Saturday, June 24, 2017

शायरी

कैलैंडर की तरह मह्बूब बदलते क्युं हैं
झूठे वादों से ये दिल बहलते क्युं हैं ?

अपनी मरज़ी से हार जाते हैं जुए में सल्तनत,
फ़िर दुर्योध्नो के आगे हाथ मलते क्युं हैं ?

औरों के तोड डालते हैं अरमान भरे दिल,
तो फ़िर खुद के अरमान मचलते क्युं हैं ?

दम भरते हैं हवाओं का रुख मोड देने का ,
फ़क़्त पत्तों के लरज़ने से ही दहलते क्युं हैं ?

खोल लेते हैं बटन कुर्ते के, फ़िर पूछ्ते हैं,
न जाने आस्तीनों मे सांप पलते क्युं हैं ?

नन्हा था इस लिए मां से ही पूछा ,
अम्मा ! ये सूरज शाम को ढलते क्युं हैं ?

वो कहते हैं नाखूनो ने ज़खम "दीया",
नाखूनों से ही ज़खम सहलते क्युं हैं ?

कभी कभी आईना भी झूठ कहता है
अकल से शक्ल जब मुकाबिल हो
पलडा अकल का ही भारी रहता है

अपनी खूबसूरती पे ना इतरा मेरे मह्बूब
कभी कभी आईना भी झूठ कहता है

जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है
मुर्दा है जो खामोश हो के जुल्म सहता है

काट देता है टुकडों मे संग-ए-मर्मर को
पानी भी जब रफ़्तार से बहता है.

ईशक़ में चोट खा के दीवाने हो जाते हैं जो
नशा उनपे ता उमर मोहब्बत का तारी रहता है

अकल से शक्ल जब मुकाबिल हो
पलडा अकल का ही भारी रहता है

सुनाते क्या हो वक़्त बदलने वाला है
देखते आये हैं सूरज निकलने वाला है ...

जो नहीं है अपना उस पर ध्यान क्यों है
जो है पास में वो कब तक रहने वाला है ...

बाज़ार में शौहरत का खिलौना लेकर घूमने वाले
यह नहीं जानते कब वह टूटके बिखरने वाला है ...

शहर के घरों की दीवारें बाहर से अच्छी लगती है
इसमे रहने वाले जानते है कांच बिखरने वाला है ...

मैनेँ बदलते दौर में यह रंग भी देखा है

मुसीबत में हर ख़ास रिश्ता चाल बदलने वाला है ...

Friday, June 23, 2017

क्या आपका आधार कार्ड इनऐक्टिव भी हो सकता है? तो जानिए कैसे करें चेक, बिना जानकारी के हो सकते हैं आप परेशान

दिल्ली, लोकहित एक्सप्रेस, (रघुबीर सिंह गाड़ेगाँवलिया) । क्या आप जानते हैं कि आपका आधार कार्ड इनऐक्टिव भी हो सकता है? जी हां, यह बात सही है। सरकार आधार कार्ड को धीरे-धीरे सभी सरकारी योजनाओं और आर्थिक गतिविधियों के लिए अनिवार्य करती जा रही है। इसी कड़ी में एक नया खुलासा हुआ है कि अगर किसी ने अपने आधार को लगातार तीन साल तक किसी भी सरकारी योजना या बैंकिंग से जुड़े कारोबार में इस्तेमाल नहीं किया तो वह निष्क्रिय हो सकता है। इकोनोमिक टाइम्स के मुताबिक यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई) की हेल्पलाइन और सूत्रों के अनुसार, अगर आपने तीन साल तक लगातार आधार का प्रयोग नहीं किया तो वह निष्क्रिय हो सकता है।
यानी अगर आपने आधार बनवाने के बाद लगातार तीन साल तक उसे न तो पैन कार्ड से जोड़ा और न ही बैंक से जोड़ा या किसी भी सरकारी सामाजिक कार्यक्रम के तहत उसे नहीं जोड़ा तो वह निष्क्रिय हो जाएगा। हालांकि, इससे घबराने की जरूरत नहीं है। अगर आपका आधार नंबर निष्क्रिय हो जाता है तो उसे दोबारा सक्रिय किया जा सकता है। इसके अलावा जिन लोगों को शक है कि उनका कार्ड सक्रिय है या निष्क्रिय तो ऐसे लोग यूआईडीएआई की वेबसाइट पर जाकर उसे ऑनलाइन चेक कर सकते हैं।
UIDAI की वेबसाइट के होमपेज पर जाएं और उसमें आधार सर्विसेज टैब मिलेगा। इसमें आपको 'वेरिफाई आधार नंबर' का ऑप्शन दिखेगा। 'वेरिफाई आधार नंबर' पर क्लिक करने के बाद नया पेज खुलेगा। इसके बाद आप अपना आधार नंबर और कैप्चा दर्ज करें। अब यदि हरे रंग में चेकमार्क आता है तो समझें कि आपका आधार कार्ड ऐक्टिव है।
अगर आपका कार्ड निष्क्रिय हो गया है तो आप सभी डॉक्यूमेंट लेकर नजदीकी आधार पंजीकरण केंद्र पर पहुंच जाएं। वहां आपसे आधार अपडेट फॉर्म भरवा जाएगा। उस के बाद बायोमिट्रिक मशीन से आपकी उंगलियों के निशान को वेरीफाई किया जाएगा। वेरिफिकेशन होते ही आपका आधार दोबारा सक्रिय हो जाएगा। इस प्रक्रिया के लिए सरकार ने 25 रुपये का शुल्क निर्धारित किया है। इस क्रम में आपके पास दर्ज मोबाइल नंबर होना जरूरी है। आप ऑनलाइन या डाक के द्वारा अपने निष्क्रिय पड़े आधार को रिऐक्टिवेट नहीं करा सकते हैं।

 http://www.lokhitexpress.com/?p=41076

रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार दलित जाति से हैं

रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार दलित जाति से हैं पर पेशे से अभिजात्य हैं. कोविंद बिहार के गवर्नर हैं और मीरा कुमार पिछली लोकसभा में स्पीकर थीं. इन दोनों का दलितों के सवाल उठाने, संघर्ष करने अथवा दलित स्वाभिमान के लिए लड़ने या अड़ने का कोई उदहारण नहीं है. मीरा कुमार पूर्व उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम की बेटी हैं तथा भारतीय विदेश सेवा से अपना करियर तय किया. उनकी पढाई-लिखाई देश के सबसे महंगे स्कूलों- वेल्हम स्कूल देहरादून और महारानी गायत्री देवी पब्लिक स्कूल जयपुर में हुई. इसके बाद दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कालेज और मिरांडा हाउस में उन्होंने आगे की
शिक्षा पूरी की और 1970 में वे आईएफएस सेवा में चुनी गईं.
राजनीति में मीरा कुमार 1985 में आईं जब उत्तर प्रदेश की बिजनौर लोक सभा सीट से उन्होंने दलित मजदूर किसान पार्टी के रामबिलास पासवान और बसपा की मायावती को हरा दिया. इसके बाद दो लोकसभा चुनाव उन्होंने दिल्ली की
करोलबाग रिजर्व सीट से जीते लेकिन 1999 की भाजपा की आंधी में वे हार गईं. तब वे अपने पिता की परम्परागत सीट सासाराम लौट गईं और 2004 तथा 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें सफलता मिली पर 2014 में मोदी की आंधी बड़ों-बड़ों को बहा ले गई और वे भी चपेट में आ गईं. भाजपा के छेदी पासवान ने उन्हें करीब 68000 वोट से हरा दिया. तब से वे गुमनामी के अँधेरे में थीं पर अब अचानक कांग्रेस द्वारा उनका नाम बतौर राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर देने से वे फिर चर्चा में आ गईं. 2004 में तब की मनमोहन सरकार ने उन्हें महिला और सामाजिक अधिकार मंत्री बनाया था तथा 2009 में वे निर्विरोध लोकसभा अध्यक्ष चुनी गईं थीं.
मीरा कुमार का नाम कांग्रेस ने तब प्रस्तावित किया जब भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए ने बिहार के मौजूदा राज्यपाल रामनाथ कोविंद को अपना राष्ट्रपति प्रत्याशी बना दिया. यह भी दिलचस्प है कि मीरा कुमार की सपोर्ट में जहाँ एक तरफ सपा और बसपा ने तो हाथ मिला लिए मगर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार छिटक गए वहीँ कोविंद के नाम पर पूरी एनडीए एकजुट है. जबकि एनडीए को कुल 48 हज़ार वोटों की और दरकार है. तेलंगाना के चंद्रशेखर राव और अन्नाद्रमुक का पन्नीरसेल्वम गुट पहले से ही एनडीए प्रत्याशी को सपोर्ट कर रहा है अब नीतीश द्वारा कोविंद को सपोर्ट कर देने से कोविंद की जीत की बाधाएं लगभग समाप्तप्राय हैं.
रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार में समानताएं ये हैं कि दोनों का ही जन्म दलित जाति में हुआ और दोनों ने कानून की डिग्री ली. मजे की बात कि दोनों की उम्र भी सामान है. मीरा कुमार वर्ष 1945 की 22 जून को पैदा हुईं तो कोविंद उसी साल एक अक्टूबर को. कोविंद ने कानपुर विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री लेने के बाद दिल्ली आ गए और सिविल सर्विसेज की तय्यारी करने लगे. तीसरे प्रयास में वे आईएएस के लिए चुन लिए गए मगर तब उनका इरादा बदल गया और वे बजाय कलेक्टरी करने के दिल्ली हाई कोर्ट में वकालत करने लगे. 1978 में वे सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऑन रिकार्ड हो गए और की वर्ष तक केंद्र सरकार के वकील भी रहे. वे 1977-78  के बीच प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के निजी सहायक भी रहे. श्री कोविंद ने 1991 में भाजपा ज्वाइन की और 1998 से 2002 के बीच वे भाजपा दलित मोर्चा के अध्यक्ष भी रहे. वे अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष भी रहे और कानपुर देहात के डेरापुर क़स्बा स्थित अपने पुश्तैनी मकान को आरएसएस को सौंप दिया. इसी बीच वे घाटमपुर से लोकसभा और भोगनीपुर से विधानसभा का चुनाव लादे और हारे. बाद में 1994 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया जहाँ वे 2006 तक दो बार लगातार रहे. 27 अगस्त 2015 को उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया.
मीरा कुमार और कोविंद दोनों की पृष्ठभूमि अभिजात्य है. दलित जाति में पैदा होने के अलावा इन दोनों ही लोगों ने शायद ही दलितों की पीड़ा को महसूस किया होगा. दोनों को सफलता पलक पांवड़े बिछाए मिली. मगर मजा यह है कि दोनों ने ही दलित जाति में पैदा होने का हर सुख उठाया. आज मीडिया में और राजनीति दोनों की दलित राजनीति छाई है. और अपनी इसी दलित राजनीति के चलते दो में से कोई भारत की इस सर्वोच्च कुर्सी पर बैठेगा. मीरा कुमार के पास उतने वोट नहीं हैं जितने भाजपा के कोविंद के पास हैं. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कांग्रेस चुप साध जाए. भाजपा ने राष्ट्रपति के पद की गरिमा को दरकिनार कर जाति का कार्ड खेला है. अभी तक किसी भी पार्टी ने इस आधार पर अपना राष्ट्रपति प्रत्याशी नहीं उतारा कि वह अमुक जाति या संप्रदाय का है. इसके पहले केआर नारायणन दलित जाति के थे. पर उनकी उम्मीदवारी पर तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार ने दलित कार्ड नहीं भुनाया था पर भाजपा ने तो कोविंद को अपना प्रत्याशी घोषित करते हुए उनकी जाति का विशेष उल्लेख किया.
इसलिए कांग्रेस को भी भाजपा के इस दलित कार्ड की काट के लिए दलित कार्ड खेलना पड़ा. कांग्रेस अगर चुप रहती तो
मेसेज यह जाता कि कांग्रेस दलित हितैषी नहीं है. गेंद अब साझा विपक्ष के पास है कि वह एक मत से कांग्रेस के दलित को चुनेगा या टूट-फूट कर भाजपा के उम्मेदवार को जीतने का मौका देगा. दलित नेता नहीं एक विचारधारा है जिसका मतलब कि हम गरीब, वंचित और कमजोर तबके के लिए लड़ने का ज़ज्बा पैदा करें या उन लोगों को जीतने का मौका दें
जिनके लिए दलित बस एक जाति है. यह अब हर एमपी और एमएलए को सोचना होगा.

प्रेस और पत्रकार की स्वतंत्रता

आधुनिक तकनीक ने समाचार-पत्रों तथा दूसरे संचार माध्यमों की क्षमता बढ़ा दी है, लेकिन क्या वास्तव में पत्रकारों की कलम ऐसा कुछ लिखने के लिए स्वतंत्र है, जिससे समाज और देश का भला हो? आज जब हम समाचार-पत्र की आजादी की बात कहते हैं, तो उसे पत्रकारों की आजादी कहना एक भयंकर भूल होगी। आधुनिक तकनीक ने पत्रकार के साथ यही किया है, जो हर प्रकार के श्रमिक-उत्पादकों के साथ किया है। मौजूदा हालात ऐसे है कि पत्रकार की कलम अखबार मलिकों की गुलाम बनकर रह गई है।
दरअसल, 3 मई को प्रेस की आजादी को अक्षुण्ण रखने के लिए विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। हम विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस ऐसे समय मना रहे हैं, जब दुनिया के कई हिस्सों में समाचार लिखने की कीमत पत्रकारों को जान देकर चुकानी पड़ रही है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना होता है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस का अपना ही महत्व है। इससे प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है और आर्थिक विकास को बल मिलता है, लेकिन समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाले प्रेस और पत्रकारों की स्थिति बहुत संतोषजनक भी नहीं है। खासकर भारत देश में पत्रकारों की हालत ज्यादा ही खराब है। महानगरों में काम करने वाले पत्रकार जैसे-तैसे आर्थिक रूप से संपन्न है, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम वाले पत्रकारों की दशा आज इतनी दयनीय है, कि उनकी कमाई से परिवार के लोगों को दो वक्त का खाना मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उन पर खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट के मुताबित पिछले साल विभिन्न देशों में 70 पत्रकारों को जान गंवानी पड़ी, वहीं 650 से ज्यादा पत्रकारों की गिरफ्तारी हुई। इसमें से ज्यादातर मामलों में सरकार व पुलिस ने घटना की छानबीन करने के बाद दोषियों को सजा दिलाने की बड़ी-बड़ी बातें की, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला। कुछ दिनों तक सुर्खियों में रहने के बाद आखिरकार मामले को पुलिस ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। कुछ माह पहले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सरेराह एक पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई, वहीं छुरा के एक पत्रकार को समाचार छापने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। इन सब मामलों का आखिर क्या हुआ? इसका जवाब पुलिस व सरकार के पास भी नहीं है। इसीलिए अक्सर पत्रकारों के साथ हुई घटनाओं में कार्रवाई के सवाल पर नेता व पुलिस अधिकारी निरूत्तर होकर बगले झांकने लगते हैं।
फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट के मुताबित वैश्विक स्तर पर प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। यह गिरावट केवल कुछ क्षेत्रों में नहीं, बल्कि दुनिया के हर हिस्से में दर्ज की गई है। फ्रीडम हाउस पिछले तीन दशकों से मीडिया की स्वतंत्रता का आंकलन करता आया है। उसकी ओर से हर साल पेश किया जाने वाला वार्षिक रिपोर्ट बताता है कि किस देश में मीडिया की क्या स्थिति है। प्रत्येक देश को उसके यहां प्रेस की स्वतंत्रता के आधार पर रेटिंग दी जाती है। यह रेटिंग तीन श्रेणियों के आधार पर दी जाती है। एक, मीडिया ईकाइयां किस कानूनी माहौल में काम करती हैं। दूसरा, रिपोर्टिग और सूचनाओं की पहुंच पर राजनीतिक असर। तीसरा, विषय वस्तु और सूचनाओं के प्रसार पर आर्थिक दबाव। फ्रीडम हाउस ने पिछले वर्ष 195 देशों में प्रेस की स्थिति का आकलन किया है, इनमें से केवल 70 देश में ही प्रेस की स्थिति स्वतंत्र मानी गई है, जबकि अन्य देशों में पत्रकार, प्रेस के मालिक के महज गुलाम बनकर रह गए हैं, जिनके पास अपने अभिव्यक्ति को समाचार पत्र में लिखने की स्वतंत्रता भी नहीं हैं।

आज समाज के कुछ लोग आजादी के पहले और उसके बाद की पत्रकारिता का तुलना करते हैं। वे कहते हैं कि पहले की पत्रकारिता अच्छी थी, जबकि ऐसा कहना सरासर गलत होगा। अच्छे और बुरे पत्रकार की बात नहीं है, आज आधुनिक तकनीक के फलस्वरूप पत्रकारिता एक बड़ा उद्योग बन गया है और पत्रकार नामक एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है। हालात ऐसे बन गए हैं कि दूसरे बड़े उद्योगों को चलाने वाला कोई पूंजीपति इस उद्योग को भी बड़ी आसानी से चला सकता है या अपनी औद्योगिक शुरुआत समाचार-पत्र के उत्पादन से कर सकता है। इस उद्योग के सारे कर्मचारी उद्योगपति के साथ-साथ पत्रकार हैं। यहां पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में प्रेस स्वतंत्र है? इसके जवाब में यही बातें सामने आती हैं कि न तो आज प्रेस स्वतंत्र है और न ही पत्रकार की कलम। हकीकत यह है कि पत्रकार की कलम आज प्रेस मालिकों की गुलाम बनकर रह गई है। आज कोई पत्रकार यह दावा नहीं कर सकता है कि वह जिस हकीकत को लिखता हैं उसे छापने का हक उनके पास है! यदि हकीकत यही है तो फिर किस बात की स्वतंत्रता और किस लिए प्रेस स्वतंत्रता दिवस? बहरहाल, विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत है, तभी प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाना सार्थक होगा।

आज देश आजाद है और पत्रकार गुलाम।

कल देश गुलाम था पत्रकार आजाद, लेकिन आज देश आजाद है और पत्रकार गुलाम। देश में गुलामी जब कानून था तो पत्रकारिता की शुरुआत कर लोगों के अंदर क्रांति को पैदा करने का काम हुआ। आज जब हमारा देश आजाद है तो हमारे शब्द गुलाम हो गए हैं। कल जब एक पत्रकार लिखने बैठता था तो कलम रुकती ही नहीं थी, लेकिन आज पत्रकार लिखते-लिखते स्वयं रुक जाता है, क्योंकि जितना डर पत्रकारों को बीते समय में परायों से नहीं था, उससे ज्यादा भय आज अपनों से है।

गुलाम देश में अंग्रेजों का शासन था; तब कागज-कलम के जरिए कलम के सिपाही लोगों को यह बताने को आजाद थे कि गुलामी क्या है और लोग इससे किस प्रकार छुटकारा पा सकेंगे। पर आज अगर सरकार या व्यवस्था से कोई परेशानी है तो उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा पाता और कोशिश करने पर निजी जरूरतों का आगे कर कलम की ताकत को खरीदने की कोशिश की जा रही है। बीते समय पत्रकारिता के प्रति लोग शौक से जुड़ते थे लेकिन आज यह शौक जरूरत का रूप ले चुकी है और व्यवसाय की परिपाटी का फलीभूत कर रही है। आज एक जुनूनी पत्रकार जब किसी खबर को उकेरता है तो वह खबर उच्च अधिकारियों व अन्य के पास से गुजरते हुए समय के बीतते क्रम में मरती जाती है या फिर लाभ प्राप्ति की मंशा के नीचे दब जाती है। ऐसे में जुनून के साथ अपने कार्य को निभाने वाला पत्रकार भी मेहनत पर पानी फिरता देख, केवल खबर बनाने का कोरम पूरा कर पैसा कमाने में जुट जाता है।

पत्रकारिता के इस बदलते स्वरूप का जिम्मेदार केवल पत्रकार का स्वभाव और उसकी जरूरतें ही नहीं है वरन्‌ इसका असली जिम्मेदार हमारा आज का पाठक वर्ग भी है। जो इस बदलते परिवेशके साथ इतना बदल गया है की उसने समाचार पत्र और पत्रकारों के शब्दों को एक कलमकार की भावनाओं से अलग कर दिया है। इसी का नतीजा है कि आज पत्रकार अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं लिख सकता है क्योंकि वह अपने पाठक का गुलाम होता है और उसे वही लिखना पड़ता है जो उसका पाठक चाहता है। इससे अलग अगर कोई पत्रकार अपनी जीवटता दिखाते हुए खबर से तथ्यों को उजागर करने का मन बनाता भी है तो वह खबर समाचार पत्र समूह के उसूलों और विज्ञापनों की बोली की भेंट चढ़कर डस्टबीन की शोभा बढ़ाती है। अगर इन बातों की छननी से वह खबर छन कर मूल बातों समेत बच जाती है तब कहीं जाकर वह खबर पेज पर अंकित हो पाती है।ऐसे में उक्त पत्रकार भगवान को धन्यवाद देता है कि चलों खबर छप गयी, पर इस खबर के प्रति पत्रकार की ईमानदारी और मेहनत पीछे छूट जाती है और उसकी जगह संपादक व उच्च अधिकारी की प्रतिबद्धता ले लेती है।
आज की पत्रकारिता पर बाजार और व्यवसाय का दबाव बढ़ गया है। जिस कारण लोगों को जागरूक करने की अपनी आधारशिला से ही मीडिया भटक चुकी है और पेड न्यूज का रूप लेती जा रही है।मीडिया में 'पेड न्यूज' का बढ़ता चलन देश एवं समाज के लिए ही नहीं अपितु पत्रकारिता के लिए भी घातक है। 'पेड न्यूज' कोई बीमारी नहीं बल्कि बीमारी का लक्षण है। इसका मूल कहीं और है। इस दिशा में सकारात्मक रुप से सोचने की आवश्यकता है। मीडिया समाज का एक प्रभावशाली अंग बन गया है लेकिन आज इस आधार स्तंभ पर पूंजीपतियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जो देश एवं समाज के लिए घातक है।

आज की मीडिया समाज को इस कदर प्रभावित कर चुकी है कि वह चाहे किसी को भी राजा और रंक की श्रेणी में खड़ी कर सकती है। लेकिन विडम्बना यह है कि इतनी शक्ति होने बाद भी मीडिया को हर ओर से आलोचना ही सुननी पड़ती है क्योंकि उसकी दिशा भ्रमित है या फिर ये कहा जाये कि वह नकारात्मकता को ही आत्मसात कर चुकी है। हाल फिलहाल की घटनाओं पर नजर दौड़ाये तो गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे सबसे मजबूत पक्ष के रूप में उभरते हैं पर वास्तविकता कुछ और ही है। भ्रष्टाचार के मुददे को लेकर अनशन करने वाले अन्ना मीडिया की विशेष कृपा के आधार पर "भ्रष्टाचार' जैसे प्रमुख मुद्‌दे से काफी बड़े हो गये। उनके अनशन के एक दिन पहले दिल्ली स्थिति जंतर मंतर के पास इलेक्ट्रानिक मीडिया के 74 ओ.वी. वैन के रेले इकट्‌ठा हो गये,जैसे उस दिन प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने वाले हों। मीडिया के इस विशिष्ट मेहमान नवाजी के कारण ही आज गली-गली में अन्ना की धूम मची हुई है। आखिर कौन है यह अन्ना हजारे, क्या कोई महात्मा है? देवदूत है? या फिर सरकार के सामानांतर शक्ति रखने वाले बंदा है? जो देश के लोगों को उसके पीछे चलने की बातें करता है और देश आंख मूदे उसके साथ हो लेती हैं। देश की आम जनता तो चलों सरकार के निकम्मेपन से त्रस्त थी और बदलाव की बयार के साथ बह चली पर बुद्धिजीवियों का गढ़ कही जाने वाली मीडिया भी अन्नामय हो चली थी कि जैसे इसमें मीडिया कर्मियों का अपना स्वार्थ निहीत हो।

कहने को तो पत्रकारिता देश का चौथा स्तम्भ है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिकाजैसे देश के महत्वपूर्ण स्तंभों पर नजर रखने का कार्य करने वाली खबर पालिका आज अपने मूल कार्य से विमुख हो चुकी है। अपने प्रारम्भ में मिशन के तहत लोगों के बीच अपनी भूमिका कानिर्वाह करने वाली पत्रकारिता समय के साथ बदलते हुए प्रोफेशन के रूप में भी परिवर्तित हुई। परिवर्तन का यह दौर यहीं नहीं थमा, वर्तमान समय में पत्रकारिता का स्वरूप कमीशन के तौर पर उभरा है। ऐसे में आज की पत्रकारिता को किसी भी तरह से पूर्व के मिशन और एम्बीशन के साथ जोड़ कर देखना सही नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और मीडिया भी उसी का पालन कर रही है। स्पेक्ट्रम घोटाले बाद तो पत्रकारिता और पत्रकार होने का मतलब भी बदल गया था। अक्सर मजाक के बीच गंभीर मुद्रा में यह कहा जाता कि नीरा राडिया जैसे कारपोरेट लाबिस्टों से संबंध रखने वाले ही बड़े पत्रकारों की श्रेणी में आते हैं। कल का यह मजाक अब लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी हो गया है, खबरों के अन्वेषण की जगह उसे खरीदने-बेचने का काम चल निकला है।

वर्तमान की पत्रकारिता को परिभाषित किया जाना हो तो उसे मानवीय संवेदनाओं को बेचने के अनवरत क्रम को शिद्‌दत से फैलाने का उपक्रम की संज्ञा दी जा सकती है। समाचार पत्र हो या फिर खबरिया चैनल सबमें आपस में टीआरपी की जंग छिड़ी हुई है, जिसके चलते सामाजिक सरोकारों से अलग केवल सामाजिक विषमता को फलने-फूलने का मौका मिल रहा है। शक्ति का दंभ और स्वयंभू होने के भाव ने आज मीडिया को सामाजिक प्रहरी के स्थान पर निर्णायक की भूमिका में दिखती प्रतीत होती हैं। मीडिया के इस चलन ने खबरों के प्रति पाठकों के नजरिये को बदल दियाहै। अब पाठकों के बीच मीडिया सूचना देने के बजाय अपना विचार परोसने में लगी हुई है।

मूलतः पत्रकारिता की प्रक्रिया ऐसी होती है जिसमें तथ्यों को समेटने, उनका विश्लेषण करने फिर उसके बाद उसकी अनुभूति कर दूसरों के लिए अभिव्यक्त करने का काम किया जाता है। ऐसे में इसका परिणाम दुख, दर्द, ईष्या,प्रतिद्वंद्धिता, द्वेष व असत्य को बांटना हो सकता है अथवा सुख,शांति, प्रेम, सहनशीलता व मैत्री का प्रसाद हो सकता है। कौन सा विकल्प चुनना है यह समाज को तय करना होता हैं। वर्तमान में इन विषयों का गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है, जिसके आधार पर एक वैकल्पिक पत्रकारिता के दर्शन की प्रस्तुति पूरी मानवता को दी जाए। यह इसलिए क्योंकि वर्तमान मीडिया ऐसे समाज की रचना करने में सहायक नहीं है। पत्रकारिता की यह कल्पना बेशक श्रेष्ठ पुरुषों की रही हो परन्तु इसमें हर साधारण मानव की सुखमय और शांतिपूर्ण जीवन की आकांक्षा के दर्शन होते हैं। वर्तमान में पत्रकारिता एक संक्रमण के दौर से गुजर रही है।इस क्षेत्र में सुधार के लिए स्तरीय प्रशिक्षण और व्यापक अनुसंधान की जरुरत है। समाज और राष्ट्रहित में मीडिया को विरोध की सीमा और समर्थन की मर्यादा निर्धारित करनी चाहिए। उदारीकरण के कारण बाजारवाद का प्रभाव बढ़ा है। पत्रकारिता भी इससे मुक्त नहीं है, लेकिन स्थिति पूरी तरह निराशाजनक नहीं है। यह संक्रमणकाल है। अच्छाई और बुराई के इस संक्रमण में अन्ततः अच्छाई की विजय होगी, इसके लिए अच्छाई के पक्षधरों को मुखर होना पड़ेगा।

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एक स्वस्थ लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस का अपना ही महत्व है। इससे प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है और आर्थिक विकास को बल मिलता है, लेकिन समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाले प्रेस और पत्रकारों की स्थिति बहुत संतोषजनक भी नहीं है। तेजी से बढ़ते विज्ञापनवाद के कारण आज प्रेस की स्वतंत्रता के मायने पूरी तरह से बदल गए हैं।
3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रेस व पत्रकारों के लिए बहुत खास दिन होता है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना होता है। मगर आधुनिक तकनीक और विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया ने प्रेस व पत्रकारों की स्वतंत्रता के मायने ही बदल कर रख दिए हैं। कुछ दशक पहले पत्रकार समाज में जो कुछ देखता था, उसे लिखता था और उसका असर भी होता था, लेकिन आज पत्रकारों के पास अपने विचार व आंखों देखी घटना को लिखने का अधिकार भी नहीं है। यदि पत्रकार कुछ लिखना भी चाहे, तो पहले उसे अपने संपादक व प्रबंधन के लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। इसके बाद भी उस पत्रकार द्वारा लिखे खबर के प्रकाशित होने की कोई गारंटी नहीं है। यदि खबर किसी विज्ञापनदाता के खिलाफ हो तो, खबर छपने की गुंजाईश ही नहीं है। आज हम भले ही प्रेस को स्वतंत्र मान रहे है, लेकिन इसमें कितनी फीसदी सच्चाई है, इसे हम भली-भांति जानते हैं। आधुनिक तकनीक के कारण आज पत्रकारिता एक बड़े उद्योग का रूप ले चुका है। देश में ऐसे कई धन्ना सेठ हैं, जो अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए प्रेस को ढ़ाल बनाए बैठे हैं। कुछ लोग तो अपने रूतबे को कायम रखने के लिए प्रेस का संचालन कर रहे हैं। ऐसे प्रेस में काम करने वाले पत्रकार की क्या अहमियत होगी और वह कितना स्वतंत्र होगा, इसका अंदाजा लगाना बहुत आसान है। बदलते परिवेश में आज पत्रकार कहलाने वाले एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है, जो हर महीने पगार लेकर अपने कलम की धार को धन्ना सेठों के पास बेचने के लिए मजबूर है। आखिर ऐसा करना पत्रकारों की मजबूरी भी तो है, क्योकि पत्रकारिता का रोग यदि किसी को एक बार लग जाए, तो उसे केवल लिखने-पढ़ने में ही मजा आता है। इसी बात का ही प्रेस के मालिक फायदा उठाते है और पत्रकारों को उनके हाथों की कठपुतली बनकर काम करना पड़ता है। यदि पत्रकार कभी अपनी मर्जी से कोई खबर लिख दे और उसे छापने के लिए प्रेस पर दबाव डाले, तो समझो उसकी नौकरी गई। बड़े शहरों के पत्रकारों की हालत अच्छी है, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम वाले पत्रकारों की दशा इतनी दयनीय है, कि उनकी कमाई से परिवार को दो वक्त रोटी मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उन पर खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। मौजूदा हालत में सबसे ज्यादा उन पत्रकारों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है, जो समाज की हकीकत को लिखने का दम रखते है, जबकि बिना कुछ लिखे-पढ़े पत्रकार कहलाने वाले छुटभैये लोगों की तो हर तरफ चांदी ही चांदी है। ऐसे लोगों की प्रेस मालिकों के साथ खूब जमती है। दरअसल वे मलाई बटोरकर अपने मालिक तक पहुंचाते जो हैं।

पत्रकारों को सुविधा देने तथा आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में सरकार भी गंभीर नहीं है। रेल में सफर करने के लिए सरकार ने पत्रकारों को थोड़ी बहुत छूट दी है, मगर इसके लिए भी अधिमान्यता का कार्ड होना जरूरी है। जबकि सरकार इस बात को भी अच्छी तरह से जानती है कि ज्यादातर प्रेस के संपादक अधिमान्यता कार्ड के लिए अपने पत्रकारों को अनुभव प्रमाण पत्र बनाकर नहीं देते। ऐसे में सरकारी छूट का सभी पत्रकारों को फायदा ही क्या? सोंचने वाली बात तो यह है कि जिस बैंक व वाहन व्यवसायी की खबर को पत्रकार आए दिन छापता है, वही लोग पत्रकार को लोन देने के लिए भी हाथ खड़े कर देते हैं। लोन के लिए पत्रकार के निवेदन करने पर ऐसे लोग नियमों की दुहाई देते है और यह भी कहते है कि पत्रकारों को लोन देने के लिए उनके उपरी प्रबंधन से कोई निर्देश नहीं है। ऐसा सुनकर काफी आश्चर्य लगता है। तकलीफ तो उस समय ज्यादा होती है जब बैंक में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को आसानी से लोन दे दिया जाता है और वही पत्रकार खड़ा मुंह ताकता रहता है। पत्रकारिता क्षेत्र आज इतनी खराब हो गई है कि बहुत कम लोग पत्रकार बनने की इच्छा रखते है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर एक पत्रकार बनकर मुझे क्या मिला, क्योंकि पत्रकारिता का भूत सवार होने के बाद मेरे हालात दिनों दिन बद से बदतर जो हो गए हैं। मगर जब मैं गहराई से सोंचता हूं कि पत्रकार बनने के बाद भले ही मुझे कुछ मिला या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन कम से कम मैं समाज की गंदगी को साफ करने की कोशिश तो कर रहा हूं। खैर लिखने को तो तमाम बातें है, लेकिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करना होगा।


Thursday, June 22, 2017

पत्रकारिता की शुरुआत अन्य समाजों से भिन्न परिस्थितियों और परिवेश में हुई।

भारत में पत्रकारिता की शुरुआत अन्य देश-समाजों से भिन्न परिस्थितियों और परिवेश में हुई। भारत में राष्ट्रीय नवजागरण आंदोलन और पत्रकारिता साथ-साथ चले और विकसित हुए हैं। दोनों का ही इतिहास बाधा-व्यवधान और संघर्षों से भरा रहा है। देश में जिन जेम्स आगस्टस हिकी ने अपने साप्ताहिक गजट के साथ पत्रकारिता के प्रभावी उपक्रम का सूत्रपात किया, वह व्यापारी से हुक्मरान बनी ईस्ट इंडिया कंपनी के आला अफसरों की मनमानी और लूट के विरुध्द हुआ था। हिकीज गजट उन तथ्यों को प्रकट कर रहा था जिन पर हुक्मरान परदा डाले रखना चाहते थे। इन्हीं कारणों से हिकी की प्रताड़ना और बलात देश-वापसी का दंड भुगतना पड़ा। पत्रकारिता का पहला सबक यही है कि हुकूमत/व्यवस्था की काली करतूतों को उजागर करने का जोखिम उठाना पत्रकार का फर्ज है और उसके लिये कोई भी कीमत चुकाना पुरस्कार है। अब उन प्रवृत्तियों पर नजर डालें जिन्होंने भारतीय पत्रकारिता की बुनियादी रची है। नवजागरण आंदोलन का एक आयाम राजनीतिक स्वतंत्रता का संग्राम रहा है। दूसरा आयाम फिरंगियों द्वारा भारत के नैसर्गिक संसाधनों की लूट और भारतीय शिल्प-कौशल का गला घोंटने की दुनीतियों के खिलाफ संघर्ष करना रहा है। तीसरा आयाम समाज सुधार के बहुविध अभियान और आंदोलन चलाना रहा। चैथा आयाम आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा से समाज को जोड़ना रहा है। जब हम भारतीय पत्रकारिता के उस कालखंड का अध्ययन करते हैं जो 1780 से आरंभ होकर 1947 तक पहुंचता है, तब यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय नवजागरण के चारों आयामों के चिंतक और महान सेनानी पत्रकारिता के भी पुरोधा रहे हैं। उन्होंने अपने अभियानों को जन-जन तक पहुंचाने के लिये या को स्वयं पत्र-पत्रिकाओं का संपादन-प्रकाशन किया अथवा प्रकाशित हो रहे पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लिखा। जाहिर है, अल्प प्रसार संख्या होने के बाद भी छपे हुए शब्दों ने तब गहरा प्रभाव छोड़ा और समाज की दशा और दिशा को बदलने की बुनियाद डाली। इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि सन् 1878 में तब के गवर्नर जनरल लार्ड लिटन ने भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता पर अंकुश लगाने के लिये वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू किया था। अंगरेजी के अखबार इस प्रतिबंध से मुक्त थे। पुराने दौर के अखबारों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि समाज के कमजोर, गरीब तबकों और गांवों के हालात पर भी बराबर चिंता की जाती थी। उन्हें पूरी गंभीरता के साथ प्रकट किया जाता था और जिम्मेदार तंत्र को उनके प्रति आगाह भी किया जाता था। परन्तु आजादी के बाद परिस्थितियों में बदलाव आने लगा। आजादी के बाद के शुरू 10-15 साल सम्मोहन में गुजर गए। समाज और समाज को चेताने वाली पत्रकारिता इस भरोसे में समय काटती रही कि आजादी की लड़ाई से उभरे नेता हुकूमत चला रहे हैं सो वे उन सपनों को पूरा करने के लिये जरूर काम करेंगे जो उन्होंने जंगे आजादी में अपना ध्येय रखा था। परन्तु आजादी के दो दशक के भीतर ही मोह भंग के हालात सामने आने लगे। तक साप्ताहिक 'दिनमान' जैसे प्रयोग सामने आये जिसने पत्रकारिता को शहरों की चौखट से बाहर निकालकर सुदूर गांवों और कस्बों तक पहुंचाया। इन जगहों पर जनता की अपेक्षाएं और आकांक्षाएं तथा मैदानी हकीकतों को उजागर करने वाले संवाद लिखने की भाषा और शैली और उसका प्रयोग करने वाले पत्रकार तैयार किए। यह पत्रकारिता का नया अनुभव था। मोह भंग की इस प्रक्रिया को बौध्दिक ताकत और खुराक देने के लिये डा.राममोहन लोहिया जैसे प्रखर समाजवादी चिंतक सक्रिय थे।
सबसे विकट सवाल यह कितने आश्चर्य की बात है कि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं ने किसानों का मुद्दा नहीं उठाया, बल्कि अंग्रेजी अखबार 'हिन्दू' के ग्रामीण मामलों के संपादक पी. साईनाथ ने लगातार देश भ्रमण कर किसानों की समस्याओं का जायजा लिया, मैदानी अध्ययन से तथ्य जुटाई और किसानों की अत्महत्या के त्रासदी विषय को अखबारों में चर्चा का विषय बनाया। आत्ममुग्ध टेलीविजन मीडिया को फैशन वीक और नाग-नागिन का बदला, भूत-प्रेतों की कहानियां जैसे फिजूल के विषयों के कवरेज के लिये तो ललक रहती है परन्तु कर्जग्रस्त किसानों की एक के बाद एक हजारों की संख्या में पहुंच चुकी आत्मत्याओं की फिक्र नहीं सताती। अखबारों में खेती के उत्पादन और भंडारों की चर्चा तो यदा-कदा होती है परन्तु यह चर्चा नदारत है कि रसायनों के बेइंतहा इस्तेमाल ने अनाजों, फलों और सब्जियों की पौष्टिकता छीनकर उन्हें जहरीला बना डाला है। जिस उर्वरक जमीन पर किसानों को फख्र हुआ करता था अब वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों की जनक बन रही है। क्योंकि विनाशकारी विकास की दौड़ में ग्रामीण पत्रकारिता के अप्रभावी होने के कारण कभी यह आगाह करने का अभियान ही आकार नहीं ले सका कि रासायनिक खादों, कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों का किस सीमा तक प्रयोग किया जा सकता है और कहां वह लक्षण रेखा आ जाती है जिसे पार करना आत्मघाती सिध्द हो सकता है। इन्हीं रसायनों से मिश्रित माटी जब खेतों से बहकर नदियों-तालाबों में पहुंचती है तो जब स्रोतों को भी जानलेवा प्रदूषण से ग्रस्त कर डालती है। यदि ग्रामीण पत्रकारिता चैतन्य हो और उसके लिए अखबारों और अन्यस मीडिया में पर्याप्त गुंजाइश बने तो रासायनिक प्रदूषण के खतरों से किसानों को आगाह किया जा सकता है।
सूचना का अधिकार ग्रामीण समाज की आर्थिक खुशहाली के लिये यह जरूरी होता है कि किसानी की साथ-साथ ऐसे अन्य हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों को प्रश्रय और प्रोत्साहन मिले जो किसानों और कृषि पर निर्भर आबादी के लिये आमदनी बढ़ाने में कारगर सिध्द हो सकें। यह भी पत्रकारिता से अपेक्षित प्रभावी निगरानी के अभाव का एक दुष्परिणाम है कि किसानोंस की मदद के लिये परिकल्पित सहकारिता अपने उद्देश्यों में बुरी तरह असफल सिध्द हुई है। बल्कि ऐसे भी उदाहरण मौजूद हैं जब भ्रष्टाचार और भर्राशाही से ग्रस्त सहकारी तंत्र ने किसानों की बरबादी का सामान जुटाया है। ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल और शिक्षा की बदतर परिस्थितियों ने शहरों की ओर पलायन को बढ़ावा दिया है। अव्वल तो गांवों का प्राथमिकता की सूची से गायब होना एक बड़ी मुसीबत है, दूसरे, भारी भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अमले की अकर्मण्यता और लापरवाही ने गांव में जीवन को नरक बनाया है। यदि बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित हों और गुणवत्तापूर्ण हों तो ग्रामीण आबादी का पलानय रूक सकता है। इससे शहरों पर पड़ने वाले दबाव में भी कमी आएगी। परंतु समाचार पत्रों के पन्नों और टेलीविजन की दृश्यावलियों से यह मुद्दा गायब है। आंचलिक व जिला संस्करण यह तथ्य भी ध्यान देने लायक है कि जब टेलीविजन माध्यम का तेजी से विस्तार हो रहा था, तब यह आशंका उठाई जा रही थी कि इसके कारण प्रिंट मीडिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। परंतु अनुभव कुछ और ही बताता है। पिछले दो दशकों में भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों की प्रसार संख्या काफी बढ़ी है। हिन्दी के अखबारों ने तो अंगरेजी के अखबारों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। सबसे ज्यादा प्रसार संख्या और पाठक संख्या वाले पहले दस समाचार पत्रों में जब अंग्रेजी के अखबार नहीं हैं। वह जगह हिन्दी, मराठी, तमिल, बांग्ला, मलयालम के पत्रों ने भरी है। प्रसार संख्या शहरी क्षेत्रों से बाहर ग्रामीण क्षेत्रों में भी बढ़ी है। व्यवहार में इसका असर यह हुआ है कि दिल्ली, मुंबई, कोलक्ता, चेनई जैसे महानगरों के अखबारों के अलग-अलग राज्यों के लिये आंचलिक संस्कारण प्रकाशित करना पड़ रहा है। जो राज्यों के अखबार हैं वे भी अलग-अलग जिलों के लिये परिशिष्ट निकालने पर विवश हुए हैं। यह भी हो रहा है कि अखबारों और टीवी चैनलों के जिलों के दफ्तरों में भी विज्ञप्तियों और ज्ञापनों की बाढ़ आ रही है। उन्हें जैसे-तैसे अखबारों में पन्नों में जगह भी मिल रही है। लेकिन गुणवत्तापूर्ण ग्रामीण पत्रकारिता का अभाव भी अनुभव किया जा रहा है। किसी मिलने वाली सूचना अथवा दस्तावेजों को एक अच्छी खबर में तब्दील करने के लिये जिस कौशल की जरूरत होती है, अच्छी भाषा और शैली की जरूरत होती है, उपयुक्त प्रस्तुति की जरूरत होती है, उसका कमोबेश अभाव विद्यमान समाचार पत्रीय ढांचे में महसूस होता है। इस कमी को दूर करने के लिये समाचार पत्रों और पत्रकारों को विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है। कम समय के छोटे-छोटे प्रशिक्षण शिविर पत्रकारी हुनर को निखारने में मददगार हो सकते हैं।एक देश या समाज के पैमाने दूसरे देश के लिये सटीक नहीं हो सकते। वास्तव में भारत एक महादेश है। यहां तो अलग-अलग प्रांतों की भाषाएं, समझ और संस्कृति भी कुछ न कुछ भिन्नता या विशिष्ट पहचान लिए हुए हैं। मूल संस्कृति का एक सूत्र होते हुए भी आंचलिक संस्कृतियों का समुच्चय भारत को अनेकता में एकता और विविधाओं में विशिष्टता का स्वरूप प्रदान करता है। इस वैविध्य की संरक्षा और उसकी विशिष्टताओं का परिक्षण सगर्व होना चाहिये। ग्रामीण पत्रकारिता इस दिशा में भी कारगर भूमिका निभा सकती है।