Monday, July 3, 2017

जो सामने है उसकी अनदेखी करना

इसका भान तो मुझे था अवश्य किन्तु इस ओर ध्यान कभी नहीं गया। यह तो, गए दिनों, लगातार तीन बार ऐसा हुआ कि इस ओर ध्यान चला गया।
 
इस बरस या तो विवाह अधिक हुए या फिर हम लोगों को न्यौते अधिक मिले। सब के सब ऐसे के किसी को टाल पाना सम्भव नहीं था। लिहाजा,  हम दोनों, पति-पत्नी, ने अपनी-अपनी पसन्द से आयोजन छाँट लिए। इस तरह हम दो लोगों ने 6 आयोजनों में उपस्थित रहने का व्यवहार निभा लिया। किन्तु हम दोनों को, अपने-अपनेवाले तीनों आयोजनों में एक ही सवाल का सामना करना पड़ा। मेरी उत्तमार्द्धजी से पूछा गया - ‘दादा नहीं आए?’ और मुझसे पूछा गया - ‘भाभीजी को नहीं लाए?’ मेरी उत्तमार्द्धजी तो कहीं कुछ नहीं बोली लेकिन, तीसरी बार जब  मुझसे पूछा गया तो चुप नहीं रहा गया। मैंने कहा - ‘भैया! जो सामने खड़ा है उसकी पूछ-परख तो गई भाड़ में और जो नहीं आया है, उसकी तलाश कर रहे हो? मेरा अकेला आना अच्छा नहीं लग रहा हो तो वापस चला जाऊँ?’ मेजबान झेंप गया। बोला - ‘अरे! कैसी बात कर दी आपने? आपका आना अच्छा नहीं लगता तो आपको बुलाते ही क्यों? लेकिन भाभीजी भी आते तो और अच्छा लगता।’
 
इसी कारण इस ओर ध्यान गया। जो सामने है, उसकी अनदेखी करना और जो सामने है ही नहीं, उसकी पूछ-परख, तलाश, प्रतीक्षा करना। यह क्या है? क्यों है?
 
शायद यह मनुष्य स्वभाव ही है या कि यही मनुष्य स्वभाव है - जो हाथ में है, उसकी अनदेखी कर, जो हाथ में नहीं है, उसकी तलाश करना। यह, कुछ अतिरिक्त प्राप्त करने का लालच है या मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति? या, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं?
 
सयानों से सुनता आया हूँ कि मृत्यु मनुष्य की सहोदर है। मनुष्य के जन्म लेते ही उसकी मृत्यु सुनिश्चित हो जाती है। प्रति पल, उसके सर पर मँडराती, उसके साथ-साथ चलती है। किन्तु अब लग रहा है कि केवल मृत्यु ही नहीं, दुःख भी मनुष्य का सहोदर है। इसीलिए, मनुष्य आजीवन मृत्यु से कन्नी काटता रहता है और सुख की तलाश में खुद को झोंके रखता है। सुख की तलाश की यह आदिम प्रवृत्ति ही मनुष्य के दुःखों का मूल है। अन्यथा, सुख-दुःख तो मानसिक अवस्थाओं के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं! ‘दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना’ की तर्ज पर दुःख में भी सुख को तलाशा जा सकता है और सुखी रहा जा सकता है। इसी के समानान्तर कहा जाता है कि दुःखी होने के लिए मनुष्य को किसी और की आवश्यकता नहीं होती। इसका विलोम सूत्र अपने आप ही सामने आ जाता है - मनुष्य चाहे तो परम् सुखी रह सकता है। बात वही है - मनःस्थिति की। जिस तरह ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार’ होती है। उसी तरह मानो तो दुख ही दुख और मानो तो सुख ही सुख।
 
यह मनःस्थिति ही तो है कि टेकरी पर बनी फूस की अकेली टपरिया में आदमी घोड़े बेच कर सो लेता है और अट्टालिकाओं/प्रासादों में, गुदगुदे बिस्तरों पर लेटे आदमी को, सोने के लिए नींद की गोलियाँ खानी पड़ती हैं। मनुष्य ने भले ही गरीबी और अमीरी के भौतिक पैमाने बना लिए हों किन्तु हमारा ‘लोक’ तो इन्हें भी मनःस्थिति ही मानता है। कोई साढ़े चार बरस पहले की मेरी इस पोस्ट के तीसरे हिस्से में लिखी मालवी लोक कथा ‘गरीब’ काफी-कुछ कह देती है।
 
किन्तु इसके समानान्तर एक सच और है - ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाला सच। उपदेश या सलाह तो होती ही है दूसरों के लिए! उस पर आचरण कर लिया तो वह ‘उपदेश’ या ‘सलाह’ का गुण नहीं खो देगी? इसी के चलते, मुझे आकण्ठ विश्वास है कि मैं भी सुखी नहीं रह पाऊँगा। अन्ततः हूँ तो एक सामान्य मनुष्य ही - सुख की तलाश में घूमने की आदिम प्रवृत्ति से संचालित।
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हर शब्द के , विचार के , क्रिया के दो पहलू होते है : सकारात्मक और नकारात्मक | दोनों के परिणाम भी ऐसे ही गुणधर्म वाले होते है |
''विरोध'' शब्द के साथ भी एसा ही है | विरोध जब सकारात्मक हो तो प्रशंसनीय होता है , सुधारवादी होता है , #लोकहित में होता है || इसका मकसद हंगामा नही अपितु वो तस्वीर(हालात) बदलना है , जो गलत है , बदरंग है ||
एसा विरोध राष्ट्र प्रेम के अधीन होता है , न्यायोचित होता है , सत्य के झंडे तले होता है | और जो लोकनायक है , सत्य प्रिय है , न्याय प्रिय है ,इस प्रकार के विरोध करते है | ये सुधारात्मक और सहयोगात्मक होता है ||
नकारत्मक विरोध .. विरोध के लिए विरोध है , एक अंध विरोध है जो उत्पन्न होता है , द्वेष , कटुता , और शत्रुता के वशीभूत होकर | ये दुष्ट जनो का आभूषण है | वो विरोध करते है इसलिए नही की सुधार चाहिए बल्कि इसलिए की वो आहत है .. अपने दंभ के कुचले जाने से , वो कुंठित है ,वो ईर्ष्या और प्रतिशोध की आग में जल रहे है | सामन्यात ये दुर्जन का सज्जन के लिए विरोध है ||
मोदी विरोधियो का विरोध दूजे प्रकार का है | ये आहत है , दुखी है , भले प्रकार से वामपंथ विस्तार की ओर था किन्तु मोदी आ गाया | षड़यंत्र रचा क्या करे ? उसकी कार्यशैली पर बोल नही सकते ,उसके चरित्र पर बोल नही सकते .. क्या करे ? विरोध करो .. अच्छे का भी और बुरे का भी ..कीचड उछालो भले ही खुद संद जाओ , कीचड में खड़े होकर कीचड उछालो ||
लेकिन क्या सूर्य के तेज को बादलो की कालिमा छिपा पायी है ?

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