Friday, June 23, 2017

आज देश आजाद है और पत्रकार गुलाम।

कल देश गुलाम था पत्रकार आजाद, लेकिन आज देश आजाद है और पत्रकार गुलाम। देश में गुलामी जब कानून था तो पत्रकारिता की शुरुआत कर लोगों के अंदर क्रांति को पैदा करने का काम हुआ। आज जब हमारा देश आजाद है तो हमारे शब्द गुलाम हो गए हैं। कल जब एक पत्रकार लिखने बैठता था तो कलम रुकती ही नहीं थी, लेकिन आज पत्रकार लिखते-लिखते स्वयं रुक जाता है, क्योंकि जितना डर पत्रकारों को बीते समय में परायों से नहीं था, उससे ज्यादा भय आज अपनों से है।

गुलाम देश में अंग्रेजों का शासन था; तब कागज-कलम के जरिए कलम के सिपाही लोगों को यह बताने को आजाद थे कि गुलामी क्या है और लोग इससे किस प्रकार छुटकारा पा सकेंगे। पर आज अगर सरकार या व्यवस्था से कोई परेशानी है तो उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा पाता और कोशिश करने पर निजी जरूरतों का आगे कर कलम की ताकत को खरीदने की कोशिश की जा रही है। बीते समय पत्रकारिता के प्रति लोग शौक से जुड़ते थे लेकिन आज यह शौक जरूरत का रूप ले चुकी है और व्यवसाय की परिपाटी का फलीभूत कर रही है। आज एक जुनूनी पत्रकार जब किसी खबर को उकेरता है तो वह खबर उच्च अधिकारियों व अन्य के पास से गुजरते हुए समय के बीतते क्रम में मरती जाती है या फिर लाभ प्राप्ति की मंशा के नीचे दब जाती है। ऐसे में जुनून के साथ अपने कार्य को निभाने वाला पत्रकार भी मेहनत पर पानी फिरता देख, केवल खबर बनाने का कोरम पूरा कर पैसा कमाने में जुट जाता है।

पत्रकारिता के इस बदलते स्वरूप का जिम्मेदार केवल पत्रकार का स्वभाव और उसकी जरूरतें ही नहीं है वरन्‌ इसका असली जिम्मेदार हमारा आज का पाठक वर्ग भी है। जो इस बदलते परिवेशके साथ इतना बदल गया है की उसने समाचार पत्र और पत्रकारों के शब्दों को एक कलमकार की भावनाओं से अलग कर दिया है। इसी का नतीजा है कि आज पत्रकार अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं लिख सकता है क्योंकि वह अपने पाठक का गुलाम होता है और उसे वही लिखना पड़ता है जो उसका पाठक चाहता है। इससे अलग अगर कोई पत्रकार अपनी जीवटता दिखाते हुए खबर से तथ्यों को उजागर करने का मन बनाता भी है तो वह खबर समाचार पत्र समूह के उसूलों और विज्ञापनों की बोली की भेंट चढ़कर डस्टबीन की शोभा बढ़ाती है। अगर इन बातों की छननी से वह खबर छन कर मूल बातों समेत बच जाती है तब कहीं जाकर वह खबर पेज पर अंकित हो पाती है।ऐसे में उक्त पत्रकार भगवान को धन्यवाद देता है कि चलों खबर छप गयी, पर इस खबर के प्रति पत्रकार की ईमानदारी और मेहनत पीछे छूट जाती है और उसकी जगह संपादक व उच्च अधिकारी की प्रतिबद्धता ले लेती है।
आज की पत्रकारिता पर बाजार और व्यवसाय का दबाव बढ़ गया है। जिस कारण लोगों को जागरूक करने की अपनी आधारशिला से ही मीडिया भटक चुकी है और पेड न्यूज का रूप लेती जा रही है।मीडिया में 'पेड न्यूज' का बढ़ता चलन देश एवं समाज के लिए ही नहीं अपितु पत्रकारिता के लिए भी घातक है। 'पेड न्यूज' कोई बीमारी नहीं बल्कि बीमारी का लक्षण है। इसका मूल कहीं और है। इस दिशा में सकारात्मक रुप से सोचने की आवश्यकता है। मीडिया समाज का एक प्रभावशाली अंग बन गया है लेकिन आज इस आधार स्तंभ पर पूंजीपतियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जो देश एवं समाज के लिए घातक है।

आज की मीडिया समाज को इस कदर प्रभावित कर चुकी है कि वह चाहे किसी को भी राजा और रंक की श्रेणी में खड़ी कर सकती है। लेकिन विडम्बना यह है कि इतनी शक्ति होने बाद भी मीडिया को हर ओर से आलोचना ही सुननी पड़ती है क्योंकि उसकी दिशा भ्रमित है या फिर ये कहा जाये कि वह नकारात्मकता को ही आत्मसात कर चुकी है। हाल फिलहाल की घटनाओं पर नजर दौड़ाये तो गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे सबसे मजबूत पक्ष के रूप में उभरते हैं पर वास्तविकता कुछ और ही है। भ्रष्टाचार के मुददे को लेकर अनशन करने वाले अन्ना मीडिया की विशेष कृपा के आधार पर "भ्रष्टाचार' जैसे प्रमुख मुद्‌दे से काफी बड़े हो गये। उनके अनशन के एक दिन पहले दिल्ली स्थिति जंतर मंतर के पास इलेक्ट्रानिक मीडिया के 74 ओ.वी. वैन के रेले इकट्‌ठा हो गये,जैसे उस दिन प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने वाले हों। मीडिया के इस विशिष्ट मेहमान नवाजी के कारण ही आज गली-गली में अन्ना की धूम मची हुई है। आखिर कौन है यह अन्ना हजारे, क्या कोई महात्मा है? देवदूत है? या फिर सरकार के सामानांतर शक्ति रखने वाले बंदा है? जो देश के लोगों को उसके पीछे चलने की बातें करता है और देश आंख मूदे उसके साथ हो लेती हैं। देश की आम जनता तो चलों सरकार के निकम्मेपन से त्रस्त थी और बदलाव की बयार के साथ बह चली पर बुद्धिजीवियों का गढ़ कही जाने वाली मीडिया भी अन्नामय हो चली थी कि जैसे इसमें मीडिया कर्मियों का अपना स्वार्थ निहीत हो।

कहने को तो पत्रकारिता देश का चौथा स्तम्भ है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिकाजैसे देश के महत्वपूर्ण स्तंभों पर नजर रखने का कार्य करने वाली खबर पालिका आज अपने मूल कार्य से विमुख हो चुकी है। अपने प्रारम्भ में मिशन के तहत लोगों के बीच अपनी भूमिका कानिर्वाह करने वाली पत्रकारिता समय के साथ बदलते हुए प्रोफेशन के रूप में भी परिवर्तित हुई। परिवर्तन का यह दौर यहीं नहीं थमा, वर्तमान समय में पत्रकारिता का स्वरूप कमीशन के तौर पर उभरा है। ऐसे में आज की पत्रकारिता को किसी भी तरह से पूर्व के मिशन और एम्बीशन के साथ जोड़ कर देखना सही नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और मीडिया भी उसी का पालन कर रही है। स्पेक्ट्रम घोटाले बाद तो पत्रकारिता और पत्रकार होने का मतलब भी बदल गया था। अक्सर मजाक के बीच गंभीर मुद्रा में यह कहा जाता कि नीरा राडिया जैसे कारपोरेट लाबिस्टों से संबंध रखने वाले ही बड़े पत्रकारों की श्रेणी में आते हैं। कल का यह मजाक अब लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी हो गया है, खबरों के अन्वेषण की जगह उसे खरीदने-बेचने का काम चल निकला है।

वर्तमान की पत्रकारिता को परिभाषित किया जाना हो तो उसे मानवीय संवेदनाओं को बेचने के अनवरत क्रम को शिद्‌दत से फैलाने का उपक्रम की संज्ञा दी जा सकती है। समाचार पत्र हो या फिर खबरिया चैनल सबमें आपस में टीआरपी की जंग छिड़ी हुई है, जिसके चलते सामाजिक सरोकारों से अलग केवल सामाजिक विषमता को फलने-फूलने का मौका मिल रहा है। शक्ति का दंभ और स्वयंभू होने के भाव ने आज मीडिया को सामाजिक प्रहरी के स्थान पर निर्णायक की भूमिका में दिखती प्रतीत होती हैं। मीडिया के इस चलन ने खबरों के प्रति पाठकों के नजरिये को बदल दियाहै। अब पाठकों के बीच मीडिया सूचना देने के बजाय अपना विचार परोसने में लगी हुई है।

मूलतः पत्रकारिता की प्रक्रिया ऐसी होती है जिसमें तथ्यों को समेटने, उनका विश्लेषण करने फिर उसके बाद उसकी अनुभूति कर दूसरों के लिए अभिव्यक्त करने का काम किया जाता है। ऐसे में इसका परिणाम दुख, दर्द, ईष्या,प्रतिद्वंद्धिता, द्वेष व असत्य को बांटना हो सकता है अथवा सुख,शांति, प्रेम, सहनशीलता व मैत्री का प्रसाद हो सकता है। कौन सा विकल्प चुनना है यह समाज को तय करना होता हैं। वर्तमान में इन विषयों का गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है, जिसके आधार पर एक वैकल्पिक पत्रकारिता के दर्शन की प्रस्तुति पूरी मानवता को दी जाए। यह इसलिए क्योंकि वर्तमान मीडिया ऐसे समाज की रचना करने में सहायक नहीं है। पत्रकारिता की यह कल्पना बेशक श्रेष्ठ पुरुषों की रही हो परन्तु इसमें हर साधारण मानव की सुखमय और शांतिपूर्ण जीवन की आकांक्षा के दर्शन होते हैं। वर्तमान में पत्रकारिता एक संक्रमण के दौर से गुजर रही है।इस क्षेत्र में सुधार के लिए स्तरीय प्रशिक्षण और व्यापक अनुसंधान की जरुरत है। समाज और राष्ट्रहित में मीडिया को विरोध की सीमा और समर्थन की मर्यादा निर्धारित करनी चाहिए। उदारीकरण के कारण बाजारवाद का प्रभाव बढ़ा है। पत्रकारिता भी इससे मुक्त नहीं है, लेकिन स्थिति पूरी तरह निराशाजनक नहीं है। यह संक्रमणकाल है। अच्छाई और बुराई के इस संक्रमण में अन्ततः अच्छाई की विजय होगी, इसके लिए अच्छाई के पक्षधरों को मुखर होना पड़ेगा।

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एक स्वस्थ लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस का अपना ही महत्व है। इससे प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है और आर्थिक विकास को बल मिलता है, लेकिन समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाले प्रेस और पत्रकारों की स्थिति बहुत संतोषजनक भी नहीं है। तेजी से बढ़ते विज्ञापनवाद के कारण आज प्रेस की स्वतंत्रता के मायने पूरी तरह से बदल गए हैं।
3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रेस व पत्रकारों के लिए बहुत खास दिन होता है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना होता है। मगर आधुनिक तकनीक और विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया ने प्रेस व पत्रकारों की स्वतंत्रता के मायने ही बदल कर रख दिए हैं। कुछ दशक पहले पत्रकार समाज में जो कुछ देखता था, उसे लिखता था और उसका असर भी होता था, लेकिन आज पत्रकारों के पास अपने विचार व आंखों देखी घटना को लिखने का अधिकार भी नहीं है। यदि पत्रकार कुछ लिखना भी चाहे, तो पहले उसे अपने संपादक व प्रबंधन के लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। इसके बाद भी उस पत्रकार द्वारा लिखे खबर के प्रकाशित होने की कोई गारंटी नहीं है। यदि खबर किसी विज्ञापनदाता के खिलाफ हो तो, खबर छपने की गुंजाईश ही नहीं है। आज हम भले ही प्रेस को स्वतंत्र मान रहे है, लेकिन इसमें कितनी फीसदी सच्चाई है, इसे हम भली-भांति जानते हैं। आधुनिक तकनीक के कारण आज पत्रकारिता एक बड़े उद्योग का रूप ले चुका है। देश में ऐसे कई धन्ना सेठ हैं, जो अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए प्रेस को ढ़ाल बनाए बैठे हैं। कुछ लोग तो अपने रूतबे को कायम रखने के लिए प्रेस का संचालन कर रहे हैं। ऐसे प्रेस में काम करने वाले पत्रकार की क्या अहमियत होगी और वह कितना स्वतंत्र होगा, इसका अंदाजा लगाना बहुत आसान है। बदलते परिवेश में आज पत्रकार कहलाने वाले एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है, जो हर महीने पगार लेकर अपने कलम की धार को धन्ना सेठों के पास बेचने के लिए मजबूर है। आखिर ऐसा करना पत्रकारों की मजबूरी भी तो है, क्योकि पत्रकारिता का रोग यदि किसी को एक बार लग जाए, तो उसे केवल लिखने-पढ़ने में ही मजा आता है। इसी बात का ही प्रेस के मालिक फायदा उठाते है और पत्रकारों को उनके हाथों की कठपुतली बनकर काम करना पड़ता है। यदि पत्रकार कभी अपनी मर्जी से कोई खबर लिख दे और उसे छापने के लिए प्रेस पर दबाव डाले, तो समझो उसकी नौकरी गई। बड़े शहरों के पत्रकारों की हालत अच्छी है, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम वाले पत्रकारों की दशा इतनी दयनीय है, कि उनकी कमाई से परिवार को दो वक्त रोटी मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उन पर खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। मौजूदा हालत में सबसे ज्यादा उन पत्रकारों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है, जो समाज की हकीकत को लिखने का दम रखते है, जबकि बिना कुछ लिखे-पढ़े पत्रकार कहलाने वाले छुटभैये लोगों की तो हर तरफ चांदी ही चांदी है। ऐसे लोगों की प्रेस मालिकों के साथ खूब जमती है। दरअसल वे मलाई बटोरकर अपने मालिक तक पहुंचाते जो हैं।

पत्रकारों को सुविधा देने तथा आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में सरकार भी गंभीर नहीं है। रेल में सफर करने के लिए सरकार ने पत्रकारों को थोड़ी बहुत छूट दी है, मगर इसके लिए भी अधिमान्यता का कार्ड होना जरूरी है। जबकि सरकार इस बात को भी अच्छी तरह से जानती है कि ज्यादातर प्रेस के संपादक अधिमान्यता कार्ड के लिए अपने पत्रकारों को अनुभव प्रमाण पत्र बनाकर नहीं देते। ऐसे में सरकारी छूट का सभी पत्रकारों को फायदा ही क्या? सोंचने वाली बात तो यह है कि जिस बैंक व वाहन व्यवसायी की खबर को पत्रकार आए दिन छापता है, वही लोग पत्रकार को लोन देने के लिए भी हाथ खड़े कर देते हैं। लोन के लिए पत्रकार के निवेदन करने पर ऐसे लोग नियमों की दुहाई देते है और यह भी कहते है कि पत्रकारों को लोन देने के लिए उनके उपरी प्रबंधन से कोई निर्देश नहीं है। ऐसा सुनकर काफी आश्चर्य लगता है। तकलीफ तो उस समय ज्यादा होती है जब बैंक में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को आसानी से लोन दे दिया जाता है और वही पत्रकार खड़ा मुंह ताकता रहता है। पत्रकारिता क्षेत्र आज इतनी खराब हो गई है कि बहुत कम लोग पत्रकार बनने की इच्छा रखते है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर एक पत्रकार बनकर मुझे क्या मिला, क्योंकि पत्रकारिता का भूत सवार होने के बाद मेरे हालात दिनों दिन बद से बदतर जो हो गए हैं। मगर जब मैं गहराई से सोंचता हूं कि पत्रकार बनने के बाद भले ही मुझे कुछ मिला या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन कम से कम मैं समाज की गंदगी को साफ करने की कोशिश तो कर रहा हूं। खैर लिखने को तो तमाम बातें है, लेकिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करना होगा।


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