Thursday, December 8, 2016

15000 किलो शुद्ध सोने से निर्मित मंदिर

15000 किलो शुद्ध सोने से निर्मित मंदिर में 70 किलो की है मां लक्ष्मी की मूर्ति.
स्वतंत्र संवाददाता : रघुबीर सिंह गाड़ेगाँवलिया
दुनिया में तरह-तरह के देवालय हैं, जिनमें भारत के मंदिरों का अलग ही इम्पोर्टेंस है। कोर्इ मंदिर खूबसूरत बनावट के लिए मशहूर है तो कहीं प्राकृतिक नजारे दिल छू जाते हैं। लेकिन यहां आज़ हम जिस मंदिर के बारे में आपको बताने जा रहे हैं, उसे देख आप हैरान रह जाएंगे। यकीनन, इसमें लगा है दुनिया का सबसे ज्यादा सोना
चेन्नई उमस भरा शहर है और इससे 150 किलोमीटर की दूरी पर बसा वेल्लोर शहर भी है, जो सिर चकरा देने वाली गर्मी पैदा करता है। वेल्लोर से एक सुंदर रास्ता जाता है, जो 14 किलोमीटर लंबा है। इसे तिरूमलईकोढ़ी कहा जाता था। दिनभर ठंडी हवाओं से आनंदित कर देने वाले पांच हजार की आबादी वाले इस गांव का नाम अब सरकार की अनुमति से श्रीपुरम रख दिया गया है।
यह गांव अब साधारण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहां अमृतसर स्वर्ण मंदिर जैसा मां लक्ष्मी नारायणी का मंदिर है, जो देश दुनिया के श्रद्धालुओं और पर्यटकों को अपनी ओर खींच रहा है। देशाटन करने वाले लोग तिरूपति बालाजी आते जाते समय यहां दर्शन करके आभास करते हैं, मानो स्वर्ग से कोई टुकड़ा धरती पर लाकर रख दिया गया हो। इस गोल्डन टेम्पल के निर्माण में 15000 किलो ग्राम सोने का उपयोग किया गया है। सोने से निर्मित इस मंदिर को बनाने में 400 सुनारों और कारीगरों को 7 वर्षों का समय लगा जो हरी-भरी 100 एकड़ भूमि के मध्य 55000 स्क्वेयर फीट भूमि पर निर्मित है। इस मंदिर के निर्माण के साथ ही पर्यावरण संरक्षण का भी पूरा ख्याल रखा गया है।
मंदिर के निर्माण में तो सोना ही सोना है और मां महालक्ष्मी की 70 किलो ठोस सोने की मूर्ति भी। साक्षात देवी माने जाने वाले अलौकिक से सतीश कुमार की आध्यात्मिक ताकत से यह रचना मूर्त रूप ले सकी है। गांव के लोग ही सतीश कुमार को मूल नाम से जानते हैं, अन्यथा वे देश दुनिया के लिए श्री शक्ति अम्मा हो चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर क्रिकेटर रविचंद्रन अश्विन तक उनके दर्शन करने पहुंचे थे।
संभवत: यह भारत का पहला मंदिर होगा, जहां राष्ट्रपति भवन, लोकसभा और अन्य सरकारी कार्यालयों की तरह तिरंगा ध्वज फहराया जाता है। इसका दर्शन कहता है कि मंदिर हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख और इसाईयों के लिए खुला है। तभी तो पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, पूर्व गर्वनर डॉ. सुरजीतसिंह बरनाला और जॉर्ज फर्नाण्डीज यहां दर्शन करके जा चुके हैं।
पलार नदी किनारे बसे भव्य और दिव्य मंदिर के माध्यम से जो भी आय अर्जित होती है, उससे श्री शक्ति अम्मा गरीब बच्चों की शिक्षा, गरीब कन्याओं के विवाह और रोजगार, दीन दुखियों के इलाज और भूखों को भोजन प्रसादी के काम पर खर्च करती है। लक्ष्मी का इतना समुचित उपयोग और क्या हो सकता है भला।
श्री शक्ति अम्मा अगले साल 3 जनवरी को अपने जीवन के 40 बसंत पूरे करेंगी। उनका जीवन ही भक्ति से शुरू होता है, तभी तो प्राथमिक स्कूली शिक्षा के दिनों में वे स्कूल जाने के बजाए शिव परिवार की आराधना में लीन रहते थे। जब वे कोई 14 वर्ष के रहे होंगे, तो स्कूल बस की खिड़की से आसमान में देखने के दौरान उन्हें त्रिदेवी (लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती) के दर्शन हुए।
आकाश से रोशनी हुई और उनके मस्तिष्क, दोनों भुजाओं पर विशेष निशान उभर आए। तमिलनाडु के नामी गिरामी डॉक्टरों ने भी इसे एक चमत्कार करार दिया, जबकि ज्योतिषियों ने उस बालक को देवी का अवतार बताया। सिंगापुर के फारूख भाई के लिए श्री शक्ति अम्मा साक्षात भगवान ही हैं, क्योंकि जब उनकी पत्नी को कैंसर ने जकड़ लिया था और डॉक्टर जवाब दे चुके थे, तो शक्ति अम्मा द्वारा भेंट किया गया नींबू और हवन की विभूति माथे पर लगाने  भर से मेहरून्निसा स्वस्थ्य हो गई और हर साल श्री नारायणी और श्री शक्ति अम्मा के दर्शन करने के लिए आती हैं।
श्री शक्ति अम्मा गोल्डन टेम्पल में रोजाना दोपहर श्री नारायणी लक्ष्मी की स्तुति पूजा करने के लिए आती हैं, जबकि गोल्डन टेम्पल के ठीक सामने बने उनके पैतृक घर में नाग की चमत्कारिक बांबी स्थल पर उनका टूटा फूटा झोपड़ा है, जहां वे ध्यान में तल्लीन रहने के बाद दीन दुखियों के कष्ट हरती हैं।
दर्शनार्थी मंदिर परिसर की दक्षिण दिशा से प्रवेश कर पाथवे से क्लाक वाईज घुमते हुए पूर्व दिशा तक आते है जहां से मंदिर के अंदर भगवान श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन करने के बाद पुनः पूर्व दिशा में आकर पाथवे से होते हुए दक्षिण दिशा से ही बाहर आ जाते है। यह प्रेम, श्रद्धा और विश्वास की बात है कि श्री शक्ति अम्मा के दर्शन करने के लिए रोजाना कोई छह हजार श्रद्धालु भारत के चरणों में पड़े इस महाभारती और उनकी स्वर्गमयी रचना के दर्शन के लिए आते हैं। स्वर्ग की बात सब करते हैं, लेकिन उसकी एक झलक देखना है, तो श्रीपुरम चले जाईए।
सूर्योदय पर चमचमाता मंदिर इस स्थान को सोने की चिड़िया रूपी भारत के दर्शन कराता है और डूबते सूर्य से जन्मी सिंदूरी शाम इसे विशाल स्वर्णिम रथ सा दर्शाती है। ये दोनों नजारे आपके लिए चेन्नई की उमस को भुला देने वाले होंगे। साथ ही आपका इस धरती पर आना सुखद करेंगे, क्योंकि अब कहां इतना सोना सजावट में इस्तेमाल किया जाता है। बारहों महीने लक्ष्मीजी की सेवा पल-पल की जाती है मंदिर परिसर में लगभग 27 फीट ऊंची एक दीपमाला भी है। इसे जलाने पर सोने से बना मंदिर, जिस तरह चमकने लगता है, वह दृष्य देखने लायक होता है। यह दीपमाला सुंदर होने के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी रखती है। सभी भक्त मंदिर में भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के दर्शन करने के बाद इस दीपमाला के भी दर्शन करना अनिवार्य मानते हैं।और आप भी यहां हर कभी दीवापली मना सकते हैं।


सीधा पढ़े तो रामायण की कथा और उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो
रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे
शब्दों को उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।
जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित
ग्रन्थ राघवयादवीयम् ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ
को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है।
पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में
पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन
कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60
श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव
(राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है
राघवयादवीयम। उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥
अर्थातः मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी
सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।
विलोमम्
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥
अर्थातः मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।
राघवयादवीयम के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं
राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥
विलोमम्
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥
साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥
विलोमम्
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥
कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥
विलोमम्
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥
रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥
विलोमम्
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥
यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥
विलोमम्
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥
मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥
विलोमम्
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥
रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥
विलोमम्
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥
सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥
विलोमम्
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥
सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥
विलोमम्
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥
तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥
विलोमम्
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥
वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥
विलोमम्
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥
यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥
विलोमम्
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥
रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥
विलोमम्
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥
यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥
विलोमम्
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥
दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥
विलोमम्
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥
सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥
विलोमम्
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥
सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥
विलोमम्
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥
तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥
विलोमम्
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥
गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥
विलोमम्
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥
हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥
विलोमम्
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥
ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।
हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि ॥ २१॥
विलोमम्
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥
भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥
विलोमम्
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥
हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥
विलोमम्
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥
भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥
विलोमम्
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥
हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥
विलोमम्
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥
सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥
विलोमम्
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥
वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥
विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥
हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥
विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥
नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥
विलोमम्
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥
साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥
विलोमम्
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥
॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री राघव यादवीयं

छुआछूत का मूल कारण अज्ञान है

छुआछूत का मूल कारण अज्ञान है

छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी. यह उन्होंने ठीक कहा, क्योंकि हिन्दू समाज में शूद्रों को अछूत नहीं समझा जाता था.
1.वैदिक कालः
वैदिक काल में सभी का दर्जा समान था. ऋग्वेद में लिखा हैः-
“सं गच्छध्वं सं वदध्वं वो मनासि जानताम” (ऋ.1-19-2)
“समानी प्रपा सह वोन्न भागः समाने योक्त्रे सह वो यूनज्मि सम्यंचोअग्निम् समर्यतारा नाभिभिवाभितः” (अ. 3-30-6)

अर्थात्‌:-हे मनुष्यो, मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम सबका मन एक हो, तुम्हारा खानपान इकट्‌ठा हो, मैं तुमको एकता के सूत्र में बाँधता हूँ. जिस प्रकार रथ की नाभि में आरे जुड़े रहते हैं, उस प्रकार एक परमेश्वर की पूजा में तुम सब इकट्‌ठे मिले रहो.
इस वेद मंत्र से यह सिद्ध होता है कि उस समय कोई जाति या वर्ण भेदभाव नहीं था. सभी मानव जाति एक थी और एकता के भाव को रखते हुए सबके लिए सुख शांति की कामना करते थे. वैदिक काल में आध्यात्मिकता सिखलाई जाती थी जिसे हासिल कर के स्वाभाविक ही शारीरिक और मानसिक सभी भेदभाव नहीं पाये जाते थे.

2. रामायण कालः
रामायण काल में भगवान राम ने भीलनी के जूठे बेर खाए और वानरों की सेना बनाकर लंका पर चढ़ाई की. रावण पर विजय पाकर सीता को ले आए. ऋषि वाल्मीकि से ऊँची और श्रेष्ठ जाति वालों ने ब्रह्मज्ञान हासिल किया. माता सीता बनवास मिलने पर वाल्मीकि आश्रम में रहीं और वहाँ ही लव और कुश को जन्म दिया.

3. महाभारत कालः
महाभारत काल में सुपच चंडाल के बिना पाण्डवों का यज्ञ संपूर्ण न हुआ. जब महाभारत की लड़ाई खत्म हुई तो श्री कृष्ण भगवान ने पाण्डवों को बुला कर कहा कि अश्वमेध यज्ञ कराओ, प्रायश्चित करो, नहीं तो नरकों में जाओगे और तुम्हारा यज्ञ तब सम्पूर्ण होगा जब आकाश में घंटा बजेगा. पाण्डवों ने यज्ञ किया, सारे भारतवर्ष के साधु-महात्मा बुलाये. सब खा चुके पर घंटा न बजा. सोचा कि भगवान को नहीं खिलाया. भगवान कृष्ण ने भी भोजन किया, परन्तु फिर भी घंटा न बजा. आखिर कहने लगे कि भगवन आप योगदृष्टि से देखो, कोई रह तो नहीं गया है. भगवान ने कहा कि एक निम्न जाति का साधु है, नाम सुपच है. उसको बुलाओ तब आपका यज्ञ सम्पूर्ण होगा. पाण्डव वहाँ गए कि महात्मा जी! हमारे यहाँ यज्ञ है आप चलकर सम्पूर्ण करो. महात्मा ने कहा कि मैं उसके घर जाता हूँ जो मुझे एक सौ एक अश्वमेध यज्ञ का फल दे. वे कहने लगे कि हमारा तो एक यज्ञ भी सम्पूर्ण नहीं हो रहा है और तुम एक सौ एक यज्ञ का फल माँग रहे हो. वह बोला कि मेरी तो शर्त यही है. पाँचों पाण्डव बारी-बारी गए लेकिन महात्मा ने अपनी शर्त नहीं बदली. हार कर वापिस आ गए. पाण्डव निराश हो बैठे थे कि द्रौपदी ने कहा, “आप उदास क्यों बैठे हो? मैं सुपच को लाती हूँ, यह भी कोई बड़ी बात है?” उठी, नंगे पैरों पानी लाई, अपने हाथों से प्यार के साथ खाना बनाया. फिर नंगे पैर चल कर महात्मा के पास गई और अर्ज  की, “महात्मा जी! हमारे यहाँ यज्ञ है. आप चल कर सम्पूर्ण करें.” महात्मा ने कहा कि तुम्हें पाण्डवों ने बताया होगा कि मेरी क्या शर्त है? कहने लगी कि महाराज मुझे पता है. महात्मा ने कहा, लाओ फिर एक सौ एक यज्ञों का फल. द्रौपदी ने कहा, “महात्मा जी, मैंने आप जैसे सन्तों से सुना है कि जब सन्तों की ओर जाते हैं तो एक-एक कदम पर अश्वमेध का फल होता है. इसलिए मैं जितने कदम आप के पास चल कर आई हूँ, उसमें से एक सौ एक अश्वमेध यज्ञों का फल आप ले लें और बाकी मुझे दे दें. यह सुनकर सुपच चुपचाप द्रौपदी के साथ चल पड़ा. जब खाना परोसा तो महात्मा ने सब प्रकार के व्यंजनों को एक में मिला दिया, यह दिखाने के लिए कि एकता में विजय है. द्रौपदी दिल में कहने लगी कि आखिर नीच जाति ही निकला. अगर अलग-अलग खाता तो इसको पता लग जाता कि द्रौपदी के खाने में क्या स्वाद है. जब खा चुका तब भी घंटा न बजा. श्री कृष्ण जी से पूछा गया कि अब क्या कसर है? भगवान ने कहा द्रौपदी से पूछो, उसके मन की कसर (कमी) है. जैसा उसने ख्याल किया, वैसा हो गया. जब द्रोपदी ने अपना मन शुद्ध कर लिया, तो घंटा बजा. इसलिए सिद्ध हुआ कि इन तीनों कालों में छुआछूत नहीं थी.

क्या शूद्र अछूत थे? चारों वर्णों के गोत्र ऋषियों के नाम पर प्रचलित थे. पहले ये सात ही गोत्र थे, फिर बाद में ज्यादा हो गए. (1) विश्वामित्र (2) जमदग्नि (3) भरद्वाज (4) गौतम (5) अत्रि (6) वशिष्ठ (7) कश्यप. अब भी अगर सरकारी जाति कोष पढ़े जाएँ तो पता चलेगा कि हिन्दुओं में बहुत सी उपजातियाँ और गोत्र समान हैं. कई उपजातियाँ और गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में अब भी मिलते हैं.
1. जब जातिवाद या वर्णवाद प्रचलित था, इतिहास सिद्ध करता है कि चारों वर्ण एकता और समानता का जीवन गुजारा करते थे. आपस में सब मिलकर खाया करते थे. आपस में सब सम्बन्ध रखते थे.

2. लड़के लड़कियों की शादियाँ आपस में हो जाती थीं. मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता मगर बड़े-बड़े ऋषि शूद्र स्त्रियों से पैदा हुए.

3. रंग-ढंग में फर्क नहीं था. चारों वर्णों में लोगों के रंग काले भी थे और गोरे भी थे. सब अपना-अपना काम करते हुए एक दूसरे का सत्कार करते थे. यदि हम महाभारत के शान्ति पर्व और वन पर्व को पढ़ें तो पता चलता है कि ब्राह्मण और शूद्र कर्म और संस्कार से बनते हैं, किसी जाति विशेष के पुरुष के वीर्य से नहीं.
नाना प्रकार की जातियाँ कैसे बन गईं?

1. अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी तो कब आरम्भ हुई. अधिकतर पुराणों और स्मृतियों में इसका उल्लेख है. ये ग्रन्थ भी सन्तों-ऋषियों द्वारा लिखे गये जिसमें उन्होंने अपने विचार इस ढंग से प्रकट किए जिसके अनेक अर्थ निकलते हैं. यह उनकी वर्णन शैली का चमत्कार था. उन्होंने अपने अन्तर के अनुभव, जिसे उन्होंने बड़े-बड़े साधन करके, अनुष्ठान करके प्राप्त किया, कथा-कहानी के रोचक रूप में समय की मांग के मुताबिक ग्रन्थों में भर दिया. समय व्यतीत होने पर लोगों ने उनके असली भाव को न समझ कर उलटे अर्थ लगा लिए जो हिन्दू समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए. ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में एक श्लोक में आता :-

विश्वकर्मा च शुद्रायां वीर्याधान चकार ह।
ततो बभूवः पुत्रास्ते नवैते शिल्पकारिणः ।।
मालकारः कर्मकारः शंखकारः कुविन्दकः।
कुम्भकारः कांसकारः षडेते शिल्पिनां वराः ।।
सूत्रधारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च।
पतितास्ते ब्रह्मशपाद्‌ अजात्या वर्णसंकराः ।।
क्षत्रावीर्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापत।
बलवत्योदुरन्ताश्चबभूवुर्म्लेच्छजातयः


इसका अर्थ इस समय के या बीते समय, जब अज्ञानता बढ़ी, तो लोगों ने इसका जो बाह्य अर्थ समझा वो निम्नलिखित हैः-

‘विश्वकर्मा ने शूद्रा के गर्भ से नौ शिल्पकार पुत्र उत्पन्न किये थेः माली, लुहार, शंखकार, कुविन्द, कुम्हार, कंसेरा, बढ़ई, चित्रकार और सुनार. क्षत्रिय पिता और शूद्रा माता के संयोग से म्लेच्छ की उत्पत्ति हुई.‘
विश्वकर्मा कोई विशेष व्यक्ति नहीं हुआ. विश्वकर्मा ब्रह्म या हमारी उस आंतरिक दिव्य शक्ति का नाम है जो हमें कर्म में प्रवृत्त करती है अर्थात्‌ एक ख्याल है जो हमें अपनी इच्छापूर्ति के लिए कर्म करने पर  विवश करता है. जिस नियम के अनुसार हमारे शरीर पर बाह्य प्रभावों से हमारा मस्तिष्क प्रभावित होता है, उसी नियमानुसार जैसी-जैसी माँग तथा आवश्यकता संसार में होती है, ऊपर के लोकों से एक शक्ति आकर उस माँग तथा आवश्यकता की पूर्ति करती है. जो शक्ति हमें शारीरिक श्रम व उद्योग में प्रवृत्त करती है, उसका नाम विश्वकर्मा है. समाज चाहे तो किसी समय के ऐसे व्यक्ति जो हमें उद्योगों में लगने की प्रेरणा करता है उसको अवतार का नाम दे दे. इसी प्रकार जिस शूद्रा का उल्लेख इस ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में किया गया है वह शूद्रा कोई विशेष स्त्री या महिला नहीं थी. वो हमारे अन्दर वासना या इच्छा के रूप में आकर उस इच्छा की पूर्ति के लिए हमें गति में लाती है, हरकत करने के लिए विवश करती है या कर्म करवाती है. क्योंकि वो इच्छा हमारे अंतर से प्रकाश स्वरूपी आत्मा की शक्ति से आती है इसलिए आत्मा का सम्बन्ध इस स्थूल या सबल देह के साथ हो जाने से हमारा विश्व बन जाता है. तो जिस शक्ति ने अन्तर यह सब कराया, उसको ऊपर व्यक्त किया गया है. उस शक्ति का नाम विश्वकर्मा रखा गया है और उस चाह, इच्छा या वासना का नाम बाहरी रूप में शूद्रा रखा गया है.

चाह चूहड़ी चाह चमारी चाह नीचन ते नीच
मैं तो शुद्ध ब्राह्मण था जो यह न होती बीच
                                          -कबीर

जब रजोगुण वृत्तियाँ रखने वाले मनुष्य जिसको क्षत्रिय कहा गया है, के अन्तर मलिन वासना या इच्छा पैदा होती है और उन वासनाओं के अधीन जो बुरे अशुद्ध विचार पैदा हो जाते हैं, उन विचारों का नाम म्लेच्छ है और बाह्य रूप में ऐसे विचार रखने वाले व्यक्ति को भी म्लेच्छ कहते हैं. जिसके अन्दर मलिन वासनाएँ उठती हैं वास्तव में वही म्लेच्छ है. इसमें कोई जाति पाँति का प्रश्न नहीं हैं. तो सिद्ध हुआ कि ऋषियों ने जिन्होंने ये पुराण आदि ग्रन्थ लिखे उनके असली भाव को न समझते हुए अज्ञानवश छुआछूत चल पड़ी. सिद्ध हो गया कि संसार की उत्पत्ति या हम मानव जाति आशा या इच्छा ही की उत्पत्ति हैं. इसी तरह जब उन महापुरुषों, जो ये नौ प्रकार की सेवाएँ करते थे, में जब यह चाह पैदा हुई कि यह सेवा भविष्य में भी चलती रहे तो उनकी इस चाह ने अपनी जाति या अस्तित्व को आगे बढ़ाया और नौ प्रकार की जातियां चल पड़ीं. उसको पुराण के शाब्दिक अर्थों में ‘विश्वकर्मा ने शूद्रा द्वारा नौ प्रकार की जातियाँ उत्पन्न कीं’ कहा गया है. बात क्या थी और हमने अज्ञानवश क्या समझ लिया.

नाना प्रकार की जातियाँ कैसे बन गईं?

1. अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी तो कब आरम्भ हुई. अधिकतर पुराणों और स्मृतियों में इसका उल्लेख है. ये ग्रन्थ भी सन्तों-ऋषियों द्वारा लिखे गये जिसमें उन्होंने अपने विचार इस ढंग से प्रकट किए जिसके अनेक अर्थ निकलते हैं. यह उनकी वर्णन शैली का चमत्कार था. उन्होंने अपने अन्तर के अनुभव, जिसे उन्होंने बड़े-बड़े साधन करके, अनुष्ठान करके प्राप्त किया, कथा-कहानी के रोचक रूप में समय की मांग के मुताबिक ग्रन्थों में भर दिया. समय व्यतीत होने पर लोगों ने उनके असली भाव को न समझ कर उलटे अर्थ लगा लिए जो हिन्दू समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए. ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में एक श्लोक में आता :-

विश्वकर्मा च शुद्रायां वीर्याधान चकार ह।
ततो बभूवः पुत्रास्ते नवैते शिल्पकारिणः ।।
मालकारः कर्मकारः शंखकारः कुविन्दकः।
कुम्भकारः कांसकारः षडेते शिल्पिनां वराः ।।
सूत्रधारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च।
पतितास्ते ब्रह्मशपाद्‌ अजात्या वर्णसंकराः ।।
क्षत्रावीर्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापत।
बलवत्योदुरन्ताश्चबभूवुर्म्लेच्छजातयः


इसका अर्थ इस समय के या बीते समय, जब अज्ञानता बढ़ी, तो लोगों ने इसका जो बाह्य अर्थ समझा वो निम्नलिखित हैः-

‘विश्वकर्मा ने शूद्रा के गर्भ से नौ शिल्पकार पुत्र उत्पन्न किये थेः माली, लुहार, शंखकार, कुविन्द, कुम्हार, कंसेरा, बढ़ई, चित्रकार और सुनार. क्षत्रिय पिता और शूद्रा माता के संयोग से म्लेच्छ की उत्पत्ति हुई.‘
विश्वकर्मा कोई विशेष व्यक्ति नहीं हुआ. विश्वकर्मा ब्रह्म या हमारी उस आंतरिक दिव्य शक्ति का नाम है जो हमें कर्म में प्रवृत्त करती है अर्थात्‌ एक ख्याल है जो हमें अपनी इच्छापूर्ति के लिए कर्म करने पर  विवश करता है. जिस नियम के अनुसार हमारे शरीर पर बाह्य प्रभावों से हमारा मस्तिष्क प्रभावित होता है, उसी नियमानुसार जैसी-जैसी माँग तथा आवश्यकता संसार में होती है, ऊपर के लोकों से एक शक्ति आकर उस माँग तथा आवश्यकता की पूर्ति करती है. जो शक्ति हमें शारीरिक श्रम व उद्योग में प्रवृत्त करती है, उसका नाम विश्वकर्मा है. समाज चाहे तो किसी समय के ऐसे व्यक्ति जो हमें उद्योगों में लगने की प्रेरणा करता है उसको अवतार का नाम दे दे. इसी प्रकार जिस शूद्रा का उल्लेख इस ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में किया गया है वह शूद्रा कोई विशेष स्त्री या महिला नहीं थी. वो हमारे अन्दर वासना या इच्छा के रूप में आकर उस इच्छा की पूर्ति के लिए हमें गति में लाती है, हरकत करने के लिए विवश करती है या कर्म करवाती है. क्योंकि वो इच्छा हमारे अंतर से प्रकाश स्वरूपी आत्मा की शक्ति से आती है इसलिए आत्मा का सम्बन्ध इस स्थूल या सबल देह के साथ हो जाने से हमारा विश्व बन जाता है. तो जिस शक्ति ने अन्तर यह सब कराया, उसको ऊपर व्यक्त किया गया है. उस शक्ति का नाम विश्वकर्मा रखा गया है और उस चाह, इच्छा या वासना का नाम बाहरी रूप में शूद्रा रखा गया है.

चाह चूहड़ी चाह चमारी चाह नीचन ते नीच
मैं तो शुद्ध ब्राह्मण था जो यह न होती बीच
                                          -कबीर
इस सिलसिले में मैं आपको संतों की वाणी सुनाता हूँ. हुजूर दाता दयाल महर्षि शिवव्रत लाल जी महाराज का शब्द हैः-
आसा इस भव के कारागार में, सचमुच जम की फांसी है।
आसा का बन्धन काटे वह, गुरमुख है गुर विश्वासी है ।।
आसा वाले को चैन कहां, आसा के साथ है त्रास घनी।
मंगल आनन्द का भागी वह, संसार से जिस को उदासी है ।।
जैसी आसा वैसी वासा, जब लग आसा तब लग बासा।
जो आसा का बन्धन काटे, सत मत का वह अभ्यासी है ।।
आसा है जन्म मरण प्यारे, आसा तज दे फिर मुक्ति है।
आसा को सोच विचार ले तू, जड़ चेतन ग्रन्थि की गांसी है ।।
आसा में दुविधा दुचिताई, आसा में भय लज्जा रहते।
यह तीनों पाप अवस्था हैं, तज इनको फिर सुखरासी है ।।
आसा त्रिगुण की खानी है, यह सत रज तम की रासी है।
रज ब्रह्म सत है विष्णुबली, तम शिव शम्भू कैलाशी है ।।
आशा है काम क्रोध लालच, आसा मद मोह द्वेष की जड़ ।
क्यों आस में पड़ के निराश हुआ, तेरा रूप अजर अविनाशी है ।।
सत्संगत में सतगुर के जा, सुन हित चित से गुर की वानी।
बानी सुन सुन निर्बानी हो, गुरू बानी सर्व प्रकाशी है ।।
राधास्वामी ने समझाया, घट ही में है तेरे सब कुछ।
घट में धँस आपा अपना परख, जल में क्यों मीन प्यासी है ।।

जब रजोगुण वृत्तियाँ रखने वाले मनुष्य जिसको क्षत्रिय कहा गया है, के अन्तर मलिन वासना या इच्छा पैदा होती है और उन वासनाओं के अधीन जो बुरे अशुद्ध विचार पैदा हो जाते हैं, उन विचारों का नाम म्लेच्छ है और बाह्य रूप में ऐसे विचार रखने वाले व्यक्ति को भी म्लेच्छ कहते हैं. जिसके अन्दर मलिन वासनाएँ उठती हैं वास्तव में वही म्लेच्छ है. इसमें कोई जाति पाँति का प्रश्न नहीं हैं. तो सिद्ध हुआ कि ऋषियों ने जिन्होंने ये पुराण आदि ग्रन्थ लिखे उनके असली भाव को न समझते हुए अज्ञानवश छुआछूत चल पड़ी. सिद्ध हो गया कि संसार की उत्पत्ति या हम मानव जाति आशा या इच्छा ही की उत्पत्ति हैं. इसी तरह जब उन महापुरुषों, जो ये नौ प्रकार की सेवाएँ करते थे, में जब यह चाह पैदा हुई कि यह सेवा भविष्य में भी चलती रहे तो उनकी इस चाह ने अपनी जाति या अस्तित्व को आगे बढ़ाया और नौ प्रकार की जातियां चल पड़ीं. उसको पुराण के शाब्दिक अर्थों में ‘विश्वकर्मा ने शूद्रा द्वारा नौ प्रकार की जातियाँ उत्पन्न कीं’ कहा गया है. बात क्या थी और हमने अज्ञानवश क्या समझ लिया.

इसलिए स्त्रियों की पवित्रता पर संशय करके उनकी सन्तान का बहिष्कार जो किसी समय हुआ वो अज्ञान था जिसके कारण नाना प्रकार की जातियाँ बन गईं.
1. किसी खास प्रदेश या गाँव में बसने से उसी प्रदेश या गाँव के नाम पर जातियाँ बनीं. यह प्रथा इस वक्त भी है. कई हिन्दू जातियाँ ऐसी हैं जो ब्राह्मण तो नहीं, मगर वो अपनी जाति में विवाह आदि, यज्ञ आदि कराने वाले को ब्राह्मण मान लेती हैं और उसको पंडित जी कहते हैं.
2. भिन्न-भिन्न गुण कर्म स्वभाव सेः पिछले समय में यज्ञ आदि करने की रीति प्रचलित थी. जब ऋषि मुनि साधन-अभ्यास में बैठते थे तो अपने अन्तर सावित्री या प्रकाश को पैदा करते थे. पहले अपनी तमोगुणी वृत्तियों की आहुति देते थे. जब तमोगुणी गुण से छुटकारा मिल जाता था तो फिर रजोगुणी वृत्तियों की अपने अन्तर में आहुति देते थे. अन्त में सतोगुणी वत्तियों की भी आहुति देकर शुद्ध प्रकाश स्वरूप अवस्था में चले जाते थे. जब वह समय आया कि लोग इस असली यज्ञ को करने में असमर्थ हो गए तो लोगों ने अज्ञानवश बाहर की कुरबानियाँ अर्थात्‌ त्याग बना लिए और बकरे, घोड़े और बैलों को मारना यज्ञ समझ लिया. जिन लोगों ने पहले पहल ये कुरबानियां दीं उन लोगों को भी नीच अछूत निश्चित करके उनका समाज से बहिष्कार कर दिया.

3. खाने पीने के लिहाज से भी जातियाँ बन गईं. यह भी अज्ञानता थी. भोजन से ही हमारे अन्तर तरह-तरह की हालतें पैदा होती हैं. जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन. इसमें कोई जाति विशेष का सवाल नहीं.

4. पत्थरों पर खुदे साहित्य में तब्दीली के कारण जो कि आसानी से बदला जा सकता था.
6. हिन्दू जाति ऐसी बलवान थी, जिसने धार्मिक स्वतन्त्रता सबको दी थी, मगर व्यावहारिक स्वतन्त्रता नहीं दी. जहाँ किसी ने व्यवहार तोड़ा उसको बिरादरी से खारिज कर दिया.
6. किसी संन्यासी के फिर से गृहस्थ में प्रवेश करने पर उसकी सन्तानें अस्पृश्य होकर नई जाति बन जाती थी.

छुआछूत कब और क्यों?

1. इस बात का पता कि छुआछूत क्यों और कब बनी, हतिहास से नहीं मिला, मगर युक्ति से सिद्ध होता है कि समय के अनुसार इसी जाति, वर्ण, समाज, भाव का प्रयोग धीरे-धीरे अज्ञानवश अपनी श्रेष्ठता कायम रखने के लिए, कुछ धन सम्पत्ति बढ़ाने के लिए किया गया.  अपने को ऊँचा बनाया गया और दूसरों को नीच और अछूत कहा गया. साधारण मानव यह चाहता है कि मैं सत्ता का स्वामी बन जाऊँ, धन इकट्‌ठा कर लूँ और उसका भी कोई अंत नहीं. उसकी इस कामना का अंत नहीं होता. वो चाहता है कि ये सब चीजें मेरी आने वाली पीढियाँ भोगें. मेरी जाति, मेरा वर्ण इन सब चीजों का मालिक होवे. अब पहले राजनीति में ले लें. बड़े-बड़े नेता चाहते हैं कि हमारे बाल बच्चे भी हमारी तरह ऊँचे पदों पर आएँ. धर्म, पंथ और सम्प्रदाय के गुरु लोग भी अपने मरने के पश्चात्‌ अपने बच्चों को गदि्‌दयाँ दे जाते हैं. यह भावना अपने आप को उभारने और दूसरों को दबाने का ज़रिया बनती है. यहाँ तक कि दूसरों को अछूत बना कर हमेशा के लिए दलित बना दिया ताकि लोग उनकी आने वाली पीढियों की समानता न कर सकें.

2. किसी देश में राष्ट्रीयता न होने के कारणः-अपनी जाति, अपनी भाषा और अपना प्रदेश बनाकर कमजोर वर्ग के लोगों को उन्नति करने के साधनों से वंचित रखा जाता था. भारत पर जब बाहर से आक्रमण हुए तो अनेक जातियाँ और अनेक उपजातियाँ और वर्ण होने के कारण मुकाबला न हो सका और हार कर सदियों के लिए गुलाम और असहाय बने रहे.

4. लम्बे समय तक एक काम करने के कारणः- हिन्दुओं ने वर्णव्यवस्था बनाई. उस समय इसकी आवश्यकता होगी. हर एक आदमी के गुण, कर्म और स्वभाव के मुताबिक अलग-अलग काम बाँटे गए. शूद्रों ने समाज की सेवा के कार्य अपने जिम्मे लिए. लम्बे समय तक जो काम किया जाए आदमी उसी का रूप बन जाता है. जैसा काम वैसा नाम, जैसा नाम वैसा रूप. यह सारी सृष्टि नामरूप की है. कर्मों के संस्कारों द्वारा जो काम कोई करता है, उसकी वही जाति बन गई. मैं सब का नाम तो नहीं लेना चाहता क्योंकि अब समय बदल रहा है. कोई शूद्र कहलाना नहीं चाहता क्योंकि यह शब्द घृणा सूचक हो गया है. अगर तमाम शूद्र जातियों के नाम दिये जाएँ तो सम्भव है कि किसी के मन का ठेस पहुँचे. मगर इशारे के तौर पर लिखना जरूरी है. कपड़े धोने वाले का काम करने वाले धोबी बन गए. हजामत का काम करने वाले हज्जाम बन गए. कृषि का काम करने वाले कृषक बन गए. इस तरह और भी समझिये. जिन जातियों की सेवाएँ कुछ घटिया किस्म की थीं वो अछूत बन गईं और जिनकी सेवाएँ कुछ अच्छी थीं और उनके बगैर गुजारा नहीं था वो छूत बन गई.

5. विवेक न होने के कारणः- इस सिलसिले में कबीर साहिब का एक शब्द हैः-

पंडित सुनहु मनहिं चित लाई ।

पंडित के कई अर्थ हैं. एक अर्थ तो यह है कि आत्मविषयक बुद्धि पंडा है और वह पंडा बुद्धि जिसमें हो वह पंडित है. दूसरे जो ब्राह्मण या पंडित के घर पैदा हो, उसको पंडित कहते हैं. तीसरे जो कर्मकाण्ड का अनुयायी है और प्रचार करता है. मगर इस शब्द में कबीर साहिब ने उस व्यक्ति को सम्बोधित किया है जो विद्वान हो, पुस्तकीय ज्ञान रखता हो, विवेकहीन हो और लोगों को उपदेश करता है. ऐसे लोगों को संत कबीर कहते हैं कि भाई छुआछूत सब मन का खेल है.

जोई सूत के बन्यो जनेऊ, ताकि पाग बनाई।
धोती पहर के भोजन कीन्हा, पगरी में छूत लगाई ।।

कबीर साहिब कहते हैं कि तमाम वस्त्र सूत के बनते हैं. एक ही सूत सब में है. जनेऊ, धोती, पगड़ी आदि सभी सूत से बने मगर भोजन खाते समय पगड़ी निषेध कर दी जाती है या पगड़ी को अछूत समझने लग जाना यह ठीक नहीं. जिस तरह तमाम वस्त्र एक सूत से बने हैं, उसी तरह सब जीव जन्तु एक ही मालिक और पाँच तत्त्वों से बने हैं, किसी को नीच कह देना ठीक नहीं.

रक्त मांस को दूध बनो है, चमड़ा धरी दुराई।
सोई दूध से पुरखा तरिगे, चमड़ा में छूत लगाई ।।

दूध रक्त मांस से बनता है और यह सब चमड़े के अन्दर होता है. दूध पीने से सभी प्रसन्न चित्त हो जाते हैं, मगर चमड़े और चमड़े का काम करने वाले के साथ घृणा करते हैं. चमड़ा, रक्त, मांस और दूध सब एक ही तत्त्व से बने हैं. किसी को बुरा भला कहना विवेक हीनता है.

जन्म लेत उढ़री अबला के लै मुख छीर पियाई।
जब पंडित तुम भये ज्ञानी चालत पंथ बड़ाई ।।
हम सब माता के पेट से पैदा हुए हैं. माता के पेट में एक न दिखाई देने वाला स्पर्मेटोरिया जर्म पिता के वीर्य से आया. पिता का वीर्य और  माता का रज, जो उन्होंने अन्न खाया, उससे बना. अन्न पृथ्वी से पैदा हुआ. पृथ्वी में अन्न तब तक नहीं उत्पन्न हो सकता जब तक चांद, सूरज और सितारों की किरणें उन पर न पड़ें अर्थात्‌ यह सारी सृष्टि, यह प्रकृति और उनके तत्त्व प्रकाश से बने हैं. इसीलिए हम लोग धरती को माता और सूर्य को पिता कहते हैं. अब उढ़री अबला से कबीर साहिब का क्या भाव है, पता नहीं. बीते समय में उपपत्नियों, दासियों या असहाय अबला नारियों के सन्तान उत्पन्न हो जाती थी. ऐसी माताओं के गर्भ से पैदा होकर, उसका दूध पीकर जब बड़े हो जाते थे और जब बुद्धि बढ़ जाती थी तब वैसी माताओं के दोष देखने लग जाते थे. ये दोष चाहे शारीरिक हों, मानसिक हों या सामाजिक कुरीतियों की वजह से, ज्ञान और विवेक न होने के कारण उनको अछूत बना लेते थे. यह भूल जाते थे कि वास्तव में हमारा जीवन एक ही प्रकाश, उससे बनी प्रकृति और तत्त्वों से बना है. तो कबीर साहिब फरमाते हैं:-

कहे कबीर सुनो हो पंडित नाहक जग में आई।
बिना विवेक ठौर न कतहूँ, विरथा जन्म गंवाई ।।

आखिर में कबीर साहिब फरमाते हैं कि अगर इस संसार में आकर हमें सत-असत, गलत और ठीक का ज्ञान नहीं हुआ, निश्चयात्मक बुद्धि नहीं मिली तो हमारा जन्म व्यर्थ जाता है. एक मालिक की सन्तान हैं. यहाँ रंगरूप में भिन्नता आ गई और हम विवेक के खो जाने के कारण अपने दुखों को दूर करने के लिए कोई न कोई सामाजिक सिद्धांत बनाते हैं. कुछ समय के लिए वो सिद्धांत काम करते हैं. मगर फिर व्यवस्था बिगड़ जाती है और उसी का परिणाम छुआछूत है. वह वर्ण व्यवस्था अर्थात्‌ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के काम करने की शक्तियाँ स्वाभाविक ही प्रत्येक मानव के अन्तर हैं, किसी में थोड़ी किसी में ज्यादा. उनमें संस्कारों के कारण परिवर्तन भी आता रहता है. इसलिए जातिवाद वर्ण व्यवस्था द्वारा छुआछूत सर्वदा असंगत है. इसलिए विवेक की जरूरत है लेकिन विवेक कैसे प्राप्त हो.
हमारे समाज में कई ऋषि, मुनि, साधु संत हुए हैं जो आध्यात्मिकता के मार्ग पर चल कर अपना जीवन व्यतीत करते रहे हैं. ऐसे महापुरुषों के सत्संग द्वारा इन्सान में विवेक आता है. सन्त तुलसीदास जी ने लिखा हैः-
बिन सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिन सुलभ न सोई।
संत महात्माओं के सत्संग के द्वारा हमें समाज में सुखी रहने का रास्ता मिलता है. वो सच्ची शिक्षा देते हैं जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिकता से होता है. उनका मार्ग अपने अन्तर के साधन द्वारा प्राप्त की गई अवस्थाओं से होता है. उस पर विशेष आदमी अन्तर का साधन करके उस ज्ञान को प्राप्त कर सकता है. सर्वसाधारण के लिए उनके कहे हुए वचनों पर विश्वास करके अपना जीवन सफल बनाना है.
इस जाति वर्ण भेद या छुआछूत के सिलसिले में मैं आपको धनी धर्मदास जी का एक शब्द सुनाता हूँ जिससे हमको पता लग जाता है कि छुआछूत का असली कारण क्या है. कब और कैसे चली? इस विषय में धनी धर्मदास का एक शब्द हैः-

कैसे मैं आरति करूँ तुम्हारी, महा मलिन साहब देह हमारी।।

धनी धर्मदास जी फरमाते हैं कि ऐ मालिक, मैं तुम्हारी आरती कैसे करूँ? आरती करते समय स्वयं आरत बनकर हम अपने इष्ट को बाहरी रूप में सजाते हैं. सुन्दर भूषण, वस्त्र पहनाते हैं और इष्ट से प्रेम-प्रीति लाते हैं. थाली में दिया धूप आदि रखकर उसके सुन्दर मुखड़े के इर्द गिर्द घुमाते हैं. फिर कई अमूल्य वस्तुएँ भेंट करते हैं. फिर अपने शब्दों में या दूसरे किसी महापुरुष के गढ़े हुए शब्दों में गाना गाया जाता है. मगर हुजूर धर्मदास जी कह रहे हैं कि ऐ मालिक, मैं तेरी आरती कैसे करूँ, क्योंकि मेरा तन-मन महामलीन है. सच्चे साधक जब अपने इष्ट की आरती करते हैं तो सखियाँ या इन्द्रियां भी साथ गाती हैं. मगर मलिन तन-मन से, सखियों का भी मलिन रूप से आरती का होना धनी धर्मदास कठिन समझते हैं. सभी सन्तों ने आरतियाँ लिखी हैं, कितने प्रेम और उमंग के साथ लिखीं. आरती एक तो एहसान के जज़्बे में की जाती है, दूसरे देखा-देखी असलियत की नकल की जाती है. एहसान का जज़्बा उस समय पैदा होता है जब सत्गुरु से शक्ति हासिल करके उसकी दया से जब हम इस मलिन या अछूत शरीर और मन से ऊपर जा कर अपने रूप में ठहर जाते हैं. असली आरती अपने मालिक से सदा के लिए मिल जाना है. धर्मदास जी का भी यही अभिप्राय है. ऐ मालिक मैं तुमसे कैसे मिलूँ? मलिन देह के कारण मिलना मुश्किल है.
देह की मलीनता तो सब जानते हैं. हमारी देह हाड़, मांस, रक्त, नस नाडियाँ और चमड़े से बनी है. इसमें से मल, मूत्र, नाक, थूक, गीध कान का बहना, पसीना आदि निकलते रहते हैं उसको साफ रखने के लिए हमें प्रत्येक दिन नहाना धोना पड़ता है. नए वस्त्र डालें तो कुछ दिनों के बाद वस्त्र गंदे हो जाते हैं. फिर धोने पड़ते हैं. इसी तरह मन में अच्छे और बुरे विचार भी उठते रहते हैं. साइंस कहती है कि आदमी का शरीर एक रेडियो स्टेशन की भांति है. इसमें से रेडियेशन निकलती है और हमारे सम्पर्क में आने वाले पर असर करती है. हमारे अच्छे-बुरे विचार ब्रह्मांड में रहते हैं और लोगों पर असर करते हैं. इस देही में आने पर बड़े-बड़े सन्तों ने अपने आपको पतित, नीच कहा. गुरु नानक साहिब ने अपने आपको ‘मैं नीचन ते नीच’ कहा. सन्त तुलसीदास जी ने अपने आपको ‘अधम’ और पुरातन पतित कहा. भगत सूरदास जी का शब्द हैः-

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जिन तन दियो ताहि बिसरायो ऐसो निमक हरामी ।।
भर भर उदर विषय को धावों जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड हरिविमुखन की निसी दिन करत गुलामी ।।
पापी कौन बड़ो है मो ते, सब पतितन में नामी।
सूर पतित को ठौर कहाँ है, सुनिए श्रीपति स्वामी ।।

छूते से उपजा संसारा, मैं छुतिया गुन गाऊँ तुम्हारा।।
इस देह और मन से संसार की उत्पत्ति होती है क्योंकि इस देह और मन से चौरासी में घूमने की व्यवस्था की गई है. जितने भी संसार के प्राणी हैं जो देह और मन रखते हैं, इसी मलिन देह द्वारा पैदा होते रहते हैं और आगे अनगिनत देहधारी इस संसार में आते, कुछ दिन रहते और अंत में नाश को प्राप्त होते हैं. मगर छुआछूत का ज़माना कैसे आया. लोग अपनी हस्ती को भूल गए. एक ‘मैं पना’ आ जाने के कारण अपने आपको ऊँचा और दूसरे देहधारियों को नीचा समझने लग गए. जितने हमारे मन के विचार हैं, यही संसार है. आगे धनी धर्मदास जी कहते हैं –‘मैं छुतिया गुन गाऊँ तुम्हारा’- जब हमारी सुरत उस देह मन में आ जाती है, हम जीव रूप हो जाते हैं, तो फिर मालिक के गुण गाते हैं. हे मालिक, आपने मुझे जीव रूप बना दिया, आप दया के सागर हैं, पतित उद्धारनहार हैं. मुझ छुतिया को अपने साथ मिला लो. हम इस देह-मन से छुटकारा चाहते हैं, क्यों कि ये छूत हैं. इसमें रहने से हम नीच बन जाते हैं, पतित और अछूत बन जाते हैं. हमारी सुरत के सामने यह शरीर और मन के खेल या अहसासात, बोध-भान ऐसे आते हैं जिनको सत्य मानना पड़ता है, सार मानना पड़ता है. इस मलिन और अछूत अवस्था का हमारे सामने सार बन कर आना ही संसार कहलाता है. अगर सुरत इनमें न हो, तो कोई संसार नहीं. सत्गुरु की आरती हम इसलिए  करते हैं कि वो हमारे दुखदायी मलिन और अछूत संसार को लोप कर देता है और धर्मदास जी ने ठीक कहा है कि मेरा इस मलिन देह जो वास्तव में अछूत है, छू जाने से मेरा संसार बन जाता है और हमारी सुरत ‘छुतिया’ हो जाती है, भ्रष्ट महसूस करती है, पतित या गिरी हुई महसूस करती है.

गुरु रविदास जी महाराज के अमृतवचन सुनें उनका शब्द हैः-

बेग़मपुरा शहर को नाऊँ, दुख अंदोह नहीं तिस ठाऊँ।
गुरु रविदास जी महाराज इस शब्द में लिखते हैं कि देह-मन की संगत छोड़ कर मेरी एक ऐसे देश में रहनी बन गई जो बेग़मपुरा है. उस बेग़म देश में कोई दुख अंदेशा नहीं है, अचिंत देश है.

ना तसवीस खिराज न माल, खौफ़ न ख़ता न तरस जवाल।

वहाँ पर हमारे पास कोई माल नहीं होता जिस पर वहाँ जाने वाले को महसूल लग सके. जिसके पास कुछ भी न हो, उसको मसूल का क्या डर.  न वहाँ पाप-पुण्य है, न वहाँ डर है. न पतित होने का या गिरने का डर है. ये सब बातें उस वक्त तक रहती हैं जब तक इस शरीर और मन के कर्मक्षेत्र में हम कार्य करते हैं. किसी इच्छा को लेकर करते हैं, कोई पूरी हो जाती है, कोई नहीं होती. दुख-सुख पैदा हो जाते हैं. उस बेग़मपुरे में ये बातें नहीं.

अब मोहि खूब वतनगाह पाई, उहां खैर सदा मेरे भाई।

वो रहनी आश्चर्यजनक है, वहाँ सदा ही कुशल है.

हर आन हँसी हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा।
जब आशिक मस्त फ़कीर हुआ, फिर क्या दिलगीरी है बाबा।

वतनगाह हमारी रहनी की अवस्था है जिसका गुरु रविदास जी वर्णन कर रहे हैं:-
कायम दायम सदा पातशाही, दोम न सोम एक सो आही ।

उस बेग़म वतनगाह में अर्थात्‌ उस रहनी की अवस्था में इन्सान बादशाह हो जाता है और वो अवस्था सदा के लिए मिल जाती है, फिर उससे आदमी गिरता नहीं. वहाँ पर उस रहनी में रहने वाले के लिए कोई ऊँच-नीच नहीं, कोई जाति-वर्ण-भेद नहीं. यह जो भेदभाव, नीच-ऊँच, दोम-सोम का प्रश्न है, ये मन के राज्य में है. ज्योंहि इस छूत को छोड़ कर उस रहनी में चला जाता है, अटल राज्य मिल जाता है.
अबादान सदा मशहूर। उहाँ ग़नी बसे मामूर।
वो देश हमेशा ही आबा

Wednesday, December 7, 2016

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 ”जातिवाद से पीडित समाज, ऐसे समाज से भी बुरा है, जिसमें गुलामी का प्रचलन हो, यह रंगभेद से भी बदतर है”। राय ने कहा कि ”एक ऐसा समाज जो यह मानता है कि उसके अन्याय के पदानुक्रम क्रम के ढांचे को धर्मग्रंथों की स्वीकृति प्राप्त है-उससे आप कैसे लडेंग़े? और यह एक ऐसा ढांचा है, जो सदियों पुराना है और आप लोगों से कह रहे हैं – या लोग सोचते हैं कि आप उनसे ऐसा कह रहे हैं – कि अन्याय न करने के लिए, वे, उस सब को नकार दें, जो वे हैं क्योंकि अन्याय हर व्यक्ति की बुनावट का हिस्सा है…तो हम इस अन्याय से इस प्रकार कैसे लड़ें कि इसके प्रति हमारे मन में रोष होते हुए भी हम न्याय के विचार को अपने मन में संजोकर रख सकें? हममें अन्याय के प्रति नाराजग़ी तो हो परंतु हमारे मन में न्याय के विचार, प्रेम के विचार, सौंदर्य के विचार, संगीत और साहित्य क विचार भी हो? हम कटुता से भरे क्षुद्र व्यक्ति न बन जाएं? क्योंकि वे तो यही चाहते हैं कि हम ऐसे बन जाएं”।
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एक अंग्रेज़ी-भाषी बंगाली दलित स्त्री की कश्मकश

दलित यदि अपनी अलग पहचान स्थापित करते हैं तो इससे मुक्तिदाता और मुक्तिकामी का जाति पदक्रम छिन्न-भिन्न हो जाता है और मुक्तिदाता की कोई उपयोगिता ही नहीं बचती। इसलिए भद्रलोक हर उस व्यक्ति को बौद्धिक व मनोवैज्ञानिक तरीकों से निशाना बनाते हैं, जो इस श्रम-विभाजन को चुनौती देता है और उसकी अपनी अलग पहचान के दावे को झुठलाते हैंREAD THIS ARTICLE IN ENGLISH
पहले से ही लंबा यह शीर्षक और भी लंबा होता, यदि वह इस लेखक के संपूर्ण व्यक्तित्व (कर्तापन) को अभिव्यक्त करता। उस स्थिति में यह शीर्षक होता, ”कोलकाता, पश्चिम बंगाल में कार्यरत, बुद्धिजीवी बनने की इच्छुक, उपभोक्तावादी व सेक्स के संबंध में उभयभावी अभिमुखता (मैं जानबूझकर ‘समलैंगिक’ शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रही हूं क्योंकि मुझे नहीं मालूम कि इसका अर्थ क्या होता है) वाली, उन्नतिशील, अंग्रेज़ी-भाषी, दलित स्त्रीवादी व विचारक व्यक्ति की कश्मकश”।
भले ही ऐसा प्रतीत होता हो, परंतु यह लेख मेरी व्यक्तिपरकता के विच्छेदन, पहचान व उसे सूचीबद्ध करने का आत्ममुग्ध प्रयास नहीं है। मेरा फोकस एक ऐसे शहर और एक ऐसे विश्वविद्यालय में काम करने के अपने अनुभव को सांझा करने पर है जो देश का बौद्धिकता का अड्डा होने का दंभ भरता है। मैं एक ऐसे विद्यार्थी के रूप में अपनी बात रख रही हूं, जिसने इस विश्वविद्यालय में पांच साल पढ़ाई की है। मैं अन्य दलित विद्यार्थियों की ओर से बोलने का दावा नहीं करती और ना ही मैं उनके जातिगत भेदभाव के अनुभव को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करने का दावा कर रही हूं। ऐसे दलित विद्यार्थी हो सकते हैं जो यह कहेंगे कि उन्हें किसी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा। और ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें अपनी जाति के कारण विश्वविद्यालय में शारीरिक यंत्रणा तक भुगतनी पड़ी हो। मैं इन दोनों में से किसी शिविर में नहीं हूं। यह लेख मेरी जाति के साथ, कैम्पस में मेरी व्यक्तिगत जीवनयात्रा के बारे में है और इस बारे में भी, कि मैंने इस यात्रा को किस तरह पूरा किया और मैं उसे कैसे देखती हूं। इस दृष्टिपात की व्यक्तिगत प्रकृति इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मैं जाति के संबंध में अकादमिक उद्देश्य से भी लेखन, चिंतन और सिद्धांतीकरण करती रही हूँ
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बंगाली भद्रलोक व भद्र महिलाओं द्वारा आमतौर पर दावा किया जाता है कि बंगाल में जाति का अस्तित्व ही नहीं है। क्या हम कभी इस राज्य में जातिगत दंगों या बलात्कारों के बारे में सुनते हैं? यहां ऐसे ब्राह्मण हैं, जिन्होंने अपना यज्ञोपवीत त्याग दिया है, जो गौमांस के शौकीन हैं और जिन्हें एक ही सिगरेट, बीड़ी या चरस को अपने अनुसूचित जाति (दलित नहीं) के साथी के साथ पीने में कोई संकोच नहीं होता। यहां ऐसे आमूल परिवर्तनवादी हैं, जो सड़क किनारे चाय के ठेलों पर घंटों अड्डा जमाते हैं, किसी अनुसूचित जाति (दलित नहीं) के व्यक्ति द्वारा बनाए गए सड़कों पर बिकने वाले खाद्य पदार्थों का जमकर मज़ा लेते हैं और जो जब-तब अपने उस अनूसूचित जाति (दलित नहीं) के सहकर्मी को वर्गदंभी बताते हुए उसका मज़ाक उड़ाते हैं, जो अपने जीवन के पहले पीटर इंग्लैंड पैंट के गंदा हो जाने के डर से धूलभरे फुटपाथ पर बैठने से हिचकिचाता है।
अगर कोई उस असली आमूल परिवर्तनवादी को जानना चाहता है, जो भद्रलोक और भद्र महिलाओं के हृदय में हमेशा वास करता है और जिसकी आग कब-जब भड़क उठती है, तो उसे अड्डों में अवश्य जाना चाहिए। अड्डे, बंगालियों के हृदय, मस्तिष्क और हां, उनके पेट का भी, प्रवेश द्वार होते हैं। अड्डों में बंगाली भद्र समाज के रूमानी, बौद्धिक व चिड़चिड़े पहलू अपनी पूरी नग्नता में देखे जा सकते हैं। यहां क्यूबा की क्रांति पर चर्चा हो सकती है और किसी जानीमानी अंग्रेज़ी साहित्यिक पत्रिका का संपादक किसी पंजाबी (अर्थात गैर-बंगाली) के होने की विदू्रपता को अभिव्यक्त किया जा सकता है। अभी-अभी खरीदे गए चार शयनकक्ष वाले फ्लैट की कीमत से लेकर मायावती के ऐश्वर्यशाली बंगले गरमा-गरम बहस का मुद्दा बन सकते हैं।
मैं एक ऐसी बंगाली दलित हूं जिसे लंबे समय तक भद्र समाज के सदस्यों के साथ समय बिताने और उनके व्यवहार का अवलोकन करने का सौभाग्य/दुर्भाग्य मिला है। मैं उनके स्वभाव की कुछ विचित्रताओं से वाकिफ हूं। शायद आप यह सोच रहे होंगे कि मैं अड्डों और भद्र समाज के बारे में अनावश्यक बातें कर रही हूं। परंतु इन्हीं ने मेरा जातिवाद के अत्यंत घिनौने चेहरे से परिचय करवाया है। यह घिनौना चेहरा तब सामने आता है जब आपके सहपाठी और प्रोफेसर, गैर-ब्राह्मण उपनामों वाले लोगों का मज़ाक उड़ाते हैं और फिर आपकी ओर मुस्कुराकर देखते हुए, दिखावटी क्षमायाचना करते हैं; जब आरक्षित वर्ग (दलित नहीं) के विद्यार्थियों की शैक्षणिक असफलताओं का इस्तेमाल, आरक्षण को विशुद्ध बुराई बताने के लिए किया जाता है और जब आरक्षित वर्ग (दलित नहीं) के विद्यार्थियों के अंग्रेज़ी ज्ञान में कमी को, उनके अंग्रेज़ी-भाषी शिक्षक की प्रज्ञा का अपमान बताया जाता है।
जाति ने अपना सिर तब उठाया जब मैंने ऊँची जाति के एक लड़के का साथ इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वह लैंगिक भेदभाव में विश्वास रखता था। मुझसे कहा गया कि उसने मुझे आसानी से इसलिए जाने दिया क्योंकि जाति पदक्रम में मैं उससे तीन पायदान नीचे थी। जाति ने तब भी सर उठाया जब मेरे दलित मित्रों ने, ऊँची जाति के छात्रों के साथ मेरी दोस्ती को विश्वासघात निरूपित किया। जब मेरा एक प्रेमी मुझे प्रेम से सहला रहा था, तब जाति मेरे मस्तिष्क पर छा गई और मेरे बिस्तर में घुस आई। जब मैं अपना पहला ब्रांडेड बैग खरीदने की खुशी में सराबोर थी या जब मैं महानगर में दस साल रहने के बावजूद 24 साल की उम्र में अपने जीवन का पहला हॉट चाकलेट कप पीने के अपने अनुभव को याद कर रही थी, उस समय मुझे अचानक यह ख्याल आया कि मनु ने दलितों का स्वर्णाभूषण व कीमती रत्न धारण करना प्रतिबंधित किया था।
कुछ समय पूर्व, मार्क्सवादियों के शब्दों में मैं ‘उपभोक्तावादी’ बन गई। और तब यह कहा गया कि मैं दलितों के उद्धारक के वेश में एक पाखंडी हूं। यदि अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों द्वारा अटक-अटक कर अंग्रेज़ी बोलना, कथित रूप से हमारे शिक्षकों की बौद्धिकता का मखौल बनाता था तो इस भाषा पर मेरे तुलनात्मक रूप से बेहतर (चाहे वह कितना ही अधूरा व अपर्याप्त क्यों न हो) अधिकार ने मुझे आंग्लरागी कामरेडों की निगाह में वर्गशत्रु बना दिया।
इस सबका नतीजा था एक अजीब-सी कशमकश-एक तरह का बौद्धिक, भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक लकवा। क्या मुझे अपनी दलित पहचान जाहिर करनी चाहिए? क्या मुझे दलित साहित्य पर काम करने का अधिकार है? क्या दलित व गैर-दलित विद्यार्थियों की दृष्टि में मेरे क्रमश: कथित पाखंड और विश्वासघात के बावजूद मुझे यह अधिकार है? इस कशमकश ने मुझे काफी भयाक्रांत कर दिया है। इसके कारण मैं मानसिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अलग-थलग, तनावग्रस्त और अकेली महसूस कर रही हूं।
एक बार एक साक्षात्कार के दौरान एक प्रोफेसर साहब ने मुझसे एक अजीब सी बात कही और वह यह कि बंगाल में कोई दलित नहीं है। मैं केवल व्यंग्यपूर्वक मुस्कुरा दी और मैंने कुछ भी नहीं कहा। मेरा यह कहना है कि पश्चिम बंगाल में दलित इसलिए नहीं हैं क्योंकि वहां दलितों को अस्तित्व में रहने ही नहीं दिया जाता। आप जातिमुक्त ब्राह्मण, बैद्य या कायस्थ हो सकते हैं। दूसरी ओर, आप ऊँची जातियों के जातिमुक्त आमूल परिवर्तनवादियों के हाथों मुक्ति का इंतजार करने वाले अछूत हो सकते हैं या आप अनुसूचित जाति के ऐसे कर्मचारी हो सकते हैं, जो सकारात्मक कार्यवाही से प्राप्त ‘विशेषाधिकार’ का लाभ उठाने के लिए सतत शर्मिंदा रहे।
जहां तक मैं समझती हूं दलित शब्द का संबंध, संबंधित व्यक्ति की गरिमा से है और उस भेदभाव व पूर्वाग्रह के इतिहास से भी, जिसका सामना उसे आज भी ऐसे स्वरूपों में करना पड़ता है जिसका भद्रलोक का मार्क्सवाद कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सकता। शनै:-शनै: जातिप्रथा के प्रतिरोध का लंबा इतिहास भी इस शब्द के अर्थ का हिस्सा बन गया है और एक अलग पहचान का हमारा दावा-जिसमें केवल हमारा निर्धन श्रमिक वर्ग से या अछूत होना काफी नहीं है-भी अब इसके अर्थ में शामिल हैं।
जब मैं दलित के रूप में अपनी पहचान बताती हूं तो मैं एक दावा करती हूं और उस भेदभाव व पूर्वाग्रह और उनके विरोध, दोनों की मान्यता चाहती हूं। परंतु अपनी दलित पहचान को जाहिर कर मैं अनजाने में ही उस ‘श्रम विभाजन’ को भी चुनौती देती हूं जो पश्चिम बंगाल की संस्कृति का अभिवाज्य हिस्सा बन गया है। यह विभाजन है मुक्तिदाताओं (जिनमें शामिल हैं लेखक, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, डाक्टर, अर्थशास्त्री, ट्रेड यूनियन नेता, नक्सल नेता आदि) और दूसरी श्रेणी है उन लोगों की जो अपनी मुक्ति का इंतजार कर रहे हैं (जिनमें शामिल हैं किसान, घरों और फैक्ट्रियों के श्रमिक व टैक्सी व रिक्शा चालक आदि)।
किताबों की किसी भी दुकान में चले जाईए या प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों की शिक्षकों की सूची पर नजऱ डाल लीजिए या सामाजिक बदलाव के प्रति समर्पित किसी भी छोटी-मोटी पत्रिका के लेखकों पर-हर जगह आपको भट्टाचार्यों, मुखर्जियों, बोसों और दासगुप्ताओं की भरमार दिखेगी। फिर, उन हज़ारों महिलाओं और पुरूषों के उपनाम जानने का प्रयास कीजिए, जो किसी भी राजनीतिक रैली या सभा की भीड़ होते हैं या उन पुरूषों के, जो हर सुबह सड़कों पर झाड़ू लगाते हैं और हमारे कचरे को उठाते हैं या उन महिलाओं के, जो भद्रलोक के घरों को साफ रखने के लिए रोज़ दूर-दूर से आती हैं।
इस संदर्भ में एक ब्राह्मण टैक्सी चालक या एक दलित व्याख्याता या (विशेषकर) सामाजिक कार्यकर्ता, आंखों की किरकिरी और नैतिक व राजनीतिक दृष्टि से अस्वीकार्य होता है। यह भद्रलोक का सामंतवाद है, जिसे तोड़-मरोड़कर उस पर उनकी आमूल परिवर्तनवादी सोच का कलेवर चढ़ा दिया गया है। भद्रलोक मार्क्सवाद को एक ऐसी जाति के लोगों/भद्रलोक की आवश्यकता रहती है, जो दूसरी जाति के लोगों, छोटोलोक के मुक्तिदायक बन सकें। अगर छोटोलोक अचानक स्वयं के दलित होने का दावा करने लगें और स्वयं ही अपने मुक्तिदायक बन जाएं तो वे छोटोलोक को मुक्त करने के भद्रलोक के विशेषाधिकार को चुनौती देते हैं और निर्भरता व सत्ता और वर्चस्व और अधीनता की व्यवस्था को भी। ऐसा करके वे उस आंदोलन के इतिहास पर अपना दावा प्रस्तुत करते हैं, जिसका फोकस दलितों के अभिकर्तृत्व पर था और जो सवर्णों की उदारता और उनके आमूल परिवर्तनवादिता को संदेह की निगाह से देखता था।
दलित यदि अपनी अलग पहचान स्थापित करते हैं तो इससे मुक्तिदाता और मुक्तिकामी का जाति पदक्रम छिन्न-भिन्न हो जाता है और मुक्तिदाता की कोई उपयोगिता ही नहीं बचती। इसलिए भद्रलोक हर उस व्यक्ति को बौद्धिक व मनोवैज्ञानिक तरीकों से निशाना बनाते हैं, जो इस श्रम-विभाजन को चुनौती देता है और उसकी अपनी अलग पहचान के दावे को झुठलाते हैं। सवाल यह नहीं है कि मुझे अपने आप को दलित पहचान देना चाहिए या नहीं या मुझे इसका अधिकार है या नहीं। प्रश्न यह है कि ऐसा करने वाले व्यक्ति को बौद्धिक व भावनात्मक रूप से जिस तरह अलग-थलग कर दिया जाता है, उसके चलते क्या मैं वैसा करने की हिम्मत जुटा सकती हूं। मैं एक ऐसी कशमकश में फंसी हुई हूं, जिसकी जड़ें दुनिया में अकेले रह जाने के मानवीय भय में है। मुझे बहुत प्रसन्नता होगी अगर मुझे गलत सिद्ध कर दिया जाए। मुझे बहुत अच्छा लगेगा यदि कोई अन्य बंगाली दलित, मेरी इस स्थापना का विरोध करे और एक बेहतर चित्र प्रस्तुत कर सके।

सन्देश

जीवन की प्रगति में सहायक है समाज
जब कोई समाज अपने ही मूल स्वरूप से लज्जित होने लगे तब समझ लो की उसका अन्त निकट आ गया मैं यद्यपि समाज का एक नगण्य घटक हूॅ, किन्तु मुझे अपने समाज पर गर्व है और मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता हॅू। हम विश्व के उस सर्वोत्तम समाज सुधारक साहित्यकार राजनीतिकार और मनीषियों की संतान है जो विश्व में अद्वितीय रहे है। हमे आत्मविश्वासी बनना चाहिए और अपने समाज को गर्व करना चाहिए। जब कभी हम दूसरे समाज की प्रभुत्ता स्वीकार करेगें तभी हम अपनी स्वाधीनता खो देगें और अपनी समस्त चिंतन प्रतिभा समाप्त कर बैंठेगे अन्य समाज के पास अगर कुछ श्रेष्ट है तो उसे ग्रहण करो न की उसका बिना विचारे अनुकरण करो।

    यह हमारा समाज ही है जो हमारे लिए जीवन मे आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। अगर समाज का डर न हो तो इंसान, इंसान नहीं रह सकता है। हम हर पल समाज के आगोश में रहते हैं क्योंकि हम समाज का ही महत्वपूर्ण अंश हैं। समाज की छोटी-छोटी बातें हमें कुछ सकारात्मक व सार्थक कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं साथ ही गलत करने से रोकती भी है।

    एक प्रसंग याद आता है कि एक बार एक शहर में आकाल पड़ा पूरा शहर भोजन के दाने-दाने को तरस गया था। उसी शहर में एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने निकले और एक बुढ़िया से कहा कि मां कुछ खाने को है तो दे, भूख लगी है। बुढ़िया ने खीजकर जबाब दिया घर में कुछ भी नहीं है हमारे परिवार ने भी 2 दिनों से भोजन नहीं किया है। बौद्ध भिक्षु ने कहा कि मां ये जो दरवाजे की मिट्टी है वही मेरी झोली में डाल दे। बुढ़िया को अचरज हुआ किन्तु बिना किसी सवाल किये उसने दरवाजे के पास से थोड़ी मिट्टी उठाकर उसकी झोली में डाल दिया। यही उपक्रम अगले 3 दिनों तक चला। रोज बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने और बुढ़िया के हाथ से मिट्टी लेकर चले जाते। चैथे दिन बौद्ध भिक्षु ने बुढ़िया को प्रतीक्षा करते पाया। बौद्ध भिक्षु को देखते ही बुढ़िया ने उसे बड़े सम्मान से बिठाया और भोजन कराया। भोजन के पश्चात बुढ़िया ने झोली में मिट्टी डालने का रहस्य पूछा। बौद्ध भिक्षु ने बताया कि मां तेरे पास 3 दिनों पश्चात भोजन सामग्री आई तो तू मेरी प्रतीक्षा कर रही थी क्योंकि तेरी समाज को दान देने की आदत समाप्त नहीं हुई थी और इसी कारण मैने अपने झोले में मिट्टी भी इसलिए डलवाई थी कि यह आदत समाप्त होना भी नहीं चहिए। समाज को तन-मन-धन से दान व सहयोग की आदत जीवन पर्यन्त बनी रहनी चाहिए।

समाज कार्य का सार्थक सूत्र है ‘‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानानाउपासते।।’’ अर्थात कदम से कदम मिला कर चलो, स्वर से स्वर मिला कर बोलो, तुम्हारे मनों में समान बोध हो, पूर्वकाल में जैसे देवों ने अपना भाग प्राप्त किया, सम्मिलित बुद्धि से कार्य करने वाले उसी प्रकार अपना-अपना अभीष्ट प्राप्त करते हैं। जैसे छोटी-छोटी कोशिकाऐं ही पूरे शरीर का जीवित रखती है उसी प्रकार समाज का अंश अर्थात व्यक्ति ही समाज को जीवत रख सकता है समाज कार्य के लिए एक छोटा सा शैर है। किः-

‘‘समाज रूपी मशीन के हम सभी व्यक्ति कल-पूर्जे हैं
जंग लगकर मरने से अच्छा है घिस-घिसकर खतम होना’’
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संदेश
 
मेहरा समाज म.प्र., भोपाल के प्रयासों के अंतर्गत सामाजिक पत्रिका श्मेहरा संदेशश् प्रकाशित की जा रही है, जिसमें मेहरा समाज की गतिविधियों की जानकारी तो प्रकाशित होंगी, साथ में समाज के विवाह योग्य युवक-युवतियों की जानकारियाॅं भी शामिल की जाएंगी, जो कि हमारे सामाजिक सरोकारों के हित में है, और समसामयिक समाज उपयोगी अन्य जानकारियों को समावेशित किया जायेगा, जिससे यह पत्रिका निश्चित रूप से एवं समग्रता के साथ हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक साथी के लिए लाभदायक होगी ! अतः पत्रिका के संपादक महोदय को बहुत सारी शुभकामनाएं ! मैं हमारे समाज द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में सम्मिलित होता हूंॅं इस दौरान मुझे हमारे वरिश्ठजनों एवं सक्रिय कार्यकताओं से मिलने का अवसर मिलता है, जो कि मेरे लिए बडा ही अदभुद एवं प्रेरणास्पद रहता है ! सिवनी समाज से मैंने एक चीज सीखी है, वह यह कि अपने वरिश्ठों को कैसे खुश रखा जाए ! छिन्दवाडा से मैंने सीखा है कि समाज के लिए कैसे तुरन्त फलदायी कार्यक्रम आयोजित किए जाएं ! मंडला, जबलपुर से मैंने सीखा है कि हम समाज में युवकों और वरिश्ठजनों के सामंजस्य के आधार पर प्रेरणास्पद कार्यक्रम आयोजित करें ! मैं अभी हाल ही में इन्दौर और होशंगाबाद में मेहरा गढवाल समाज द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में शामिल हुआ और इन दोनों कार्यक्रमों में सामाजिक एकता का ताना बाना कैसे स्थापित किया जाए, यह देखा ! मैंने नरसिंहपुर में 2-3 सामाजिक कार्यक्रम, बैठकों में उपस्थिति दी है, वहाॅं देखा है सामाजिक सौहार्दता का अनुपम स्वरूप ! बैतूल में समाज की जिज्ञासा और कुछ करने की हमेशा ललक दिखाई पडती है !
मुझे अवसर मिलता है, समाज के भाई-बहनों, वरिश्ठजनों एवं सक्रिय व उत्साही सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात करने का और अपनीे बातें शेयर करने का ! कुछ गंभीर बाते हैं, जिन पर आज हमें विचार करने की आवश्यकता है ! हम सभी साल में समाज सेवा के नाम पर एक श्युवक युवती परिचय सम्मेलनश् आयोजित करके अपने सामाजिक कत्र्तव्यों को पूरा हुआ, समझ लेते हैं, यह औपचारिकता हमें अपने दायरों मे ंसीमित तो कर ही रही है, साथ में इससे आपसी भाईचारा, अपनापन और सामाजिक रिश्ते भी प्रभावित हो रहे हैं ! समाज कार्य, ईश्वरीय कार्य है, आत्म शुद्धि का द्वार है ! समाज के दुख दर्द, कश्ट वेदना, अभाव-अशिक्शा, अत्याचार को दूर करना समाज सेवा के विविध रूप हैं ! एकता का प्रचार करना, नारी सम्मान, दहेज उन्मूलन, मदयनिशेध, अन्ध श्रद्धा निवारण, नैतिक आचरण की प्रेरणा इत्यादि समाज सेवा के विराट रूप हैं ! समाज सेवा छोटी हो या बडी, इसकी कीमत नहीं है ! किस भावना से अथवा किस उददेश्य से की जा रही है, उसकी कीमत है ! ये बातें हम सभी समझते भी हैं, लेकिन कैसे हो, कहाॅं से हो, यहीं दुविधा है ! वृहद लक्श्य प्राप्ति के संदर्भ में कहा जाए तो आज हमे, हमारी सामाजिक एकता की जरूरत है और उसके माध्यम से हमारे सामाजिक संगठनों को मजबूत बनाने की सर्वप्रथम आवश्यकता है !
गत वर्श जयपुर में एक कार्यक्रम के दौरान आशीश नंदी जो कि एक समाज शास्त्री हैं, उन्होंने बडा ही दुर्भाग्यपूर्ण वक्तव्य दिया, जिसे हमारा समाज कदापि स्वीकार नहीं कर सकता एवं हम इसकी निंदा करते हैं ! आशीश नंदी ने कहा कि हमारे देश में श्एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के लोग सबसे ज्यादा भ्रश्ट हैंश् ! आशीश नंदी के इस घिनौने वक्तव्य पर हमारे अनुसूचित जाति के किसी भी संगठन द्वारा कोई प्रतिक्रिया नहीं प्रकट की गई, यह कितना दुखद है कि हम हमेशा सोए रहते हैं, एक व्यक्ति खुले आम हमारे समाज को अपमानित कर रहा है और हम अलमस्त, और नींद का मजा लेते हैं ! विभिन्न न्यूज चैनलों पर आशीश नंदी के इस वक्तव्य पर कई राजनीतिक, सामाजिक एक्सपर्टाें द्वारा कई प्रकार की चर्चांए की गई एवं किसी के भी द्वारा इसे स्वीकार नहीं किया गया एवं सर्वथा दुर्भाग्यपूर्ण बताया गया ! गत दिनों एक राजनैतिक व्यक्ति ने दलित समाज को, रावण का वंशज बताया, फिर भी हम शांत रहे, कोई प्रतिक्रिया नहीं ! म.प्र. सरकार द्वारा अनुसूचित समाज के कल्याण एवं विकास के लिए विभिन्न योजनाएं संचालित की जाती हैं, इन योजनाओं का वित्तीय पहलू की आज की महंगाई की दरों के अनुसार संवीक्शा की आवश्यकता है लेकिन इस ओर सही ध्यान नहीं दिया गया ! सामाजिक कुरीतियों पर पिछले 50 साल से हमारे वरिश्ठजन और सक्रिय सामाजिक लोग चिंतित दिखाई देते है, लेकिन आज तक कोई सकारात्मक पहल नहीं की गई है ! 
हमारा समाज अनुसूचित जाति के अंतर्गत आता है और मैंने इस संदर्भ को लेते हुए कई बार यह कहा है कि अब समय आ गया है कि हम सिर्फ जिला स्तर पर ही नहीं अपितु प्रदेश व राश्ट्रीय स्तर पर एक हो जाएं, इसके पीछे यही कारण रहा है कि हमारे सम्मान, हमारे संवैधानिक अधिकारों की रक्शा सिर्फ हम ही कर सकते हैं, दूसरे नहीं ! हमें हमारी जडों को समझना होगा और इस हेतु हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक युवक-युवती, वरिश्ठजनों को अपनी अपनी भूमिका की समीक्शा करनी होगी, हम सभी सिर्फ अपने अपने परिवारों और घरों तक सीमित नहीं रह सकते ! आज आवश्यकता है परस्पर विचारों के आदान प्रदान की, समाज संगठनों के कार्यकलापों की समीक्शा और नई नई योजनाएं बनाने की जिससे कि प्रत्येक विकास की मूलभूत आवश्यकता श्मेहरा समाज की प्रदेश स्तर पर और अखिल भारतीय स्तर पर अखण्ड एकताश् को सुदृढ बनाने की ! मेरा अनुभव है कि हमारे पास पिछले 10-20 सालों से कहने लायक कुछ विशेश नहीं है, बल्कि हमारे नैतिक व्यवहार पर हमारी व्यक्तिगत महत्वकांछाएं भारी पडी हैं ! अतः आओ हम सभी दोस्त हो जाएं, भाई-भाई हो जाएं, फिर देखिए हमारी एकता की यह हलकी सी किरण, कैसे बडे स्तर पर सिर्फ हमारे सामाजिक सरोकारों के ही संदर्भ में नहीं, अपितु अखिल भारतीय स्तर पर हमारे सम्मान और संवैधानिक अधिकारों को मजबूती के साथ संरक्शित करेगी !
हमारी समिति द्वारा दिनांक 01-03-2015 को सामाजिक वेबसाइट ूूूण्उमीतंेंदकमेीण्पद लांच की जा रही है ! इसमें समाज उपयोगी समग्र जानकारियाॅ डाली जाएंगी, जिससे हमारा मेहरा समाज, समग्रता से लाभान्वित होगा ! हमें श्री धीरज पूर्वे, श्री सुनील बाबू डेहरिया और उनके साथियों का इन तकनीकि कार्यों में सतत मार्गदर्शन एवं सहयोग मिलता है, इन्हीं के सम्पूर्ण सहयोग से यह पत्रिका और यह बेवसाइट चालू की जा रही है ! हम हमारे समाज के इन साथियों के उज्ज्वल भविश्य की कामना करते हैं ! 
 
अंत में सिर्फ एक वाक्य - न्यूसेंस वैल्यू के प्रभाव को रोककर ही व्यक्तित्व निर्माण व विकास हो सकता है, जो कि हमारी सामाजिक एकता का आधार होगा ! 

यह पत्रिका मेहरा संदेश समाज के लिए समग्र उपयोगी हो ! 
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समाज के सभी भाईयों/बहनों को मेरी ओर से वदन एवं अभिनन्दन। यह नूतन वर्ष 2015 आपको खुशियों से परिपूर्ण हो एवं समृद्धिदायक हो। मैं आपसे दो विषय पर, गम्भीरता से विचार करने हेतु आग्रह कर रहा हॅंू। प्रथम यह कि, मैं आप सभी से मेहरा समाज की एकता के लिए विनम्र अनुरोध करता हॅू। एकता से हम वह सभी हासिल कर सकते हैं, जो हम राजनैतिक उपलब्धि, सामाजिक विकास एवं आर्थिक विकास की दृष्टि से चाहते हैं। हमें अपने बच्चों की शिक्षा पर बहुत ध्यान देना होगा। उनमें इसी समय से अच्छे संस्कार देना होगा जैसे माता-पिता से आदर सम्मान से बात करें, अपने भाई बहनों से प्यार एवं गरीब अमीर सभी से एक भाव से वे व्यवहार करें। उन्हें योगा, व्यायाम, दिनचर्या एवं दुर्गुणों से मुक्ति आदि सभी अच्छी आदतों का समावेष कराया जावे। उनका शारीरिक मानसिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक विकास अर्थात सर्वांगीण विकास हो। उन्हंे घर का शुद्ध भोजन करने एवं सुबह उठने की आदत को परिपक्व बनाया जावे। दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हॅंू कि अच्छी शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी जिन्हें सरकारी नौकरी और प्रायवेट नौकरी नही मिली अेोर वे धन की कमी के कारण बहुत छोटे स्तर पर स्वरोजगार चला रहे हैं या नही चला रहे हैं इन सभी प्रकार के लोगों के लिए मेरा सुझाव है कि, शासन की योजना के आधार पर स्वरोजगार उद्यमिता विकास प्रशिक्षण प्राप्त कर लाभ अर्जित करें। स्वरोजगार की पहली सीढ़ी है, ‘‘प्रशिक्षण’’ हमारे आर्थिक विश्लेषण यह कहते हैं कि आज के सभी सफल व्यक्ति जन्मजात करोड़पति नहीं थे। वह अनुभव प्रशिक्षण एवं सुविधाओं का लाभ लेकर उच्च शिखर पर पहुंचे हैं। इसलिये शासन चाहता है कि आप प्रशिक्षण प्राप्त कर स्वरोजगार स्थापित करें। इससे सफलता सुनिश्चित होती है । प्रशिक्षण ‘‘उद्यमिता विकास प्रशिक्षण’’ से निःशुल्क प्राप्त करें।

उक्त प्रशिक्षण, उद्योग संचालनालय म.प्र. शासन, जिला व्यापार एवं उद्योग केन्द्रों, उद्यमिता विकास केन्द्र (सेडमैप), एम.पी. काॅन, एम.एस.एम.ई. इंदौर, क्रिस्प भोपाल, एम.पी. एग्रो इंडस्ट्रीज, अन्त व्यवसायी निगम, आदिवासी वित्त विकास निगम एवं पिछड़ा वर्ग एंव अल्पसंख्यक कल्याण विभाग प्रेरणा भारती सामाजिक कल्याण संस्था, भोपाल द्वारा आदि संस्थाओं द्वारा आयोजित कराये जाते है    
म.प्र.शासन एवं केन्द्र शासन द्वारा प्रमुख ऋण योजनायें निम्नानुसार हैः-
1.    ‘‘मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना‘‘ अन्तर्गत 18 से 45 वर्ष के युवा, महिलाएॅं/पुरूष उद्योग सेवा व्यवसाय हेतु 20,000/- रूपये से 10 लाख रूपये तक ऋण बगैर गारंटी के एवं 5ः ब्याज अनुदान तथा 1 लाख से 2 लाख वर्गवार मार्जिन मनी अनुदान प्राप्त कर स्थापित कर सकते हैं। आवेदक को मात्र 5वीं पास होना ही आवश्यक है। वह मध्यप्रदेश का मूल निवासी हो। इस योजना में आय का बंधन नहीं है। 
2.    ‘‘मुख्यमंत्री युवा उद्यमी योजना’’ में युवा 10 लाख से 1 करोड़ रूपये तक ऋण उद्योग एवं सेवा हेतु प्राप्त कर सकते हैं। योजनान्तर्गत 18 से 40 वर्ष तक आयु हो, 10वीं पास हों तथा म.प्र. का मूल निवासी हो। ऐेसे युवाओं को योजना में ऋण के साथ 5ः ब्याज अनुदान 7 वर्ष तक तथा 15 प्रतिशत मार्जिन मनी/पूँजीगत अनुदान 12 लाख तक प्राप्त होता है। योजना में आय का बंधन नहीं है। योजनान्तर्गत 2 या 2 से अधिक शिक्षित बेरोजगार मिलकर उच्च स्तर का उद्योग सेवा संस्थान स्थापित कर सकते हैं। 
उक्त दोनों ऋण योजनाओं का लाभ म.प्र. के किसी भी जिले के जिला व्यापार एवं उद्योग केन्द्र से प्राप्त कर सकते हैं।
3.    ‘‘प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम’’ में उद्योग हेतु 25 लाख तक ऋण एवं पात्रतानुसार शहरी क्षेत्र में 15ः से 25ः तक अनुदान तथा ग्रामीण क्षेत्र में 25ः से 35ः तक अनुदान प्राप्त कर, उद्यम स्थापित कर सकते हैं। इस योजना में लाभ प्राप्त करने हेतु आवेदक के परिवार की आय का कोई बन्धन नहीं है। 8वीं से कम शिक्षा वालों को 10 लाख तक उद्योग एवं 5 लाख तक सेवा हेतु तथा 8वीं या इससे अधिक शिक्षा वालों को 25 लाख तक उद्योग तथा 10 लाख तक सेवा हेतु ऋण एवं उपरोक्तानुसार अनुदान प्राप्त होता है। टर्म लोन पर नवीन उद्योगों को 5ः  ब्याज अनुदान 5 वर्ष तक प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश शासन में पात्र लघुउद्योगों के लिए कच्चे माल के क्रय पर प्रवेश कर से 5 वर्ष तक का छूट आदि सुविधाऐं भी पात्रतानुसार प्राप्त होंगी। इस योजना का लाभ पूरे भारत वर्ष में प्रत्येक जिले के जिला उद्योग केन्द्र, खादी ग्रामोद्योग बोर्ड या खादी तथा ग्रामोद्योग आयोग से प्राप्त कर सकते हैं।
4.    मुख्यमंत्री युवा इंजीनियर कान्ट्रेक्टर योजना के अन्तर्गत लाभ लेकर, किसी भी निर्माण विभाग जैसे- पीडब्ल्यूडी, सिंचाई विभाग, रेलवे, पी.एच.ई., जिला पंचायत आदि में कान्ट्रेक्टर के रूप में कार्य कर सकते हैं।
5.    शासकीय भूमि सस्ती लीज पर उद्योग हेतु उपलब्ध- उक्त योजनाओं का लाभ आप जिले में स्थित जिला व्यापार एवं उद्योग केन्द्र के माध्यम से ले सकते है। उद्यम स्थापित करने के लिये भूमि भवन में अधिकांशतः ज्यादा पूंजी नहीं लगाना चाहिये। ताकि अनावश्यक रूप से ऋण की किस्त एवं ब्याज का भार न पड़े। इसलिये किराये के भवन मंे उद्यम प्रारंभ किया जावे तो अधिक लाभदायी होता है। परंतु जहां जमीन लेना बहुत ही आवश्यक हो, तब शासन के औद्योगिक क्षेत्रों में सस्ती एवं 99 वर्ष तक की लीज पर भूमि किराये पर लेकर उद्यम स्थापित किये जा सकते हैं। म.प्र. औद्योगिक केन्द्र विकास निगम द्वारा प्रदेश में मालनपुर, पीथमपुर, मंडीदीप, जबलपुर, इंदौर, भोपाल, सिवनी आदि क्षेत्रों में भी जमीन प्राप्त की जा सकती है। इन औद्योगिक क्षेत्रों में बिजली, पानी, रोड की व्यवस्था शासन द्वारा की जाती है। 
   
कृपया सभी योजनाओं का लाभ लेने उद्यमी/शिक्षित बेरोजगार अपने जिले के महा प्रबंधक, जिला व्यापार एवं उद्योग केन्द्र या ‘‘प्रेरणा भारती संस्था,’’ भोपाल के संरक्षक/संचालक श्री एस.एल. मेहरा से भी सम्पर्क कर सकते हैं। मेरा सम्पर्क नंबर-9753680712 है। अभी तक संस्था द्वारा 180 युवक युवतियों को एक माह का उद्यमिता विकास प्रशिक्षण प्रदान किया गया। मार्गदर्शन बावत् प्रदेश के नरसिंहपुर, हरदा, बैतूल, भोपाल एवं होशंगाबाद में निःशुल्क उद्योग व्यवसाय जागरूकता शिविर लगाये गये है। मैं मेहरा समाज के सभी बन्धुओं से कहना चाहता हूँ कि उक्त वर्णित योजनाओं का लाभ अवश्य लें। ताकि हमारे समाज का आर्थिक विकास हो, तथा बेरोजगारों को रोजगार प्राप्त हो सके। जिससे वे आत्म निर्भर बने।
 
अंत में यह कहते हुये, अपनी बात खत्म करना चाहता हॅूं कि, कोई भी मंजिल पाना आसान नहीं होता है। चाहे वह शिक्षा गृहण करना या नौकरी प्राप्त करना हो। सभी में समस्यायें आती हैं, सभी रास्तों में कांटे होते हैं, पर हमें घबराना नहीं चाहिये। हमें साहस, योग्यता, संयम एवं विनम्रता दर्शाते हुये अपनी मंजिल पर पहुंचना चाहिये। किसी ने कहा भी है कि,‘‘खुदी को कर बुलंद  इतना कि, खुदा तुमसे ये पूछे कि, बता  तेरी  रजा  क्या है।’’  हमें हर तरह से अपनी योग्यता साबित करनी होगी। किसी और कवि ने भी कहा है कि, ‘‘कामयाबी की चाहत सभी रखते हैं,परंतु मिलनी उन्ही को है, जो पूरा प्रयास करते हैं।’’ 
शुभकामनायें 

झूठ,बसंत और स्वार्थ

झूठ के झंडाबरदारों का युग है । लगता है कुछ लोग असत्य के साथ मेरे कुछ प्रयोग विषय़ पर किताब लिख रहे हैं । वे तरह तरह से झूठ को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं । उसे इतने लुभावने पैकेज में प्रस्तुत किया जा रहा है कि सत्य भी अंचभित है यह सब देखकर । यह कोशिश की जा रही है कि झूठ कम से कम अर्धसत्य तो लगे । नए मिथक गढ़े जा रहे हैं । किंवदतियां सुनायी जा रही हैं । उनमें भावुकता का छौंक लगाया जा रहा है । अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इतिहास को क्राप करके पेश किया जा रहा है । तकनीक और दुराग्रहों का तालमेल नयी समीकरणें लिख रहा है । सब जानते हैं कि सच के पास एक ही चेहरा होता है वो भी खुरदुरा और अनाकर्षक । जबकि झूठ भांति भांति की मोहक मुद्राओं से लुभाने की कोशिश करता है । वो सौम्यता का फेसपैक लगाए लुभावने निमंत्रण भी देता है । वस्तुतः हम एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं । जहां रोज नयी मान्यताओं के मठ स्थापित किए जा रहे हैं । निजी स्वार्थों की गुलेल से सबूतों के अबोध पंछी को लहूलुहान किया जा रहा है ।
हत्यारे महिमामंडित किए जा रहे हैं । लुटेरों के सब्सिडी दी जा रही है । हमारे अराध्य और आइकान बदल गए हैं । अहिंसा कायरता का पर्याय हो गयी है और वाचालता विद्वता का । झूठ को संदेह की बैसाखियां लगाकर चलाने की कोशिश हो रही है । उसके महात्म्य को जोर जोर से चिल्ला चिल्लाकर समझाया जा रहा है । आम जन दिग्भ्रमित है । वह मूल्यों के ढहते स्मारकों को टुकुर टुकुर निहार रहा है । महापुरूषों का चीर हरण देख रहा है । झूठ के शिलालेखों पर घृणा की इबारतें उकेरे जा रही हैं । पीढ़ीयों के भविष्य की नींव में वैमनस्यता का नमक भरा जा रहा है । उसके ऊपर सौहार्द् और भाईचारे का भव्य महल कैसे टिका रहेगा भला । उनकी आबाद छतों पर कैसे अमन चैन का चंगा पौ खेला जाएगा । सत्य की आवाजाही सदा समानान्तर सड़कों पर बेखौफ होती है । झूठ उन पर चलते हुए ठिठकता है । उसे लाख नहलाओं धुलाओ वो खलनायकों का रक्षा कवच ही बना रहेगा । झूठ एक बिगड़ा रईसजादा है जिसे सिर्फ अपनी जिद पर मचलना आता है भले ही उसे पूर्वजों की टोपी क्यों न उछलती हो ।
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कभी-कभी मुझ पर प्राचीनकालीन वस्तुएं खोजने का दौरा पड़ जाता है।  इस शौक  में इस बार का शिकार बना बसन्त।  बासन्ती कपड़े पहनकर मैं तैयार बैठी थी कि जैसे ही जाड़ा बीतेगा मैं बसन्त को पकड़ लूंगी। खूब मौज-मस्ती करुंगी। शीत  बीत गया और मेरा  अभियान शुरू  हुआ।
सर्वप्रथम मैं पेड़ों को खोजने लगी तो वे र्इमानदारी की तरह गायब थे, उसकी जगह चारों तरफ सिर्फ अपार्टमेंट थे। पीली साड़ी पहनी स्त्रियों को ढूंढने लगी तो उनकी आलमारी में से पाँच मीटर की साड़ी के बजाय पाँज बित्ते के छोटे कपड़े ही मिले। समझ में नहीं आया किधर जाऊँ? थक कर मंदिर में भीड़ खोजने गयी तो मन भाड़ में चला गया। कारण, मंदिर में तो इक्का-दुक्का लोग ही दिखे पर थोड़ी दूर पर दिख रहे मॉल में जबर्दस्त भीड़ थी।
मन में बसन्त देखने की चाह बढ़ती जा रही थी पर न इसकी कोर्इ राह दिखी न किसी को परवाह। मन आह कर के रह गया। मैने अपने मुहल्ले के रामदीन से पूछा कि तुमने बसन्त देखा है? उसने कहा यह क्या होता है? मैं उसे क्या समझाती? किचन के खाली डिब्बे व बच्चों के फटे कपड़े बता रहे थे कि बसन्त को मँहगार्इ खा गया। मैं थक कर घर आ गयी थी पर मेरे खोजी मन ने हार नहीं मानी। अपने बच्चे की आलमारी से मैग्नीफार्इंग ग्लास निकालकर अगले दिन फिर चल पड़ी। सोचा आज तो बसन्त को ढूंढ ही लूंगी , बस कोर्इ सरकारी जाँच कमेटी रास्ता न काट दे। जैसे ही घर का काम छोड़ बाहर निकली मुझे एक सन्त और उनका आश्रम नजर आया। उनका दमकता चेहरा, पीले वस्त्र, आस-पास सुन्दरियाँ, पीले लड्डूओं की थालियाँ, बिना श्रम का ए सी आश्रम, हरे पेड़ व विदेशी घास आदि से ऐसा लग रहा था कि मैं निराला की तरह बसन्त को पेड़ों में कहाँ खोजने चली गयी। बसन्त तो सन्त के घर को बहार का हार पहना रहा था। मुझे अब काफी शान्ति मिल रही थी। जैसे ही मैं सन्त के घर से सही-सलामत बाहर आयी, एक गाड़ियों का काफिला नज़र आया। मैं उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर जाकर जैसे ही गाड़ियाँ रुकी, मेरी खुशी जो अभी शुरुआती चरण में ठिगनी सी थी उसे अब ठिकाना नहीं मिल रहा था। बसन्त यहाँ भी दिख गया था। यह उस शख्श का घर था जिसको मेरे मुहल्ले के रामदीन ने अपना वोट एक कम्बल के बदले दिया था। उसको मिला कम्बल तो फट गया था पर जिसे वोट दिया था उसे फल गया। बसन्त खुलेआम यहाँ विचरण कर रहा था। बड़ी सी कोठी, गेंदें के पीले फूल , बगल का पेट्रोल पम्प, ठेके, स्विस बैंक के अकाउण्ट बसन्त की मजबूत उपस्थिति की दास्तां कह रहे थे।
मैने बसन्त से पूछा कि तुम हर जगह क्यूँ नहीं हो? उसने शान से सर्वत्र होने की बात कुछ यूं कही,’’ तुम देख नहीं पा रही हो । अपनी दृष्टि व्यापक रखो। जिस रामदीन की बात कर रही हो, उसकी बीबी और बच्चों को देखो। उसके हाथ-पैर, चेहरे पीलें हैं कि नहीं। दफ्तरों में पीली फाइलों का ढेर बढ़ता जा रहा है कि नहीं। जंक फूड से बच्चों के दांत पीले हो रहें हैं।….और कैसा बसन्त चाहिए? पक्षपातपूर्ण रवैया मत अपनाओ। मैं तो हर जगह हूँ। अपनी दृष्टि बदलो, समझी।’’
मैं चुप रही। बसन्त सच बोल रहा था। वह तो हर जगह है। खैर,…. मैं घर चली आयी, पति को पीलिया की दवा जो देनी थी।
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देखिए,अनुशासन से चलिए।आत्मीयता और दोस्ती ने लोगों का बहुत नुकसान किया है।आत्मा को पहचानिए।आत्मा कहती है मुझ पर ध्यान दो।यह ध्यान ही स्वार्थ है।
हर काम का एक स्वार्थ होना चाहिए।स्वार्थ न सिद्ध हो तो बाप को पहचानने से मुकर जाना ही नए ज़माने का फंडा है।स्वार्थी आदमी एक कलाकार होता है।सफल स्वार्थी पूरी पटकथा के साथ जीवन जीते हैं।सब कुछ तय रहता है कि कहां इंटरवल होगी।कहां परदा गिरा देना है।इस पटकथा में कमर्शियल ब्रेक्स के लिए बहुत गुंजाइश रहती है।इस गुंजाइश में रिश्तों की आज़माइश होती है।आज़माइश के लिए दोस्त से बेहतर और कौन होगा।आपने दोस्त पर ही रंदा न कसा तो लानत है।
अच्छे लोग ऐसे ब्रेक्स में ही मित्रों का हालचाल पूछते हैं।आज एक मित्र का मैसेज आया।पहले यह मित्र आते थे।अब मित्र के मैसेज आते हैं।कनेक्टिविटी बहुत बढ़ गई है।तो मित्र ने गहरी आत्मीयता सेमैसेज में लिखा था कि भाई बहुत दिन हुए बात नहीं हुई।कैसे हो।मैंने भावुक होते हुए लिखा मैं ठीक हूं भाई।
वे शुरू हो गए ।उन्होंने पूरी तैयारी करके मैसेज किया था।बोले,कल भोपाल से लौटा हूँ।यार गजब था।उससे पहले देहरादून में सेमिनार था।यार कमाल था।अगले महीने लंदन जाना है।यार शानदार है।फिर डलहौजी जाना है।यार क्या कहूं।फिर पंचकूला जाना है।यार क्या न कहूं!!
मित्र शायद मुझे अपना सेक्रेटरी समझ कर अगला पिछला कार्यक्रम नोट करा रहे थे।बीच बीच में’ और कैसे हो’ का संपुट लगा देते थे।ताकि लगता रहे कि मेरा मित्र मेरा हालचाल जानने के लिए टच में है।यह बता कर कि सारे जहां में उनके कहे बिना पत्ता नहीं हिलता,उनके जाए बिना रास्ता नहीं खुलता… मेरे मैसेज बॉक्स में अपना कैलेंडर टांग कर उन्होंने लिखा ओके,मिलते हैं कभी।कमर्शिल ब्रेक पूरा हो गया था।उनकी गहरी आत्मीयता से मैं झूम उठा।झूमते हुए जब आत्मीयता की गहराई में झांका तो वहाँ एक अन्धा कुआं था।जलविहीन।उसमें से आवाज़ें आ रही थीं।मैं मैं मैं।समझ गया।दोस्ती अब केवल हालचाल की उपयोगिता सेवा है।ये मित्र चाहते हैं मैं इनके सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मुखिया का पदभार संभाल लूं।
कुछ लोग इतने अच्छे होते हैं कि दोस्तों को अपना घोड़ा समझ कर दौड़ाना चाहते हैं।ऐसे घुड़सवारों की जय।चारों ओर चाबुकें लपलपा रही हैं।मैं भी घोड़ा हूं।दौड़ रहा हूं।
यह कितना ईमानदार और पारदर्शी समय है।कोई दोस्त आया या उसने फोन किया,तो आप भविष्यवाणी कर सकते हैं कि अब उसकी ओर से चौथा वाक्य कौन सा आएगा।कोई कोई संकोच कर जाता है तो पांचवें वाक्य में केंचुल हटा देता है।बहुत दिन से मिलने की सोच रहा था।यार कभी तुम ही फोन कर लिया करो।यार यार यार!!!यार उनको तो जानते ही होगे।ज़रा….।और उसके बाद ज़रा सा काम बताया।इतनी आज़ादी भी नहीं कि आप कह सकें कि उसको नहीं जानता।आपको गिर के, उठ के, पतित होके, व्यथित होके उनका काम करवाना है।आखिर दोस्त का काम है।कहा तो गया ही है कि मतलबी यार किसके,खाया पिया खिसके।मगर आज तो दोस्ती के पांव तले की जमीन ही खिसक रही है।खिसक क्या ज़लज़ला आ गया है साहब!
जैसे लोग बाग याद रखते हैं कि शहर के तमाम इलाकों में अच्छे गोलगप्पे वाले ,जलेबी वाले, समोसा वाले आदि आदि वाले कौन कौन से हैं।वैसे ही दोस्त लोगों ने रजिस्टर के पन्ने बना रखे हैं।पुलिस से काम है तो क्रमांक चार।वकील से गरज है तो क्रमांक तीन।अस्पताल में मामला अटका तो अखिलेश।गुंडे चाहिए तो सुधाकर।पंडित चाहिए तो संतोष।लोग पन्ने देखते रहते हैं।दोस्त की हैसियत एक मददगार प्रविष्टि से ज़्यादा नहीं।
समय बहुत कीमती है।खराब नहीं करना है।लूट सके तो लूट।लूटने के लिए जो भरोसा करे उससे अच्छा कौन होगा।जिससे काम उसीके राम।जिसके मन में अपनापन का भाव आ जाता है उसका बाजार भाव गिर जाता है।बाजार को चाहिए इश्तिहार।
सच्चा दोस्त वही जो अपने दोस्त के चेहरे पर प्यार की कील ठोंक कर अपना विज्ञापन टांग दे।