम होते हैं उनमें आसुरी बाधाओं का आना स्वाभाविक है क्योंकि सृष्टि के निर्माण के समय से ही दैत्यों और आसुरी प्रवृत्तियों का अस्तित्व बना हुआ है जो हर युग मेंं अलग-अलग रूपों और आकारों तथा भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में सामने आता रहता है।
यह सृष्टि का वह क्रम है जिसे रोका नहीं जा सकता, यह निरन्तर चलता रहेगा, जब तक सृष्टि है। जब-जब भी समाज और सृष्टि में रचनात्मक गतिविधियों और लोकोन्मुखी कल्याणकारी गतिविधियों का सूत्रपात होता है तब-तब इनके साथ ही हर जगह ऎसे-ऎसे लोग भी सामने आ जाते हैं जो जड़ होते तो शायद कोई चट्टान होते या आधुनिक रास्तों पर जहाँ-तहाँ पसरे स्पीड़ ब्रेकर।
इन आसुरी भावों से परिपूर्ण लोगों को न समाज से कोई मतलब होता है, न क्षेत्र से। इनका एकमेव मकसद विघ्नसंतोषी भावों को आकार देना तथा अपने उल्लू सीधे करना होता है। हर क्षेत्र में आजकल इस प्रजाति के तथाकथित सामाजिक प्राणियों का बाहुल्य होने लगा है। ये लोग किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि हर क्षेत्र में गिनती के लोग ऎसे मिल ही जाते हैं जो जमाने भर के लिए भार होते हैं किन्तु अपनी नापाक हरकतों के कारण जमाना भर इनसे त्रस्त रहता है।
ऎसे नालायक, विघ्नसंतोषी तथा पराये माल को हड़पते हुए अपना घर भरने के आदी लोगों का जमावड़ा हमारे आस-पास भी है। फिर यह प्रजाति और इसके कुकर्म भी ऎसे ही हैं कि इन्हें अपनी ही तरह के लोग हर जगह मिल ही जाते हैं जो इनके साथ मिलकर गिरोह की शक्ल में कुकुरमुत्तों की तरह पसरे रहा करते हैं।
समाज और क्षेत्र में कोई सा अच्छा काम हो, कोई सी अच्छी रचनात्मक गतिविधि शुरू हो, इस किस्म के नुगरे लोगों की हरकतों का दौर आरंभ हो जाता है। सभी अच्छे लोगों को इनकी नापाक हरकतों और घिनौनी करतूतों का पता रहता है लेकिन ‘दुर्जनं प्रथमं वंदे’ की तर्ज पर लोग कुछ कहने और इन्हें दुत्कारने से हिचक महसूस करते हैं।
आमतौर पर लोग इस नालायक किस्म की यह समझ कर उपेक्षा कर देते हैं कि बुरे लोगों से दूरी ही भली। फिर इन बुरों का धर्म ही क्या है। हर हरकत इनके लिए जायज है। आखिर भूखों और नंगों के लिए कहाँ कोई धार्मिक या सामाजिक मर्यादाएँ हैं।  बस यही एकमात्र कारण है कि रोक-टोक के अभाव में इस किस्म के ये कमीन लोग अपने आप के बारे में यह भ्रम पाल लेते हैं कि यह उनकी सामाजिक स्वीकार्यता है। यहीं से शुरू होता है सामाजिक मूल्यों और देशज हितों का अवमूल्यन।
अपने क्षेत्र में ऎसे खूब सारे लोग हैं जिनमें मानवीय पक्ष दुर्बल या शून्य है और पशु भावों के साथ ही आसुरी भाव प्रधान हो गए हैं। इन नालायकों की वजह से ही समाज की रचनात्मक गतिविधियां प्रभावित होती हैं और इसका खामियाजा हमारी आने वाली कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है। इस किस्म के लोगों को देखें तथा इन्हें बर्दाश्त करने की बजाय सीधे और सटीक प्रहार करते हुए हतोत्साहित करें। यही आज समाज की सबसे बड़ी सेवा है।

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