Thursday, June 22, 2017

मीडिया की भूमिका और वर्तमान संदर्भ

ज्ञानेंद्र-पाण्डेय-
जीवर्तमान संदर्भ में जब हम मीडिया की भूमिका को खोजने निकलते हैं, तो किसी तरह के नकारात्मक या सकारात्मक निष्कर्ष तक पहुंचने में खासी मेहनत करनी पड़ती है, न तो मीडिया की तारीफ करते बनता है और न ही बेवजह मीडिया की आलोचना ही की जा सकती है। यह बहुत ही दुविधा वाली परिस्थिति है। मीडिया की भूमिका बहुत बेहतर चाहे न हो, पर एकदम नकारा भी नहीं है।
आज की तारीख में मीडिया पर कुछ भी लिखने से पहले बहुत सोच-विचार करना पड़ता है। मामला बहुत नाजुक भी है और संवेदनशील भी। इस विकट परिस्थिति के बाद भी जब मीडिया पर कुछ लिखना ही पड़े तो निश्चित तौर पर अतीत और वर्तमान के मीडिया का निष्पक्ष तुलनात्मक अध्ययन जरूरी हो जाता है, यही वह बिंदु है जहां से मौजूदा मीडिया को और उसके कार्य व्यवहार को आलोचना के दायरे में रखा जा सकता है। इस निगाह से देखें तो आज की मीडिया चाहे वो प्रिंट हो, टेलीविजन हो या रेडियो, पत्रकारिता के मानदंडों पर उतने खरे नहीं दिखाई देते जितना उनको होना चाहिये। इस मामले में सोशल मीडिया ने माहौल को गर्माने में बड़ी भूमिका निभाई है।
मीडिया और उसके मौजूदा संदर्भ में चर्चा करने से पहले यह जानना सबसे ज्यादा जरूरी है, कि देश की आजादी से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके बाद आज तक राष्ट्रीय परिवेश में मीडिया की कैसी भूमिका रही है? अब तक करीब 7 दशकों में मीडिया के मिजाज, स्वरूप, काम करने के तौर तरीकों और काम करने की शैली के साथ ही पत्रकारों के रहन-सहन में किस किस्म का बदलाव आया है। बदलाव तो एक शाश्वत प्रक्रिया है और बदलाव जरूरी भी है लेकिन बदलाव की इस यात्रा में नैतिक मूल्यों, सामाजिक चेतना, संबंधों की पवित्रता, राष्ट्र के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता की समझ में जबरदस्त गिरावट देखने को मिलती है। समय के साथ इन प्रतिमानों को केवल इसलिये स्वीकार नहीं किया जा सकता कि ये तो होना ही था इसमें हम कुछ नहीं कर सकते।
इसी तथाकथित बदलाव का ही नतीजा है, कि आज की युवा पीढ़ी के कुछ पत्रकार मीडिया को एक ऐसे तड़क-भड़क वाले पेशे के रूप मे लेते हैं जिसका उद्देश्य केवल और केवल पैसा कमाना रह गया है, चाहे इसके लिये कितने ही समझौते क्यांे न करने पडें़। इन समझौतों से पत्रकारिता के मिशनरी होने की परिभाषा तार-तार हो जाती है। मीडिया का स्वरूप आज पूरी तरह बदल गया है। पत्रकारिता की भौतिक लालसा और इस लालसा की पूर्ति के लिये कुछ भी करने से संकोच नहीं होता चाहे राष्ट्र द्रोह ही क्यों न हो। ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं, जब इसी बिरादरी के कुछ लोग देश के खिलाफ जासूसी करते हुए रंगे हाथ पकड़े भी गये। एक जमाना वह भी था जब इसी देश में पत्रकारों ने देश की आजादी के लिये अपनी जान न्योछावर करने से संकोच नहीं किया था, आज उसी देश में कुछ लोग मीडिया में रह कर राष्ट्र के हितों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
देश की आजादी के लिये हो रहे आंदोलन के दौरान पत्रकारिता एक मिशन के रूप में काम कर रही थी। गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर और खुद महात्मा गांधी तक असंख्य पत्रकार केवल इसलिये इस पेशे में थे या इस पेशे से उन्हें प्यार था, क्योंकि उनको लगता था, कि स्वाधीनता संग्राम की अलख जगाने और उसे जन-जन तक पहुंचाने का काम पत्रकारिता के माध्यम से ही हो सकता है। यही वजह है कि प्रत्येक आंदोलनकारी कहीं न कहीं एक पत्रकार भी था। शहीद भगत सिंह से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू तक तमाम क्रांतिकारियों ने किसी न किसी रूप में पत्रकारिता को स्वाधीनता आंदोलन का हथियार जरूर बनाया था। हरिजनसमेत ऐसे हजारों पत्रों का उल्लेख मिलता है, जो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ राष्ट्रव्यापी माहौल बना रहे थे।
पत्रकारिता का यह मिशन आजादी के बाद के तीन दशकों तक भी इसी जुझारू प्रण से चलता रहा 1947 से लेकर 1977 तक के इस दौर में पत्रकारों की पैनी कल ने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्रियों को भी नहीं बख्शा। मामला चाहे रक्षा मंत्रालय में जीप घोटाले का हो या फिर चीन के साथ युद्ध में भारत की पराजय का, बंगाल का दुर्भिक्ष हो या फिर देश में आपात काल लगाने का या फिर पूर्वोत्तर समेत अशांत हिमालयी राज्यों में विदेशी घुसपैठ का, हर मोर्चे पर मीडिया ने सरकार को चैन से नहीं बैठने दिया था। आपात काल की घोषणा के विरोध में तो देश के कई अखबारों ने कई दिन तक संपादकीय ही नहीं लिखे, सम्पादकीय का नियत स्थान काले बाॅर्डर के साथ खाली छोड़ दिया गया था। आज उस दृश्य की केवल परिकल्पना ही की जा सकती है, आज की पीढ़ी तो इसे कपोल कल्पना ही समझती है।
इसी दौर में लोक नायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन, राष्ट्रभाषा आंदोलन और हरित क्रांति जैसे अनेक राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने में भी तत्कालीन मीडिया ने नये सार्थक भूमिका का निर्वाह किया था। असम में तो ऐसे ही एक छात्र आंदोलन में आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन, जिसे संक्षेप मंे आसूभी कहा जाता है, जैसे मजबूत छात्र संगठन का प्रादुर्भाव भी किया। आसूराजनीतिक रूप से कितना प्रभावशाली संगठन था इसका अंदाजा इसी तथ्य से लग जाता है, कि इसी छात्र संगठन ने पहली बार इंदिरा गांधी जैसी प्रभावशाली नेता के खिलाफ न केवल सफल आंदोलन चलाया बल्कि असम गण परिषद के नाम से एक ताकतवर राजनीतिक शक्ति के रूप में संसदीय राजनीति में भी हिस्सा लिया। यह सब संभव नहीं होता अगर इन ताकतों को मीडिया का समर्थन नहीं होता।
आपात काल की समाप्ति के बाद देश में पहली गैर-कांग्रेस सरकार के गठन में भी मीडिया की बहुत सार्थक भूमिका रही है। कांग्रेस के विकल्प के रूप में जनता पार्टी के गठन मंे भी मीडिया का अहम् रोल था। मीडिया ने ही केले के छिलके की तरह ढ़ाई साल में ही कांग्रेस का विकल्प बनने में असफल रही जनता सरकार को बेनकाब करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसके चलते ही 1980 में कांग्रेस की सरकार मे जबरदस्त वापसी हुई थी। कहने का मतलब यह की आजादी से पहले आौर आजादी के बाद के लगभग 4 दशकों तक भारत में पत्रकारिता और पत्रकारों ने लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ की भूमिका बहुत ही निष्पक्ष तरीके से निभाई लेकिन बाद के दौर में खासकर 1991-92 में सोवितय संघ के विघटन और नयी वैश्विक उदार आर्थिक नीति के लागू होने के बाद के दौर में पत्रकारिता भी प्रभावित हुई है।
हमारे देश की पत्रकारिता के इतिहास, स्वरूप में आये बदलाव और मूल्यों के सत्यानाश होने की परिस्थितियों को देख कर ऐसा लगता है कि यहां की पत्रकारिता में राजनीति का असर हमेशा ही ज्यादा रहा है। जैसे-जैसे राजनीति बदली वैसे-वैसे ही मीडिया का स्वाभाव और स्वरूप भी बदलता गया। 1989 से भारतीय राजनीति में मंदिर बनाम मस्जिद के विवाद का सिलसिला शुरू हुआ, तो मंदी भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। इसी दौर में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री काल में मंडल के नाम पर चलायी गयी राजनीति ने पत्रकार जगत को मंदिर बनाम मस्जिद के साथ ही आरक्षण बनाम गैर-आारक्षण के खेमों में बांट दिया तभी से यह विभाजन रेखा चली ही आ रही है। इसी को मंडल बनाम कमंडल की राजनीति भी कहा जाता है।

आज की पत्रकारिता का खोखलापन इस रूप में भी देखा जा सकता है कि हम खबरों की खरीदारी भी बड़ी आसानी से करने लगे हैं, और इस मामले में पिं्रट से लेकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तक सभी के बारे में इसी जुमले का इस्तेमाल किया जा सकता है कि हमाम में सारे ही नंगे हैं, कुछ अपवादों को छोड़ कर। इन हालातों में सामाजिक सरोकार की अनदेखी होना स्वाभाविक ही है। उस पर संपादक विहीन सोशल मीडिया ने हालत और खराब कर दी है। कुल मिला कर परिस्थिति इतनी नाजुक हो गयी है, कि न कुछ निगलते बनता है न थूकते। बहरहाल नाउम्मीदी के इस आलम में भी एक कोने से उम्मीद की एक किरण तब नजर आने लगती है, जब कुछ अखबार भट्ठा पारसौल के किसानों के साथ ही भूमि अधिग्रहण जैस जन विरोधी सरकारी कार्यों के खिलाफ खबरें प्रकाशित करते हैं और इस जैसी दूसरी मुहीम में कुछ टेलीविजन चैनल भी उनका सहयोग करते दिखाई देते हैं। फेसबुक और उसके साथ ही ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के कुछ स्तंभकार भी इस दिशा में रचनात्मक सहयोग तो अवश्य कर रहे हैं लेकिन इंडिया बनाम भारत जैसे देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के विशाल स्वरूप को देखते हुए ये सब नाकाफी लगता है।
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कल हिन्दी पत्रकारिता दिवस था इस अवसर पर पूरी दुनिया में विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन किये गये।लोकतंत्र में पत्रकारिता का महत्व बढ़ गया है और पूरी दुनिया पत्रकारिता से तमाम उम्मीदें लगाये बैठा है क्योंकि पत्रकारिता ने जहाँ अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वहीं वर्तमान युग में भी लोकतंत्र की रक्षक बनी हुयी है।वर्तमान समय में पत्रकारिता का स्वरूप कुछ विकृत सा होने लगा है। मिशन माने जाने वाली हिन्दी पत्रकारिता आज विशुद्ध रूप से व्यवसायिक होती जा रही हैं।पत्रकारिता का स्वरूप व्यवसायिकता की इसी अंधी दौड़ के चलते अखबार एवं उससे जुड़े पत्रकारों को बौना बना दिया है।आज के बदलते परिवेश में अखबारों को अब कुशल पत्रकारों, लेखकों की नहीं बल्कि अच्छा व्यवसाय देने वाले प्रतिनिधियों की जरूरत है।इन परिस्थितियों मे पत्रकारिता जैसे पवित्र मिशन में गिरावट आना कोई बहुत अधिक ताजुब  नहीं है । पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़ा व्यक्ति भी इसी समाज का अंग है और जब समाज में गिरावट आई है तो पत्रकारिता जगत इससे अछूता कैसे रह सकता है ? लेकिन यदि पत्र पत्रिकाओं के मालिकान अपनी धारणा में थोड़ा भी परिवर्तन कर लें तो पत्रकारिता के मूल्यों एवं मानदंडो को पुनः स्थापितत किया जा सकता है।आज के दौर में पत्रकारों को निरंतर शारीरिक , मानसिक और आर्थिक यातनाएं झेलनी पड़ रही है।स्वाधीनता के महायज्ञ में आहुति डालने मे  कलम रुपी हथियार के ताकत  के बल पर ही लोकमान्य तिलक से लेकर महात्मा गांधी तक सक्रिय राजनेता के साथ-साथ प्रखर पत्रकार के रूप में जनता के सामने आए तथा कलम के अन्य अनेक सिपाहियों के साथ मिलकर गुलामी की पीड़ा का सजीव वर्णन करके जनता के दिलों मे आजादी मे बगावत की भावना पैदा की गयी जिसके फलस्वरूप हमें आजादी मिल सकी। यह वह समय ऐसा था जबकि पत्रकारों को समाचार की तलाश के साथ ही अखबार बेचने तक का काम खुद करने पड़ता था। स्वयं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचारपत्रों केसरी और मराठा के लिये टाइप राइटर अपनी पीठ पर ढोना पड़ता था। एक तरफ ऐसी विपरीत परिस्थितियां थी तो दूसरी तरफ खूंखार ब्रिटिश सरकार पत्रकारों की जुबान व कलम को रोकने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रही थी। उस समय की परिस्थितियों का आंकलन स्वराज पत्र से लिया जा सकता है जिसे एक विज्ञापन प्रकाशित करना पड़ा था कि "आवश्यकता है एक संपादक की जो वेतन के तौर पर जेल में जौ की एक रोटी और प्याले भर पानी से काम चला सके "। यह अतिशयोक्ति नहीं थी बल्कि ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों का ही परिणाम था कि इस पत्र की कुल ढाई साल की आयु में आठ संपादक ऐसे हुए जिन्हें सजा सुनाई गई थी।इसके बावजूद पत्रकारों ने आजादी की मशाल को रोशन करते रहे और जान की परवाह नहीं की। गांधी जी के हरिजन और यंग इंडिया तिलक के केसरी और मराठा कस्तूरी के हिंदू और गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप जैसे अनेक हिन्दी अखबार ब्रिटिश सरकार के लिये सिरदर्द बन गये थे।अरविंद के वंदे मातरम की भाषा इतनी ओजस्वी तथा विचार इतने पैने थे कि उससे बरतानिया सरकार की नींव तक हिलने लगी थी । पंडित नेहरू जैसे वरिष्ठ नेता तक इन अखबारों के आने की बेसब्री से प्रतीक्षा किया करते थे। सैनिक के संस्थापक संपादक कृष्णदत्त पालीवाल को जब ब्रिटिश सत्ता ने गिरफ्तार कर लिया तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में देश की सेवा कर रहे विचार क्रांति के महानायक वेदमूर्ति युगदृष्टा और युग निर्माण के प्रणेता पंडित श्रीराम शर्मा को सैनिक अखबार के संपादन का उत्तरदायित्व संभालना पड़ा । नेशनल हेराल्ड के संपादक के रामाराव ने लिखा है था कि-" पहली पंक्ति में लड़ने वाले सिपाही के तौर पर 'सैनिक 'ने इतने प्रहारों एवं आघातों को सहन करने के बावजूद इस अखबार का जीवित रह जाना एक आश्चर्यजनक घटना है । इसके पीछे ऐसे ही योग्य और वीर थे  जिन्होंने कभी पराजय स्वीकार नहीं की।असलियत तो यह है कि उस दौर में पत्रकारों की वाणी व लेखनी ही नहीं बल्कि उनका सद्चरित्र जीवन लोगों को प्रेरित करता था । आज के दौर मे इसकी पहले से कहीं ज्यादा आवश्यकता है।यह सही है कि आज की चुनौतियां और प्रलोभन फैला हुआ है और भविष्य का भारत गढ़ने वाले पत्रकारिता जगत के युवा सेनानियों को "आग के दरिया" से गुजरना पड़ रहा है। पत्रकारिता का लक्ष्य केवल वर्तमान को दोहरा देना ही समय की मांग है ।समाज के सम्मुख वर्तमान विसंगतियों से निपटने के तरीके भी प्रस्तुत करने होंगे। समाज का दर्द सामने लाने के साथ-साथ प्रेरणास्पद समाचारों को सुर्खियां बनाई जाएं न कि निगेटिव अपराधिक व अन्य समाचारों को सुर्खी बनाया जाय जिससे विकृत समाज को पुनः एक नयी दिशा मिल सके।

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