Saturday, June 24, 2017

शायरी

कैलैंडर की तरह मह्बूब बदलते क्युं हैं
झूठे वादों से ये दिल बहलते क्युं हैं ?

अपनी मरज़ी से हार जाते हैं जुए में सल्तनत,
फ़िर दुर्योध्नो के आगे हाथ मलते क्युं हैं ?

औरों के तोड डालते हैं अरमान भरे दिल,
तो फ़िर खुद के अरमान मचलते क्युं हैं ?

दम भरते हैं हवाओं का रुख मोड देने का ,
फ़क़्त पत्तों के लरज़ने से ही दहलते क्युं हैं ?

खोल लेते हैं बटन कुर्ते के, फ़िर पूछ्ते हैं,
न जाने आस्तीनों मे सांप पलते क्युं हैं ?

नन्हा था इस लिए मां से ही पूछा ,
अम्मा ! ये सूरज शाम को ढलते क्युं हैं ?

वो कहते हैं नाखूनो ने ज़खम "दीया",
नाखूनों से ही ज़खम सहलते क्युं हैं ?

कभी कभी आईना भी झूठ कहता है
अकल से शक्ल जब मुकाबिल हो
पलडा अकल का ही भारी रहता है

अपनी खूबसूरती पे ना इतरा मेरे मह्बूब
कभी कभी आईना भी झूठ कहता है

जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है
मुर्दा है जो खामोश हो के जुल्म सहता है

काट देता है टुकडों मे संग-ए-मर्मर को
पानी भी जब रफ़्तार से बहता है.

ईशक़ में चोट खा के दीवाने हो जाते हैं जो
नशा उनपे ता उमर मोहब्बत का तारी रहता है

अकल से शक्ल जब मुकाबिल हो
पलडा अकल का ही भारी रहता है

सुनाते क्या हो वक़्त बदलने वाला है
देखते आये हैं सूरज निकलने वाला है ...

जो नहीं है अपना उस पर ध्यान क्यों है
जो है पास में वो कब तक रहने वाला है ...

बाज़ार में शौहरत का खिलौना लेकर घूमने वाले
यह नहीं जानते कब वह टूटके बिखरने वाला है ...

शहर के घरों की दीवारें बाहर से अच्छी लगती है
इसमे रहने वाले जानते है कांच बिखरने वाला है ...

मैनेँ बदलते दौर में यह रंग भी देखा है

मुसीबत में हर ख़ास रिश्ता चाल बदलने वाला है ...

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