Thursday, May 19, 2016

टीना डाबी

किसी भी ‘दलित लड़की’ का नाम सुनते ही हमारे जेहन में जो तस्वीर उभरती है, उसे बताना यहाँ जरूरी नहीं है। लेकिन यदि आपने पिछले दिनों एक लड़की टीना डाबी को टी.वी. चैनलों पर देखा हो, तो पक्का है कि टीना की छवि उस तस्वीर से मैच नहीं करेगी, दूर-दूर तक मैच नहीं करेगी। लेकिन यदि हम वर्ग की भाषा में संबोधित करें, तो टीना उसी वर्ग की हैं। यह इस ब्लॉग का एक हिस्सा है। इसका दूसरा हिस्सा यह है कि टीना डाबी ने आई.ए.एस. की परीक्षा; जो भारत की सबसे कठिन परीक्षा मानी जाती है, में टॉप किया है। कुछ लोग इससे प्रफुल्लित हैं, तो कुछ लोग अचम्भित भी। एक दलित लड़की; वह भी टॉप। मुझे लगता है कि यह एक बहुत मौजूं समय है, जब हमें इस मुद्दे पर पूरे  व्यावहारिक तौर से विचार करना चाहिए।
    
‘दलित’ का अर्थ है- प्रताड़ि‍त, जिसे कुचला गया हो, जिसका बुरी तरह से शोषण किया गया हो, और जो समाज के सबसे निचले पायदान पर पड़ा हुआ हो। भारतीय समाज में यह एक प्रकार से जातिवाचक संज्ञा है। टीना के माता-पिता, दोनों इंजीनियर हैं, और दोनों ने इंडियन इंजीनियरिंग सर्विस क्वालीफाई की हुई है। टीना पहले भोपाल में रही, और पिछले दस सालों से अपने परिवार के साथ दिल्ली में रह रही है। उसकी पढ़ाई दिल्ली के सबसे अच्छे कॉलेज में हुई। उसके माता-पिता की मासिक आय ढाई लाख रुपये से कम तो नहीं ही होगी। वैसे आर्थिक स्थिति की मजबूती का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि टीना की मां ने अपनी बेटी की पढ़ाई के लिए अपनी इतनी बड़ी नौकरी को छोड़ने की हिम्मत दिखाई थी।
    
इस कहानी का तीसरा मजबूत और सबसे चौंकाने वाला प्रशंसनीय पक्ष यह है कि इस परीक्षा में टीना के लिए आरक्षण की व्यवस्था होने के बावजूद उसने आरक्षण नहीं चाहा था। इसके लिए मैं टीना का अभिनन्दन करना चाहूंगा।
इससे इस मुद्दे की कुछ नई बातों पर प्रकाश पड़ता है कि-
  • दलित वर्ग (टीना के लिए यह प्रश्नवाचक है) में आत्मविश्वास आ रहा है?
  • यह वर्ग अब आरक्षण को अपने स्वाभिमान पर चोट करने वाला समझने लगा है?
  • क्या इस वर्ग के कुछ लोगों में अपने ही वर्ग के अन्य लोगों के प्रति उदारता की भावना आने लगी है?
वैसे मैं यहाँ यह बताना चाहूंगा कि मेरे यानी कि 1983 के बैच में (33 साल पहले) मेरे एक दलित (?) मित्र थे, जिन्हें मैरिट में आठवां स्थान मिला था। हाँ, यह जरूर था कि उनकी अधिकांश पढ़ाई-लिखाई इंग्लैण्ड में हुई थी। क्या 33 साल पहले की इस कहानी, जो लगभग-लगभग हर साल दुहराई जाती है, और अभी टीना डाबी की इस कहानी में कुछ समानता है? तो आइए, अब हम कुछ इन निष्कर्षों को टटोलते हैं, जो हमें टीना के टॉप करने पर सोचने को विवश करते है।

पहला यह कि आरक्षण के आधार के लिए जाति महत्वपूर्ण रही होगी। लेकिन सामाजिक विकास के क्रम में अब  उसकी भूमिका न्यून होती जा रही है। आर्थिक पृष्ठभूमि सामाजिक एवं सांस्कृतिक ऊर्जा के द्वारा जाति के नकारात्मक तत्वों को नष्ट कर देते हैं।

दूसरा यह कि आरक्षण से लाभान्वित परिवार आगे चलकर अपने ही समूह में एक टापू का रूप ग्रहण कर लेता है, जो अपने ही समूह के नीचे वालों को उबरने नहीं देता। जबकि आरक्षण की मूल आत्मा है- इसका लाभ उस समूह के सभी परिवारों (सदस्यों तक नहीं) तक पहुंचाना। यह फिलहाल पूरा नहीं हो रहा है। ऐसी स्थिति में टीना के द्वारा अपने लिए आरक्षण की मांग न करना सामाजिक बदलाव की एक नई शुरुआत हो सकती है, बशर्ते कि इसे राजनीतिक लाभ की बजाय सामाजिक लाभ के नजरिये से देखा जाए।
    
प्रधानमंत्री जी ने आर्थिक रूप से ठीक-ठाक लोगों से एलपीजी गैस की सब्सिडी स्वेच्छा से छोड़ने की अपील की थी। टीना ने इस अपील को आरक्षण के क्षेत्र में लागू करके एक नया रास्ता दिखाया है। शायद अपने समुदाय के हित-चिंतक फिलहाल तब तक तो कुछ ऐसा ही कदम उठाएं, जब तक कि राजनैतिक दल इस बारे में कोई हिम्मत नहीं दिखाते हैं। हैट्स-ऑफ टू यू टीना...।

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