स्वतन्त्र संवाददाता : रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया
आबादी के लिहाज़ से भारत में सड़क के किनारे पर रहने वाले बेघर और कामकाजी बच्चों की संख्या सबसे ज़्यादा है। जब आप स्लम के बच्चों के बारे में सोचते है, तो आपके जेहन में केवल उनकी गंदगी, गरीबी, अशिक्षा, बाल श्रम, बाल उत्पीड़न, कुपोषण और स्वास्थ्य देखभाल की कमी इत्यादि के बारे में ख्याल आता है l समाज में आम आदमी और पुलिस द्वारा ऐसे बेघर और कामकाजी बच्चों के साथ दुर्व्यवहार होता है और घृणा की दृष्टि से देखा जाता है l इन सब बातो को ध्यान में रखते हुए चेतना नामक गैर-सरकारी संस्था ने 2002 में दिल्ली के 35 बच्चो की एक बढते कदम नाम की संस्था खड़ी की l ऐसे में आपने कभी सोचा भी नहीं होगा कि झुग्गी बस्ती, स्लम व सड़क के किनारे पर रहने वाले बेघर बच्चों में भी पत्रकारिता की भावना व प्रतिभा होती होगी l
दिल्ली में पिछले 10 वर्षों से झुग्गी बस्ती, स्लम व सड़क के किनारे पर रहने वाले बेघर और कामकाजी बच्चों ने साऊथ दिल्ली से “बलाकनामा” नामक अख़बार प्रकाशित करते है जिसके पत्रकार से लेकर संपादक तक सभी स्लम के बच्चे ही है l समाचार पत्र ‘बालकनामा’ से जुड़े बच्चे न सिर्फ बाल मज़दूरी कर रहे बच्चों को विकल्प दे रहे हैं बल्कि उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का काम भी कर रहे हैं। और 8 पन्नो का अखबार सिर्फ 2 रुपए की कीमत पर उपलब्ध है जो भारत के 4 राज्यों दिल्ली, उतर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उतरांखंड में वितरित होता है और 12,000 से अधिक बच्चे इस अखबार से जुड़े है l
बीबीसी ने हाल मे मिसाल कायम करने वाली देश की 100 दमदार महिलाओ को चुना, इनमे एक नाम दिल्ली की 20 वर्षीय ‘शन्नो’ का भी है। वह हिन्दी और इंग्लिश मे निकलने वाले बेघर और कामकाजी बच्चों के पाक्षिक अखबार ‘बालकनामा’ की पूर्व सम्पादिका व वर्तमान मे सलाहकार है। ‘बालकनामा’ अपने आप मे एक अनूठा अखबार माना जाता है। आईये हम आपको ‘बालकनामा’ की टीम से रू-ब-रू करवाते है:-
शन्नो (पहले एडिटर, अब सलाहकार)
शन्नो 18 वर्ष की उम्र तक अख़बार की संपादिका थी लेकिन 18 वर्ष पूरे होते ही वह अपने संपादिका के पद से मुक्त होकर अब वह सलाहकार के तौर पर अख़बार से जुडी हुई है l इस अख़बार का नियम है कि रिपोर्टर हो या सम्पादक 18 साल की उम्र तक ही उसे जिम्मेदारी दी जाती है l शन्नो कहती है “एक रिपोर्टर के तौर पर किसी बच्चे की खबर छपती है, तो उस पर असर होता ही है, उसके अभिभावक पर भी काफी असर पड़ता है l” हम अख़बार के माध्यम से बच्चो से जुडी सरकारी योजनाये, व NGO के संचालन तथा पालिसी आदि की जानकारी देते है l अब देखिये नियम तो यह है कि 14 साल तक के बच्चे मेहनत-मजदूरी नहीं करेंगे, पर असलियत यह नहीं है, हमे लगता है कि हमारे लिखने से कुछ तो असर जरुर होगा l
चांदनी (मुख्य संपादिका)
16 वर्षीय चांदनी की कहानी भी संघर्ष से भरी है l जब वह 4 साल की थी, उसका परिवार यूपी के बरेली से दिल्ली खाने कमाने के लिये आया था l बाद में वह अपने पिता के साथ सडको पर खेल तमाशा दिखाने लगी l 2008 में पिता की मौत के बाद वह कबाड़ बीनने लागी l इसी दौरान वह NGO ‘चेतना’ के संपर्क में आई और ‘बालकनामा’ से जुड़ गई l और अब अखबार में खबरों और कहानियों को चित्रित करने का निर्णय लेती है।
चांदनी (मुख्य संपादिका) ने ‘बालकनामा’ अख़बार के शुरुआत के बारे में कहना है कि साल 2003 में इस अख़बार की शुरुआत NGO ‘चेतना’ ने ही की थी, जोकि अब झुग्गी बस्तियों में रहने वाले बच्चो के बढ़ते कदम की आवाज़ है l हमारे बारे में कोई नहीं जान पाता, हम कैसे रहते है, किस स्थिति में रहते है, इन बच्चो की दुनिया अँधेरी है l सभी बच्चे चाहते थे कि उन्हें उसी रूप में दर्शाया जाय जिस हाल में वे दिन भर काम ...बाल मजदूरी करते है l इसलिये इस आइडिया पर काम शुरू किया गया कि हम बच्चे अपना अख़बार निकाले l हम चाहते है कि बच्चे परेशानियों से लड़ना सीखे और परेशानियों को अपनी ताकत बनाये l
आरिफ (चीफ रिपोर्टर)
15 वर्षीय आरिफ बताता है कि परिवार के गुजर-बसर के लिये वह रोजाना करीब 200 मुर्गे काटता है, परिवार में बीमार माँ और चार भाई बहनों में वह अकेला कमाने वाला है l लेकिन आरिफ परिवार का पेट पालने के साथ वह ‘बालकनामा’ अख़बार में रिपोर्टर की जिम्मेदारी भी निभाता है l
शम्भू (रिपोर्टर)
16 वर्षीय, शंभू, जो रात के दौरान एक होटल में काम करता है और दिन के दौरान कारों को साफ करता है । शंभू, कहता है कि मेरा सपना था कि मेरा फोटो एक दिन अख़बार में छपे l अख़बार में जब मेरी फोटो छपी तो मुझे बेहद ख़ुशी हुई l फिर मैंने सोचा कि मेरे जैसे कितने बच्चे है जो कामकाजी है और बेघर है, मैं एक-एक कर सभी के नाम और फोटो छपवाऊंगा l अब वह रिपोर्टर है और अख़बार के लिये समाचार और कहानियाँ लिखने के लिए समय निकाल ही लेता है। पहले वह नशा भी करता था पर अब नहीं करता उसका मानना है कि बच्चे नशे के कारण आगे नहीं बढ़ पाते l
ज्योति (रिपोर्टर)
14 वर्षीय ज्योति जोकि दिल्ली के सराय काले खॉं अंतर्राज्यीय बस अडडे के पास रैन बसेरा मे रहती है। जो सङको पर से कबाङ बीन कर परिवार की मदद करती है। इसलिये इसके दिन की शुरूआत तङके सुबह 4 बजे से ही हो जाती है। ज्योति को नशे की आदत थी जो चेतना NGO की मदद से छुटाई गई फिर एक बार ज्योति बदली तो हमेशा के लिये बदल गई। वह पढाई लिखाई सीखकर अब एक रिपोर्टर के तौर पर उसकी जिम्मेदारी कुछ और है। वह दुसरो के दुख सुख को सुनती है, और उनके बिजली पानी और गंदगी की समस्याओ को सुनने के बाद अखबार मे प्रकाशित करती है।
No comments:
Post a Comment