Thursday, June 22, 2017

पत्रकारिता की शुरुआत अन्य समाजों से भिन्न परिस्थितियों और परिवेश में हुई।

भारत में पत्रकारिता की शुरुआत अन्य देश-समाजों से भिन्न परिस्थितियों और परिवेश में हुई। भारत में राष्ट्रीय नवजागरण आंदोलन और पत्रकारिता साथ-साथ चले और विकसित हुए हैं। दोनों का ही इतिहास बाधा-व्यवधान और संघर्षों से भरा रहा है। देश में जिन जेम्स आगस्टस हिकी ने अपने साप्ताहिक गजट के साथ पत्रकारिता के प्रभावी उपक्रम का सूत्रपात किया, वह व्यापारी से हुक्मरान बनी ईस्ट इंडिया कंपनी के आला अफसरों की मनमानी और लूट के विरुध्द हुआ था। हिकीज गजट उन तथ्यों को प्रकट कर रहा था जिन पर हुक्मरान परदा डाले रखना चाहते थे। इन्हीं कारणों से हिकी की प्रताड़ना और बलात देश-वापसी का दंड भुगतना पड़ा। पत्रकारिता का पहला सबक यही है कि हुकूमत/व्यवस्था की काली करतूतों को उजागर करने का जोखिम उठाना पत्रकार का फर्ज है और उसके लिये कोई भी कीमत चुकाना पुरस्कार है। अब उन प्रवृत्तियों पर नजर डालें जिन्होंने भारतीय पत्रकारिता की बुनियादी रची है। नवजागरण आंदोलन का एक आयाम राजनीतिक स्वतंत्रता का संग्राम रहा है। दूसरा आयाम फिरंगियों द्वारा भारत के नैसर्गिक संसाधनों की लूट और भारतीय शिल्प-कौशल का गला घोंटने की दुनीतियों के खिलाफ संघर्ष करना रहा है। तीसरा आयाम समाज सुधार के बहुविध अभियान और आंदोलन चलाना रहा। चैथा आयाम आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा से समाज को जोड़ना रहा है। जब हम भारतीय पत्रकारिता के उस कालखंड का अध्ययन करते हैं जो 1780 से आरंभ होकर 1947 तक पहुंचता है, तब यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय नवजागरण के चारों आयामों के चिंतक और महान सेनानी पत्रकारिता के भी पुरोधा रहे हैं। उन्होंने अपने अभियानों को जन-जन तक पहुंचाने के लिये या को स्वयं पत्र-पत्रिकाओं का संपादन-प्रकाशन किया अथवा प्रकाशित हो रहे पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लिखा। जाहिर है, अल्प प्रसार संख्या होने के बाद भी छपे हुए शब्दों ने तब गहरा प्रभाव छोड़ा और समाज की दशा और दिशा को बदलने की बुनियाद डाली। इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि सन् 1878 में तब के गवर्नर जनरल लार्ड लिटन ने भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता पर अंकुश लगाने के लिये वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू किया था। अंगरेजी के अखबार इस प्रतिबंध से मुक्त थे। पुराने दौर के अखबारों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि समाज के कमजोर, गरीब तबकों और गांवों के हालात पर भी बराबर चिंता की जाती थी। उन्हें पूरी गंभीरता के साथ प्रकट किया जाता था और जिम्मेदार तंत्र को उनके प्रति आगाह भी किया जाता था। परन्तु आजादी के बाद परिस्थितियों में बदलाव आने लगा। आजादी के बाद के शुरू 10-15 साल सम्मोहन में गुजर गए। समाज और समाज को चेताने वाली पत्रकारिता इस भरोसे में समय काटती रही कि आजादी की लड़ाई से उभरे नेता हुकूमत चला रहे हैं सो वे उन सपनों को पूरा करने के लिये जरूर काम करेंगे जो उन्होंने जंगे आजादी में अपना ध्येय रखा था। परन्तु आजादी के दो दशक के भीतर ही मोह भंग के हालात सामने आने लगे। तक साप्ताहिक 'दिनमान' जैसे प्रयोग सामने आये जिसने पत्रकारिता को शहरों की चौखट से बाहर निकालकर सुदूर गांवों और कस्बों तक पहुंचाया। इन जगहों पर जनता की अपेक्षाएं और आकांक्षाएं तथा मैदानी हकीकतों को उजागर करने वाले संवाद लिखने की भाषा और शैली और उसका प्रयोग करने वाले पत्रकार तैयार किए। यह पत्रकारिता का नया अनुभव था। मोह भंग की इस प्रक्रिया को बौध्दिक ताकत और खुराक देने के लिये डा.राममोहन लोहिया जैसे प्रखर समाजवादी चिंतक सक्रिय थे।
सबसे विकट सवाल यह कितने आश्चर्य की बात है कि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं ने किसानों का मुद्दा नहीं उठाया, बल्कि अंग्रेजी अखबार 'हिन्दू' के ग्रामीण मामलों के संपादक पी. साईनाथ ने लगातार देश भ्रमण कर किसानों की समस्याओं का जायजा लिया, मैदानी अध्ययन से तथ्य जुटाई और किसानों की अत्महत्या के त्रासदी विषय को अखबारों में चर्चा का विषय बनाया। आत्ममुग्ध टेलीविजन मीडिया को फैशन वीक और नाग-नागिन का बदला, भूत-प्रेतों की कहानियां जैसे फिजूल के विषयों के कवरेज के लिये तो ललक रहती है परन्तु कर्जग्रस्त किसानों की एक के बाद एक हजारों की संख्या में पहुंच चुकी आत्मत्याओं की फिक्र नहीं सताती। अखबारों में खेती के उत्पादन और भंडारों की चर्चा तो यदा-कदा होती है परन्तु यह चर्चा नदारत है कि रसायनों के बेइंतहा इस्तेमाल ने अनाजों, फलों और सब्जियों की पौष्टिकता छीनकर उन्हें जहरीला बना डाला है। जिस उर्वरक जमीन पर किसानों को फख्र हुआ करता था अब वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों की जनक बन रही है। क्योंकि विनाशकारी विकास की दौड़ में ग्रामीण पत्रकारिता के अप्रभावी होने के कारण कभी यह आगाह करने का अभियान ही आकार नहीं ले सका कि रासायनिक खादों, कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों का किस सीमा तक प्रयोग किया जा सकता है और कहां वह लक्षण रेखा आ जाती है जिसे पार करना आत्मघाती सिध्द हो सकता है। इन्हीं रसायनों से मिश्रित माटी जब खेतों से बहकर नदियों-तालाबों में पहुंचती है तो जब स्रोतों को भी जानलेवा प्रदूषण से ग्रस्त कर डालती है। यदि ग्रामीण पत्रकारिता चैतन्य हो और उसके लिए अखबारों और अन्यस मीडिया में पर्याप्त गुंजाइश बने तो रासायनिक प्रदूषण के खतरों से किसानों को आगाह किया जा सकता है।
सूचना का अधिकार ग्रामीण समाज की आर्थिक खुशहाली के लिये यह जरूरी होता है कि किसानी की साथ-साथ ऐसे अन्य हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों को प्रश्रय और प्रोत्साहन मिले जो किसानों और कृषि पर निर्भर आबादी के लिये आमदनी बढ़ाने में कारगर सिध्द हो सकें। यह भी पत्रकारिता से अपेक्षित प्रभावी निगरानी के अभाव का एक दुष्परिणाम है कि किसानोंस की मदद के लिये परिकल्पित सहकारिता अपने उद्देश्यों में बुरी तरह असफल सिध्द हुई है। बल्कि ऐसे भी उदाहरण मौजूद हैं जब भ्रष्टाचार और भर्राशाही से ग्रस्त सहकारी तंत्र ने किसानों की बरबादी का सामान जुटाया है। ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल और शिक्षा की बदतर परिस्थितियों ने शहरों की ओर पलायन को बढ़ावा दिया है। अव्वल तो गांवों का प्राथमिकता की सूची से गायब होना एक बड़ी मुसीबत है, दूसरे, भारी भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अमले की अकर्मण्यता और लापरवाही ने गांव में जीवन को नरक बनाया है। यदि बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित हों और गुणवत्तापूर्ण हों तो ग्रामीण आबादी का पलानय रूक सकता है। इससे शहरों पर पड़ने वाले दबाव में भी कमी आएगी। परंतु समाचार पत्रों के पन्नों और टेलीविजन की दृश्यावलियों से यह मुद्दा गायब है। आंचलिक व जिला संस्करण यह तथ्य भी ध्यान देने लायक है कि जब टेलीविजन माध्यम का तेजी से विस्तार हो रहा था, तब यह आशंका उठाई जा रही थी कि इसके कारण प्रिंट मीडिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। परंतु अनुभव कुछ और ही बताता है। पिछले दो दशकों में भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों की प्रसार संख्या काफी बढ़ी है। हिन्दी के अखबारों ने तो अंगरेजी के अखबारों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। सबसे ज्यादा प्रसार संख्या और पाठक संख्या वाले पहले दस समाचार पत्रों में जब अंग्रेजी के अखबार नहीं हैं। वह जगह हिन्दी, मराठी, तमिल, बांग्ला, मलयालम के पत्रों ने भरी है। प्रसार संख्या शहरी क्षेत्रों से बाहर ग्रामीण क्षेत्रों में भी बढ़ी है। व्यवहार में इसका असर यह हुआ है कि दिल्ली, मुंबई, कोलक्ता, चेनई जैसे महानगरों के अखबारों के अलग-अलग राज्यों के लिये आंचलिक संस्कारण प्रकाशित करना पड़ रहा है। जो राज्यों के अखबार हैं वे भी अलग-अलग जिलों के लिये परिशिष्ट निकालने पर विवश हुए हैं। यह भी हो रहा है कि अखबारों और टीवी चैनलों के जिलों के दफ्तरों में भी विज्ञप्तियों और ज्ञापनों की बाढ़ आ रही है। उन्हें जैसे-तैसे अखबारों में पन्नों में जगह भी मिल रही है। लेकिन गुणवत्तापूर्ण ग्रामीण पत्रकारिता का अभाव भी अनुभव किया जा रहा है। किसी मिलने वाली सूचना अथवा दस्तावेजों को एक अच्छी खबर में तब्दील करने के लिये जिस कौशल की जरूरत होती है, अच्छी भाषा और शैली की जरूरत होती है, उपयुक्त प्रस्तुति की जरूरत होती है, उसका कमोबेश अभाव विद्यमान समाचार पत्रीय ढांचे में महसूस होता है। इस कमी को दूर करने के लिये समाचार पत्रों और पत्रकारों को विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है। कम समय के छोटे-छोटे प्रशिक्षण शिविर पत्रकारी हुनर को निखारने में मददगार हो सकते हैं।एक देश या समाज के पैमाने दूसरे देश के लिये सटीक नहीं हो सकते। वास्तव में भारत एक महादेश है। यहां तो अलग-अलग प्रांतों की भाषाएं, समझ और संस्कृति भी कुछ न कुछ भिन्नता या विशिष्ट पहचान लिए हुए हैं। मूल संस्कृति का एक सूत्र होते हुए भी आंचलिक संस्कृतियों का समुच्चय भारत को अनेकता में एकता और विविधाओं में विशिष्टता का स्वरूप प्रदान करता है। इस वैविध्य की संरक्षा और उसकी विशिष्टताओं का परिक्षण सगर्व होना चाहिये। ग्रामीण पत्रकारिता इस दिशा में भी कारगर भूमिका निभा सकती है।


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