Friday, June 23, 2017

रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार दलित जाति से हैं

रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार दलित जाति से हैं पर पेशे से अभिजात्य हैं. कोविंद बिहार के गवर्नर हैं और मीरा कुमार पिछली लोकसभा में स्पीकर थीं. इन दोनों का दलितों के सवाल उठाने, संघर्ष करने अथवा दलित स्वाभिमान के लिए लड़ने या अड़ने का कोई उदहारण नहीं है. मीरा कुमार पूर्व उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम की बेटी हैं तथा भारतीय विदेश सेवा से अपना करियर तय किया. उनकी पढाई-लिखाई देश के सबसे महंगे स्कूलों- वेल्हम स्कूल देहरादून और महारानी गायत्री देवी पब्लिक स्कूल जयपुर में हुई. इसके बाद दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कालेज और मिरांडा हाउस में उन्होंने आगे की
शिक्षा पूरी की और 1970 में वे आईएफएस सेवा में चुनी गईं.
राजनीति में मीरा कुमार 1985 में आईं जब उत्तर प्रदेश की बिजनौर लोक सभा सीट से उन्होंने दलित मजदूर किसान पार्टी के रामबिलास पासवान और बसपा की मायावती को हरा दिया. इसके बाद दो लोकसभा चुनाव उन्होंने दिल्ली की
करोलबाग रिजर्व सीट से जीते लेकिन 1999 की भाजपा की आंधी में वे हार गईं. तब वे अपने पिता की परम्परागत सीट सासाराम लौट गईं और 2004 तथा 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें सफलता मिली पर 2014 में मोदी की आंधी बड़ों-बड़ों को बहा ले गई और वे भी चपेट में आ गईं. भाजपा के छेदी पासवान ने उन्हें करीब 68000 वोट से हरा दिया. तब से वे गुमनामी के अँधेरे में थीं पर अब अचानक कांग्रेस द्वारा उनका नाम बतौर राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर देने से वे फिर चर्चा में आ गईं. 2004 में तब की मनमोहन सरकार ने उन्हें महिला और सामाजिक अधिकार मंत्री बनाया था तथा 2009 में वे निर्विरोध लोकसभा अध्यक्ष चुनी गईं थीं.
मीरा कुमार का नाम कांग्रेस ने तब प्रस्तावित किया जब भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए ने बिहार के मौजूदा राज्यपाल रामनाथ कोविंद को अपना राष्ट्रपति प्रत्याशी बना दिया. यह भी दिलचस्प है कि मीरा कुमार की सपोर्ट में जहाँ एक तरफ सपा और बसपा ने तो हाथ मिला लिए मगर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार छिटक गए वहीँ कोविंद के नाम पर पूरी एनडीए एकजुट है. जबकि एनडीए को कुल 48 हज़ार वोटों की और दरकार है. तेलंगाना के चंद्रशेखर राव और अन्नाद्रमुक का पन्नीरसेल्वम गुट पहले से ही एनडीए प्रत्याशी को सपोर्ट कर रहा है अब नीतीश द्वारा कोविंद को सपोर्ट कर देने से कोविंद की जीत की बाधाएं लगभग समाप्तप्राय हैं.
रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार में समानताएं ये हैं कि दोनों का ही जन्म दलित जाति में हुआ और दोनों ने कानून की डिग्री ली. मजे की बात कि दोनों की उम्र भी सामान है. मीरा कुमार वर्ष 1945 की 22 जून को पैदा हुईं तो कोविंद उसी साल एक अक्टूबर को. कोविंद ने कानपुर विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री लेने के बाद दिल्ली आ गए और सिविल सर्विसेज की तय्यारी करने लगे. तीसरे प्रयास में वे आईएएस के लिए चुन लिए गए मगर तब उनका इरादा बदल गया और वे बजाय कलेक्टरी करने के दिल्ली हाई कोर्ट में वकालत करने लगे. 1978 में वे सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऑन रिकार्ड हो गए और की वर्ष तक केंद्र सरकार के वकील भी रहे. वे 1977-78  के बीच प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के निजी सहायक भी रहे. श्री कोविंद ने 1991 में भाजपा ज्वाइन की और 1998 से 2002 के बीच वे भाजपा दलित मोर्चा के अध्यक्ष भी रहे. वे अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष भी रहे और कानपुर देहात के डेरापुर क़स्बा स्थित अपने पुश्तैनी मकान को आरएसएस को सौंप दिया. इसी बीच वे घाटमपुर से लोकसभा और भोगनीपुर से विधानसभा का चुनाव लादे और हारे. बाद में 1994 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया जहाँ वे 2006 तक दो बार लगातार रहे. 27 अगस्त 2015 को उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया.
मीरा कुमार और कोविंद दोनों की पृष्ठभूमि अभिजात्य है. दलित जाति में पैदा होने के अलावा इन दोनों ही लोगों ने शायद ही दलितों की पीड़ा को महसूस किया होगा. दोनों को सफलता पलक पांवड़े बिछाए मिली. मगर मजा यह है कि दोनों ने ही दलित जाति में पैदा होने का हर सुख उठाया. आज मीडिया में और राजनीति दोनों की दलित राजनीति छाई है. और अपनी इसी दलित राजनीति के चलते दो में से कोई भारत की इस सर्वोच्च कुर्सी पर बैठेगा. मीरा कुमार के पास उतने वोट नहीं हैं जितने भाजपा के कोविंद के पास हैं. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कांग्रेस चुप साध जाए. भाजपा ने राष्ट्रपति के पद की गरिमा को दरकिनार कर जाति का कार्ड खेला है. अभी तक किसी भी पार्टी ने इस आधार पर अपना राष्ट्रपति प्रत्याशी नहीं उतारा कि वह अमुक जाति या संप्रदाय का है. इसके पहले केआर नारायणन दलित जाति के थे. पर उनकी उम्मीदवारी पर तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार ने दलित कार्ड नहीं भुनाया था पर भाजपा ने तो कोविंद को अपना प्रत्याशी घोषित करते हुए उनकी जाति का विशेष उल्लेख किया.
इसलिए कांग्रेस को भी भाजपा के इस दलित कार्ड की काट के लिए दलित कार्ड खेलना पड़ा. कांग्रेस अगर चुप रहती तो
मेसेज यह जाता कि कांग्रेस दलित हितैषी नहीं है. गेंद अब साझा विपक्ष के पास है कि वह एक मत से कांग्रेस के दलित को चुनेगा या टूट-फूट कर भाजपा के उम्मेदवार को जीतने का मौका देगा. दलित नेता नहीं एक विचारधारा है जिसका मतलब कि हम गरीब, वंचित और कमजोर तबके के लिए लड़ने का ज़ज्बा पैदा करें या उन लोगों को जीतने का मौका दें
जिनके लिए दलित बस एक जाति है. यह अब हर एमपी और एमएलए को सोचना होगा.

No comments:

Post a Comment