Tuesday, July 25, 2017

एक ऐसा विद्यालय जहाँ शिक्षक नियुक्त है, सैलेरी भी टाइम पर आती है, परन्तु विद्यार्थी एक नहीं है

दिल्ली, लोकहित एक्सप्रेस, (रघुबीर सिंह गाड़ेगाँवलिया) । सरकारी स्‍कूलों के हालात से तो हम सभी वाकिफ हैं कि स्कूल का भवन और विद्यार्थी तो होते है परन्तु शिक्षक नहीं होते, लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि राजस्थान के सीकर जिले में कांवट कस्बे के प्रतापपुरा गांव में एक ऐसा स्‍कूल भी है, जहां पढ़ाने के लिए टीचर्स तो हैं लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं। प्रतिमाह करीब एक लाख से ज्यादा रुपए की पगार लेने वाले ये चार शिक्षक पेड़ पौधों में पानी डालकर और अपना टाइमपास करके वापस अपने घर लौट जाते हैं । राजस्थान का यह स्‍कूल बाकी स्‍कूलों से बहुत अलग है।
राजस्थान के सीकर जिले में कांवट कस्बे के प्रतापपुरा गांव में शिक्षा विभाग ने संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अलग से संस्कृत स्कूल 1998 में खोला गया था । उस समय इस स्कूल में पास के गांवों से भी बच्‍चे पढ़ने आते थे। 2005 में, बच्‍चों की संख्‍या 55 थी और वर्ष 2014 में स्कूल क्रमोन्न्त हुआ, परन्तु उसके बाद कम होती चली गई। आज आलम यह है कि इस स्कूल में हमेशा शांति फैली होती है और क्‍लासरूम में सन्‍नाटा पसरा रहता है । वहीं प्‍लेग्राउंड सूना पड़ा रहता है। जिसकी मुख्य वजह सिर्फ बच्चो का स्कूल न आना है।
यह स्‍कूल ज्‍यादा बड़ा तो नहीं है पर इस स्कूल के बिल्डिंग में छह क्लासरूम है। इस स्कूल में शिक्षा विभाग ने एक प्रधानाध्यापक और तीन शिक्षकों को नियुक्त कर रखा है, जिन्हे सरकार लाखों रुपयों की पगार देती हैं जो सुबह 8 बजे ही स्‍कूल में आ जाते हैं। स्‍टूडेंट न होने की वजह से ये टीचर दिनभर बोर होते रहते हैं। टीचर्स की सैलेरी तो टाइम पर आती है लेकिन वे अपनी जॉब से खुश नहीं हैं। शिक्षकों का कहना हैं कि वे पेड़ पौधों में पानी डालकर, झाड़ू निकालकर सरकारी कुर्सियों पर बैठकर ही वापस अपने घर चले जातें हैं । वहीं जब हम अपने घर जा रहे होते हैं तब गांव के आसपास के लोग भी स्कूल में आने वाले शिक्षकों को हीन भावना से देखकर उन पर टिप्पणियां करने से नहीं चूकते हैं ।
इस पुरे मामले के बारे में प्रधानाध्यापक सांवरमल द्वारा अपने उच्च अधिकारियों को प्रत्येक महीने रिपोर्ट भेजकर अवगत करवाया जाता है । अध्यापकों की मानें तो इस गांव की आबादी भी वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 300 के लगभग है ।

विद्यालय को शिक्षा के मंदिर के नाम से जाना जाता है। वैज्ञानिको का मानना है की संस्कृत भाषा का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति दुनिया की कोई भी भाषा बोल सकता है। संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा विभाग ने अलग से संस्कृत स्कूल तो खोल दिए लेकिन सरकार की लापरवाही की वजह से कभी इन स्कूलों में व्यवस्थाओं की कभी सुध तक नहीं ली गयी।

कांस्टेबल रामनिवास यादव पुलिसकर्मी द्वारा जयराम रैगर नामक दलित युवक के साथ मारपीट व जलती सिगरेट से दोनों हाथो की हथेलियाँ जलाई

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दिल्ली, लोकहित एक्सप्रेस, (रघुबीर सिंह गाड़ेगाँवलिया) । आमेर थाना इलाके के नाई की थड़ी पर रहने वाले जयराम रैगर नामक दलित युवक को कांस्टेबल रामनिवास यादव पुलिसकर्मी द्वारा चोरी के झूठे केस में फ़साने का मामला व उसके साथ मारपीट कर जलती हुई सिगरेट से दोनों हाथो की हथेलियों का जलानेका मामला सामने आया है I
प्राप्त जानकारी के मुताबिक पीड़ित जयराम रैगर नामक दलित युवक ने शनिवार को कांस्टेबल रामनिवास यादव पुलिसकर्मी के खिलाफ आमेर थाने में इस मामले की रिपोर्ट दी है I उसके उपरांत पुलिस ने पीड़ित का मेडिकल भी करवाया है I
पीड़ित जयराम रैगर ने बताया कि मैं शुक्रवार को सुबह कुकस के उपस्वास्थ्य केंद्र पर किसी से मिलने गया हुआ था कि आमेर थाने में तैनात कांस्टेबल रामनिवास यादव ने मुझे जबरन बाइक पर बैठाकर थाने ले आया, और मारपीट करने लगा तथा जबरन चोरी के मामले को कबूल करने को कहा, मेरे द्वारा नहीं कबूलने पर जलती हुई सिगरेट से दोनों हथेलियों को जला दिया I मेरी ज्यादा तबियत ख़राब होने पर मुझे छोड़ दिया गया I मेरे परिजनों ने कांस्टेबल रामनिवास यादव से मारपीट के बारे में जानकारी चाही तो कांस्टेबल रामनिवास यादव ने मेरे परिवार के लोगो को थाने में बंद करने की धमकी दे डाली” I
इस घटना के बाद दलित समाज और रैगर समाज के लोगो में पुलिस के खिलाफ रोष है I अखिल अनुसूचित जाति समन्वय परिषद् के प्रदेशाध्यक्ष नवरतन गुसाईवाल व रैगर समाज के पदाधिकारी पूरण चन्द, हीरालाल, गोपाल कृषण ने पीड़ित से मिलकर घटना की जानकारी ली और उसके बाद थाना प्रभारी से मिलकर कांस्टेबल रामनिवास यादव के खिलाफ उचित क़ानूनी करवाई की मांग की तथा केस की पूरी जानकारी ली I जानकारी देते हुए थाना प्रभारी नरेंद्र कुमार ने बताया कि ACP को घटना की जानकारी दे दी गई है वो ही इसकी जाँच करेंगे I रैगर समाज के पदाधिकारी ने कहा कि स्थानीय पुलिस द्वारा कोई करवाई नहीं होती तो हम पुलिस कमिश्नर को शिकायत करेंगे I


Monday, July 24, 2017

नारी का अपमान सालो से चला आ रहा है।

भारत देश मे नारी का अपमान सालो से चला आ रहा है। नारी को पुरूष ने हमेशा अपनी जरूरत की वस्तु के रूप मे काम मे लिया है। और सालो से नारी इस दुख को अपना भाग्य समझ कर भोग रही है। सरकार चाहे कितने भी दावें कर ले आज भी कई क्षेत्रो मे नारी को बराबर का दर्जा इस देश मे नही दिया जाता है। किसी ना किसी बंधन मे बंधी नारी आज भी लाचार और अपने आप को बेबसी की जंजीरो मे जकडी नजर आयेगी। जिस नारी को भगवान ने भी खुद से बडा दर्जा दिया आज उसी नारी की दशा देखो पहले गर्भ मे मरने का डर ,और अगर जिंदा बाहर निकली तो हवानो का डर और अगर वो उनसे भी बच गई तो दहेज लोभीयो का डर उसके मन मे बसा रहता है। एक नारी जब पुरे जग से हार जाती है तो वह अपने जीवन को जीने के लिए अकेले ही इस संसार मे जीने की कोशिश करती है। लेकिन हवानो के द्वारा उन पर अपनी तुष्ण ईच्छा के कारण अपनी हवस का शिकारी बना लिया जाता है। और इस गंदगी मे वो एक नये नाम से जानने लगती है जिसे हम वेश्या का दर्जा देते है ।कोई भी नारी अपनी स्वेच्छा से वेश्या नही बनती है समाज के दरिदे ही उसे विवश करते है और उसे वेश्या का नाम भी उनके द्वारा ही दिया होता है।  एक नारी अपने सुहाग को बचाने के लिए नाजाने कितने करवॉ चौथ करती है पर विडम्बंना देखो नारी की वो अपनी लाज नही बचा पाती है आज संसार मे वेश्या को लोग देखते तो बुरी नजरो से है। लेकिन ऑखो मे हवस भरी रहती है। कोई भी नारी अपने जीवन को इस गंदगी मे नही पलने देना चाहती है। लेकिन समाज मे फैली गंदगी व बुराई उसे इस गंदगी मे खिचं लाती है। हर एक व्यक्ति को उसके जिस्म से चाह होती है। लेकिन कोई उसकी विडम्बंना नही समझता है। और एक दिन वो पेशेवर वेश्या के नाम से जानी जाती है। जिसकी जिदंगी समाज से अलग होती है। उसके कोख से पैदा होने वाली भी इस माहौल मे अपने आप को ढाल लेती है। आज तक ना जाने कितनी बार सरकार बनी कितनी बार सरकार बिगडी किन्तु आज तक किसी सरकार ने इस मामले मे कोई ठोस कदम नही उठाये। आखिर समाज मे इनको जिने का हक क्यू नही दिया जाता है। आखिर कब तक इस दर्द के साथ उसे जिना पडेगा। सरकार या प्रशासन चाहे तो समाज मे फैली इस बुराई को खत्म कर इन्हे भी समाज के साथ चलना सिखा सकती है। जिससे आने वाली पिढी इस कलंक से मुक्ति पा सके। आज सरकार के साथ साथ समाज के हर व्यक्ति को बदलना होगा । हर व्यक्ति की आखो मे हर नारी बहन व मॉ के रूप मे होगी तब ही देश मे बदलाव सम्भव है। आज की सोच से देश के कल मे बदलाव है।

नागरिक अधिकारों पर स्पीच

मेरे प्रिय देशवासियों, शुभ संध्या:
साथियों, लगातार मिल रही धमकियों और उपेक्षापूर्ण बयानों को देखते हुए, अलबामा विश्वविद्यालय में आज दोपहर उत्तरी ज़िला अलबामा की संयुक्त राज्य ज़िला-अदालत के स्पष्ट और अंतिम आदेश के क्रियान्वयन के तहत अलबामा राष्ट्रीय सुरक्षागार्डों की तैनाती अपरिहार्य हो चुकी है. अदालत का यह आदेश दो योग्य और युवा अलबामा निवासियों के प्रवेश के पक्ष में था, जिनका जन्म संयोगवश नीग्रो परिवार में हुआ है.
विश्वविद्यालय में उनका प्रवेश जिस शांतिपूर्ण ढंग से हुआ वो अलबामा विश्वविद्यालय के छात्रों के उत्तम आचार और उत्तरदायित्व के निर्वहन की उनकी सकारात्मक सोच का द्योतक है.
मैं आशा करता हूं कि प्रत्येक अमेरिकी नागरिक, भले ही वो देश के किसी भी क्षेत्र का रहने वाला हो, एक बार ठहर कर विवेक से ऐसी घटनाओं के बारे में विचार करेगा. इस महान राष्ट्र के निर्माण में विभिन्न देशों के और विभिन्न पृष्ठभूमि से आए लोगों ने योगदान दिया है. इसका निर्माण सभी लोग समान हैं’, और एक व्यक्ति के अधिकारों के हनन का अर्थ है, प्रत्येक नागरिक के अधिकारों पर प्रहारके मूल सिद्धांत पर हुआ था.
आज हम दुनियाभर में स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत समुदायों के अधिकारों की रक्षा हेतु वचनबद्ध हैं. और अपने सैनिकों को वियतनाम या पश्चिमी बर्लिन भेजते समय केवल श्वेत अमेरिकियों को प्राथमिकता नहीं.देते. इसलिए, आवश्यकता इस बात की है कि किसी भी वर्ण के अमेरिकी छात्र बिना सुरक्षाकर्मियों की सहायता के किसी भी सार्वजनिक संस्था में प्रवेश पाने के लिए स्वतंत्र हों.
किसी भी वर्ण के अमेरिकी उपभोक्ता को बिना सड़कों पर प्रदर्शन किए होटल, रेस्त्रां, सिनेमाघर और खुदरा बिक्री केंद्रों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर समानता पर आधारित भेदभाव रहित सेवा मिले और प्रत्येक अमेरिकी नागरिक बिना किसी रंगभेद के भयमुक्त होकर चुनाव में मतदान करने के लिए स्वतंत्र हो
संक्षेप में,इस महान राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को बिना किसी नस्ल अथवा रंगभेद के प्रत्येक वह सुविधा और लाभ मिलना चाहिए जिसका एक अमेरिकी होने के नाते वो अधिकारी है. वो अधिकारी है अपने और अपने बच्चों के प्रति उस सम्मानपूर्ण व्यवहार का, जिसकी वो समाज से अपेक्षा करता है लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है.
आज अमेरिका के किसी भी हिस्से में जन्मे श्वेत बालक की तुलना में उसी स्थान और उसी समय पर जन्मे नीग्रो बालक की हाईस्कूल उत्तीर्ण करने की संभावना आधी, कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने और नौकरी पाने की संभावना एक तिहाई, बेरोजगार रह जाने की संभावना दोगुनी, 10,000/- डॉलर प्रतिवर्ष की आमदनी की आशा श्वेत बालक की अपेक्षा एक बटा सात, औसत आयु श्वेत बालक से सात वर्ष कम और औसत आय आधी है
ये किसी स्थान विशेष का मुद्दा नहीं है. बल्कि आम नागरिकों की सुरक्षा हेतु ख़तरा उत्पन्न करने वाली असंतोष की लहर के मूल में अलगाव और भेदभाव संबंधी कठिनाईयां हमारे देश के प्रत्येक राज्य के प्रत्येक शहर में मौजूद हैं. ना ही ये कोई वैयक्तिक अथवा दल विशेष से संबंधित मुद्दा है. ऐसे आंतरिक संकट के समय हमें दलगत राजनीति से ऊपर उठकर स्वयं को संगठित करना होगा. ये केवल कोई वैधानिक मुद्दा भी नहीं है. बेहतर यही है कि बजाय सड़कों पर उतरने के, इस प्रकार के मामलों का हल अदालत के माध्यम से निकाला जाए. इसके लिए प्रत्येक स्तर पर नए कानून बनाने की आवश्यकता है, लेकिन बस कानून भर बना देने से ही किसी व्यक्ति की सोच को बदला नहीं जा सकता
मुख्य रूप से हमारे सामने मूल प्रश्न नैतिकता का.है. ये मुद्दा उतना ही पुराना है जितनी हमारी धार्मिक पुस्तक और उतना ही स्पष्ट, जितना कि हमारा संविधान.
मूल प्रश्न एक अमेरिकी नागरिक की समानता का, समान अवसरों के अधिकार का और इस बात का है, कि जो अपेक्षा हम अपने लिए करते हैं, क्या अपने साथी अमेरिकी नागरिक की ठीक वैसी अपेक्षा पर हम खरा उतरते हैं? मात्र अपनी चमड़ी के गाढ़े रंग के कारण यदि कोई अमेरिकी नागरिक आम जनता के लिए बने रेस्त्रां में खाना नहीं खा सकता, अपने बच्चों को श्रेष्ठ विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं दिला सकता, अपना जन प्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान नहीं कर सकता यानी वह यदि उस स्वतंत्रता के साथ खुलकर नहीं जी सकता जिसकी कि हम सब अपने लिए कामना करते हैं, तो उसके जैसा रंग और उसके स्थान पर आखिर कौन होना चाहेगा! हममें से कौन है जो धैर्य और बाधाओं के ऐसे प्रतिरूप में खुद को पाकर खुश होगा?
राष्ट्रपति लिंकन द्वारा दासप्रथा को समाप्त किए जाने की ऐतिहासिक घटना को सौ से भी अधिक वर्ष बीत चुके हैं, किंतु उन दासों के वंशज, उनके पौत्र-प्रपौत्र आज भी दासता से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाए हैं. अन्याय के बंधनों से उन्हें आज भी पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है. वो आज भी सामाजिक और आर्थिक दमन के जाल में फंसे हुए हैं. अगर हमारा केवल एक नागरिक भी स्वतंत्र नहीं है तो हमारी आशाएं और राष्ट्र-स्वतंत्रता का हमारा गौरव बेमानी है.
हम संसारभर को स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाते हैं, अपने घर के भीतर उसका पालन करते हैं, किंतु संसार को और उससे भी बढ़कर स्वयं को क्या हम यही जताना चाहते हैं कि हमारे समाज में नीग्रो समाज के अलावा बाकी सभी को आज़ादी से जीने का हक है? या, हमारी इस धरती पर नीग्रो समाज के अलावा कोई भी अन्य नागरिक दूसरे दर्जे का नहीं है? या फिर, अपवादस्वरूप नीग्रो समाज को छोड़ दिया जाए तो हमारे देश में नस्ल, जाति अथवा रिहायशी बस्तियों को लेकर कोई भेदभाव नहीं है?
अब समय आ चुका है कि हम अपने वादों को पूरा करें. बर्मिंघम और अन्य स्थानों पर हुई भेदभावपूर्ण घटनाओं के विरोध में उठी आवाज़ों को अनसुना कर पाना अब किसी भी स्थानीय अथवा केंद्रीय सरकार या वैधानिक संस्था के लिए संभव नहीं है.
उत्तर से दक्षिण तक, प्रत्येक शहर में भड़क रही असंतोष और नफ़रत की आग को काबू कर पाना अब कानून के भी दायरे से बाहर होता जा रहा है. अन्याय के प्रतिकारस्वरूप अब सड़कों पर धरना-प्रदर्शन और विरोध रैलियां आयोजित की जा रही हैं, जिसके कारण देशभर में तनाव हिंसा और जानमाल की हानि का भय पैदा हो गया है.
एक राष्ट्र ही नहीं वरन एक इकाई के रूप में भी हम इस समय विकट नैतिक संकट के दौर से गुज़र रहे हैं. . इस संकट को पुलिस की सख्ती से काबू में नहीं किया जा सकता. किंतु सड़कों पर उत्तरोत्तर बढ़ते जा रहे प्रदर्शनों को नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता. प्रतीकात्मक कदम उठाकर, अथवा बातचीत के माध्यम से हालात को सामान्य बनाना भी संभव नहीं है. इसलिए अब समय आ गया है कि हम राजनैतिक अधिवेशनों में, राज्य और स्थानीय वैधानिक परिषदों में और साथ ही अपने दैनिक क्रिया-कलापों में भी समानता का सकारात्मक कदम उठाएं.
औरों पर दोषारोपण करना, या इसे एक खास तबक़े की समस्या मान लेना, या फिर परिस्थितियों पर खेद प्रकट कर देना ही समस्या का हल नहीं है. हमें आज खुद को एक शांतिपूर्ण और रचनात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए तैयार करना है.
निष्क्रिय और मूक होकर बैठे रहने से अंतत: केवल शर्मिन्दगी और हिंसा को ही बढ़ावा मिलता है. सही मायनों में सत्य और वास्तविकता को पहचानने वाले लोग ही साहसपूर्ण ढंग से स्थितियों से निपटने में सक्षम होते हैं
आने वाले सप्ताह में मैं संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस से आग्रह करूंगा कि जो कदम इस पूरी सदी में नहीं उठाया गया, वो कदम उठाते हुए हम वादा करें कि अमेरिका के आम जन-जीवन अथवा कानून में नस्लवाद के लिए अब कोई स्थान नहीं होगा. संघीय न्यायपालिका ने भी न्यायपालिका के कर्मचारियों की नियुक्ति, न्यायिक सुविधाओं के उपयोग और न्यायपलिका द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त आवासों की बिक्री जैसे अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी विषयों में इस प्रस्ताव का समर्थन किया है .
किंतु कुछ अपरिहार्य कदम ऐसे हैं जो केवल सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं और जिनका इसी सत्र में उठाया जाना अत्यावश्यक है. समानता के अधिकार के पुराने कानून में, जो आज भी हम पर लागू है, प्रत्येक गैरकानूनी कार्य के बदले सज़ा का प्रावधान है. किंतु देश के कई हिस्सों में यदि नीग्रो समाज पर अत्याचार होता है तो हमारा यही कानून मौन हो जाता है. यदि सरकार इस दिशा में कोई पहल नहीं करती, तो इस दबे-कुचले समाज के पास सड़कों पर उतरने के अलावा और कोई चारा ही नहीं होगा.
इसलिए मैं कांग्रेस से मांग करता हूं कि वो यथाशीघ्र ऐसा कानून लाए जिसके तहत अमेरिका के प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के होटल, रेस्त्रां, सिनेमाघर और खुदरा बिक्री केंद्र जैसे सभी सार्वजनिक स्थानों पर समान सेवा पाने का अधिकार हो.
मेरी दृष्टि में ये एक मूल-अधिकार है. इससे वंचित किये जाने का अर्थ है किसी का तिरस्कार करना, जो पूर्णत: अनुचित होने के बावजूद अमेरिका में आज साल 1963 में भी चलन में है.
हाल ही में प्रमुख व्यवसायियों और उनके नेताओं के साथ हुई मुलाक़ातों के दौरान मैंने उन सभी से आग्रह किया कि वे स्वेच्छा से इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाएं और मुझे अत्यंत उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं.पिछले दो सप्ताह में 75 शहरों में इन सार्वजनिक स्थलों पर भेदभाव की समाप्ति की दिशा में कदम उठाए जाने के संकेत मिलने आरंभ हो गए हैं. किंतु कई व्यवसायी ऐसे हैं जो चाहते हुए भी अकेले अपने बल पर ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाने में हिचकिचा रहे हैं.इसलिए यदि हम इस समस्या का शांतिपूर्ण समाधान चाहते हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर हमें ऐसा कानून लाना ही होगा.
मैं कांग्रेस से इस बात का भी निवेदन करना चाहूंगा कि वो सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले भेदभाव को समाप्त करने वाला कानून बनाने के लिए संघीय सरकार को प्राधिकृत करे. हम जिलास्तर पर कई क्षेत्रों में स्वैच्छिक ढंग से सामाजिक एकीकरण की दिशा में सफल हुए हैं. दर्जनों संस्थानों में नीग्रो समाज को बिना किसी हिंसा के प्रवेश मिलने लगा है. आज हमारे सभी 50 राज्यों में, सरकार समर्थित संस्थानों में आप कम से कम एक नीग्रो को तो उपस्थित पाएंगे ही, किंतु सामाजिक परिवर्तन की ये गति बहुत धीमी है.
बहुत से नीग्रो बच्चे, जिन्होंने 9 साल पहले उच्चतम न्यायालय के निर्णय के समय पृथक्कृत विद्यालयों में प्रवेश लिया था, वो इस वर्ष पृथक्कृत हाईस्कूलों में प्रवेश लेंगे, जिसके कारण होने वाली क्षति की पूर्ति कभी नहीं की जा सकेगी. पर्याप्त शिक्षा के अभाव में एक नीग्रो नागरिक को सम्मानजनक नौकरी पाने से वंचित रह जाना पड़ता है.
अत: उच्चतम न्यायालय के आदेश के क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से उन पर नहीं छोड़ा जा सकता जो उत्पीड़न के शिकार हैं अथवा जो आर्थिक संसाधनों से वंचित होने के कारण कानूनी लड़ाई लड़ने में असमर्थ हैं.
इसके अलावा मतदान का अधिकारको संरक्षण जैसे अन्य मुद्दों को लेकर भी निवेदन किया जाएगा. किंतु मैं एक बार फिर से दोहराना चाहूंगा कि इस समस्या का समाधान अकेली न्यायपालिका नहीं कर सकती. इसका समाधान अमेरिका के प्रत्येक समुदाय और प्रत्येक घर में खोजा जाना चाहिए.
इस संदर्भ में मैं उत्तर से दक्षिण तक उन सभी नागरिकों का अभिनंदन करना चाहूंगा, जो अपने अपने समुदायों में मानव-कल्याण के सद्कार्य में जुटे हुए हैं. वो ये कार्य कानूनी बाध्यता के कारण नहीं वरन मानवीय संवेदनाओं से वशीभूत होकर कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए दुनिया के कई हिस्सों में जान हथेली पर लेकर स्वतंत्रता-संबंधी चुनौतियों का सामना कर रहे हमारे थल व नौ-सैनिक, जिनके साहस और स्वाभिमान को मैं सलाम करता हूं.
मेरे प्रिय साथियों, ये एक ऐसी विकट समस्या है, जिसका सामना हमें उत्तर से लेकर दक्षिण तक, देश के प्रत्येक शहर में करना पड़ रहा है. आज हमारे देश में श्वेत बेरोज़गारों की तुलना में नीग्रो बेरोज़गारों की संख्या दो से तीन गुना अधिक है.पर्याप्त शिक्षा से वंचित, बड़े शहरों की ओर पलायन करते, समानता के अधिकार से वंचित, रेस्त्रां में भोजन करने अथवा सिनेमाघरों में प्रवेश के अवसरों और सम्मानजनक शिक्षा की प्राप्ति के अधिकार से और योग्य होने के बावजूद आज भी राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश से वंचित, नौकरी पाने में असफल और निराश हो चले हमारे युवा! ये वो मुद्दे हैं जिन्हें लेकर केवल राष्ट्रपति अथवा कांग्रेस के सदस्य अथवा राज्यपालों को ही नहीं बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रत्येक नागरिक को जागरुक होना है.
ये हमारा देश है. इस देश का निर्माण हम सभी के प्रयासों से हुआ है और यहां के प्रत्येक नागरिक को अपनी योग्यता के संवर्धन के अवसर प्राप्त करने का पूरा अधिकार है.
हम देश की 10 प्रतिशत जनता से यह नहीं कह सकते कि तुम्हें कोई अधिकार नहीं है कि तुम अपनी आने वाली पीढ़ियों की योग्यताओं को पहचान कर उन्हें बढ़ावा दो, या बिना सड़कों पर उतरे तुम अपने अधिकार पाने के पात्र नहीं हो. मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम उस 10 प्रतिशत जनता के ऋणी हैं, और उस ऋणभार से मुक्त होकर हमें एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण करना है.
अत: मैं निवेदन करता हूं कि हम सभी लोग अमेरिकी समाज को प्रतिगामी बनाने में सहायता करें, और जिस सम्मानजनक और समान व्यवहार की अपेक्षा हम अपने लिए करते हैं, वैसा ही व्यवहार हम अमेरिकी समाज के प्रत्येक बालक के साथ करें ताकि वो अपनी नैसर्गिक योग्यता के अनुरूप उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर सके.
मैं मानता हूं कि सभी बच्चे समान रूप से क्षमतावान, योग्य, और निपुण नहीं होते, किंतु अपनी योग्यताओं के संवर्धन के लिए उन्हें समान अवसर अवश्य मिलने चाहिएं ताकि वो जीवन में खुद को साबित कर सकें.
हमें अधिकार है नीग्रो समाज से आशा करने का कि वो अपने उत्तरदायित्व को समझें, कानून का पालन करें, किंतु उन्हें भी अधिकार है इस बात की आशा करने का कि देश का कानून निष्पक्ष हो, और जैसा कि नई शताब्दी में प्रवेश के समय जस्टिस हर्लान ने कहा था, संविधान को पूरी तरह से वर्णांध होना चाहिए
यही मुद्दा आज चर्चा का विषय है और यही वह मुद्दा है जो इस राष्ट्र और इसके मूल्यों के लिए घोर चिंता का विषय बना हुआ है.इससे निपटने के लिए मुझे इस देश के सभी निवासियों का सहयोग चाहिए.

धन्यवाद.

Tuesday, July 11, 2017

राजस्थान के भीलवाडा जिले में दबंगों ने दलित ओमप्रकाश रैगर नामक व्यक्ति के शव का शमशान में अंतिम संस्कार करने से रोका

दिल्ली, लोकहित एक्सप्रेस, (रघुबीर सिंह गाड़ेगाँवलिया) । जातिवाद समाज में इस कदर जकड़ता जा रहा है कि लोग शमशान में भी जातिवाद का बीज रोप रहे है। गांव तिलोली में माली समाज के दबंगो ने दलित ओमप्रकाश रेगर नामक व्यक्ति के शव का शमशान में अंतिम संस्कार तक नहीं करने दिया। गुस्साये रेगर समाज के पीड़ित लोगों ने शव को बीच रोड पर रखकर विरोध जताते हुए चक्का जाम कर दिया । बाद में पुलिस प्रशासन एवं तहसीलदार एवं SDM साहब मौके पर पहुंचकर तुरंत प्रभाव से शमशानघाट की भूमि से अतिक्रमण हटवाकर, आसींद के C.I. राजकुमार की मौजूदगी में ओमप्रकाश के शव का अंतिम संस्कार करवाया गया ।
घटनाक्रम की प्राप्त जानकारी के मुताबिक मंगलवार 11 जुलाई 2017 को राजस्थान के जिला भीलवाड़ा, तहसील आसींद के गांव तिलोली निवासी दलित ओमप्रकाश रेगर नामक व्यक्ति की मौत हो गयी। पीड़ित परिवार के लोग शव लेकर अंतिम संस्कार करने के लिए गांव के परंपरागत श्मशान पर पहुंचे। वहां पहले से मौजूद माली समाज के दबंगों ने जमीन पर कब्जा कर रखा था। माली समाज के इन लोगों ने शमशानघाट में शव का अंतिम संस्कार करने से तो रोका ही साथ में  जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए उनके साथ बदसलूकी की, लड़ाई-झगड़े पर उतर आये। जो लकड़ियाँ वहां अंतिम संस्कार करने के लिए रखी थी उन्हें उठाकर दूर फैंक दी, पीड़ित परिवार के लोगो द्वारा बहुत मिन्नतों के बाद भी अंतिम संस्कार नहीं करने दिया गया। जबकि ये शमशान घाट ग्राम पंचायत द्वारा अलाट है ।

कोई हल नहीं निकलता देख तब पीड़ित परिवार के गुस्साये लोगो ने शव को बीच रोड पर रखकर विरोध जताते हुए चक्का जाम कर दिया । पुलिस प्रशासन के आने के बावजूद भी दबंग लोगों की दबंगाई चलती रही और शव का अंतिम संस्कार नहीं करने दिया । बाद में तहसीलदार एवं SDM साहब मौके पर पहुंचकर तुरंत प्रभाव से शमशानघाट की भूमि से अतिक्रमण हटवाकर, आसींद के C.I. राजकुमार की मौजूदगी में ओमप्रकाश के शव का अंतिम संस्कार करवाया गया । इस घटना को लेकर रैगर समाज में रोष व्याप्त है । तहसील आसींद के रैगर समाज की मांग है कि मामले की जाँच कर दोषियों के खिलाफ उचित क़ानूनी करवाई की जाय ।

Sunday, July 9, 2017

अध्यक्षीय भाषण

प्रिय समाज बंधुओं /बहिनों, 
सादर नमन, 
परमपिता परमेश्वर की अनुकृपा व् आप सभी समाज बंधुओं के प्रेम व् प्यार ने अखिल भारतीय रैगर महासभा के 32 वे अध्यक्ष पद के लिए मुझे निर्वाचित किया | इसके लिए में भी समाज बंधुओं /बहिनों का हृदय से कोटि-कोटि आभार व्यक्त करता हूँ और धन्यवाद करता हूँ | अखिल भारतीय रैगर महासभा हमारे समाज की सर्वोच्च संस्था होकर सम्पूर्ण रैगर समाज को एक सूत्र में पिरोने का कार्य कर रही है | निश्चित तौर पर इसकी जिम्मेदारियां भी उतनी ही महत्वपूर्ण है | महासभा की स्थापना सन 1943 में हुई थी | अगले वर्ष सन 2043 में संस्था अपने समाज सेवा के कार्यों को करते हुए 100 वर्ष पूरे कर लेगी | अन्य समाजों के बहुत से संगठन व् संस्थाएं भी समाज सेवा के कार्य कर रहे हैं ,लेकिन इतने लम्बे समय से एक मात्र रैगर समाज की संस्था अखिल भारतीय रैगर महासभा ही सेवा कार्य करती आ रही है | यह एक मिसाल है तथा हम सभी समाज बंधुओं के लिए बड़ी ही प्रसन्नता व् गौरव की बात है | सभी समाज बंधू मेरे भाई-बहिन है | मैं सभी को साथ लेकर संस्था को उच्च शिखर पर ले जाने का प्रयास करूँगा | मेरा समाज बंधुओं से निवेदन है कि पिछले कई महीनो से चल रहे मन-मुटाव व् आपसी मतभेद को भुला दें | संस्था की एकता व् प्रगति के लिए हम सभी को एक होकर चलना ही होगा | घर के छोटे-मोटे मन-मुटाव व् मतभेद को हम आपस में मिल-बैठ कर सुलझाने का प्रयास करें | एसा हम सभी को संकल्प लेना ही होगा | हम अपने परिवार बुजुर्गों का सम्मान करते हुए युवा पीढ़ी को अपनी भारतीय संस्कृति अपनाते हुए प्रगति की और बढ़ने का सन्देश देना होगा | हमें अपने जीवन में संकल्प लेना होगा कि हम अपने जीवंन में नकारात्मक विचारों को कदापि स्थान न दें | नकारात्मक विचारों के आवेग से ऋणात्मक ऊर्जा का अधिक संग्रह होता है | हमारी सोच व् कार्यशैली पर विपरीत प्रभाव पड़ता है | अतः हम सकारात्मक सोच रखें और उसी के अनुरूप अपनी कार्यशैली बनाएं | यदि हमने यह ऐसा पूरे मनोयोग से कर लिया तो हम अपने परिवार को ,समाज को तथा अपने देश को खुशहाल बनाने की और स्वयं का एक अच्छा कदम होगा | रैगर समाज व् महासभा का एक गौरवपूर्ण इतिहास है हमें गर्व करना चाहिए कि हमने एक ऐसे समाज में जन्म लिया है जिसने अन्य समाजों को दिशाएँ दी हैं और समुन्नत जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया है | आज जरुरत है महासभा के कार्यक्रमों को ओर गति प्रदान करने की तथा विकास के नए आयाम स्थापित करने की एकता व् सौहार्द्रता को आगे बढाने की | यह सब हम अपनी एकता द्वारा ही पूरा कर सकते है | मैं समाज के हित चिंतकों के साथ मिलकर पिछले सत्र से भी ज्यादा धन संग्रह करने का प्रयास इस सत्र में करूँगा | महासभा के पूर्व अध्यक्षों तथा समाज के वरिष्ठ बुजुर्गों से विचार-विमर्श कर समाज के हित में कार्य करूँगा | इस सत्र में महासभा अध्यक्ष चुनाव की प्रक्रिया में बदलाव किया जाएगा ताकि जो खामिया इस बार अध्यक्षीय चुनाव में रही है वे पुनः न दोहराई जा सके | इसके लिए मेरा समाज बंधुओं से निवेदन है कि आप अध्यक्षीय चुनाव प्रक्रिया संशोधन के लिए अपने सुझाव भिजवायें | महासभा कार्यालय को आज की उच्चतम टेक्नोलोजी के साथ मिलकर आधुनिक रूप देने के साथ नई-नई तकनीकियों (ऑन लाइन, पूर्णतया कम्प्यूटरीकृत) को काम लेते हुए एक आदर्श संस्था को और गरिमा प्रदान करने के लिए में संकल्पबद्ध हूँ | संस्था की सेवा करते हुए मेरा प्रमुख उद्देश्य यही रहा कि में ज्यादा से ज्यादा धन संग्रह करूँ और महासभा के प्रमुख कार्यक्रम छात्रवृति तथा विधवा सहायता के लिए प्राप्त राशि को उन जरुरतमंदों तक समय पर पहुँचा सके | इसके लिए हमने अपने पिछले कार्यकाल में भी पूरा प्रयास किया और दानदाताओं के सहयोग से पूरे सत्र में समय पर सभी छात्रों को छात्रवृति तथा विधवा बहिनों को सहायता राशि पहुंचाई | इस कार्य की पुनीत भावनाओं व् इन सभी की दुआओं ने अब महासभा अध्यक्ष पद का दायित्व संभालकर मुझे जिम्मेदारी सौंपी है मेरा पूरा प्रयास रहेगा कि मैं संस्था के इस कार्यक्रम को बराबर जारी रखते हुए छात्रों व् विधवा बहिनों को समय पर राशि पहुँचाऊ और उनकी भावनाओं का सम्मान कर सकूँ | पिछले कई वर्षों से संस्था कि सेवा करते हुए मेरे मन में संस्था की ज्यादा से ज्यादा सेवा करने का एक जज्बा जागा | परमपिता परमेश्वर की अनुकम्पा से व् आप सभी समाज बंधुओं के सहयोग से यह सुअवसर मिला है | मेरा लक्ष्य मेरे इस गरिमामय पद से जुड़ा हुआ है | मेरा जज्बा तन,मन ,धन से सेवा करने का है और हर हालात में निष्पक्ष भाव से सबको साथ लेकर चलते हुए अपने लक्ष्य को पूरा करना है | मैं युवाओं व् महिलाओं को भी अधिक से अधिक संख्या में महासभा से जोड़ने का प्रयास करूँगा | में इसके लिए संकल्पबद्ध हूँ और समाज से अपेक्षा रखता हूँ कि आप सभी का सहयोग मुझे मेरे उद्देश्य को पूरा करने के लिए पूर्व कि भाँती बराबर मिलता रहेगा | सम्पूर्ण रैगर समाज से मेरा आग्रह है कि अपने कार्य व् व्यवसाय तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के साथ-साथ महासभा से भी जुड़ें | रैगर समाज की जनसँख्या को देखते हुए महासभा की महासमिति तथा महासभा पत्रिका के आजीवन सदस्य बहुत कम है | अतः समाज बंधुओं से निवेदन है प्रत्येक परिवार से कम से कम एक सदस्य तो महासमिति एवं महासभा पत्रिका का सदस्य अवश्य बने | संस्था आपके जुड़े रहने से अपने आपको गौरान्वित महसूस करेगी | मैं अपने विशुद्ध ह्रदय एवं गतिशील प्रेरणादायी कार्यों के द्वारा भविष्य के सुन्दर कार्यक्रमों के बारे में गहन चिंतन कर दूरदर्शिता पूर्ण निर्णय लेकर समाज को एक नई दिशा प्रदान करने का प्रयास करूँगा | पूर्व अध्यक्षों व् समाज के वरिष्ठ लोगों से मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए सेवा के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता हूँ | प्रयत्न करूँगा जिन पूर्वजों ने संस्था को सींचा ,में भी उसमे एक कड़ी बन सकूं | मेरी परमपिता परमेश्वर से कामना है कि मेरा रैगर समाज स्वस्थ ,संपन्न और सूखी रहे | सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः सर्वे भद्राणि प्शयन्तुमा काश्चिद दुःख भाग्भवेत | शुभकामनाओं के साथ .

Monday, July 3, 2017

जो सामने है उसकी अनदेखी करना

इसका भान तो मुझे था अवश्य किन्तु इस ओर ध्यान कभी नहीं गया। यह तो, गए दिनों, लगातार तीन बार ऐसा हुआ कि इस ओर ध्यान चला गया।
 
इस बरस या तो विवाह अधिक हुए या फिर हम लोगों को न्यौते अधिक मिले। सब के सब ऐसे के किसी को टाल पाना सम्भव नहीं था। लिहाजा,  हम दोनों, पति-पत्नी, ने अपनी-अपनी पसन्द से आयोजन छाँट लिए। इस तरह हम दो लोगों ने 6 आयोजनों में उपस्थित रहने का व्यवहार निभा लिया। किन्तु हम दोनों को, अपने-अपनेवाले तीनों आयोजनों में एक ही सवाल का सामना करना पड़ा। मेरी उत्तमार्द्धजी से पूछा गया - ‘दादा नहीं आए?’ और मुझसे पूछा गया - ‘भाभीजी को नहीं लाए?’ मेरी उत्तमार्द्धजी तो कहीं कुछ नहीं बोली लेकिन, तीसरी बार जब  मुझसे पूछा गया तो चुप नहीं रहा गया। मैंने कहा - ‘भैया! जो सामने खड़ा है उसकी पूछ-परख तो गई भाड़ में और जो नहीं आया है, उसकी तलाश कर रहे हो? मेरा अकेला आना अच्छा नहीं लग रहा हो तो वापस चला जाऊँ?’ मेजबान झेंप गया। बोला - ‘अरे! कैसी बात कर दी आपने? आपका आना अच्छा नहीं लगता तो आपको बुलाते ही क्यों? लेकिन भाभीजी भी आते तो और अच्छा लगता।’
 
इसी कारण इस ओर ध्यान गया। जो सामने है, उसकी अनदेखी करना और जो सामने है ही नहीं, उसकी पूछ-परख, तलाश, प्रतीक्षा करना। यह क्या है? क्यों है?
 
शायद यह मनुष्य स्वभाव ही है या कि यही मनुष्य स्वभाव है - जो हाथ में है, उसकी अनदेखी कर, जो हाथ में नहीं है, उसकी तलाश करना। यह, कुछ अतिरिक्त प्राप्त करने का लालच है या मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति? या, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं?
 
सयानों से सुनता आया हूँ कि मृत्यु मनुष्य की सहोदर है। मनुष्य के जन्म लेते ही उसकी मृत्यु सुनिश्चित हो जाती है। प्रति पल, उसके सर पर मँडराती, उसके साथ-साथ चलती है। किन्तु अब लग रहा है कि केवल मृत्यु ही नहीं, दुःख भी मनुष्य का सहोदर है। इसीलिए, मनुष्य आजीवन मृत्यु से कन्नी काटता रहता है और सुख की तलाश में खुद को झोंके रखता है। सुख की तलाश की यह आदिम प्रवृत्ति ही मनुष्य के दुःखों का मूल है। अन्यथा, सुख-दुःख तो मानसिक अवस्थाओं के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं! ‘दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना’ की तर्ज पर दुःख में भी सुख को तलाशा जा सकता है और सुखी रहा जा सकता है। इसी के समानान्तर कहा जाता है कि दुःखी होने के लिए मनुष्य को किसी और की आवश्यकता नहीं होती। इसका विलोम सूत्र अपने आप ही सामने आ जाता है - मनुष्य चाहे तो परम् सुखी रह सकता है। बात वही है - मनःस्थिति की। जिस तरह ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार’ होती है। उसी तरह मानो तो दुख ही दुख और मानो तो सुख ही सुख।
 
यह मनःस्थिति ही तो है कि टेकरी पर बनी फूस की अकेली टपरिया में आदमी घोड़े बेच कर सो लेता है और अट्टालिकाओं/प्रासादों में, गुदगुदे बिस्तरों पर लेटे आदमी को, सोने के लिए नींद की गोलियाँ खानी पड़ती हैं। मनुष्य ने भले ही गरीबी और अमीरी के भौतिक पैमाने बना लिए हों किन्तु हमारा ‘लोक’ तो इन्हें भी मनःस्थिति ही मानता है। कोई साढ़े चार बरस पहले की मेरी इस पोस्ट के तीसरे हिस्से में लिखी मालवी लोक कथा ‘गरीब’ काफी-कुछ कह देती है।
 
किन्तु इसके समानान्तर एक सच और है - ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाला सच। उपदेश या सलाह तो होती ही है दूसरों के लिए! उस पर आचरण कर लिया तो वह ‘उपदेश’ या ‘सलाह’ का गुण नहीं खो देगी? इसी के चलते, मुझे आकण्ठ विश्वास है कि मैं भी सुखी नहीं रह पाऊँगा। अन्ततः हूँ तो एक सामान्य मनुष्य ही - सुख की तलाश में घूमने की आदिम प्रवृत्ति से संचालित।
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हर शब्द के , विचार के , क्रिया के दो पहलू होते है : सकारात्मक और नकारात्मक | दोनों के परिणाम भी ऐसे ही गुणधर्म वाले होते है |
''विरोध'' शब्द के साथ भी एसा ही है | विरोध जब सकारात्मक हो तो प्रशंसनीय होता है , सुधारवादी होता है , #लोकहित में होता है || इसका मकसद हंगामा नही अपितु वो तस्वीर(हालात) बदलना है , जो गलत है , बदरंग है ||
एसा विरोध राष्ट्र प्रेम के अधीन होता है , न्यायोचित होता है , सत्य के झंडे तले होता है | और जो लोकनायक है , सत्य प्रिय है , न्याय प्रिय है ,इस प्रकार के विरोध करते है | ये सुधारात्मक और सहयोगात्मक होता है ||
नकारत्मक विरोध .. विरोध के लिए विरोध है , एक अंध विरोध है जो उत्पन्न होता है , द्वेष , कटुता , और शत्रुता के वशीभूत होकर | ये दुष्ट जनो का आभूषण है | वो विरोध करते है इसलिए नही की सुधार चाहिए बल्कि इसलिए की वो आहत है .. अपने दंभ के कुचले जाने से , वो कुंठित है ,वो ईर्ष्या और प्रतिशोध की आग में जल रहे है | सामन्यात ये दुर्जन का सज्जन के लिए विरोध है ||
मोदी विरोधियो का विरोध दूजे प्रकार का है | ये आहत है , दुखी है , भले प्रकार से वामपंथ विस्तार की ओर था किन्तु मोदी आ गाया | षड़यंत्र रचा क्या करे ? उसकी कार्यशैली पर बोल नही सकते ,उसके चरित्र पर बोल नही सकते .. क्या करे ? विरोध करो .. अच्छे का भी और बुरे का भी ..कीचड उछालो भले ही खुद संद जाओ , कीचड में खड़े होकर कीचड उछालो ||
लेकिन क्या सूर्य के तेज को बादलो की कालिमा छिपा पायी है ?

Sunday, July 2, 2017

सास-बहू

‘सास’ बाप रे...! यह शब्द ही अपने-आप में एक हौआ, दहशत लिए हुए है। ‘सास’ इस शब्द से ही हमारी आंखों के सामने एक ऐसे नारी की तस्वीर आती है, जो बात-बेबात बहू पर ताने कसती है और प्रताड़ित करती है। सास के इस रुप को भुना कर, सास-बहू के खट्टे-मिठ्ठे रिश्ते को नमक-मिर्च का तड़का लगा कर बनाएं हुए सिरियलों से ही एकता कपूर टी. व्ही. की महारानी बनी थी। क्योंकि ज्यादातर सास का यहीं रुप प्रचलन में है।

यद्यपि आज की सासुएं थोड़ा बदल रही है। वे बहू को एक इंसान का दर्जा देने लगी है। बहू की इच्छाओं का भी ख्याल रखने लगी है। लेकिन क्या आप कल्पना भी कर सकते है कि कोई सास अपनी बहू के लिए खुद दूसरों के घरों में झाडू-पोछा भी कर सकती है? तो आइए, आज हम मिलेंगे एक ऐसी सास से जिसके बारें में जानने के बाद आप भी कहेंगे, “काश, ऐसी सास भगवान सबको दें...!!” हमारा मीडि‌या ज्यादातर नकारात्मक खबरों को ही प्राधान्यता देता है। खबरों की नकारात्मकता इतनी ज्यादा है कि एक प्रतिष्ठित अखबार को सप्ताह के एक दिन “नो निगेटिव न्युज” की शुरवात करनी पड़ी! खबरें देख और सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे हमारें देश में कहीं भी कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। अत: “आपकी सहेली” की हमेशा यहीं कोशिश रहती है कि अच्छी ख़बरे पाठकों तक पहुँचायें ताकी सकारात्मकता फैले।

कौन है ये सास?
मिलिए, राजस्थान के कोटा के अनंतपुरा की रहनेवाली 47 साल की गीताबाई से। इन्हें हमेशा यहीं दु:ख था कि न तो वह खुद पढ़ पाई और न ही आर्थिक संकट के चलते अपनी बेटी को पढ़ा पाई। लेकिन जब बेटे की शादी की और बहू ने आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की, तो गीताबाई ने तुरंत हामी भर दी। 20 साल की बहू रुमाली 11वीं तक ही पढ़ी थी कि शादी हो गई। पहले तो गीताबाई समाज की लाज शर्म के चलते पति और अपने बेटे से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। लेकिन फिर अपने बेटे और पति को मनाया। लेकिन समस्या जहां की तहां थी, पैसे की। तो उन्होने फैसला किया की वो और ज्यादा घरों मे झाडू-पोछा करेंगी!

अब गीताबाई बहू को आगे पढ़ाने के लिए ज्यादा घरों में झाडू-पोछा करती है। इतना ही नहीं तो बहू के लिए टिफिन भी तैयार कर के देती है। वे चाहती है कि बहू एक दिन पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो।

अपने बेटे एवं बेटी को पढ़ाने के लिए तो हर माँ-बाप प्रयत्नशील रहते है लेकिन एक बहू को पढ़ाने के लिए...! सच में, एक अनपढ़ गीताबाई की उच्च सोच और मानवतावादी कार्य को मैं व्यक्तिश: सलाम करती हूं। और ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि “काश, ऐसी सास भगवान सबको दें...!!”

वृद्ध आश्रमों की संख्या बढती जा रही है

पक्ष में विचार:--
परमात्मा की परम कृपा से माता-पिता दुनिया की सबसे बड़ी नेमतों में से एक हैं, बहुत खुशनसीब हैं वह जिनकों यह दोनों अथवा इनमें से किसी एक का भी सानिध्य प्राप्त है। हमारे माता-पिता हमारी सामाजिक व्यवस्था के स्तंभ हैं, पर अफ़सोस आज यह स्तंभ गिरते जा रहे हैं ।

वह उस समय हमारी हर ज़रूरत का ध्यान रखते हैं, जबकि हमें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, लेकिन जब उनको उसी स्नेह की आवश्यकता होती है तो हमारे हाथ पीछे हट जाते हैं। कहावत है कि दो माता-पिता मिलकर दस बच्चों को भी पाल सकते हैं, लेकिन दस बच्चे मिलकर भी दो माता-पिता को नहीं पाल सकते।
अफ़सोस आज दिन-प्रतिदिन वृद्ध आश्रमों की संख्या बढती जा रही है, उनमें भी अधिकतर वही लोग होतें हैं जिनके बेटे-बेटियां जिंदा और अच्छी-खासी माली हालत में होते हैं। अक्सर उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर घर के बुज़ुर्ग अपने आप को अलग-थलग महसूस करने लगते हैं। संवेदनहीनता के इस दौर में अपने ही इनकी भावनाओं को समझने में नाकाम होने लगते हैं। मुझे आज भी याद है किस तरह मेरे नाना-नानी का रुआब घर पर था, उनकी हर बात को पूर्णत: महत्त्व मिलता था, लेकिन इस तरह का माहौल आज के दौर में विरले ही देखने को मिलता है। आज बुजुर्गों की बातों को अनुभव भरी सलाह नहीं बल्कि दकियानूसी समझा जाता है। उनकी सलाहों पर उनके साथ सलाह-मशविरे की जगह सिरे से ही नकार दिया जाता है। आज के माहौल और दिन-प्रतिदिन गिरती मानवीय संवेदना को देखकर लगता है कि हमारे वतन में भी वोह दिन दूर नहीं जब बुजुर्गों की सुध लेने वाला कोई नहीं होगा! जबकि हर एक धर्म में बुजुर्गों से मुहब्बत और उनका ध्यान रखने की शिक्षाएं हैं, लेकिन बड़े-बड़े धार्मिक व्यक्ति भी इस ओर अक्सर बेरुखें ही हैं। क्योंकि उन्होंने धर्म को आत्मसात नहीं किया बल्कि केवल दिखावे के लिए ही उसका प्रयोग किया। संस्कार और धार्मिक बातें चाहे लोगो को उपदेश लगे या किसी की समझ में ना आएं, लेकिन हमें हमेशा उनको दूसरों तक पहुँचाने की कोशिश कानी चाहिए । क्योंकि अगर इसी तरह धर्म की चर्चा करते रहें  तो कम से कम हम तो अवश्य ही उनपर अमल करने वाले बन जाएगें ।वर्तमान समय में वृद्ध वर्ग की परिस्थितियों के कुछ नमूने दृष्टव्य  हैं.....

भारत की औद्योगिक राजधानी मुंबई में रहने वाली 92 साल की लक्ष्मीबाई का आरोप है कि उनके पोते और दामाद ने उनकी पिटाई की है. वो बताती हैं, "मेरे पोते और दामाद मुझे बुरी तरह मारते जा रहे थे. कहते जा रहे थे, हम तुम्हें मार देंगे | मेरी उम्र हो चुकी है और मैं अपना बचाव नहीं कर पा रही थी. मेरे शरीर पर कई जगह से खून निकल रहा था, इसके बाद उन्होंने मुझे किसी गठरी की तरह कार में फेंका और मेरी बेटी के घर लाकर पटक दिया."
जब तीस साल पहले जब हेल्पएज इंडिया ने वृद्ध आश्रम तैयार किए थे तो लोगों ने कहा था कि ये तो पश्चिमी तरीका है, लेकिन आज हर कोई मान रहा है ये पश्चिमी तरीका नहीं, ये हक़ीकत है |
लेकिन लक्ष्मी के पोते विनय पालेजा इन आरोपों से इनकार करते हैं | उनका कहना है, "मैंने तो अपनी दादी को हाथ तक नहीं लगाया. उन्होंने खुद अपने आप को घायल कर लिया है | मुझे नहीं मालूम कि वो हम लोगों के ख़िलाफ़ इस तरह के आरोप क्यों लगा रही हैं |" अपनी बेटी के घर इलाज करा रहीं लक्ष्मीबाई का कहना है कि उनके पास अब कुछ नहीं बचा है | इस बुज़ुर्ग महिला के पास जो थोड़ी बहुत ज़मीन और सोना था वो उन्होंने अपने और अपने बेटे के इलाज के लिए बेच दिया, लेकिन उनके परिवार ने उनके इलाज के लिए एक पैसा ख़र्च नहीं किया | ये मामला अब अदालत में जाएगा, लेकिन कानून की धीमी गति देखकर लगता नहीं कि इंसाफ़ पाने तक लक्ष्मीबाई ज़िंदा रह पाएँ |प्रतिदिन वृद्ध आश्रमों की संख्या बढने का कारण टूटते संयुक्त परिवार हैं | भारत में पिछले कुछ सालों में बुज़ुर्गों को मारने-पीटने और घर से निकाल देने के मामले काफ़ी तेज़ी से बढ़े हैं | अगले 25 सालों में भारत में 10 करोड़ से ज़्यादा बुज़ुर्ग होंगे | भारत जिसकी संस्कृति ये है कि बच्चे अपने बुज़ुर्गों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेते हैं. जहाँ संयुक्त परिवार में एक साथ तीन पीढ़ियाँ एक छत के नीचे हंसी-खुशी अपना जीवन यापन करती हैं | ये संयुक्त परिवार बुज़ुर्गों के लिए उनके आख़िरी वक्त में एक बड़ा सहारा हुआ करते थे, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं | ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे अब अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए अपने पैतृक घरों को छोड़ रहे हैं | समाजशास्त्रियों का मानना है कि नौजवानों में आधुनिक तौर-तरीके से जीने की ललक और व्यक्तिगत ज़िंदगी गुज़ारने की सोच की वजह से बुज़ुर्ग इस तरह से जीने के लिए मजबूर हैं | कई मामलों में तो उन्हें बुरी-बुरी गालियाँ तक सुननी पड़ती हैं |वृद्धों के साथ हो रहे सौतेले बर्ताव को देखते हुए भारत सरकार ने पिछले दिनों एक नया विधेयक भी तैयार किया था | इस विधेयक में स्पष्ट कहा गया है कि हम संयुक्त परिवार का ढांचा दोबारा नहीं विकसित कर सकते, लिहाज़ा हमें और वृद्ध आश्रम बनाने होंगे | सरकार ने बुज़ुर्गों और माता-पिता के कल्याण के लिए तैयार किए इस विधेयक के मुताबिक ऐसे बच्चों को तीन महीने की सज़ा भी हो सकती है जो अपने माता-पिता की देखरेख से इनकार करते हैं | इस क़ानून के मुताबिक अदालत अगर आदेश देती है तो बच्चों को अपने बुज़ुर्गों के लिए भत्ता भी देना होगा | भारत में बुज़ुर्गों की मदद के लिए काम करने वाली स्वयं सेवी संस्था हेल्पएज इंडिया की शोध बताती है कि अपने परिवार के साथ रह रहे क़रीब 40 प्रतिशत बुज़ुर्गों को मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है | लेकिन छह में से सिर्फ़ एक मामला ही सामने आ पाता है | दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ नागरिक सेल के केवल सिंह मानते हैं कि बुज़ुर्ग माता-पिता के लिए अपने बच्चों के ख़िलाफ़ ही शिकायत करना काफ़ी मुश्किल होता है | केवल सिंह कहते हैं, "जब इस तरह के बुज़ुर्ग अपने बच्चों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज कराने का फ़ैसला कर लेते हैं तो उनका रिश्ता अपने परिवार से पूरी तरह टूट जाता है" उनका कहना था, "इस तरह के मामलों में हमेशा क़ानून और जज़्बात के बीच द्वंद्व चलता रहता है" कुछ इसी तरह का मामला दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु के इरोड शहर में भी पेश आया | यहाँ 75 साल की एक वृद्ध महिला शहर के बाहरी हिस्से में पड़ी पाई गई थी | लोगों का आरोप था कि उनके नाती और दामाद ने उन्हें वहाँ लाकर डाल दिया था. कुछ दिनों के बाद इस वृद्धा की मौत हो गई थी | लेकिन उनकी बेटी तुलसी का कहना था, "मेरी माँ कई वर्षों से मेरे साथ रह रही थी लेकिन एक रात वो अचानक बड़बड़ाने लगी और पूरी रात बोलती ही रहीं | हमने उन्हें मना भी किया लेकिन वो नहीं मानीं और अचानक घर छोड़कर चली गईं" ग़रीबी और रोज़गार की तलाश में बच्चों के बाहर जाने की वजह से बुज़ुर्गों को इस तरह का बर्ताव झेलना पड़ रहा है, सरकार ने सख्त कानून भी बनाया है लेकिन हल दिखाई नहीं देता | भारत में सात करोड़ से ज़्यादा आबादी बुज़ुर्गों की है. अगले 25 वर्षों में ये 10 करोड़ तक पहुँच जाएगी | सरकार ने भी देश भर में 600 वृद्ध आश्रम तैयार कराने को मंज़ूरी दे दी है | हेल्पएज इंडिया के मैथ्यू चेरियन का मानना है कि क़ानून बनाने से ये समस्या हल नहीं होने वाली है | उनका कहना है,'' आप परिवारों को टूटने से नहीं रोक सकते. हम संयुक्त परिवार का ढांचा दोबारा नहीं विकसित कर सकते, लिहाज़ा हमें और वृद्धआश्रम बनाने होंगे, तीस साल पहले जब हेल्पएज इंडिया ने वृद्ध आश्रम तैयार किए थे तो लोगों ने कहा ये तो पश्चिमी तरीका है, लेकिन आज हर कोई मान रहा है ये पश्चिमी तरीका नहीं, ये हक़ीकत है |"
अत: मेरा यही मानना है कि आज के सामाजिक परिवेश में वृद्ध आश्रम व्यवस्था उचित है |

विपक्ष में विचार--

हमारे समाज में वृद्धों को सम्मान का पात्र बताया गया है, लेकिन शास्त्रों में भी इस अवस्था का चित्रण है और वह अत्यंत दयनीय है । उसे सुनकर भी वृद्धों की घबराहट बढ़ जाती है । एक वर्णन देखिए:- वैराग्य शतक में भर्तृहरि लिखते हैं, ' शरीर पर झुर्रियां पड़ गई हैं । चलने- फिरने की सामर्थ्य समाप्त हो गई है। दाँत टूट गए हैं, दृष्टि नष्ट हो गई है । पत्नी भी सेवा नहीं करती । पुत्र भी शत्रु जैसा व्यवहार करता है । '
क्या यह वर्णन सही है ? अधिकांश का उत्तर होगा , हाँ ! पर ऐसा है नहीं है । यदि ऐसा है तो उसके अन्य कारण हैं । यह सच है कि वर्तमान में अधिकांश वृद्ध दुखी हैं और तनावग्रस्त हैं । जिन वृद्धों के पुत्र उनकी भावनाओं का सम्मान नहीं करते, वे जमाने को कोसते हुए दुखी हैं और जो वृद्ध पुत्रों के ताने सुनकर उनके साथ रहने को मजबूर हैं, वे भी दुखी हैं । अपने परिवार के लिए खून-पसीना बहाकर, पेट काटकर, झूठे-सच्चे धंधे कर जिन्होंने कल्पना की थी कि वृद्धावस्था में उनका परिवार उनकी सेवा करेगा, वे निराश हैं । यह सेवा मिल नहीं रही, लेकिन उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि बेटों को पालना उनका कर्तव्य था । वह कोई उद्योग-धंधों में किया गया निवेश नहीं था । भगवान कृष्ण ने इसीलिए कर्म पर अधिकार बताया है, फल पर नहीं ।
ऋषि- मुनियों ने इस परिस्थिति को समझा था । इसलिए वानप्रस्थ में वृद्धों के आश्रम में रहने की व्यवस्था बनाई, जिसमें वृद्ध जन , परिवार के मायामोह से दूर निकलें और वृहद समाज के कल्याण में सक्रिय हों । जो वृद्ध आज की स्थिति को जान-समझकर, किसी अलग स्तर पर सक्रिय हैं- वे बिल्कुल तनावग्रस्त या दुखी नहीं हैं । किंतु जो धन, मकान, जायदाद और परिवार के मोह में फंसे हुए हैं, उनका दुखी होना स्वाभाविक है । जो वृद्ध सामाजिक या राजनीतिक कार्यों में लगे हैं, उन्हें शिकायत करने का समय ही नहीं है ।
दुनिया में अनेक राजनेता हैं, जो वृद्ध हैं । यदि आप सोचें कि नेताओं को मिलने वाली सुविधाएं और सम्मान उन्हें प्रसन्न रखते हैं, तो ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं, जो राजनेता नहीं है, लेकिन बुढ़ापे में भी अपना जीवन अत्यंत उत्साह से जी रहे हैं । प्रसिद्ध ज्योतिषी कीरो ने अस्सी वर्ष की उम्र में फ्रेंच सीखना आरंभ किया । लोगों ने 
कीरो से पूछा, ' इस उम्र में इसका क्या लाभ ?' कीरो ने हंसकर जवाब दिया, ' माया-मोह , ईर्ष्या-द्वेष सीखने से तो फ्रेंच सीखना ही अच्छा है । महात्मा गाँधी व संत विनोबा अंतिम समय तक संस्कृत और उर्दू पढ़ते रहे। सिसरो ने 63 वर्ष की उम्र में अपना एक ग्रंथ पूरा किया और कहा, अब लग रहा है कि अपने पीछे दुनिया के लिए कुछ छोड़ रहा हूँ । अतिवृद्धावस्‍था को झेल रहे लोगों का जीवन हमारे सामने एक भयावह सच उपस्थित करता है, जिसे देखकर हम कांप से जाते हैं । हमारे बुजुर्गों की 50 से 70 वर्ष की उम्र तक के वर्ग के अनुभवों द्वारा अपने से बडों की सीख के महत्‍वपूर्ण होने से इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए इस उम्र के लोगों के अनुभव से लाभ उठाते हुए उनकी हर बात में से कुछ न कुछ सीखने की प्रवृत्ति व्‍यक्ति को विकसित करनी चाहिए । पर जब हम स्‍वयं 50 वर्ष के हो जाते हैं, तो बडों के समान हमारे विचारों का भी पूरा महत्‍व हो जाता है , हां 60 वर्ष की उम्र तक के व्‍यक्ति से उन्‍हें कुछ सीख अवश्‍य लेनी चाहिए। पर 60 वर्ष की उम्र के बाद धर्म , न्‍याय आदि गुणों की प्रधानता उनमें दिख सकती है , पर सांसारिक मामलों की सलाह लेने लायक वे नहीं होते हैं।पर जब उम्र बढती हुई 70 वर्ष के करीब या पार कर जाती है , तो व्‍यक्ति के स्‍वास्‍थ्‍य के साथ ही साथ उसकी मानसिकता बहुत अधिक बदल जाती है। इन अतिवृद्धों के शारीरिक या मानसिक कमजोरियों के बोझ को न उठाना हमारी कायरता ही मानी जाएगी। आखिर बचपन में उन्‍होने हमें उससे भी अधिक लाचार स्थिति में संभाला है। ऐसे बुजुर्गों को उनके किसी रूचि के कार्य में उलझाए रखना अति उत्‍तम होता है। पर यदि वे कुछ करने से भी लाचार हो , तो उनका ध्‍यान रखना हमारा कर्तब्‍य है। यदि वे दिन भर सलाह देने का काम करते हों , जिनकी आज कोई आवश्‍यकता नहीं , तो बेहतर होगा कि हम एक कान से उनकी बात सुने और दूसरे ही कान से निकाल दें , पर किसी प्रकार की बहस कर उनका मन दुखाना उचित नहीं है , बस उनकी आवश्‍यकता की पूर्ति करते रहें , वे खुश रहेंगे !!वैदिक काल में सौ वर्ष की आयु को अच्छी आयु समझा जाता था । इसीलिए सौ वर्ष की आयु की कामना व्यक्त की गयी है, वह भी पूर्ण कायिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के साथ । वैदिक काल से ही मनुष्य जीवन में यह इच्छा व्यक्त की गयी है कि हमें पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सौ वर्ष का जीवन मिले, और यदि हो सके तो सक्षम एवं सक्रिय इंद्रियों के साथ जीवन उसके आगे भी चलता रहे ।
ऋग्वेद में भी उपर्युक्त आाशय वाली ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं ।
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
(ऋग्वेद मंडल 1, सूक्त 89,
उपर्युक्त ऋचा का भावार्थ:-- हे देववृंद, हम अपने कानों से कल्याणमय वचन सुनें । जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं (यजत्राः) ऐसे हे देवो, हम अपनी आंखों से मंगलमय घटित होते देखें । नीरोग इंद्रियों एवं स्वस्थ देह के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए (तुष्टुवांसः) हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे हितार्थ (देवहितं) सौ वर्ष अथवा उससे भी अधिक जो आयु नियत कर रखी है उसे प्राप्त करें (व्यशेम) । तात्पर्य है कि हमारे शरीर के सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहें और हम सौ या उससे अधिक लंबी आयु पावें ।

वृद्धावस्था कोई अपराध नहीं है । अपितु झुर्रियों से भरे चेहरे और हाथों में भी एक आकर्षक सौंदर्य होता है । आशीर्वाद का उठा हाथ ही युवकों के लिए पर्याप्त है । आगे की पीढ़ी अपना कर्तव्य करती है या नहीं, इसकी चिंता आप क्यों करते हैं । हर व्यक्ति अपने कर्म आप ही भुगतता है । अतएव मेरा यही मानना है कि आज के सामाजिक परिवेश में वृद्ध आश्रम व्यवस्था उचित नहीं है |