Wednesday, December 7, 2016

झूठ,बसंत और स्वार्थ

झूठ के झंडाबरदारों का युग है । लगता है कुछ लोग असत्य के साथ मेरे कुछ प्रयोग विषय़ पर किताब लिख रहे हैं । वे तरह तरह से झूठ को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं । उसे इतने लुभावने पैकेज में प्रस्तुत किया जा रहा है कि सत्य भी अंचभित है यह सब देखकर । यह कोशिश की जा रही है कि झूठ कम से कम अर्धसत्य तो लगे । नए मिथक गढ़े जा रहे हैं । किंवदतियां सुनायी जा रही हैं । उनमें भावुकता का छौंक लगाया जा रहा है । अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इतिहास को क्राप करके पेश किया जा रहा है । तकनीक और दुराग्रहों का तालमेल नयी समीकरणें लिख रहा है । सब जानते हैं कि सच के पास एक ही चेहरा होता है वो भी खुरदुरा और अनाकर्षक । जबकि झूठ भांति भांति की मोहक मुद्राओं से लुभाने की कोशिश करता है । वो सौम्यता का फेसपैक लगाए लुभावने निमंत्रण भी देता है । वस्तुतः हम एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं । जहां रोज नयी मान्यताओं के मठ स्थापित किए जा रहे हैं । निजी स्वार्थों की गुलेल से सबूतों के अबोध पंछी को लहूलुहान किया जा रहा है ।
हत्यारे महिमामंडित किए जा रहे हैं । लुटेरों के सब्सिडी दी जा रही है । हमारे अराध्य और आइकान बदल गए हैं । अहिंसा कायरता का पर्याय हो गयी है और वाचालता विद्वता का । झूठ को संदेह की बैसाखियां लगाकर चलाने की कोशिश हो रही है । उसके महात्म्य को जोर जोर से चिल्ला चिल्लाकर समझाया जा रहा है । आम जन दिग्भ्रमित है । वह मूल्यों के ढहते स्मारकों को टुकुर टुकुर निहार रहा है । महापुरूषों का चीर हरण देख रहा है । झूठ के शिलालेखों पर घृणा की इबारतें उकेरे जा रही हैं । पीढ़ीयों के भविष्य की नींव में वैमनस्यता का नमक भरा जा रहा है । उसके ऊपर सौहार्द् और भाईचारे का भव्य महल कैसे टिका रहेगा भला । उनकी आबाद छतों पर कैसे अमन चैन का चंगा पौ खेला जाएगा । सत्य की आवाजाही सदा समानान्तर सड़कों पर बेखौफ होती है । झूठ उन पर चलते हुए ठिठकता है । उसे लाख नहलाओं धुलाओ वो खलनायकों का रक्षा कवच ही बना रहेगा । झूठ एक बिगड़ा रईसजादा है जिसे सिर्फ अपनी जिद पर मचलना आता है भले ही उसे पूर्वजों की टोपी क्यों न उछलती हो ।
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कभी-कभी मुझ पर प्राचीनकालीन वस्तुएं खोजने का दौरा पड़ जाता है।  इस शौक  में इस बार का शिकार बना बसन्त।  बासन्ती कपड़े पहनकर मैं तैयार बैठी थी कि जैसे ही जाड़ा बीतेगा मैं बसन्त को पकड़ लूंगी। खूब मौज-मस्ती करुंगी। शीत  बीत गया और मेरा  अभियान शुरू  हुआ।
सर्वप्रथम मैं पेड़ों को खोजने लगी तो वे र्इमानदारी की तरह गायब थे, उसकी जगह चारों तरफ सिर्फ अपार्टमेंट थे। पीली साड़ी पहनी स्त्रियों को ढूंढने लगी तो उनकी आलमारी में से पाँच मीटर की साड़ी के बजाय पाँज बित्ते के छोटे कपड़े ही मिले। समझ में नहीं आया किधर जाऊँ? थक कर मंदिर में भीड़ खोजने गयी तो मन भाड़ में चला गया। कारण, मंदिर में तो इक्का-दुक्का लोग ही दिखे पर थोड़ी दूर पर दिख रहे मॉल में जबर्दस्त भीड़ थी।
मन में बसन्त देखने की चाह बढ़ती जा रही थी पर न इसकी कोर्इ राह दिखी न किसी को परवाह। मन आह कर के रह गया। मैने अपने मुहल्ले के रामदीन से पूछा कि तुमने बसन्त देखा है? उसने कहा यह क्या होता है? मैं उसे क्या समझाती? किचन के खाली डिब्बे व बच्चों के फटे कपड़े बता रहे थे कि बसन्त को मँहगार्इ खा गया। मैं थक कर घर आ गयी थी पर मेरे खोजी मन ने हार नहीं मानी। अपने बच्चे की आलमारी से मैग्नीफार्इंग ग्लास निकालकर अगले दिन फिर चल पड़ी। सोचा आज तो बसन्त को ढूंढ ही लूंगी , बस कोर्इ सरकारी जाँच कमेटी रास्ता न काट दे। जैसे ही घर का काम छोड़ बाहर निकली मुझे एक सन्त और उनका आश्रम नजर आया। उनका दमकता चेहरा, पीले वस्त्र, आस-पास सुन्दरियाँ, पीले लड्डूओं की थालियाँ, बिना श्रम का ए सी आश्रम, हरे पेड़ व विदेशी घास आदि से ऐसा लग रहा था कि मैं निराला की तरह बसन्त को पेड़ों में कहाँ खोजने चली गयी। बसन्त तो सन्त के घर को बहार का हार पहना रहा था। मुझे अब काफी शान्ति मिल रही थी। जैसे ही मैं सन्त के घर से सही-सलामत बाहर आयी, एक गाड़ियों का काफिला नज़र आया। मैं उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर जाकर जैसे ही गाड़ियाँ रुकी, मेरी खुशी जो अभी शुरुआती चरण में ठिगनी सी थी उसे अब ठिकाना नहीं मिल रहा था। बसन्त यहाँ भी दिख गया था। यह उस शख्श का घर था जिसको मेरे मुहल्ले के रामदीन ने अपना वोट एक कम्बल के बदले दिया था। उसको मिला कम्बल तो फट गया था पर जिसे वोट दिया था उसे फल गया। बसन्त खुलेआम यहाँ विचरण कर रहा था। बड़ी सी कोठी, गेंदें के पीले फूल , बगल का पेट्रोल पम्प, ठेके, स्विस बैंक के अकाउण्ट बसन्त की मजबूत उपस्थिति की दास्तां कह रहे थे।
मैने बसन्त से पूछा कि तुम हर जगह क्यूँ नहीं हो? उसने शान से सर्वत्र होने की बात कुछ यूं कही,’’ तुम देख नहीं पा रही हो । अपनी दृष्टि व्यापक रखो। जिस रामदीन की बात कर रही हो, उसकी बीबी और बच्चों को देखो। उसके हाथ-पैर, चेहरे पीलें हैं कि नहीं। दफ्तरों में पीली फाइलों का ढेर बढ़ता जा रहा है कि नहीं। जंक फूड से बच्चों के दांत पीले हो रहें हैं।….और कैसा बसन्त चाहिए? पक्षपातपूर्ण रवैया मत अपनाओ। मैं तो हर जगह हूँ। अपनी दृष्टि बदलो, समझी।’’
मैं चुप रही। बसन्त सच बोल रहा था। वह तो हर जगह है। खैर,…. मैं घर चली आयी, पति को पीलिया की दवा जो देनी थी।
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देखिए,अनुशासन से चलिए।आत्मीयता और दोस्ती ने लोगों का बहुत नुकसान किया है।आत्मा को पहचानिए।आत्मा कहती है मुझ पर ध्यान दो।यह ध्यान ही स्वार्थ है।
हर काम का एक स्वार्थ होना चाहिए।स्वार्थ न सिद्ध हो तो बाप को पहचानने से मुकर जाना ही नए ज़माने का फंडा है।स्वार्थी आदमी एक कलाकार होता है।सफल स्वार्थी पूरी पटकथा के साथ जीवन जीते हैं।सब कुछ तय रहता है कि कहां इंटरवल होगी।कहां परदा गिरा देना है।इस पटकथा में कमर्शियल ब्रेक्स के लिए बहुत गुंजाइश रहती है।इस गुंजाइश में रिश्तों की आज़माइश होती है।आज़माइश के लिए दोस्त से बेहतर और कौन होगा।आपने दोस्त पर ही रंदा न कसा तो लानत है।
अच्छे लोग ऐसे ब्रेक्स में ही मित्रों का हालचाल पूछते हैं।आज एक मित्र का मैसेज आया।पहले यह मित्र आते थे।अब मित्र के मैसेज आते हैं।कनेक्टिविटी बहुत बढ़ गई है।तो मित्र ने गहरी आत्मीयता सेमैसेज में लिखा था कि भाई बहुत दिन हुए बात नहीं हुई।कैसे हो।मैंने भावुक होते हुए लिखा मैं ठीक हूं भाई।
वे शुरू हो गए ।उन्होंने पूरी तैयारी करके मैसेज किया था।बोले,कल भोपाल से लौटा हूँ।यार गजब था।उससे पहले देहरादून में सेमिनार था।यार कमाल था।अगले महीने लंदन जाना है।यार शानदार है।फिर डलहौजी जाना है।यार क्या कहूं।फिर पंचकूला जाना है।यार क्या न कहूं!!
मित्र शायद मुझे अपना सेक्रेटरी समझ कर अगला पिछला कार्यक्रम नोट करा रहे थे।बीच बीच में’ और कैसे हो’ का संपुट लगा देते थे।ताकि लगता रहे कि मेरा मित्र मेरा हालचाल जानने के लिए टच में है।यह बता कर कि सारे जहां में उनके कहे बिना पत्ता नहीं हिलता,उनके जाए बिना रास्ता नहीं खुलता… मेरे मैसेज बॉक्स में अपना कैलेंडर टांग कर उन्होंने लिखा ओके,मिलते हैं कभी।कमर्शिल ब्रेक पूरा हो गया था।उनकी गहरी आत्मीयता से मैं झूम उठा।झूमते हुए जब आत्मीयता की गहराई में झांका तो वहाँ एक अन्धा कुआं था।जलविहीन।उसमें से आवाज़ें आ रही थीं।मैं मैं मैं।समझ गया।दोस्ती अब केवल हालचाल की उपयोगिता सेवा है।ये मित्र चाहते हैं मैं इनके सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मुखिया का पदभार संभाल लूं।
कुछ लोग इतने अच्छे होते हैं कि दोस्तों को अपना घोड़ा समझ कर दौड़ाना चाहते हैं।ऐसे घुड़सवारों की जय।चारों ओर चाबुकें लपलपा रही हैं।मैं भी घोड़ा हूं।दौड़ रहा हूं।
यह कितना ईमानदार और पारदर्शी समय है।कोई दोस्त आया या उसने फोन किया,तो आप भविष्यवाणी कर सकते हैं कि अब उसकी ओर से चौथा वाक्य कौन सा आएगा।कोई कोई संकोच कर जाता है तो पांचवें वाक्य में केंचुल हटा देता है।बहुत दिन से मिलने की सोच रहा था।यार कभी तुम ही फोन कर लिया करो।यार यार यार!!!यार उनको तो जानते ही होगे।ज़रा….।और उसके बाद ज़रा सा काम बताया।इतनी आज़ादी भी नहीं कि आप कह सकें कि उसको नहीं जानता।आपको गिर के, उठ के, पतित होके, व्यथित होके उनका काम करवाना है।आखिर दोस्त का काम है।कहा तो गया ही है कि मतलबी यार किसके,खाया पिया खिसके।मगर आज तो दोस्ती के पांव तले की जमीन ही खिसक रही है।खिसक क्या ज़लज़ला आ गया है साहब!
जैसे लोग बाग याद रखते हैं कि शहर के तमाम इलाकों में अच्छे गोलगप्पे वाले ,जलेबी वाले, समोसा वाले आदि आदि वाले कौन कौन से हैं।वैसे ही दोस्त लोगों ने रजिस्टर के पन्ने बना रखे हैं।पुलिस से काम है तो क्रमांक चार।वकील से गरज है तो क्रमांक तीन।अस्पताल में मामला अटका तो अखिलेश।गुंडे चाहिए तो सुधाकर।पंडित चाहिए तो संतोष।लोग पन्ने देखते रहते हैं।दोस्त की हैसियत एक मददगार प्रविष्टि से ज़्यादा नहीं।
समय बहुत कीमती है।खराब नहीं करना है।लूट सके तो लूट।लूटने के लिए जो भरोसा करे उससे अच्छा कौन होगा।जिससे काम उसीके राम।जिसके मन में अपनापन का भाव आ जाता है उसका बाजार भाव गिर जाता है।बाजार को चाहिए इश्तिहार।
सच्चा दोस्त वही जो अपने दोस्त के चेहरे पर प्यार की कील ठोंक कर अपना विज्ञापन टांग दे।

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