Tuesday, May 24, 2016

प्रतीकात्मक प्रदर्शन समस्या के प्रति आपकी ईमानदारी का प्रमाणपत्र नहीं हो सकता।

आप लंबे वक़्त से किसी ज़ख़्म से परेशान हैं। चूँकि आपके पास इलाज कराने के आर्थिक से लेकर सामाजिक साधन नहीं हैं, इसलिए आप उसे सहे जा रहे हैं। लेकिन किसी रोज़ एक डॉक्टर आपको मिल जाता है जो कहता है कि उसका मिशन वंचितों की मदद कर उनका इलाज करना है। आप दर्द में भी ख़ुश हो जाते हैं। वो डॉक्टर आपके पास आता है। आपकी साँसें चेक करता है। सेहत का ध्यान रखने की सलाह देता है। बीड़ी-सिगरेट, माँस-मदिरा से दूर रहने को कहता है। सबकुछ करता है, लेकिन उस ज़ख़्म पर कुछ नहीं करता जिससे आप परेशान हैं। हाँ, ये कहकर ज़रूर चला जाता है कि जल्दी ही ठीक हो जाओगे। आप ठीक हों या न हों, लेकिन उसने तो इलाज किया न।
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जब तक अकेला दलित गटर में ‘डूबने’ को मजबूर है तब तक किसी घाट पर स्नान कर दिया समरसता का संदेश प्रभावहीन ही है।
एक लंबे अरसे से गटर साफ़ करने जैसा सबसे निचले दर्जे का काम कर रहा, इस ज़ख़्म को सह रहा वाल्मीकि समाज वही मरीज़ है जिसका प्रतीकात्मक इलाज करने अमित शाह नाम के डॉक्टर (राजनीति बुरी नहीं, इसलिए नेता को समाज का डॉक्टर मानता हूँ) ने सिंहस्थ कुंभ में वाल्मीकि घाट पर डुबकी लगाई और समरसता का संदेश दिया। ये और बात है कि दलित (वाल्मीकि) की समस्या कोई राम या वाल्मीकि घाट नहीं, बल्कि हमारे मल से भरा वो गटर है जो दुर्भाग्य से उसका ‘घाट’ ही हो गया है जिसमें वो डूबने को मजबूर था, मजबूर है!
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फोटो साभार: एम श्रीनाथ, द हिंदू
अमित शाह देश के धाँसू नेताओं में से एक हैं। वो वाल्मीकि घाट की जगह किसी गटर में जाते और देखते कि वाल्मीकि समाज के लोग किन मजबूरियों के चलते कैसी परिस्थितियों में काम करते हैं तो मैं उनकी प्रशंसा करता। मेरी समझ नहीं आता दलित साधु-सन्तों के साथ कुंभ में डुबकी लगाकर उसी वंचित समाज की परेशानियाँ कैसे हल हो जाएंगी? अगर मैं ये मान भी लूँ कि अमित शाह की भावना राजनीति से ज़्यादा दलित कल्याण से प्रेरित थी, तो भी क्षिप्रा नदी में डुबकी मार-मार कर वो वाल्मीकियों को गटर में से कैसे उबारेंगे? क्या डुबकी लगाने भर से उनका उद्धार हो गया? अब अगला कुंभ तो सालों बाद आएगा। तब तक वाल्मीकि समाज आपकी अगली डुबकी का इंतज़ार नदी में करें या गटर में?
ये काम कर रहे किसी दलित-पिछड़े वर्ग (सॉरी मैं सवर्ण नहीं लिख सकता) के किसी व्यक्ति से पूछिए, यक़ीन मानिए जवाब गटर ही होगा। क्योंकि ये काम कर रहे लोगों की, ख़ासतौर पर वाल्मीकियों की समस्या गटर है, कोई नदी-घाट नहीं। नदियाँ साफ़ करने के कथित प्रयास करने के दावे तो किया जा रहे हैं, गटर में काम करने वालों को तो सांत्वना भी नहीं मिलती जो जाने कितने लंबे वक़्त से सबसे निचले दर्जे का काम करते हुए सामाजिक भेदभाव का ज़ख़्म सह रहे हैं।
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दिल्ली की केजरीवाल सरकार और बीजेपी के अधीन एमसीडी के बीच की तकरार में पिसते सफ़ाई कर्मचारी।
आप बीजेपी समर्थक हैं तो कृपया करके मेरी बात का बुरा न मानिए। क्योंकि बात सिर्फ़ अमित शाह की नहीं है। देश के हर धाँसू नेता का यही रवैया है। नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी ये सब दलितों का उद्धार चाहते हैं। इनके लिए ये चाहत ही दलित समाज की पीड़ा का इलाज है। आप देख लीजिए। राहुल गांधी कलावती के पास गए, कलावतियों भूल गए। अरविंद केजरीवाल महीनों-महीनों एमसीडी से लड़ लेंगे, लेकिन गटर की गंदगी से लेकर सड़क  पर ‘चमक’ रहे हमारे थूक तक को साफ़ कर रहे वाल्मीकियों को सैलरी नहीं देंगे। और नरेंद्र मोदी…भाई गाली मत देना।
उनके कहने पर तो पूरा देश ही कथित रूप से ख़ुद को साफ़ करने की मुहिम में जुटा हुआ है। कोई स्वच्छ भारत अभियान है जिसका झंडा ख़ुद उन्होंने ही अपने हाथ में लिया हुआ है। इस ध्वज तले कुछ अरसे पहले देश के कुछ माननीय नागरिक साफ़-सफ़ाई  – यानी कूड़ा-करकट, मल-मूत्र साफ़ करना – जैसा अमाननीय-अमानवीय (कथित रूप से) काम करने के लिए देश को प्रेरित करने निकले थे। एक माननीय थोड़ी सी सफ़ाई करता और अन्य माननीयों को ऐसा करने की चुनौती देता। दुख हुआ ये देखकर कि न तो प्रधानमंत्री ने इस उद्देश्य को व्यापक दृष्टि से समझा और न ही उनके ‘रत्नों’ ने।
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प्रतीकात्मक प्रदर्शन समस्या के प्रति आपकी ईमानदारी का प्रमाणपत्र नहीं हो सकता।
जो लोग साफ़ सड़कों की सफ़ाई के लिए कैमरा के सामने आए, उन्होंने हाथ में बढ़िया झाड़ू ली हुई थी, मुँह पे मास्क लगाया हुआ था, साफ़-सुथरे कपड़े और हाथों में दस्ताने पहने हुए थे। प्लास्टिक के चार गिलास उठाने वाले स्वच्छ भारत के दूत बनें और नंगे बदन गटर में उतरने वाले, वाल्मीकि! जो लोग ख़ुद के घर में कभी झाड़ू-पोछा नहीं लगाते, टॉयलट साफ़ नहीं करते वो देश की सफ़ाई की मुहिम का नेतृत्व कैसे कर सकते हैं? और ये क्यों इस काम को करेंगे जब सौभाग्य से ये काम इनका दुर्भाग्य नहीं है। ऊपर से इनकी तो प्रशंसा की गई। ये कैसे हो गया? कभी सुना है कि समाज का मल साफ़ करने वालों को प्रशंसा मिली हो, उन्हें प्रेरणादायक माना गया हो? आप मुझे नकारात्मक कह सकते हैं। लेकिन मैंने जिस समाज में जिया है, उसमें तो सफ़ाई करने वालों की प्रशंसा कब देखी-सुनी, याद नहीं पड़ता। हाँ, ‘ये तो इन्हीं का काम है’ जैसी बातें ज़रूर देखी-सुनी हैं।
देश के नेता-नायकों के साफ़ सड़कों के किनारों से काग़ज़-गिलास उठाने या डंडे वाली झाड़ू हाथ में लेकर प्रतीकात्मक रूप से सफ़ाई करने से बेहतर है उन लोगों को आधुनिक उपकरण और अन्य सुविधाएँ देने की पहल की जाए जिन पर साफ़-सफ़ाई का एकल दारोमदार है। साथ ही समाज के सभी वर्गों में इस काम के प्रति घृणा रखने की प्रवृति को ख़त्म करने की शुरुआत की जाए। यूरोप-अमेरिका समेत दुनिया के कई विकसित देशों, जो अपनी सफ़ाई के लिए जाने जाते हैं, में जाति के आधार पर सामाजिक असमानता का कोढ़ नहीं है। इसीलिए सभी प्रकार के लोग साफ़-सफ़ाई के काम को भी उसी सहजता से स्वीकारते हैं जैसे अन्य क्षेत्रों के काम को। वहाँ ये काम उतना ही सम्माननीय है जितना कि अन्य व्यवसाय या पेशे।
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तिरंगे में लिपटने से पहले शहीद फ़ौजी के हाथ में बंदूक और वर्दी तो थी, गटर में सफ़ाई करते हुए मरने वालों के शव निहत्थे और नंगे थे।
किसी घाट पर डुबकी लगाने से बेहतर है ईमानदारी से सामाजिक असमानता के कूड़े को साफ़ करने वाली नीतियाँ और नेतृत्व निर्धारित करें। भारत में भी मौजूदा सफ़ाई कर्मचारियों को जल्द से जल्द आधुनिक उपकरणों से लैस करें ताकि उन्हें गटर में उतरने से दूर रखा जा सके। अगर इसकी नौबत आए तो उसकी ज़हरीली गैस से दम घुटकर मरने से बचाया जा सके। आधुनिक तकनीक यक़ीनन इस काम की ऐतिहासिक और मौजूदा सामाजिक धारणा का कायाकल्प करने में बड़ी भूमिका निभा सकती है। देश में सभी सामाजिक भेदभाव और जातिप्रथा को पूरी तरह ख़त्म करने के उद्देश्य से काम करते हुए डॉक्टरेट, इंजिनियरिंग, वकालत, पत्रकारिता, ऐडमिनिस्ट्रेशन आदि क्षेत्रों के अलावा साफ़-सफ़ाई के काम को भी सम्मानित स्तर तक लाने का काम किया जाना चाहिए। ताकि आने वाली पीढ़ी वो दिन देख सके जब दलितों के साथ अन्य वर्गों और धर्मों के लोग भी सफ़ाई विभागों में काम कर रहे होंगे।
वाल्मीकि घाट पर नहाने से ज़्यादा इस समाज के वांछित अधिकारों और ज़रूरतों के लिए आवाज़ उठाने की ज़रूरत है। देश के सभी धाँसू नेताओं को सबसे निचले तबक़े को ऊपर लाने की बात ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि वहाँ तक जाना भी चाहिए। है कोई ऐसा नेता, जो गटर में जाए?
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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पहले जाति से मुक्ति, फिर आरक्षण ‘युक्ति’

एक अच्छे निशानेबाज़ की पहचान निशाना लगाने के संबंध में दूरी, गति और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से जुड़ी उसकी जानकारी से होती है। जानकारी के साथ-साथ व्यावहारिक अनुभव भी उतना ही ज़रूरी है। ऐसा निशानेबाज़ ही लक्ष्य की दूरी के हिसाब से सही हथियार चुन सकता है जो गोली को वांछित गति देने में सक्षम हो। उसे पता होता है कि निशाना कितना ऊपर रखा जाए कि गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होने वाली गोली लक्ष्य तक पहुँचते-पहुँचते सीधे उसी पर लगे, न की किसी और के सीने पर।
गुजरात में पाटीदारों को ओबीसी आरक्षण दिलाने के लिए जो हालिया आंदोलन सामने आया, उसकी कमान एक कच्चे निशानेबाज़ के हाथों में देकर आरक्षण विरोधी ताक़तों ने वाक़ई में निशाना तो सटीक लगाया है। निशानेबाज़ को लग रहा है कि वह सही जगह बंदूक चलाए जा रहा है, लेकिन गोली तो दूसरों के सीने पर लग रही है, जो इस आंदोलन का असल मक़सद लगता है। ये सीने दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों व अति पिछड़ों के हैं जिन पर एक कुंठित व्यवस्था की कुरीतियों के चलते सदियों मूंग दली गई है।
यह साफ़ है कि ओबीसी आरक्षण की आड़ में हार्दिक पटेल आरक्षण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, यह और बात है कि उन्हें ख़ुद इसका ज्ञान है या नहीं। आरक्षण पर मीडिया द्वारा पूछे गए सवालों के संतुष्ट जवाब वह नहीं दे सके हैं, लेकिन हाँ, उनके आंदोलन ने आरक्षण विरोधियों की बैटरी ज़रूर चार्ज कर दी है। इससे पहले बैटरी ख़त्म हो, सब मिल कर आरक्षण के दायरे में आने वाले सभी वर्गों, ख़ासकर दलितों को जी भर कर कोस लेना चाहते हैं। देश में जब-जब आरक्षण विरोधी चिंगारियाँ उठी हैं, उनकी चपेट में सबसे पहले दलित आए हैं। इस बार भी ऐसा ही है। तमाम अहल-ए-इल्म उन्हें सामाजिक समानता का पाठ पढ़ा रहे हैं। कोई उन्हें नाक़ाबिल बता रहा है, तो कोई चुनौती दे रहा है कि दम है तो बराबरी से  मुक़ाबला करो और आगे निकल कर दिखाओ। कुछ ज़बाँ-दराज़ उन्हें गालियाँ भी दे रहे हैं, मैंने उन्हें लेख में शामिल नहीं करने का फ़ैसला किया।  
ख़ैर, इन लोगों को यह बात अच्छी लगे न लगे, लेकिन एक टीवी इंटरव्यू में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कह दिया कि देश फ़िलहाल आरक्षण को ख़त्म करने की स्थिति में नहीं है। इसका मतलब हुआ कि देश आरक्षण क़ायम रखने की स्थिति में है। वित्त मंत्री और एक राजनीतिक व्यक्ति होने के नाते आरक्षण की स्थिति को स्पष्ट करने के पीछे जेटली के अपने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक या अन्य प्रकार के कारण हो सकते हैं, लेकिन एक कारण स्पष्ट है, और वह है दलितों के साथ आज भी हो रहा जातिगत भेदभाव।
आपको याद होगा कि कुछ महीने पहले विश्व हिंदू परिषद ने एक योजना के तहत हिंदू समाज के सभी लोगों को एक साथ भोजन करने व इसकी तस्वीरें वॉट्सऐप पर शेयर करने को कहा था। यह योजना समाज से छुआछूत दूर करने का संकल्प लेते हुए बनाई गई। इसके लिए वीएचपी नेता प्रवीण तोगड़िया ने ‘हिंदू परिवार मित्र’ नाम की विशिष्ट मुहिम को चलाने की बात भी कही थी।
एक शीर्ष हिंदू संगठन के नेता के मुँह से ऐसी बात हिंदू समाज में आज भी हो रहे जातिगत भेदभाव का ज़िंदा चीख़ता हुआ सबूत है। हालाँकि मैं जानता हूँ कि यह बात ‘90 प्रतिशत अंकों वाली’ आरक्षण विरोधी पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ेगी। वह तो कहेगी कि मंदिर में प्रवेश की अनुमति देने जैसी बातें और साथ भोजन करने का भला आरक्षण देने से क्या संबंध है, यहाँ तो बात प्रतियोगिता की है। चलिए निजी जीवन के एक अनुभव को साझा कर इस संबंध को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ। इस अनुभव ने व्यक्तिगत तौर पर आरक्षण के मुद्दे पर मुझे बार-बार विचारने को मजबूर किया कि अगर यह नहीं होगा, तो क्या होगा।
साल 2007  में एक शादी में शामिल होने के लिए मैं इटावा (उत्तर प्रदेश) गया था। यह ब्राह्मण समाज की शादी थी, और मैं दूल्हे राजा की फ़ौज का सिपाही था। पारंपरिक रूप से बारात के स्वागत के बाद मेहमानों ने दावत का मज़ा लिया और कुछ देर बाद मंडप में फेरों की रस्म शुरू हुई। दो शरीरों और उनके परिवारों को एक करने के लिए मंत्रों का ज़बर्दस्त नॉन-स्टॉप जाप देर रात तक चला।
सुबह विदाई से ठीक पहले जब बारातियों को नाश्ता पानी कराया जा रहा था, मैंने देखा घर के पीछे दोनों तरफ़ के रिश्तेदार गोल मेज सम्मेलन की तर्ज़ पर बैठे हुए किसी विषय पर गंभीर बात कर रहे थे। मैं भी नज़दीक जाकर बैठ गया और उनकी बातें सुनने लगा। विमर्श इस विषय पर किया जा रहा था, कि रात को रुके हरेक बाराती को कितने-कितने रुपये विदाई के रूप में देने हैं। अब यह तो याद नहीं कि बारात के हर सदस्य को देने के लिए क्या राशि तय हुई, लेकिन यह याद है कि अलग-अलग समाज के लोगों के माथे पर उनके जाति वर्ग के हिसाब से नोट चिपकाए गए थे।
सबसे अधिक विदाई मूल्य ब्राह्मण बारातियों के लिए तय हुआ। रक़म कितनी थी, यह याद नहीं। उनसे थोड़ा कम ठाकुर और उनसे कम वैश्य समाज के लोगों के लिए तय हुआ। सबसे कम विदाई मूल्य चमरौटी (चमार) के लिए तय किया गया। उन्हें बारात का आकार बढ़ाने भर के लिए लाया गया था। विदाई मूल्य पर हुई गंभीर बहस में भी उनकी तरफ़ से बोलने वाला कोई नहीं था। जो ब्राह्मणों ने तय किया वही उन्हें मिलना था।
घटना का ज़िक्र इस मक़सद से किया, ताकि आप यह विचारें कि अगर आरक्षण न हो, तो सत्ता के शीर्ष पर आज भी विराजमान सवर्णों से क्या यह उम्मीद इस विश्वास के साथ की जा सकती है, कि वे शैक्षिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में दलितों को उचित नेतृत्व प्रदान करने वाली नीतियों पर समभावना के साथ ईमानदारी से काम करेंगे। आरक्षण के रहते तो यह काम उन्होंने ईमानदारी से किया नहीं, विपरीत परिस्थिति का रिस्क, क्या लिया जा सकता है?
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आरक्षण आंबेडकर का सपना नहीं था 

मैं वहाँ 10 दिन रुका। इस घटना के अलावा जातिगत भेदभाव के और भी कई ज़िंदा उदाहरण याद हैं। काम करते-करते किसी सवर्ण का हाथ मैला हो जाए तो कहते हैं, ‘हमारा हाथ देखो, ऐसा लग रहा है मानो किसी चमार का मुँह।’ गोरखपुर रेलवे स्टेशन से कंपनीबाग की तरफ़ जाने के लिए रिक्शे वाले से पैसों को लेकर बहस हो जाए तो कहते हैं, ‘हमें पता है तुम्हारी चोरी-चमारी।’ हमने बचपन से चोरी-चकारी सुना था। वहाँ दलित समाज को चोर कहना बड़ी आम बात है। शहर में भी अक्सर कथित जागरूक आपको यह शब्द बोलते दिख जाएंगे – मन ही मन में ‘हाँ-न’ कहने से पहले अपने शब्दों का इतिहास भी खंगाल लीजिएगा। 
जातिगत भेदभाव के ऐसे कई क़िस्से शायद आपने अपने समाज व परिवार में भी सुने होंगे, अगर वे जाति के संक्रमण से ग्रस्त न हों तो, लेकिन बात सिर्फ़ क़िस्सा भर नहीं है। आरक्षण विरोधियों को क्या यह बात हैरान करेगी, कि महज़ 7-8 साल पुराने इस वाक़िए में जो लोग विदाई मूल्य निर्धारण के लिए विमर्श कर रहे थे, उनमें से अधिकतर शहरी भारत से संबंध रखने वाले और उच्चशिक्षित थे? मुझे नहीं लगता। वहाँ कोई एलआईसी से रिटार्यड हुआ ऊँचे ओहदे का कर्मचारी था, कोई शिक्षक तो कोई प्रफ़ेसर, भाईसाहब प्रफ़ेसर! गाँव छोड़िए शहरों में अपनी जाति का ढोल पीटने वाले लोग आपको अपने आसपास ही मिल जाएंगे। सोचिए गाँव जाकर उनके जलवे कैसे होते होंगे!
ऐसे हालात से जूझकर 65-70 प्रतिशत अंक लाने वाला दलित और पिछड़े समाज का बच्चा सवर्ण समाज के बच्चों की तरह सिर्फ़ ग़रीबी ही सहकर आगे नहीं आता, यह बात आरक्षण विरोधियों को समझनी चाहिए। आर्थिक तंगी के अलावा सामाजिक संवेदनशीलता की जिस कंगाली से एक दलित गुज़रता है, उसे समझने और महसूस करने की योग्यता अधिकतर सवर्णों में आज भी नहीं है। इस बात पर शायद आपका मन मुझे गाली देने का कर रहा हो, लेकिन जनाब, है तो यह सच! शहरों में हज़ारों रुपयों की ट्यूशन लेकर 90 प्रतिशत अंक लाने वालों से  70 प्रतिशत वाले वे दलित, पिछड़े, अति पिछड़े बेहतर हैं जिनके माँ-बाप गाँव के सवर्णों के घरों से लेकर शहरों के गटर में पड़े समाज के मैले के छींटे आज भी अपने मुँह पर ले रहे हैं। वे अमीर सवर्ण ही होते हैं जो अपने बच्चों को शैक्षिक संस्थानों में ऐडमिशन दिलाने के लिए फ़र्ज़ी सर्टिफ़िकेट बनवाकर आरक्षण से मिलने वाली मदद से भी उन्हें दूर कर देते हैं।
योग्यता के सर्वोपरि होने की बात कह आरक्षण का विरोध करने वालों में अधिकतर यह जानते हैं कि जातिगत भेदभाव ने दलितों की योग्यता के साथ भी भेदभाव और अन्याय किया है। इतिहास उठा कर देख लीजिए। मुग़लों के वर्चस्व को चुनौती देकर अपना राज्य स्थापित करने वाले छत्रपति शिवाजी के साथ भी सवर्णों ने कोई न्याय नहीं किया। उनका राज्याभिषेक करने के लिए कोई ब्राह्मण राज़ी नहीं हुआ। बड़ी मुश्किल से एक निचले स्तर का अति निर्धन, बूढ़ा और कूबड़ से ग्रस्त ब्राह्मण मिला जो उनका अभिषेक करने के लिए राज़ी हुआ। लेकिन इस सम्मान में भी शिवाजी का अपमान ही किया गया। ब्राह्मण ने अभिषेक तो किया, लेकिन उसने उनका तिलक अपने हाथ से नहीं, बल्कि पैर के अंगूठे से किया, क्योंकि शिवाजी शूद्र समाज के थे।
शूद्रों में शिक्षा का प्रसार करने का प्रयत्न करने वाले शंभूक की हत्या के बारे में कितने लोग जानते होंगे? एक ब्राह्मण के विरोध करने पर राम ने इस ‘अपराध’ के लिए उसका सिर ही धड़ से अलग कर दिया था, क्योंकि चातुर्यवर्ण्य के मुताबिक़ शूद्रों को तो शिक्षा पाने और बाँटने का अधिकार ही नहीं था, आज भी नहीं है। शुकर है संविधान है, आरक्षण है। जिस समाज के नायकों ने दलितों के पूर्वजों के साथ ऐसा सुलूक़ किया हो, और जो आज भी न सिर्फ़ पूजे जाते हैं, बल्कि एक पूरी व्यवस्था के प्रतीक के रूप में विद्यमान हों, उस समाज से आरक्षण के विरोध की आशा रखना अप्राकृतिक नहीं है।
आरक्षण विरोधी कहते हैं कि इसका फ़ायदा उठाने वाले (दलित) हमेशा इतिहास ही गिनाते रहते हैं, क्योंकि योग्यता तो उनके पास है नहीं। लेकिन यही लोग अपने घरों में आज भी रखे उन ऐतिहासिक वेदों-ग्रन्थों में लिखीं उस अन्यायी व्यवस्था का विरोध नहीं करते जो आजतक क़ायम है। क्या बुद्ध, क्या नानक, क्या कबीर और क्या गांधी! सब आए और उपदेश देकर चले गए, लेकिन यह जाति है कि जाती नहीं।
फिर भी, बात अगर वर्तमान से समझ आ सकती है तो वह भी की जाएगी, लेकिन इस लेख के अगले हिस्से में। थोड़ा इंतज़ार कीजिए, अभी तो ‘दरीचः’ खुल रहा है।
कुछ रोज़ पहले ही चारु से फ़ेसबुकिया दोस्ती हुई है। चारु इलाहाबाद में रहती हैं। पढ़ाई भी वहीं से की है। मेरे पिछले लेख ‘पहले जाति से मुक्ति, फिर आरक्षण ‘युक्ति’ के इस दूसरे और अंतिम हिस्से की शुरुआत उनके इस फ़ेसबुक स्टेटस से कर रहा हूँ। ज़रा इसे पढ़ें, फिर आगे की बात… 
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सच तो नंगा होता है जी। कौन उसकी तरफ़ देखने की हिम्मत करे? आँखें बेशर्मी से इतनी लबालब हैं कि पलकें उसका वज़न उठाने से पहले ही चित हो जाती हैं। यहाँ ‘मुसीबतों का पहाड़’ चीर कर सबके लिए रास्ता बनाने वाले महादलित को व्यवस्था तो ख़ैर क्या सम्मान देगी, उल्टा उसे बीवी का आशिक़ बना दिया। मोहब्बत का ताज पहना कर उसे शाहजहाँ के सिर पर बिठा दिया (थैंक्स टू मीडिया)। महिमामंडन कर पहाड़ तोड़ने के उसके संघर्ष को प्रशंसा के साथ संभोग करने के लिए प्रेम की चादर में लपेट दिया। उसका कारनामा मानवीय प्रयास की मिसाल तो बन गया, लेकिन उसके लोगों के लिए वर्ण व्यवस्था को तोड़ने की प्रेरणा नहीं बन सका। दशरथ माँझी ने जो किया उसका बखान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है, बस एक सवाल है। क्या आप चाहेंगे कि आपको या आपके किसी अपने या समाज के व्यक्ति को, पहाड़ तोड़ना पड़े! मौत पर ही मातम हो ज़रूरी नहीं है। इस वर्णव्यवस्था की वजह से दलित-पिछड़े सदियों से मातम मना रहे हैं, और सवर्ण जश्न।
मोहताज के हक़ को आग लगाने को उठे ‘अंगारों’ पर सच्चाई के चार छींटे क्या मारे चीख़ने लगे। आईना देखने की नसीहत भी नहीं दी कि पत्थर हाथ में उठा लिए। दबे-कुचलों की बात की तो लिखने वाले को ही दलित ठहराने की ज़िद करने लगे, अपना धर्म छोड़ने वाला ग़द्दार बताने लगे। इस देश में कितनों को अपनी बात कहने के लिए कोई मंच हासिल है भाई? कितने है जो मंच मिलने के बाद कुछ कहते हैं? कितनों के हाथ में क़लम पहुँची? कितनों ने क़लम होते सच लिखा? आज तो सच बोलिए। कह दीजिए मुंशी प्रेमचंद झूठा था, अच्छा हुआ उसे भारतरत्न नहीं मिला। अगर वाक़ई में जातिवाद का स्वर्गवास हो गया है तो आरक्षण के साथ-साथ स्कूलों के पाठ्यक्रमों से उनकी कहानियाँ भी हटाने की मांग शुरू कर दीजिए। और अगर नहीं करते, तो जाइए, अपने या किसी अन्य पिछड़े गाँव में चमरौटियों की बस्ती के हालात देखिए। उन पर मेघ रोता है तो उन्हें नहाना नसीब होता है। ये वे दृश्य हैं जो मैंने अपनी आँखों से देखे हैं। आपको जातिवाद नज़र नहीं आता, लेकिन उसका विरोध करने वाला दलित और धर्म विरोधी ज़रूर नज़र आ जाता है। 
आरक्षण विरोधी दावा करते हैं कि वे जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ हैं। लेकिन यह ख़िलाफ़त सिर्फ़ ज़ुबानी है। व्यावहारिक रूप से उन्होंने इस पर कब अमल किया, पता नहीं। मसलन, मैंने कभी किसी आरक्षण विरोधी को यह कहते हुए नहीं सुना कि वह मनुस्मृति में चातुर्यवर्ण्य के कॉन्सेप्ट का विरोधी है और उसे हटाने की मांग करता है। शंभूक वध के लिए कभी राम का विरोध किया? पता ही नहीं होगा। ये लोग कहते हैं कि अपने पूर्वजों की करनी हम क्यों भुगतें, लेकिन इनमें से कई अपने पूर्वजों के सिद्धांतों को न सिर्फ़ आज भी मानते हैं, बल्कि उनका पालन भी करते हैं।
doolha.jpgआपको रतलाम का दूल्हा याद है, जिसे अपने शादी में सेहरे की जगह मज़बूत हेलमेट पहनाया गया था? पवन दलित समाज से हैं। उन्हें गाँव के अगड़ों ने घोड़ी पर नहीं बैठने का ‘आदेश’ दिया था, क्योंकि उनके हिसाब से पिछड़ी जाति के लोगों को इतने ‘तामझाम’ के साथ शादी करने की इजाज़त नहीं है। पवन के पिता को इस बाद का अंदेशा था कि बारात के दौरान उन पर हमला हो सकता है। इसलिए उन्हें पुलिस सुरक्षा मांगनी पड़ी। प्रशासन के हस्तक्षेप के बावजूद चौक पर पहुँचते ही पवन की बारात पर अगड़ों ने पत्थर बरसाए। यह उदाहरण उनके लिए जिन्हें लगता है जातिगत भेदभाव और छुआछूत यूपी-बिहार तक ही सीमित है।
degree.jpg36 साल के सुनील यादव बीएमसी (मुंबई) में कूड़ा उठाने का काम करते हैं। यह और बात है कि पिछले 9 सालों में उन्होंने चार डिग्रियाँ हासिल कीं। इस साल जुलाई में एनडीटीवी के ज़रिए उनकी कहानी जानने को मिली। वह कहते हैं, ‘हम जन्म से ही ग़ुलाम रहे हैं। हमें कभी कोई अधिकार नहीं मिले। बाबा साहेब ने कहा था कि अगर पढ़ोगे तो बढ़ोगे, लेकिन लोग आज भी हमें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। हर दलित कूड़ा उठाने वाला नहीं है, लेकिन हर कूड़ा उठाने वाला दलित ही है।’ 
पिछले नवंबर का वाक़िआ है। बिहार में एक महादलित के शव को जानवरों की तरह बाँस से लटका कर अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया था। शव का जिस समाज से ताल्लुक़ था, वह आज भी कैसी बदतरीन ज़िंदगी जीने को विवश होगा, इसका अंदाज़ा इस तस्वीर से ही लगा लीजिए। 

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ख़बर कहती है कि शव के अंतिम संस्कार के लिए पैसे नहीं थे, लिहाज़ा उसे जलाने की बजाय दफ़ना दिया गया। मुझे इस ख़बर से हैरानी नहीं हुई। हमारी महान सभ्यता में दलित-पिछड़ों के साथ यही व्यवहार होता आया है। वैसे मृतक का नाम रामचंद्र था।
बॉक्सिंग में नैशनल लेवल पर अपनी प्रतिभा दिखा चुके कमल कुमार कानपुर में कूड़ा उठाने का काम करते हैं और शाम को रिक्शा चलाते  हैं। अच्छा नहीं लगता इसलिए चेहरा ढक लेते हैं। बताओ हद है! इसमें चेहरा ढकने की क्या बात है? जो काम सदियों से उनका समाज करता आया है, उसे करने में शर्म कैसी! कभी किसी ब्राह्मण को चार मंत्र पढ़ने की कड़ी मेहनत करने के बाद हज़ारों की दक्षिणा मांगते वक़्त मुँह ढकते हुए देखा है?

kamal.jpgकमल के कई दोस्त आज बॉक्सिंग कोच हैं। कमल में भी इसके गुण हैं, लेकिन उनकी हालत देख कई स्कूलों ने काम देने से मना कर दिया, क्योंकि लोग उन्हें दूसरी नज़रों से देखते हैं। ज़िंदगी से लड़ते-लड़ते डिस्ट्रिक्ट लेवल पर तीन स्वर्ण पदक, 1993 में यूपी ओलिंपिक्स में कांस्य पदक, 2006 में स्टेट गेम्स में भी कांस्य और 2011 में इंटर यूनिवर्सिटी गेम्स में रजत पदक और कितने ही सर्टिफ़िकेट जीत गए, लेकिन वर्ण व्यवस्था के मुँह पर कभी एक पंच मारने का साहस नहीं जुटा सके, जिसने सदियों से उनके समाज का हुलिया बिगाड़ रखा है। 

जयपुर के गोपालपुरा बाइपास त्रिवेणी पुलिया स्थित राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में टीचर्स स्कूल के दलित छात्रों से शौचालय साफ़ करवाते थे। प्रार्थना सभा के बाद उनसे पूरे स्कूल की सफ़ाई करवाई जा रही थी। एक न्यूज चैनल द्वारा की गई पड़ताल में यह बात सामने आई थी। ख़बर के मुताबिक़, अगर कोई दलित बच्चा सफ़ाई करने से मना करता तो टीचर उसे टीसी काटने की धमकी देता था। गाँव की घटना है, और कहते हैं भारत गाँवों का देश है।  
बीते अप्रैल की खबर है। तमिलनाडु के तिरुनेलवेली के एक सरकारी हाई स्कूल में दलित स्टूडेंट्स से महीनों तक ज़बरन टॉयलेट साफ़ कराने के आरोप में 8 टीचर्स को गिरफ़्तार किया गया था। घटना का विरोध कर रहे लोगों ने बताया कि एक बच्चे ने तो तंग आकर स्कूल जाने से ही मना कर दिया। अब वह स्कूल नहीं जाएगा, तो क्या करेगा? यह हाल शिक्षा व्यवस्था के प्राथमिक स्तर का है जिसके ऊपर आते-आते 90 प्रतिशत की आंधी में वंचित उड़ जाते हैं। इन बच्चों के साथ देशभर में हो रहे इन कृत्यों से क्या हम उन्हीं के साथ पढ़ने वाले अन्य समाज के बच्चों के कच्चे दिमाग़ में वर्ण व्यवस्था की कील नहीं ठोक रहे?
मैं भी सरकारी स्कूल में पढ़ा। वहाँ एससी/एसटी कैटिगरी के बच्चों को फ़ीस में छूट दी जाती थी। उन्हें औरों के मुक़ाबले थोड़ी कम फ़ीस देनी होती थी। क्लास टीचर जो कई महीनों से उनकी शक्ल देख रहे थे, फ़ीस का समय आने पर बार-बार उनसे एससी सर्टिफ़िकेट मांगते थे। दूसरे समाज के बच्चे उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे। छोटी सी उम्र में उन्हें नहीं पता था कि एससी/एसटी, ओबीसी क्या होते हैं, लेकिन यह पता था कि इन्हें सब भंगी-चमार बोलते हैं। यह बात उनके दिमाग़ में किसने डाली? इसी सोच के साथ वे बड़े होते हैं। जो वर्तमान पीढ़ी आरक्षण का विरोध कर रही है, उसमें मेरी क्लास के साथी ज़रूर शामिल होंगे।

मेरे लिए आरक्षण विरोधियों द्वारा सामाजिक समानता का ढोल पीटना सिर्फ़ एक ढोंग से ज़्यादा और कुछ इसीलिए नहीं है, क्योंकि आज़ादी के बाद से अब तक जातिवाद के ख़िलाफ़ सर्वसमाज की ओर से एक भी बड़ा आंदोलन इस लोकतंत्र ने नहीं देखा। भ्रष्टाचार, आतंकवाद, बलात्कार जैसी राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर उठे आंदोलनों के अलावा इस देश की मूल समस्या जातिवाद के ख़िलाफ़ सर्वसमाज की ओर से किया गया कोई एक प्रचंड आंदोलन (चलो गुजरात जैसा ही) बता दीजिए जिसमें सदियों से हमारे समाज में भेदभाव की जड़ें जमाए इस समस्या को उखाड़ फेंकने का प्रयास भी किया हो, मुझे तो याद नहीं। इन उदाहरणों को देने का पीछे का कारण बस उन अति बुद्धि रखने वालों को यह बताना था कि साहब आप जिस भेदभाव रहित आधुनिक ज़माने की बात करते हैं, वह तो दलितों, अछूतों, पिछड़ों, अति पिछड़ों के लिए आज भी एक सुंदर स्वप्न है। अपनी व्याख्या स्वयं करने में इतिहास बेबस है, इसके तथ्यों के साथ खेल खेलने से पहले वर्तमान को तो अपनी नैतिकता की हत्या नहीं करनी चाहिए।
इस लेख की शब्द सामग्री के लिए मुझे ज़रा भी मेहनत नहीं करनी पड़ी। गूगल पर दलित, दलित अत्याचार, पिछड़े-अति पिछड़े, जातिवाद, जातिगत भेदभाव में से कुछ भी टाइप करिए, बड़ी आसानी से ढेर सारी जानकारी मिल जाएगी। आरक्षण की वजह से सवर्णों में कितना आर्थिक पिछड़ापन आया, समाज का विभाजन हुआ, सरकारी नौकरियों में कितना प्रतिशत तक दलितों का क़ब्ज़ा हुआ, राष्ट्र के रूप में भारत पिछड़ गया और भी जाने क्या-क्या को लेकर आपको कोई स्पष्ट व विश्वसनीय आंकड़ा-तथ्य मिलना ज़रा मुश्किल है।  
फिर भी! अगर आरक्षण से ही सामाजिक व आर्थिक उत्थान संभव है, तो इसका फ़ायदा केवल दलितों को ही क्यों मिले, सवर्णों को भी इसका अधिकार है। उनके लिए भी सभी सरकारी विभागों में आरक्षण होना चाहिए। सफ़ाई विभाग भी इससे अछूता न रहे। सभी सवर्णों को 27 नहीं, 50 प्रतिशत तक का आरक्षण सफ़ाई विभाग में मिलना चाहिए। इनके मुख्य कार्यों में सड़क पर कूड़ा-करकट साफ़ करने से लेकर गले तक भरे गटर में उतरकर समाज का मैला तक साफ़ करने का सौभाग्य शामिल होना चाहिए। सिर्फ़ दलित ही इस मलाई का स्वाद क्यों चखे, यह तो ठीक नहीं। गटर में उतरने के लिए उन्हें किसी भी प्रकार की असुविधा न हो, इसके लिए उन्हें किसी भी प्रकार के आवरण की सुविधा न दी जाए, साथ ही उसकी गंदगी उनके शरीर को अच्छी तरह अपने रंग में रंग दे, इसका ख़याल करते हुए उन्हें कोई विशेष पोशाक भी न दी जाए।
यह काम करने की कल्पना भी आपके मन में जाने कैसे-कैसे विचार पैदा कर रही होगी। जिसकी आप कल्पना कर रहे हैं, उस काम को एकाधिकार बनाकर एक समाज के माथे मढ़ दिया जाता है, और तब सामाजिक समानता को ढाल बनाकरर आरक्षण के विरोध की तलवार चलाने वाला कोई सूरमा सामने नहीं आता। उनके पक्ष में कोई कुछ बोल-लिख दे तो उसे ही दलित-पिछड़ा ठहरा कर मुद्दा भटकाने की कोशिश की जाती है।
है कोई आरक्षण विरोधी जो सामने आए और कहे कि वह अपने बेटे को नाली-गटर साफ़ करने वाला बनाएगा, बेटी से सड़क साफ़ करवाएगा? माफ़ कीजिएगा, लेकिन मैंने यह कठोर सवाल इसीलिए किया, क्योंकि यह काम करने वाले दलित समाज के लोग इसे अपना नसीब बताते हैं बिना किसी शिकन के। धर्म को छोड़िए, आरक्षण के विरोध के अलावा जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए बातें करने के अलावा आपने क्या किया है, इस पर अपने आप से निष्पक्ष से होकर गंभीरता से विचार करिए। अपने व्यवहार का नाता अपने शब्दों से मत तोड़िए। बराबरी की बात ही नहीं करें उसे अमल में भी लाइए।

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