Tuesday, May 24, 2016

दलित-पिछड़ों के लिए भगवान बाद में, आंबेडकर पहले!

भारत की विराट सभ्यता के इतिहास में कई महान शासकों, सामाजिक परिवर्तकों और मिथकों का बड़ा महत्व रहा है। चाहे गौतम बुद्ध हों या भगवान महावीर, राम हों या कृष्ण, अशोक हों या अकबर, कबीर हों या गुरु नानक, और चाहे बीसवीं सदी में महात्मा गांधी, इन सभी ‘महापुरुषों’-‘भगवानों’ के आने-जाने से यहाँ नये-पुराने विचार पनपे और विलुप्त हुए। समाज, धर्म, संप्रदाय आदि ने विस्तृत रूप लिए और वे संक्षिप्त भी हुए या नए रूप में सामने आए। सभी ने बड़े स्तर पर समाज को प्रभावित किया। ये प्रभाव नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही रहे हैं। लेकिन समाज पर इनके अद्वितीय प्रभाव के बावजूद जाति व्यवस्था भारत की विशेष प्रमुखता के रूप में अपने वजूद के साथ मज़बूती से बनी रही।
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मैं रातभर इसलिए जागता हूँ, क्योंकि मेरा समाज सो रहा है: डॉ. बीआर आंबेडकर
ये लोग इतिहास लिख गए, नए समाज-संप्रदाय का निर्माण कर गए, लेकिन जाति व्यवस्था को नहीं तोड़ सके। कोई माने या न माने, लेकिन हक़ीक़त यही है कि जाति व्यवस्था के चलते सदियों से प्रताड़ित दलित-पिछड़े समाज में संघर्ष की मशाल जलाने वाला कोई ‘महापुरुष’ या ‘भगवान’ 14 अप्रैल, 1891 से पहले तो पैदा नहीं हुआ। हालाँकि दलित समाज के उत्थान के लिए जोतिबा फुले और सावित्री बाई फुले और 90 के दशक में कांशीराम के आंदोलन भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन जाति की चिता जलाने का सपना देखने वालों की आँखों में डॉ. भीमराव आंबेडकर से बड़ी आग कोई नहीं।
यहाँ मैं बता दूँ कि मैंने किसी ‘महापुरुष’ की आलोचना नहीं की है। और यदि आप आरक्षण विरोधी हैं तो यह भी कहना चाहूंगा कि जिस मशाल या परिवर्तन की बात मैंने कही है, वो आरक्षण नहीं, बल्कि जातिवाद की वजह से मर रहे समाज में इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करने के विचार का जन्म है। अश्वेतों के अधिकारों और उन पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ ये काम मार्टिन लूथर किंग ने किया और मज़दूरों का शोषण कर रही पूंजीपतियों की व्यवस्था के ख़िलाफ़ कार्ल मार्क्स के विचारों ने क्रांति पैदा की। भारत में जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ इस विचार को जन्म देने वाले व्यक्ति का नाम बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर है।
वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ये करिश्मा वो फिर भी कर रहे हैं। इसकी गवाही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देते हैं जो कहते हैं कि अगर बाबासाहेब न होते तो वो पीएम नहीं बन सकते थे।movement ज़मानत पर छूटने के बाद जब कन्हैया कुमार अपने साथियों के बीच ‘ज़ोर से बोलो जय भीम’ का नारा लगाते हैं तो पूरा जेएनयू हाथ उठाकर उनकी लय से लय मिलाता दिखता है। उन्हें ज़मानत और रोहित वेमुला को इंसाफ़ दिलाने निकले छात्र आंदोलनों की झलक भर देख लीजिए, वे सामाजिक न्याय की बात कहतीं आंबेडकर की तस्वीरों से पटे और ‘जय भीम’ के नारों से गूंजते दिखते हैं।
ये दो-चार बातें मैंने केवल इतना भर बताने के लिए कहीं कि आंबेडकर ने व्यवस्था की ज़मीन तो बहुत पहले हिला दी थी, आज जब उनके संघर्ष से तैयार हुआ समाज सत्ताधारियों के दुर्गों की छतों पर कूदने को बेताब दिख रहा है तो उन्हें आंबेडकर में भगवान नज़र आने लगे हैं। हो सकता है कि राजनीति और सत्ता, जो हमेशा से जाति से प्रभावित रहे हैं, आंबेडकर का सम्मान करते हों, लेकिन इसके पीछे एक हक़ीक़त ये भी है कि दरअसल वे आंबेडकर की विचारधारा से घबराते हैं। जाति का प्रतिनिधित्व करने वाले इन लोगों में उनके व्यक्तित्व और संघर्ष से टकराने का साहस नहीं है, और जिससे टकरा नहीं सकते उसका सम्मान करने, उसके आगे झुकने के अलावा और कोई चारा नहीं होता।
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संयुक्त राष्ट्र में पहली बार मनाई गई आंबेडकर जयंती।
वैसे आंबेडकर के विराट व्यक्तित्व से अनजान लोग ये सोच रहे होंगे कि ये हो क्या रहा है। ये व्यक्ति अचानक इतना बड़ा कैसे हो गया? 14 अप्रैल तो पहले भी आती थी। इस दिन संसद मार्ग एक मेले का रूप ले लेता है और हज़ारों दलित-पिछड़े हाथों में माला लिए ‘जय भीम’ का नारा लगाते हुए ज़रूर संसद भवन में उनकी मूर्ति के आगे जाते हैं। लेकिन पहले तो कभी ऐसा बवाल नहीं मचा कि असदुद्दीन ओवैसी से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रोहित वेमुला आत्महत्या से लेकर जेएनयू कांड, छात्र संगठनों से लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारत से लेकर न्यू यॉर्क में संयुक्त राष्ट्र तक हर जगह उनके नाम का डंका बज रहा है।
मेरे लिए ऐसे लोगों का हैरान या परेशान होना अप्रत्याशित नहीं है। क्योंकि ऐसा जाति से ग्रस्त आरक्षण-आंबेडकर विरोधियों के साथ है। जाति के सर्वनाश की कामना करने वाले मेरे जैसे लोग तो इस देश की राजनीति से सवाल कर उसकी गर्दन दबोचने की सोच रहे होंगे। आज भले ही वो आंबेडकर के पैरों तले नाक रगड़ रही है, लेकिन कभी उसे आंबेडकर की मृत्यु के कारणों की भी सुध नहीं थी। यानी उसे ये तक नहीं पता था कि बाबासाहेब की मृत्यु कैसे और किन हालातों में हुई। मामला 2012 का है। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जिस पर आंबेडकर की उपेक्षा करने का आरोप उनके जीवित रहने के वक़्त से लगता रहा है। (पढ़ें: सरकार को नहीं पता कैसे मरे आंबेडकर)।
मैं आंबेडकर की हैरान करती शैक्षिक योग्यता, बड़ौदा के महाराज के यहाँ मंत्रालय में कार्यरत रहते हुए उनके साथ हुए रुला देने वाले जातिगत भेदभाव और अन्याय, सिडनम कॉलेज में उनके सहयोगी प्रफ़ेसरों पर उनके प्रभाव, महाराष्ट्र के नामी वकीलों की उनसे ट्यूशन लेने, संविधान बनाने में उनके योगदान जैसी कई बातें करने की सोच रहा था, लेकिन गुरुवार 14 अप्रैल को संसद भवन के बाहर डॉ. आंबेडकर को पुष्पांजलि देने पहुँचे हज़ारों लोगों की लाइन में तीन घंटे से भी ज़्यादा वक़्त तक खड़े होने के बाद जब आख़िरकार में उनकी मूर्ति के पास पहुँचा तो सब पढ़ा धरा का धरा रह गया। उनकी मूर्ति के आगे दलितों को माथा टेकते, रोते, ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाते, किसी तरह उनके पैरों पर माला पहुँचाने की कोशिश करते और दोनों घुटनों के बल होकर कई बार नतमस्तक होते देखना ये बताता है कि आंबेडकर उनके लिए एक विशाल और अटूट छत की तरह हैं जिसके नीचे वे ख़ुद को सुरक्षित महससू करते हैं। ambedkarउस समाज का बड़ा हिस्सा आज भी अशिक्षित है, सामाजिक और राजनीतिक रूप से जागरूक भी नहीं, फिर भी दूर-दराज़ के इलाक़ों से एक दिन पहले ही यहाँ पहुँच कर संसद प्रवेश की प्रतीक्षा करते हैं।
आप दलित हों या नहीं, लेकिन अगर संवेदनशील व्यक्ति भर हैं तो भी ये नज़ारा आपको ये एहसास करा देगा कि सदियों से अभी तक भी सामाजिक ग़ुलामी और उपेक्षा झेल रहा ये समाज इस बात से बहुत अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं कि उसके साथ हुए और हो रहे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अन्याय और भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए संविधान और आंबेडकर के नाम से बड़ा हथियार और कोई नहीं। इसीलिए कहा जाता है कि दलित-पिछड़े उन्हें भगवान मानते हैं। और मुझे लगता है वे उनके लिए भगवान से पहले हैं।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/dushyantkumar/dr-ambedkar-comes-first-before-gods-for-dalits/

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