Sunday, May 22, 2016

अंत पंत हर मनुष्य, नर हो या नारी, बूढ़ा होता है ।


जिंदगी की ख्वाहिश है कि बूढ़ा न हो कोई.......,
लेकिन दर्द का रिश्ता भी तो कोई चीज होती है।
मैं हमेशा सोचता हूं कि हम जद्दोजहद क्यों करते हैं। दिन-रात भागदौड़ करते हैं। नये लोग मिलते हैं, कुछ बिछड़ते हैं। बातें हजार और चुप्पी डेढ़। यह सुनने में अजीब लगता है। कोई कहता है कि जीने के लिये मेल-मिलाप जरूरी है। बातें जरूरी हैं। तभी जिंदगी आगे बढ़ती है, नये मुकाम छूती है। सच में हमारी जिंदगी अनोखेपन को लिए हुए है। हम भी उसके साथ तैर रहे हैं। उम्र बढ़ने के साथ ही हमारी सक्रियता कम होने लगती है। कमजोरी बहुत कुछ बयान करती है। जब आप ऐसे माहौल में स्वयं को पाते हैं जहां चीजें किसी किनारे पर ठहरने को बेताब नहीं, तो आप असहाय भी हो जाते हैं। यह बुढ़ापा है। यह वह समय है जब इंसान जीवन को दूर से देख रहा होता है। बीते कल की यादों को समेट रहा होता है। बीता कल भी मजेदार है न। कुछ भी उस तरह स्पष्ट नहीं- खरोंचे लिये तस्वीरें और धुंधली जिंदगी के लम्हे। मैं खुद से बातें करता हूं। वह एकांत है, शांति, सुकून से भरे पल। मन को महसूस करता हूं। हां, खुद को महसूस करता हूं। समझ नहीं पाता कि क्या है, क्या नहीं और क्या घट रहा है। इतना जरुर है कि घटनाओं का एक कायदा है और वह निरंतर है। बादलों को छू नहीं सकते। बूंदों को जरुर महसूस किया है। मेरे हाथ जर्जर हैं। मैं जर्जर हूं। गर्दन संभलती नहीं, लेकिन जीवन को निहारने का सिलसिला रुका नहीं। थम जायेगी मेरी सांस एक दिन। न वक्त थमेगा, न जीवन। न मेरा वजूद होगा, न बोल। केवल यादें होंगी और वे भी चुनिंदा। काश मैं कुछ दिन और जी पाता। काश वक्त ठहर जाता। काशा बुढ़ापा न आता। लेकिन सच यह है कि बुढ़ापा आना है, जीवन जाना है।
नैनहु नीर बहै तन खीना, केस भये दुध बानी,
रुंधा कंठ सबद नहीं उचरै, अब क्या करै परानी।
भक्त कवि भीखन ने इन दो पंक्तियों में वृद्धावस्था का बहुत ही सटीक चित्र खींचा है। वे स्पष्ट करते हैं कि नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है, शरीर क्षीण हो चुका है, केश दूध की तरह सफेद हो चुके, बोलते समय गला भी रुंध जाता है जिससे स्पष्ट शब्द भी नहीं निकल पाते। हे प्राणी इन समस्याओं का किसी के पास कोई उपाय नहीं। वास्तव में वृद्धों के प्रति श्रद्धा आदि की बातें करने वालों की कमी नहीं लेकिन दयनीय अवस्था में पहुंचा हमारे समाज का अति महत्वपूर्ण तबका आज उपेक्षित और अकेला पड़ता जा रहा है।
बाल्याकाल और जवानी का समय बीत जाने के बाद इंसान वृद्धावस्था में क़दम रखता है। यह कुछ-कुछ संशय में डालता है। खुद को मालूम नहीं होता कि क्या हो रहा है, लेकिन हैरानी का ऐसा मौसम है जिसकी हवा से बचना मुश्किल लगता है। एक नवजात बच्चे और सौ साल के बुजुर्ग के बीच का अंतर हम आसानी से पहचान लेते हैं, लेकिन ये बताना कि बुढ़ापा क्यों और कैसे आता है बहुत मुश्किल काम है। चेहरे पर झुर्रियां क्यों आती हैं, मांसपेशियां कमजोर क्यों पड़ने लगती हैं? ये सब किस तरह लिखा जाये।
वृद्धावस्था भी मनुष्य के जीवन की परिपूर्णता का एक चरण है और इसमें एवं जवानी में अंतर यह है कि बाल्यकाल और जवानी इंसान के अंदर ऊर्जा से समृद्ध होती है परंतु वृद्धावस्था में ऊर्जा कम हो चुकी होती है और दिन- प्रतिदिन कम ही होती जाती है। इंसान जब वृद्ध हो जाता है तो वह बहुत सारे अनुभव प्राप्त कर चुका होता है। बुढ़ापा जीवन की सुनहरी सांझ है। बुढ़ापा अनुभवों का खजाना है। पृथ्वी पर बुढ़ापा सबसे बड़ा शिक्षालय है। दुर्भाग्य है की नकारात्मक नजरिये ने बुढ़ापे को अभिशाप बना दिया है। निराशा के अंधकार में खुद को धकेलने के बजाय स्वाध्याय और चिंतन की मशाल जलाएं। बुढ़ापे को मौत का प्रतीक्षालय नहीं समझें। जीवन की सांझ को समाजसेवा व अन्य परोपकारी प्रयोजन में लगाना चाहिए, ताकि बुढ़ापा व्यर्थ की रोक-टोक जैसे निरर्थक कार्यों से बचा रहे।
हर व्यक्ति के जीवन में बुढ़ापा आना एक स्वाभाविक और जैविक परिवर्तन है, जिसे रोका नहीं जा सकता है l अपने-अपने समय पर सभी वस्तुएँ सुन्दर लगती हैं। बच्चों का भोलापन किशोरों का उठना, तरुणों का उत्साह, प्रौढ़ों की परिपक्वता सुन्दर लगती है। इसी प्रकार बुढ़ापा भी अपने समय में अपनी विशिष्टता का परिचय देता है। इन आयु खण्डों की अपनी-अपनी विशेषता तो है पर तुलना नहीं की जा सकती और न किसी को श्रेष्ठ निकृष्ट ठहराया जा सकता है। बचपन अपनी जगह सुहाता है और तरुणाई की अपनी छटा है। दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। किन्तु परस्पर तुलना करने का कोई अर्थ नहीं। नमक अच्छा है या मीठा? इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं दिया जा सकता। दाल में डालने के लिए नमक ही जरूरत पड़ती है और दूध में शक्कर मिलाई जाती है। दोनों की अपनी-अपनी जगह उपयोगिता है और आवश्यकता।
बुढ़ापा कुरूप या सुन्दर? इसे समझने का अपना-अपना दृष्टिकोण है। इंसान में यह बदलाव बदलते मौसम के कारण होता है यही जीवन में बदलाव लाता है l तरुणाई जैसी अठखेलियाँ, उमंगे और मुस्काने बुढ़ापे में नहीं होती और न चेहरे पर ही वैसी गुलाई लालिमा और चमक रहती है पर उसके स्थान पर जो नया उभरता है, उसे अपनी जगह महिमा और गरिमा से भरा पूरा समझा जा सकता है। चेहरे की झुर्रियाँ, सफेदी, वेदान्ती मुख यह बताता है कि इस व्यक्तित्व पर परिपक्वता आ गई। ज्ञान अनुभव अब ऊँचाई तक पहुँच गया है। बुढ़ापा उम्र का वो स्वर्णकाल है, यह परिष्टता की निशानी है। समाज में उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा समझी जाती है, इसलिए लोग महत्वपूर्ण प्रसंगों में उनके परामर्श लेने पहुँचते हैं। उनके निर्णय निर्धारणों को महत्व देते हैं। उनका नमन वंदन किया जाता है। देखते ही श्रद्धा के अंकुर उठते हैं और उन्हें सम्मान पूर्वक ऊँचे स्थान पर बिठाया जाता है। यह गरिमा अनायास ही मिली हुई नहीं होती। उसके पीछे बहुमूल्य अनुभूतियाँ और विचारणाएँ होती है। इसलिए बुढ़ापा कोई समस्या नहीं वरदान है l
परिवार के साथ होना एक सुखद अनुभव होता है। यह हर किसी के लिए काम के पल हैं। जीवन में खुशी और सेहत के लिए परिवार को कारगार माना गया है। मेरा परिवार, मेरे अपने, बेटियां, उनके परिवार, उनका मोह, स्नेह रुकने के लिए कहता है। दिल कहता है, मैं अभी जवान हूं। दिमाग कहता है, मैं भी जवान हूं। मैं स्वयं भी अपने आप को जवान कहता हूं। वैसा दिखने के लिए बालों का काला करता हूं -फेस मसाज, हैड मसाज कराता हूं। योग और थोड़ा व्यायाम करता हूं। सबसे बड़ी बात मैं बच्चों और युवाओं के संग रहता हूं। उनके साथ खेलता हूं, मस्ती करता हूं। शायद यही कारण है कि मैं हमउम्र लोगों से अधिक कमसिन और फिट दिखता हूं। इसलिए कहता हूं कि उम्र की गिनती मत करो। बुढ़ापे का शोक मत मनाओ। अपनी कमजोरियां, परेशानियां भुलाकर जिंदगी का जश्न मनाओ। मौत और उसकी आहट को भूल दुनिया में खो जाओ। अपने तमाम शौक पूरे करो। जिंदगी का जश्न मनाओ और खुलकर जियो। क्यों हम बुढ़ापे से बचने की बात करते हैं? जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि हमारा बुढ़ापा मुस्कुराता हुआ इंतजार कर रहा है। न उम्र जीती, न हम। आये जरुर हैं, लेकिन जाना तय है।तो इसमें बुराई क्या है, यही बुढ़ापा है, यही सच्चाई है।
कुछ लोगो की बुढ़ापे की अवस्था दुश्वारियों से भरी है। आज अपने ही खून की उपेक्षा का दंश झेलने को क्यों अभिशप्त हैं ? इस प्रश्न का उत्तर हमारे वृद्ध ढूंढ रहे हैं। परिवार के युवा लोग यह जानने की कोशिश नहीं करते कि बूढ़ी हडिडयां कितना और थकेंगी। बूढ़े अपनी कहानी कहने से डरते हैं क्योंकि उनकी कोई सुनता नहीं। भला बूढ़ी बातोंको युवा क्यों सुनना चाहेंगे ? युवाओं को लगता है कि उनमें सक्षमता है। उन्हें किसी के उपदेशों की जरुरत नहीं। उनके बाजुओं में इतनी ऊर्जा बहती है कि वे अपने बल से देश बदलने का हौंसला रखते हैं। युवा वर्ग को नहीं अच्छा लगता जब उन्हें कोई टोके। फिर बुजुर्गों से बचने की कोशिश तो हर कोई करता है। उनकी बातें जो लोगों को पुरानी लगती हैं- पुरानी दुनिया के, पुराने ख्याल।
राजा पुराना हो गया। रानी कब की स्वर्गवासी हो पता नहीं कहां है। राजकुमारों का अतापता नहीं। जादूगर क्या करतब दिखायेगा? शेर-बिल्ली-चूहे-खरगोश जंगल से गायब हैं। यह सोचने भर से ही अंदाजा लग जाता है कि कहानी में होगा क्या। शायद कुछ नहीं। नानी की कहानी में । नानी बूढ़ी है, दादी बूढ़ी है। लगता है कहानी भी बूढ़ी हो चली है। बच्चे कहते हैं,‘यह कोई कहानी है?’ टेलीविज़न है पूरी दुनिया जो असली न सही, लेकिन उनके लिए समय बिताने का अच्छा साधन। अब नानी की कहानी की फुर्सत किसे? खामोशी हैं आखों में, लेकिन एक विचार है। नानी की कहानी समझदारी सिखाती है। जीवन की बारीकियां भला कहां मिलती हैं। प्रेम, स्पर्श और गोद में खजाना है। जमाना बढ़ चला है, नानी वहीं है, और बुढ़ापा भी।
झड़ गए जिन पेड़ों के पत्ते फिर कहाँ उनके साये हुए.........,
पूरी जवानी लुटा दी जिन पे क्यूँ बुढ़ापे में बच्चे पराये हुए l
एक अलग दुनिया के वासी हो गये हैं दादा-दादी, नाना नानी। अकेले कोने में जगह दे दी गई है उन्हें। धरती पर बोझ हैं’- ऐसा बहुत कुपुत्रों के मुख से निकलता है। उनकी पत्नियां तो बुजुर्गों को घर में न टिकने देने का वक्त लेकर आती हैं। मगर बूढ़ी आंखें धुंधली होकर भी अपनों से मोह की आस लिए हैं। उन्हें वह ताने बुरे नहीं लगते। उन्हें वह घूरती नजरें बर्दाश्त करने की आदत पड़ गयी। वे अब घुटन को खामोशी से सहन कर जाते हैं। उन्होंने आस खो दी चमकीले सवेरे की। हालात से समझौता कर अपनों के कैदखाने के जर्जर पंछी बनना उन्हें मंजूर है। उन्हें पता है उनका शरीर जबाव दे गया। वे पशोपेश में हैं कि अपनों से लड़ें या खुद से संघर्ष करें। आखिरी समय की त्रासदी है बुढ़ापा।
वृद्धाश्रम खुले हैं, संस्थायें चल रही हैं, पर बूढ़ों की सूनी जिंदगी में हरियाली नहीं आ रही। बुढ़ापा एक मजाक बना दिया गया है ऐसे स्थानों पर। धंधेबाज सिर्फ धंधा करना जानते हैं, चाहें सूखी हडिडयों को ही क्यों न निचोड़ा जाए। एक कैदखाने से निकलकर दूसरे में शिफ्ट करना- ऐसे हो चुके हैं वृद्धाश्रम।
किसी वृद्ध को परिवार वाले शोषित करते हैं, पड़ौस चुप है। किसी वृद्ध को प्यासा मार दिया जाता है, कोई कुछ नहीं कहता। दुत्कार, मार-पीट, जलालत और पता नहीं क्या-क्या किया जाता है बूढ़ों के साथ, सब चुप हैं। रोता है बुढ़ापा भीतर-भीतर बिना अपशब्द निकाले। हमारे बुजुर्ग इतना सहते हुए भी खामोश हैं क्योंकि वे विवश हैं। आजादी की तलाश है हमारे बूढ़ों को। उन्हें भी खुलकर हंसने की ख्वाहिश है। वे भी चाहते हैं स्वतंत्र जीवन, लेकिन रिश्तों की बेड़ियों में बुढ़ापा जकड़ा है। बुढ़ापे पर चंद पंक्तियां :
कमर मुड़ जायेगी, कंधे झुक जायेंगे, चलूंगा मैं धीरे-धीरे,
निगाह होगी नीची, आवाज होगी फीकी, काश ऐसा न हो,
लेकिन ऐसा होगा, हम भी बूढ़े होंगे, हम भी बूढ़े होंगे....।

बुढ़ापा प्रेम और सहानुभूति का भूखा होता है। उसे किसी धन, धान्य, ऐश्वर्य अथवा कीर्ति की कामना नहीं होती। जिसने जीवन के लंबे संघर्ष में न जाने किन-किन दुख-दर्दों को दरकिनार करते हुए किसी को योग्य बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी उसे हमसे केवल प्यार और सौहार्द की दरकार है। युवा पीढ़ी को मानना चाहिए कि जिन कंधों पर चढ़कर वे जीवन के सबसे अच्छे पड़ाव तक आये हैं आज उन्हीं कंधों को हमारे सहारे की दरकार है। हमें समर्पित भाव से अपने बुजुर्गों की सेवा का दायित्व निभाना चाहिए। शास्त्रोक्ति है –
अभिवादनशीलस्य च नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
बुढ़ापा एक ऐसी सच्चाई है जिससे हर व्यक्ति को सामना करना पड़ता है । इस कड़वी सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता की अंत पंत हर मनुष्य, नर हो या नारी, बूढ़ा होता है । जीवन रूपी यात्रा का आखरी स्टेशन है बुढ़ापा ।
बुढ़ापा एक सिद्धि है। पूर्णता की मंजिल हैं। और समय की धरोहर। व्यक्ति और समाज की स्थिति का समन्वय करने वाली उसे दूरबीन या खुर्दबीन कह सकते हैं। बुढ़ापा श्रद्धा-सम्मान से लदा हुआ वट वृक्ष है, जिसकी छाया में बैठकर नई युवा पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है और सान्त्वना पा सकती है।
बुढ़ापे के इस पड़ाव में, शाल बड़ी है, भारी,

अपने सारे रूठ गए, डंडे संग है, यारी.......l

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