मित्रों, मैं उस पीढ़ी का हूँ जिसने के स्वतंत्रता-शिशु की गोद में अपनी आँखें खोली और जो इस देश के साथ बड़ा होता हुआ आज बुजुर्ग हो गया है। ये दीग़र बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। मेरी पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध्याय पढ़े हैं। मेरी पीढ़ी ने राशन की पँक्तियों में खड़ी ग़रीबी देखी है तो चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मेरी पीढ़ी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण देखा है, हरित क्रांति की हरियाली देखी है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमचमाते सूदखोर बनिए जैसे ग़ैरराष्ट्रीयकृत बैंक देखे हैं तथा समृद्ध, विदेशी निवेश से चढ़ते शेयर बाज़ार के सैंसक्स के बीच भारत में आत्महत्या करते हुए किसान भी देखे हैं। मैंनें विश्व में छायी मंदी के बावजूद देश की अर्थ-व्यवस्था की जी डी पी को बड़ते देखा है पर साथ ही ईमानदारी, नैतिकता, करुणा आदि जीवन मूल्यों की मंदी के कारण ग़रीब की जीडीपी को निरंतर गिरते ही देखा है।
देश स्वतंत्र हुआ तो उसके अनेक मायने लगाए गए । प्रभु की मूरत की तरह, प्रत्येक ने स्वतंत्रता-प्रभु को जाकि रही भावना जैसी अंदाज़ में देखा। कुछ के लिए आज़ादी, दो रोटी से आठ रोटी के जुगाड का यंत्र बन गयी तो कुछ के लिए, रही-सही दो रोटियाँ बचाने का प्रयत्न बन गयी । बहुतों का आज़ादी से मोह भंग हुआ तो कुछ के लिए आज़ादी मोह का कारण बन गयी । अनेक ऐसे संत पैदा हुए जिन्होंनें दूसरों को तो इस मोह से दूर रहने के प्रवचन सुनाए और स्वयं इस ‘मोह’ की चरण-वंदना में डूब गए । ऐसे लोग जितना डूबे उतना ही तरे । ये दूसरों को डुबाने के लिए तरे ।
स्वतंत्रता के बाद राजनैतिक क्षेत्र में विसंगतियाँ अधिक बढीं । स्वतंत्रता से पहले लडाई का शत्रु स्पष्ट था । सभी जानते थे कि वो किसके ख़िलाफ़ लड रहे हैं, और इस लडाई में हथियार भी उठते थे । शत्रु की शत्रुता स्पष्ट थी । स्वतंत्रता से पहले विषय की दृष्टि से उसकी सीमाएँ भी थीं वह आज़ादी के बाद दूर हो गयीं । विदेशी शासन के ख़िलाफ़ सीधे-सीधे लिखने के बहुत ख़तरे थे , यही कारण है कि भारतेंदु ने शासन की विसंगतियों को प्रकट करने के लिए ‘अंधेर नगरी’ का सृजन किया । भारतेंदु द्वारा तत्कालीन शासन की विसंगतियों की आलोचना का यह रूप अप्रत्यक्ष था । भारत में प्रजातंत्र की स्थापना ने विचार की जो स्वतंत्रता दी उससे शासन की विसंगतियों की प्रत्यक्ष आलोचना का अधिकार मिल गया । आज़ादी आई और उस आज़ादी से लोगों को आशाएँ भी बहुत थी । अक्सर भविष्य स्वर्णिम लगता है परन्तु जब वह वर्तमान में बदल जाता है तो मोह भंग की स्थिति पैदा करता है, क्योंकि अपने स्वर्णिम भविष्य से हम अपनी बहुत आशाएँ जगा चुके होते हैं । इसके साथ यह भी सत्य है कि अपनी आज़ादी के लिए लड़ने वाले जब आज़ादी पा लेते हैं, सता सम्भाल लेते हैं, तो लड़ने वालों का चरित्र बदल जाता है । अनेक विसंगतियाँ जन्म लेने लगती हैं । धीरे-धीरे देश की राजनीति मूल्यों से खिसक कर, इतनी मूल्यवान होने लगी कि अनेक व्यावसायियों के आकर्षण का केंद्र बन गयी । राजनीति के अपराधीकरण ने ‘महान’ देशभक्तों को सुअवसर प्रदान किया कि वे जेलों की चार दिवारी से बाहर निकलें और राष्ट् के निर्माण में अपना अभूतपूर्व योगदान दें । एक समय अपने राजनैतिक आकाओं की सता बहाली के लिए किसी को भी उनके रास्ते से हटाने वाले सेवको को अपना महत्व तथा सता के ख़ून का स्वाद मिल ही गया । एक समय था राजनीति में कुत्तों का बहुत बडा महत्व था, धीरे-धीरे उनका स्थान भेड़ियों ने ले लिया । ऐसी अनेक राजनैतिक विसंगतियाँ थीं जिनके कारण सजग साहित्यकार के विचार तंतुओं पर दबाव पडा । एक पीड़ा ने उसके अंदर जन्म लिया । देश के प्रति उसकी निष्ठा ने उसको विवश किया कि वह इन विसंगतियों के विरुद्व अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करे । जैसे-जैसे विसंगतियाँ बढीं वैसे-वैसे र्व्यंग्य लेखन में वृद्वि हुई ।
समाज में कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक मर्यादाओं, मूल्यों अथवा आदर्शों के विरुद्ध जाता है तो उसे सही मार्ग पर लाने के अनेक तरीके हैं । एक तरीक़ा तो यह है कि सज़ा का डर दिखाकर उसे सुधारा जाए पर अक्सर सज़ा व्यक्ति को अपराधी बनाए रखती है । दूसरा तरीक़ा यह है कि उसे नैतिकता की कड़वी खुराक़- सा भाषण पिलाया जाए पर जिसे प्यास ही न हो उसे कुछ भी पीना अच्छा नहीं लगता । तीसरा तरीक़ा यह है कि उसका सरे आम मज़ाक़ उड़ाया जाए । सरे आम उड़ाया गया मज़ाक़ बहुत आहत करता है और आहत व्यक्ति महाभारत का युद्ध तक लड़ लेता है । सभी जब एकसाथ किसी एक व्यक्ति या प्रवृत्ति का मज़ाक़ उड़ाते हैं तो मुँह छुपाना कठिन हो जाता है । व्यंग्यकार की महत्वपूर्ण भूमिका यही है कि वह लक्ष्य की विसंगतियों की पहचान कर उसका मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक दबाव के आगे झुकना उसकी मजबूरी है । किसी सामाजिक विसंगति का मज़ाक़ बनाकर वह अपने साथ अपने पाठकों की एक फौज तैयार करता है । यह फौज ही उसका हथियार होती है । वह विसंगति को प्रचारित कर लक्ष्य को शर्मिंदा करता है । एक चोर या डकैत को चोर या डकैत कहलाने में कोई शर्म नहीं आती है । उसकी चोरी या डकैती चर्चे प्रकाशित होते हैं तो वह हीरो बन जाता है । पर खादी पहन सेवा के नाम पर देश की डकैती करने वाले का चेहरा जब प्रचारित होता है तो वह अपने तथाकथित साफ चेहरे की सफाई देने लगता है । यहाँ व्यंग्यकार के बारे में एक बात मैं साफ – साफ कहना चहता हूँ । व्यंग्यकार चाहे कितना आक्रोश प्रगट करे, कितनी ही आक्रामक मुद्रा ग्रहण करे और स्वयं को नायक समझने की भूल करे, उसका यथार्थ यह है कि वह अपने लक्ष्य के दुष्ट स्वभाव को बदल पाने में व्यक्तिगत धरातल पर नपुंसक विरोध के अतिरिक्त कोई ताक़त नहीं रखता है । उसके विरोध को तो हँसकर उड़ाया जा सकता है । उसकी असली ताक़त पाठकों की उसकी फौज है, जिस फौज सामने नंगा होने से विसंगतिपूर्ण चरित्र डरता है। आदमी यथार्थ के प्रकटीकरण सें उतना नहीं डरता है जितना विसंगति के नंगा होने से ।
समाज वही होता है पर उसे देखने के हमारे अपने-अपने यथार्थ होते हैं । आज का सामाजिक यथार्थ यह है कि हमसे हमारा यथार्थ बहुत पीछे छूटता जा रहा है । सबसे पहला सवाल तो यही है कि आज का हमारा सामाजिक यथार्थ क्या है? जब समाज को देखने के भिन्न-भिन्न नज़रिए होंगें तो सामाजिक यथार्थ भी भिन्न ही होगा । आजकल तो समाजिक परिवेश को को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के चश्मे से देखने की अपनी- अपनी दृष्टियॉं हैं । समाज देखने का मेरा नज़रिया तेरे नज़रिए से बेहतर सिद्ध करने में हमारे कर्णधार वैसे ही व्यस्त हैं जैसे दशहरे के समय में अपने – अपने रावणों का बेहतर क़द देखकर राम के ‘धार्मिक’ भक्त प्रसन्न होते हैं । जब हम अपने आस-पास के लोगों से मिलते हैं तो अक्सर बहुत ही औपचारिक सवालों के साथ मिलते हैं ।” और क्या चल रहा है ? जीवन कैसा चल रहा है ? ” जैसे सवालों का उत्तर देते समय कुछ आस्तिक सा उत्तर देते हैं – उपर वाले की कृपा है । कुछ उदासी को स्वर में घोलकर कहते हैं - ठीक है । कुछ जीवन को कट रहा बताते हैं, कुछ बस चल रही है कहकर सवाल से छुटकारा पाने की मुद्रा में होते हैं तो कुछ बस जी रहे हैं जैसी निर्लिप्त मुद्रा में और कुछ के लिए जीवन व्यर्थ बहा, बहा दो सरस पद भी न हुए अहा ! होती है । कुछ इतनी तेज़ी में होते हैं कि आप पूछते जीवन के बारे में हैं और वो आपके सवाल को अनसुना कर अपनी हाँकते हैं तथा किसी को भी एक दो गालियॉं सुनाकर ये जा वो जा होते हैं । तुलसी बाबा के स्वर में स्वर मिलाकर कह सकते हैं कि जाकि रही भावना जैसी जीवन मूरति देखी तिन तैसी । ऐसे ही ज्ञानीजन समाज को अनेक रूपों में देख डालते हैं । कुछ के लिए धर्म की हानि हो रही है और समाज रसातल मे जा रहा है तथा अब प्रलय हुआ ही चाहती है । कुछ गांधी बाबा के बंदरों की तरह आँख कान मुँह, सब कुछ, मूंद लेना चाहते हैं । कुछ त्यागी समाज को गंदगी से बचाने के लिए स्वयं गंदगी के ढेर पर जा बैठते हैं । कुछ समाज में रहते हुए कमल से निर्लिप्त स्वयं में ही लिप्त रहते हैं । उनको न्याय – अन्याय, अच्छा- बुरा, ईमानदारी- बेईमानी में से कुछ भी नहीं व्याप्ता है । कुछ खाते हैं और सोते हैं और कुछ कबीर की तरह जागते और रोते हैं । कुछ के लिए उनका पुराना ज़माना ही अच्छा था चाहे उस जमाने में चीर-हरण होते रहे हों, अपहरण होते रहे हों, शम्बूकों की हत्याएँ होती रही हों । कुछ समाज में रहते हैं पर समाज के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं है, बहुत बिजी़ लोग हैं । आप समाज का निरर्थक अर्थ निकालने की चिंता में अपने बाल नोच-नोच कर दुबले हुए जाते हैं और यह सार्थक अर्थालाभ कर अपने घर को भरने की जुगाड़ में मुटियाए जाते हैं । कुल मिलाकर कह सकते हैं कि विश्व परिवर्तनशील और उसी लय में समाज भी परिवर्तनशील है। समाज अपने को अनेक स्तरों पर जीता है और उन स्तरों पर छोटे बड़े, अनेक परिवर्तन एक समूह को जन्म देते हैं। अज्ञेय ने ‘लेखक और परिवेश’ में परिवेशगत परिवर्तनों के बारे में कहा है- आज की बड़ी दुनिया में मेरा परिवेश स्थितिशील नहीं है, वह सतत चलनशील है! सभी संबंध गतिशील हैं। उनका जो रूप मेरी चेतना को छूता है वह छूने-छूने में बदलता जाता है। बल्कि वह छुअन ही मानों नाड़ी की छुअन है या कि एक घूमते हुए पहिए के नेमे की- जिसका स्पर्श भी नहीं कहता कि ”मैं हूँ” यही कहता है कि मैं हो रहा हूँ… या कि इससे भी आगे ‘मैं होते- होते यह – यह नहीं वह होता जा रहा हूँ’… जिस परिवर्तन के बीच में रहता हूँ - यानी मेरा जो परिवेश है वह एक असुंतलन से दूसरे असंतुलन तक का है।’
अज्ञेय ने अपने समय की, बड़ी दुनिया की बात की है और अज्ञेय के बाद यह दुनिया कितनी और बड़ी हो गई है, हम सब देख ही रहे हैं। आज से लगभग तीन दशक पहले लिखे इस लेख में अज्ञेय ने उस विवशता की चर्चा की है जहाँ ‘मैं होते- होते यह-यह नहीं वह होता जा रहा हूँ’… और इस परिवर्तन के बीच जो परिवेश है वह एक असुंतलन से दूसरे असंतुलन तक का है।’ पिछले एक दशक में यह असंतुलन अधिक विस्तृत हुआ है। वर्तमान व्यवस्था असंतुलन के संतुलन व्यवस्थित कर अपने स्वार्थों को सिद्ध करने में व्यस्त है। नव उदारवाद आर्थिक वैषम्य की खाई को निरंतर बढ़ाता जा रहा है और इसके लिए उसने मध्यम वर्ग को अपना टूल बनाया है। उसकी संस्कारशील, मानवीय मूल्यों के प्रति चिंतित, अस्मिता एव संस्कृति के प्रति सजग तथा गलत के विरुद्ध, चेतना को, पूँजी की चकाचौंध से सुप्त करने का निरंतर षड़यंत्र चालू आहे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा, मध्यम वर्ग की नयी पीढ़ी को तीन चार गुना वेतन देकर उसकी सामाजिकता और परिवार छीन लिया है।
एक भयंकर षड़यंत्र चल रहा है और पूँजीवाद हमारा स्वामी बनने के लिए अनेक प्रकार ‘आयोजन’ कर रहा है। कभी अचानक हमारे देश की दो एक सुंदरियों को विश्व सुंदरी बनाकर यहाँ अपना बाज़ार फैला लिया जाता है और कभी आपकी भाषा को सर्वप्रिय बनाने के छद्म में आपकी भाषा छीनी जाती है। वैश्वीकरण और विश्वव्यापार की स्थितियाँ सभी को प्रभावित कर रही हैं। एक समय था बीस कोस पर भाषा अदल जाती थी और तीस कोस पर पानी बदल जाता था। आजकल सब जगह एक-सा ही पानी मिलता है - बोतल में बंद तथाकथित मिनरल वॉटर। दिल्ली को उसकी गलियाँ छोड़कर चली गई हैं और उनका स्थान मॉल-संस्कृति ने ले लिया है। पहले हर शहर की एक पहचान होती थी जो उसकी भाषा, संस्कृति, खान-पान तथा गलियों कूचों से जुड़ी होती थी, पर अब वो धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। सभी शहर एक से लगने लगे हैं। निर्मला जैन की एक नयी संस्मरणात्मक कृति आई है, ‘दिल्ली शहर दर शहर’ जिसमें उन्होंनें दिल्ली के बदलते चेहरे का बहुत ही बारीकी से प्रस्तुतिकरण किया है। आज जब वो अपनी दिल्ली को पीछे मुड़कर देखती है तो लगता है कि ये दिल्ली तो वो रही नहीं, जिसकी गलियों में वे खेल खेलकर बड़ी हुईं। इस बदलाव के कारणों एवं षड़यंत्र पर अपनी नज़रिया प्रस्तुत करते हुए वे लिखती हैं- हर शहर का अपना एक चेहरा होता है, जो उसकी जीवन-शैली, बोली -बानी मेले-ठेलों, रीति – रिवाज़ों यानी कुल जमा सांस्कृतिक विन्यास से पहचाना जाता है। वर्तमान परिदृश्य में सभी शहरों की जीवन शैलियॉँ एक महा-मंथन की गिरफ़्त में हैं। बहु राष्ट्रीय कंपनियाँ सबका ‘महानगरीय’ ब्रांडधर्मी संस्कृति में कायाकल्प करने में लगी हैं। मुनाफ़ा इसी में है, जिसके लिए वे ग्रामीण क्षेत्रों में भी घुसपैठ करने की फ़िराक़ में हैं। सवाल जातीय विशिष्टताओं और अस्मिताओं को अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों के आक्रमण से बचने का है। कौन कितना बचेगा, जैसे यह तय नहीं, वैसे ही यह भी निश्चिय करना संभव नहीं कि अंतिम परिणति किसके हित में होगी।’
मित्रों, केवल शहरों का चेहरा ही नहीं बदल रहा है, व्यक्ति के अंदर का चेहरा भी बदल रहा है। नव उदारवाद अधिक आर्थिक अर्जन की जठराग्नि में निरंतर घी डालकर उसे धधका रहा है। वर्तमान व्यवस्था में पैसे की ताक़त ने सामाजिक को विवश कर दिया है कि उसका एकमात्र लक्ष्य, जैसे-तैसे अधिक धन का उपार्जन रह जाए। ये पैसे की ताक़त ही है कि पचास रुपए की चोरी करने वाला पुलिस के डंडे खाता है, जेल जाता है और पचासों करोड़ की चोरी करने वाला टीवी चेनलों में हीरो बनता है। इतने आर्थिक घोटाले हुए हैं पर कितने को हमारी न्यायव्यवस्था ने सज़ा के योग्य समझा ये किसी से छुपा नहीं है। हमारी जनता की स्मृति बहुत क्षीण है। आज नंगई की मार्केटिंग का धंधा जोरों पर चल रहा है और साहित्य में भी ऐसे धंधेबाज़ों का समुचित विकास हो रहा है । कुटिल -खल-कामी बनने का बाज़ार गर्म है । एक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता चल रही है — तेरी कमीज मेरी कमीज़ से इतनी काली कैसे ? इस क्षेत्र में जो जितना काला है उसका जीवन उतना ही उजला है । कुटिल– खल-कामी होना जीवन में सफलता की महत्वपूर्ण कुंजी है । इस कुंजी को प्राप्त करते ही समृद्धि के समस्त ताले खुल जाते हैं । बहुत आवश्यक है सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को पहचानने तथा उनपर दिशायुक्त प्रहार करने की । पिछले दस वर्षों में पूँजी के बढ़ते प्रभाव, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ‘संस्कृति’ के भारतीय परिवेश में चमकदार प्रवेश ने हमारी मौलिकता का हनन किया है। अचानक दूसरों का कबाड़ हमारी सुंदरता और हमारी सुंदरता दूसरों का कबाड़ बन रही है । सौंदर्यीकरण के नाम पर, चाहे वो भगवान का हो या शहर का, मूल समस्याओं को दरकिनार किया जा रहा है । धन के बल पर आप किसी भी राष्ट्र को श्मशान में बदलने और अपने श्मशान को मॉल की तरहा चमका कर बेचने की ताक़त रखते हैं ।
आजकल आत्मा की आवाज़ की जैसे सेल लगी हुई है । जिसे देखो वो ही आत्मा की आवाज़ सुनाने को उधर खाए बैठा है । आप न भी सुनना चाहें तो जैसे -क्रेडिट कार्ड, बैंकों के उधारकर्त्ता, मोबाईल कंपनियों के विक्रेता अपनी कोयल-से मधुर स्वर में आपको अपनी आवाज़ सुनाने को उधार खाए बैठे होते हैं, वैसे ही आत्मा की आवाज़ सुनने-सुनाने का धंधा चल रहा है । कोई भी धाार्मिक चैनल खोल लीजिए, स्वयं अपनी आत्मा को सुला चुके ज्ञानीजन आपकी आत्मा को जगाने में लगे रहते हैं । आपकी आत्मा को जगाने में उनका क्या लाभ ? प्यारे जिसकी आत्मा मर गई हो वो धरम-करम कहाँ करता है, धरम-करम तो जगी आत्मा वाला करता है और धरम-करम होगा तभी तो धार्मिक-व्यवसाय फलेगा और फूलेगा। धर्म एक उद्योग हो गया है। इसलिए जैसे इस देश में भ्रष्टाचार के सरकारी दफ़्तरों में विद्यमान होने से वातावरण जीवंत और कर्मशील रहता है वैसे ही आत्मा के शरीर में जगे रहने से ‘धर्म’ जीवंत और कर्मशील रहता है । कबीर के समय में माया ठगिनी थी, आजकल आत्मा ठगिनी है । माया के मायाजाल को तो आप जान सकते हैं, आत्मा के आत्मजाल को देवता नहीं जान सके आप क्या चीज़ हैं । सुना गया है कि आजकल आत्मा की ठग विद्या को देखकर बनारस के ठगों ने अपनी दूकानों के शटर बंद कर लिए हैं । आत्मा की आवाज़ कितनी सुविधजनक हो गई है, जब चाहा जगा दिया जब चाहा सुला दिया जैसे घर की बूढ़ी अम्मा, जब चाहा मातृ-सेवा के नाम पर , दोस्तों को दिखाने के लिए ड्राईंग रूम में बिठा लिया और जब चाहा कोने में पटक दिया ।
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