प्रस्तावना:
कोई भी व्यक्ति अपराध जानबूझ कर नहीं करता वरन् उसके अपराधी कार्य के पीछे कोई न कोई कारण ऐसा होता है जिसके वशीभूत हो यह गलत कार्यों अथवा अपराधिक कार्यो की ओर अग्रसर होता है ।
कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि वह अपराध कर अपराधी बने और समाज उसे तिरस्कृत नजरों से देखे । हमारी विद्यमान सामाजिक, कानूनी, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं जो व्यक्ति को अपराधी बनने हेतु मजबूर करती हैं ।
चिन्तनात्मक विकास:
अपराध वास्तव में क्या है ? इस सम्बंध में अनेक विचारकों ने अपराध की परिभाषा अपने-अपने दृष्टिकोणों से दी है । किसी का मत है कि ‘अपराध एक साभिप्राय कार्य है’, अथवा किसी विचारक का मानना है कि यह एक ‘असामाजिक कार्य’ है आदि ।
अनेक विचारकों ने कानूनी, गैर-कानूनी एवं सामाजिक शब्दों में अपराध को परिभाषित किया है जहाँ तक अपराधी का सम्बंध है तो उसके अपराधिक व्यवहार को अच्छी तरह से समझने के लिए क्लासिक, जैविकीय, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक आधारों पर व्याख्या की गई है ।
हमारे समाज में आज विघटनकारी प्रवृत्तियाँ अत्यन्त प्रबल हैं । व्यक्ति को चारों ओर से कुण्ठाओं एवं तनावों ने घेर रखा है । राजनीतिक व्यवस्था उस पर हावी है परिणामस्वरूप वह सामाजिक एवं कानूनी प्रतिमानों का उल्लंघन कर रहा है, जिससे की समाज का स्वरूप विकृत होता जा रहा है ।
दिन-प्रतिदिन अपराध और अपराधियों की संख्या में वृद्धि हो रही है । भारत में प्रतिवर्ष भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत लगभग 14.5 लाख संज्ञेय अपराध होते हैं और लगभग 37.7 लाख अपराध स्थानीय एवं विशेष कानूनों के तहत होते हैं । हमारे समाज में अपराध को समाप्त करने एवं अपराधियों को दण्डित करने अथवा उपचार हेतु कारावास एवं परिवीक्षा कारावास की व्यवस्था की गई है ।
उपसंहार:
वस्तुत: समाज से इस समस्या को समाप्त करने हेतु अनेंक उपाय किये गए हैं किन्तु इसमें सन्देह ही है कि वास्तव में अपराध खत्म हो सकता है । अत: आज आवश्यकता इस बात की है कि जो भी उपाय व्यवस्था द्वारा अपनाये गये हैं उन्हें कारगर ढंग से लागू किया जाये, कठोरता से अपनाया जाये । कई संस्थाएँ भी इस ओर अग्रसर हैं ।
उन्हें भी अपने प्रयासों को संगत बनाने हेतु और अधिक रुचि दिखलानी पड़ेगी । कानूनी व्यवस्था को भी कड़े कदम उठाने पड़ेगे ताकि समाज से बुराई को दूर किया जा सके । अपराध किसे कहते हैं ? अपराध क्या हैं ? अपराधी कौन होते हैं ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर देने से पूर्व हमारे लिए ‘अपराध और अपराधी’ इन दोनों तत्वों की परिभाषा देना अत्यावश्यक है ।
पॉल टप्पन ने अपराध की परिभाषा इस प्रकार दी है कि यह ‘एक साभिप्राय कार्य है या अनाचरण है जो दण्ड कानून का उल्लंघन करता है और जो बिना किसी सफाई और औचित्य के किया जाता है ।’ इस परिभाषा में पाँच तत्व महत्वपूर्ण हैं; प्रथम, किसी क्रिया को किया जाये या किसी क्रिया को करने में चूक होनी चाहिए, यानि कि किसी व्यक्ति को उसके विचारो के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता ।
द्वितीय, क्रिया स्वैच्छिक होनी चाहिए और उस समय की जानी चाहिए जबकि कर्ता का अपने कार्यों पर नियन्त्रण है । तृतीय, क्रिया साभिप्राय होनी चाहिए, फिर चाहे अभिप्राय सामान्य हो अथवा विशेष । एक व्यक्ति का विशेष अभिप्राय चाहे दूसरे व्यक्ति को गोली मारना व उसको जान से मारना न हो, परन्तु उससे इस जानकारी की आशा की जाती है कि उसकी क्रिया से दूसरों को जोट लग सकती है ।
चतुर्थ, वह क्रिया फौजदारी कानून का उल्लंघन होनी चाहिए जोकि गैर-फौजदारी कानून या दीवानी या प्रशासनिक कानून से भिन्न है जिससे कि सरकार अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही कर सके । पंचम, वह क्रिया बिना किसी सफाई या औचित्य के की जानी चाहिए । इस प्रकार यदि यह सिद्ध हो जाता है कि क्रिया आत्मसुरक्षा के लिए या पागलपन में की गयी थी, तो उसे अपराध नहीं माना जायेगा चाहे उससे दूसरों को हानि हुई हो या चोट लगी हो ।
कानून की अनभिज्ञता को अधिकतर बचाव या सफाई नहीं माना जाता है । हाल जिरोम की परिभाषा के अनुसार अपराध ‘कानूनी तौर पर वर्जित और साभिप्राय कार्य है, जिसका सामाजिक हितों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, जिसका अपराधिक उद्देश्य है और जिसके लिए कानूनी तौर से दण्ड निर्धारित है ।’
इस प्रकार उसकी दृष्टि में किसी कार्य को अपराध नहीं माना जा सकता जब तक उसमें ये पाँच विशेषताएँ न हों; पहली, कानून द्वारा वह वर्जित हो । दूसरी, वह साभ्रिपाय हो । तीसरी, वह समाज के लिए हानिकारक हो । चौथी, उसका अपराधिक उद्देश्य हो । पाँचवी, उसके लिए कोई दण्ड निर्धारित हो ।
अपराध की परिभाषा गैर-कानूनी और सामाजिक शब्दों में भी की गई है । मोरर ने उसे एक असामाजिक कार्य कहा है । काल्डवेल ने उसकी यह कहकर व्याख्या की है दवे कार्य या उन कार्यो को करने में चूक जोकि समाज में प्रचलित मानदण्डों की दृष्टि में समाज के कल्याण के लिए इतने हानिकारक हैं कि उनके संबंध में कार्यवाही किसी निजी पहलशक्ति या अव्यवस्थित प्रणालियों को नहीं सौंपी जा सकती, परन्तु वह कार्यवाही संगठित समाज द्वारा परीक्षित प्रक्रियाओं के अनुसार’ की जानी चाहिए ।’
थौर्सटन सेलिन ने उसे ‘मानकीय समूहों के व्युवहार के आदर्श नियमाचारों का उल्लंघन कहा है ।’ मार्शल क्लिनार्ड ने यह दावा किया है कि मानदण्डों के सभी विचलन अपराध नहीं होते । वह तीन प्रकार के विचलन की बात करते हुँ (1) सहन किये जाने वाले विचलन, (2) विचलन जिसकी नरमी से निन्दा की जा सकती है, (3) विचलन जिसकी कड़ी निन्दा की जाती है । वह तीसरे प्रकार के विचलन को अपराध मानते हैं ।
‘अपराध’ की उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सभी विचारकों ने इसकी परिभाषा अपने-अपने दृष्टिकोण से दी है । किसी ने इसे स्पष्ट करने के लिए समाजशास्रीय आधार लिया है, तो किसी ने कानूनी । अपराध की कानूनी और सामाजिक परिभाषाओं के मध्य समाधानात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुये रीड ने कहा है कि कानूनी परिभाषा का अपराध के आकड़ों का संकलन करने के लिए और अपराधी का लेबिल देने के लिए उपयोग किया आ सकता है, परन्तु अपराध के कारणों के अध्ययन के लिए किये जा रहे अध्ययनों में ऐसे व्यक्तियों को भी अपराधियों के प्रतिदर्शो में सम्मिलित किया जाना चाहिए जो अपना अपराध स्वीकार करते हैं, परन्तु न्यायालय से दोषी सिद्ध नहीं हुये हैं ।
जहाँ तक अपराधी का सम्बंध है तो वह किसी न किसी कारण के वशीभूत हो अपराध करता है । यह आवश्यक नहीं कि किसी अपराध के पीछे कोई ठोस कारण ही हो क्योंकि कई बार अनजाने में ही किसी व्यक्ति द्वारा अपराध हो जाता है परिणामस्वरूप वह ‘अपराधी वर्ग’ के अन्तर्गत आ जाता है ।
अत: यह जरूरी हो जाता है कि किसी व्यक्ति के अपराधी व्यवहार के पीछे कारणों पर गहनता से विचार किया जाए । कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्र इच्छा शक्ति के वशीभूत हो अपराधी व्यवहार नहीं करता अपितु नियति के वशीभूत हो अपराध कर बैठता हे ।
हमारी सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था ही ऐसी है कि वह अपराध करने को मजबूर कर देती है । कानून एवं उसकी व्यवस्था भी किसी हद तक किसी निरपराधी को अपराधी में परिवर्तित कर देती है । प्राय: दण्ड नीति भी कई बार किसी को अपराध करने के लिए प्रेरित करती है ।
अपराधिक व्यवहार की सैद्धान्तिक व्याख्याओं को मुख्यत: छह वर्गों में विभाजित किया गया है: (1) जैविक या स्वभाव-सम्बंधी व्याख्याएं, (2) मानसिक अव-सामान्यता, बीमारी और मनोवैज्ञानिक-रोगात्मक व्याख्याएं, (3) आर्थिक व्याख्या, (4)स्थलाकृतिक व्याख्या, (5) मानव पर्यावरणवादी व्याख्या और (6) ‘नवीन’ और ‘रैडिकल’ व्याख्या ।
रीड ने सैद्धान्तिक व्याख्याओं का इस प्रकार वर्गीकरण किया है; (1) क्लासिकल और सकारात्मक व्याख्याएं, (2) शारीरिक, मनश्चिकित्सीय और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त, और (3) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त । इन्होंने समाजशास्रीय सिद्धान्तों को पुन: दो वर्गो में बांटा है: (1) सामाजिक संरचनात्मक सिद्धान्त, (2) सामाजिक प्रक्रिया सिद्धान्त । अपराधिक व्यवहार सम्बंधी इन सभी सिद्धान्तों को मुख्यत: चार भागों में वर्गीकृत कर समझा जा सकता है । (1) क्लासिक, (2) जैविकीय, (3) मनोवैज्ञानिक, (4) सामाजिक ।
‘अपराध और दण्ड’ सम्बधी क्लासिक विचारधारा इटेलियन विचारक बैकेरिया द्वारा अठारहवीं शताब्दी के दूसरे अर्ध में विकसित की गई थी । क्लासिक विचारधारा यह मानती थी कि (क) मानव प्रकृति तार्किक एवं स्वतन्त्र है और अपने स्वार्थ से निर्धारित होती है, (ख) सामाजिक व्यवस्था मतैक्यता और सामाजिक अनुबंध पर आधारित है, (ग) अपराध सामाजिक प्रतिमानों का उल्लंघन नहीं बल्कि कानून संहिता का उल्लंघन है, (घ) अपराध का वितरण सीमित है और उसका पता उचित प्रक्रिया से लगाना चाहिए, (ड) अपराध व्यक्ति की तार्किक प्रेरणा से होता है, व अपराधी को दण्ड देते समय ‘संयम’ का सिद्धान्त अपनाना चाहिए ।
क्लासिक व्याख्या की कुछ कमियाँ थी जैसे; पहली, सब अपराधियों के साथ बिना उनकी आयु, लिंग अथवा बुद्धि में भेद करके समान व्यवहार किया जाना । दूसरी, अपराध की प्रकृति को कोई महत्व नहीं दिया गया (अर्थात अपराध साधारण है अथवा जघन्य) । इसी प्रकार अपराधी के प्रकार को भी महत्व नहीं दिया गया (अर्थात् उसका प्रथम अपराध था, या आकस्मिक अथवा पेशेवर अपराधी था) ।
तीसरी, एक व्यक्ति के व्यवहार की व्याख्या केवल ‘स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति’ के सिद्धान्त पर करना और ‘उपयोगितावाद’ के सिद्धान्त पर दण्ड प्रस्तावित करना अव्यावहारिक दर्शन है जो अपराध को अमूर्त मानता है और जिसके निष्पक्ष एवं आनुभविक मापन में वैज्ञानिक उपागम का अभाव है ।
चौथी, न्यायसंगत अपराधिक कार्यो के लिये उसमें कोई प्रावधान नहीं था । पांचवीं, इन्हें फौजदारी कानून में सुधार करने में अधिक रुचि थी, बजाय अपराध को नियन्त्रित करने और अपराध के सिद्धान्तों का विकास करने में दण्ड की कठोरता को कम करना, जूरी व्यवस्था के दोषों को हटाना, देश निकाला और फांसी देने के दण्ड को समाप्त करना और कारागृह दर्शन को अपनाना, और नैतिकता को नियमित करना ।
क्लासिक सिद्धान्त में नव-कलासिकवादी अंग्रेज अपराधशासियों ने संशोधन कर यह सुझाव दिया कि अपराधी की आयु, मानसिक दशा ओर लघुकारक परिस्थितियों को महत्व दिया जाना चाहिए । सात वर्ष से कम आयु के बच्चों और मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों को कानून से मुक्त रखना चाहिए । जैविकीय व्याख्या के अन्तर्गत ‘नियतिवाद’ के सिद्धान्त पर बल दिया गया ।
लोझासो, केरी और गेरीफलो प्रमुख प्रत्यक्षवादी थे । जिन्होने अपराधिक व्यवहार के जैविकी से उत्पन्न होने वाले और वंशानुगत पहलुओं पर बल दिया । लोखासों को ‘अपराधशास्त्र का पिता’ कहा जाता हे । इनका मत था कि अपराधी का शारीरिक रूप गैर-अपराधी के शारीरिक रूप से भिन्न होता है, जैसे असममित चेहरा, बडे कान, बहुत लम्बी बाहे पिचकी हुई नाक, पीछे की ओर मुड़ा हुआ ललाट, गुच्छेदार और कुचित बाल, पीड़ की तरफ संज्ञाहीनता, आँखों में खराबी और अन्य शारीरिक अनूठेपन ।
साथ ही इन्होने उन विशेषताओं का भी जिक्र किया जो अपराध की किस्मों के अनुसार अपराधियो में भेद दर्शाते हैं । यद्यपि जीवन के अन्तिम दिनों में इन्होने अपने सिद्धान्त में परिवर्तन कर कहा कि द्र अपराधी जन्मजात’ नहीं होते वरन् साधारण अपराधी’ (जो सामान्य शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बनावट के व्यक्ति होते हैं), आकस्मिक अपराधी और संवेगात्मक अपराधी भी होते हैं ।
इनके सिद्धान्त की भी कुछ आलोचनाएँ हुईं जैसे, इनके तथ्यों का संकलन जैविक कारकों तक सीमित था और इन्होंने मानसिक और सामाजिक कारकों पर ध्यान नहीं दिया, इनका सिद्धान्त वर्णनात्मक था, प्रयोगात्मक नहीं, पूर्वाजानुरूपता सिद्धान्त और विकृति सम्बंधी सामान्यीकरणों ने सिद्धान्त और तथ्य के बीच एक दरार बना दी । सिद्धान्त को ठीक दर्शाने के लिए तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया । यह अवैज्ञानिक क्योंकि इनका सामान्यीकरण एक अकेले प्रकरण से प्राप्त किया गया था ।
अपराध और अपराधी सम्बंधी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त मन्द बुद्धिमता पर बल देता है, मनश्चिकित्सीय सिद्धान्त मानसिक रोगों पर बल देता है, और मनोवैश्लेषिक सिद्धान्त अविकसित अहम् या प्रेरणाओं और मूल प्रवृत्तियो या अपराध भावनाओं या हीन भावना पर बल देता है ।
हेनरी गोडर्ड ने विचलन और अपराध का सबसे बडा अकेला कारण मन्द बुद्धिमता बताया । इन्होने कहा कि मन्द बुद्धिमत्ता वशागत होती है और जीवन की घटनाओ से बहुत कम प्रभावित होती है । यहाँ इस बात पर बल दिया गया कि अपराधी पैदा नहीं होता वरन् बनाया जाता है । किन्तु वह इस बात में विश्वास नहीं करते थे कि प्रत्येक मन्दबुद्धि वाला व्यक्ति अपराधी होता है ।
वह सम्भावित अपराधी हो सकता है, परन्तु उसके अपराधी बनने का निर्धारण दो कारक करते हैं; उसका स्वभाव और उसका पर्यावरण । इसलिए मन्द बुद्धिमत्ता वंशानुगत हो सकती है, परन्तु अपराधिकता वंशानुगत नहीं है । इसके विपरीत समाजशास्त्री यह तर्क देते हैं कि अपराधिक व्यवहार सीखा जाता है और सामाजिक पर्यावरण के परिस्थितिवश होता है ।
समाज की परिस्थितियाँ अथवा वातावरण ऐसा होता है जिसके कारण व्यक्ति अपराध कर बैठता है । उदाहरणार्थ, आर्थिक परिस्थिति के अन्तर्गत जैसे पूंजीवादी व्यवस्था में आदमी केवल स्वयं पर ही सकेन्द्रित रहता है और इससे उसमे स्वार्थपरता उत्पन्न होती है । आदमी की रुचि केवल अपने ही लिये पैदा करने में होती है, विशेष रूप से अधिशेष प्राप्त करने में जिसका विनिमय वह लाभ से कर सकता है ।
उसे अन्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं में रूचि नहीं होती । इस प्रकार पूजीवाद सामाजिक दायित्वहीनता को जन्म देता है, और परिणामस्वरूप अपराध होता है भौगोलिक व्याख्या अपराध का आकलन भौगोलिक कारको जैसे जलवायु, तापमान और आर्द्रता के आधार पर करती है । वस्तुत: इस बात मे कोई सन्देह नहीं है कि ‘अपराध और अपराधी’ सम्बधी सभी सिद्धान्तों मे कहीं न कहीं एवं कुछ न कुछ कमियां अवश्य हैं । कोई भी सिद्धान्त स्वयं मे पूर्ण नहीं है ।
हमारे समाज में प्राय: सभी श्रेणियों मे अशान्ति बढ रही है क्योकि सामाजिक सम्बधों एवं सामाजिक बंधनो मे विघटन हो रहा है । युवाओ, किसानों, औद्योगिक श्रमिकों, छात्रों, सरकारी कर्मचारियों और अल्पसंख्यको में अशान्ति व्याप्त है । यह अशान्ति तनावों और कुण्ठाओं में वृद्धि करती है जिससे कानूनी और सामाजिक प्रतिमानो का उल्लघन होता है ।
अत: हमारे समाज की विद्यमान उप-व्यवस्थाओं औ२ संरचनाओ का सगठन और कार्यप्रणाली अपराध की वृद्धि हेतु उत्तरदायी है । भारत में एक घंटे मे लगभग 175 संज्ञेय अपराध भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत और 435 अपराध स्थानीय और विशेष कानूनो के तहत होते हैं ।
एक दिन में लगभग 900 चोरियों, 250 दगों, 400 डकैतियो और सेध लगाकर चोरियो और 2,500 अन्य फौजदारी अपराधों से पुलिस जूझती रहती है (क्राइम इन इंडिया, 1990 : 14) । 1970 और 1980 के मध्य अपराध में 57 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि 1980 और 1990 के बीच अपराध केवल 80 प्रतिशत बढ़ा (1990 : 10) ।
अपराध की उठती हुई तरंग जनता मे भय उत्पन्न कर सकती है, परन्तु हमारी पुलिस और राजनीतिज्ञ बिगड़ती हुई कानून और व्यवस्था की स्थिति से अप्रभावित एवं अछूते रहते हैं । विपक्षी राजनैतिक दल इन आँकडों में रूचि तभी लेते हैं जब इन्होंने सत्ताधारी दल की नीतियों की आलोचना करनी होती है ताकि उन्हें सत्ता से हटाया जा सके ।
वास्तव में समाजशास्त्री और अपराधशास्री ही अपराध के कारणों का पढ़ा लगाने, अपराध को कम करने, दण्ड एवं न्याय व्यवस्था को प्रभावशाली बनाने में रूचि दिखलाते हैं और इस क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य करते हैं ।
हाल ही में कुछ उग्र विचारो वाले विद्वानों ने अपराध सम्बंधी कानूनो को पारित करवाने, पुलिस व्यवस्था को सुधारने, न्यायिक सक्रियता, उत्पीडितों के हितो की सुरक्षा, कारागृह की स्थिति मे सुधार और विचलित व्यक्ति को मानवीय बनाने के सम्बंध में प्रश्न उठाये हैं ।
हमारे समाज में अपराधियों को दण्ड देने एवं उपचार हेतु मुख्यत: दो तरीके अपनाए जाते हैं-प्रथम कारावास, द्वितीय परिवीक्षा पर मुक्ति । यद्यपि कुछ भयंकर अपराधियों को फांसी की सजा भी दी जाती है और कुछ पर जुर्माने भी किये जाते हैं ।
1919-20 तक भारतीय कारावासों में स्थितियाँ भयावह थीं । 1919-20 की भारतीय रेल सुधार कमेटी के सुझावों के अचात् ही अधिकतम सुरक्षा कारागृह जैसे केन्द्रीय जेल, जिला जेल और उप-जेल में परिवर्तन किये गये । इन परिवर्तनों में शामिल थे वर्गीकरण, कैदियो का पृथक्करण, शिक्षा, मनोरंजन, उत्पादन कार्य का देना और परिवार एवं समाज में सम्पर्क रखने के अवसर ।
बाद में तीन राज्यों में तीन मध्यम-सुरक्षा कारागृह या आदर्श कारावास भी स्थापित किये गए जिनमें पंचायत राज, स्व-संचालित केन्टीन और मजदूरी पद्धति पर बल दिया गया, किन्तु इन्हें केन्द्रीय कारागृह मे परिवर्तित कर दिया गय । कारागृह सामान्यत: समान पोशाक पहनने वालों का ससार है । जहाँ के प्रत्येक निवासी पर कलंक लगा होता है और उसे अपरिचित साथियो के साथ निर्धारित कार्यो को नियत समय में करना होता है ।
इन्हे किसी भी प्रकार की आजादी, सुविधाओं, भावात्मक सुरक्षा और विषमलिगींय संबंधों से वचित किया जाता है । इन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओं का सामना करने के लिए वही निवासी कैदी व्यवस्था की कैदी सहिता का पालन करते हैं, जोकि कारागृह पद्धति की औपचारिक संहिता के बिल्कुल विपरीत होती है ।
कैदियों को कारावास के द्वारा दण्डित करने एव उनका उपचार करने हेतु एक उदार और कठोर सन्तुलित नीति को अपनाना चाहिए । जेल व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाने हेतु और अपराधियो को सुधारने के लिए जिन अन्य उपायो की आवश्यकता है ।
वे है, विचाराधीन कैदियो को सजायाफ्ता कैदियों के साथ एक ही जेल में नहीं रखना चाहिए, कैदियो को उनकी फाइलें प्राप्त करानी चाहिए, कैदियो को बैरक निर्धारण अथवा काम देने से पूर्व उनका उपयुक्त निदान होना चाहिए, कैदियो को अपनी इच्छानुसार कार्य चयन की स्वतन्त्रता होनी चाहिए, पैरोल पर रिहा करने को अधिक सरल एव प्रभावी बनाना चाहिए, निजी उद्योगों को कारागृह में लाने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए ।
कैदियों को अपनी शिकायतें व्यक्त करने के लिए प्रभावी माध्यम उपलब्ध कराने चाहिए, अनिश्चित सजा प्रणाली लागू करनी चाहिए, कैदियों को छ: माह से कम समय के लिए कारागृह भेजने को हतोत्साह करना चाहिए, राज्यस्तर पर एक जेल उद्योग ब्यूरो स्थापित करना चाहिए ।
अत: ऐसे कार्यक्रम बनाये जाने चाहिएं जो कैदियों को नया जीवन प्रारम्भ करने के लिए प्रोत्साहित करें । एक अन्य विकल्प है-परिवीक्षा कारागृह । परिवीक्षा कारागृह से आशय है अदालत द्वारा अपराधी की सजा को स्थगित करना और कुछ शर्तो पर उसे रिहा करना, जिससे वह समाज में परिवीक्षा अधिकारी की देख-रेख में या उसके बिना समाज में रह सके ।
कारागृह प्रणाली की अपेक्षा परिवीक्षा कारागृह में कुछ लाभ हैं । ये हैं; परिवीक्षा पर रिहा किये गए अपराधी पर कोई कलंक नहीं लगता, परिवीक्षार्थी का आर्थिक जीवन भंग नहीं होता, उसके परिवार को कष्ट नहीं सहन करना पड़ता, अपराधी भी कुंठित नहीं होता और यह आर्थिक रूप से कम महंगी है । इसमें कुछ कमियाँ हें जैसे, अपराधी उसी वातावरण में रहता है जहाँ उसने अपराध किया है, उसे दण्ड का कोई भय नहीं होता । किन्तु यह कमियां तर्कसंगत नहीं हैं ।
इसके अतिरिक्त परिवीक्षा को नये उपायों से अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है जैसे, परिवीक्षा की अवधारणा को परिवर्तित करना और उसको सजा का स्थगन मानने के स्थान पर सजा का विकल्प मानना, उन सब प्रकरणों में जिनमे अपराधियों को परिवीक्षा पर छोड़ दिया जाता है, उनके सामाजिक अन्वेषण को अनिवार्य करना, रिहाई की शती को लचीला बनाना, अनिश्चित सजा प्रणाली को लागू करना और परिवीक्षा सेवाओं को किसी अन्य विभाग से न जोड़ कर राज्य स्तर पर उनका एक अलग निदेशालय स्थापित करना ।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि सुधार व्यवस्था को अधिक कुशल बनाने हेतु प्रबंधकी: रुचि एवं मानवतावादी रुचि को ही अपनाकर व्यवस्था में सुधार निश्चित है ।
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