Friday, May 20, 2016

मानव समाज में भेदभाव की भावना सर्वव्यापी है । भेदभाव का आधार सभी समाजों में एक ही हो ऐसा नहीं है । अपने देश में जातीय भेदभाव सामान्य बात है और दुनिया के प्रमुख देशों में शायद ही कोई अन्य हो जहां हमारी तरह का जातिवाद देखने को मिले ।
आलोचना समाज के बीच अन्त:सम्बन्धों का माध्यम होकर ही सामाजिक बदलाव का साधन हो सकती है।
आलोचना का कार्य इस परिवर्तित संवेदना की पहचान करने, उसका विश्लेषण करने, उस परिवर्तन के कारणों की पहचान करने और उसे अपने समाज और इतिहास से जोड़ने का है।
1. सैद्धांतिक आलोचना 2. निर्णयात्मक आलोचना 3. प्रभावाभिव्यंजक आलोचना 4. व्याख्यात्मक
पहला कर्तव्य है कि वह व्यक्तिमात्र के विश्वास तथा अधिकारों की रक्षा करे. धर्म व्यक्ति की निजी आस्था और विश्वास का प्रश्न है, जिसको शेष समाज पर नहीं थोपा जाना चाहिए, न ही व्यक्तिमात्र की आस्था और विश्वास की अवमानना करना नीतिसंगत है.


चुनाव में धन, संगठन और भाषणबाजी, ये तीन चीज़ें बड़े काम की साबित होती हैं 
मैंने बहुत पहले कभी शिक्षाप्रद एक लघुकथा पढ़ी थी । अब उस कथा का अक्षरशः उल्लेख नहीं कर सकता, किंतु उसमें जिस मानवीय कमजोरी का जिक्र था और जो शिक्षा उसमें उद्दिष्ट थी उसका स्मरण आज भी मुझे है । कथा कुछ प्रकार थी:
एक महात्मा विचरण करते हुए एक गृहस्थ के पास पहुंचे । गृहस्थ ने उनका पर्याप्त आदर-सत्कार किया । बातों-बातों में उन्होंने गृहस्थ को बताया कि वे पशु-पक्षियों की बोली समझते हैं । उसके पास से अपने आश्रम लौटते समय उन्होंने व्यक्ति को आशीर्वचनों से उपकृत करना चाहा । वे बोले, “कहो, क्या आशीर्वाद दूं मैं तुम्हें ? तुम किस दिशा में आगे बढ़ना और सफल होना चाहोगे ?”
महात्मा ने गृहस्थ को उसकी इच्छाओं के अनुरूप आशीर्वाद दिया । उनके विदा होते समय गृहस्थ ने एक और मांग उनके सामने रख दी । उसने कहा, “महाराज, आपने कहा है कि आप पशु-पक्षियों की बातें समझ सकते हैं । आप यदि मुझ पर प्रसन्न हों तो कृपया वह विद्या मुझे भी सिखाते जाइये ।”
महात्मा ने उसे समझाते हुए कहा, “देखो भाई, यह विद्या तुम्हारे काम की नहीं है । इसके प्रयोग से तुम्हें मानसिक कष्ट ही भोगना पड़ सकता है । न जाने कब कौन-सी बातें तुम्हारे कान में पड़ें और तुम चिंताग्रस्त हो जाओ । इस विद्या की इच्छा मत करो । अन्य जीवों की बातें सुनने से क्या लाभ ?”
लेकिन महात्मा की बातें वह गृहस्थ नहीं माना । अंत में उसने इच्छित विद्या पा ही ली । आरंभ में उस विद्या का कोई दुरुपयोग उसके हाथों नहीं हुआ । परंतु बाद में एक मौके पर उसने अपने पालतू कुत्ते तथा मुर्गे के बीच की बातचीत सुन ली । मुर्गे ने कुत्ते से कहा, “सुनो, अपने मालिक के घोड़े का पिछला एक पांव आज कुछ कांप रहा था । तुम्हें मालूम है कि इसका क्या मतलब है ?”
कुत्ते ने उससे कहा कि इस बारे में उसे कोई जानकारी नहीं । तब मुर्गे ने उसे समझाया कि घोड़ा कुछ ही दिनों में बीमार पड़कर चल बसेगा । वह गृहस्थ संयोग से उन दोनों की बातें सुन रहा था । उसने सोचा कि ऐसे घोड़े को अब पालने से क्या लाभ, क्यों न उसे बेचकर पैसा कमाया लिया जाये । और उसने घोड़े को बेच दियाख् जिसकी बाद में मौत हो गयी । गृहस्थ को पशु-पक्षियों की बोली जानने से क्या लाभ हो सकता है यह बात समझ में आ गयी । अब वह ऐसे हर वार्तालाप पर ध्यान देने लगा ।
कुछ समय के पश्चात् कुत्ते-मुर्गे की इसी प्रकार की एक और बातचीत उसके कान में पड़ी । मुर्गा बोला, “बेचारा गधे की हालत ठीक नहीं है । आज उसका पिछला पांव कांप रहा था । यह निकट भविष्य में उसकी सुनिश्चित मृत्यु का संकेत है ।”
इस बार भी वह अपने गधे को बाजार में बेच आया । समय बीता और पशु-पक्षी संवाद समझ पाने की अपनी सामर्थ्य का लाभ वह गृहस्थ यदा-कदा उठाता रहा । परंतु एक दिन उस विद्या के लाभ की उसकी खुशी जाती रही । उसने फिर कुत्ते-मुर्गे की परस्पर बातें सुनीं और उसके होस उड़ गये । मुर्गा कुत्ते से कह रहा था, “बहुत बड़ी चिंता की बात है, भाई । क्या बताऊं तुम्हें ! अपने मालिक की अगले वर्ष इसी माह मुत्यु का योग है । अगर मालिक ने अपने बीमार घोड़े-गधे दयाभाव से अपने ही पास रखे होते और उनकी यथासंभव तीमारदारी की होती तो उन्हें पुण्यलाभ मिला होता और उन्हें दीर्घायुष्य मिला होता । लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता ।”
उनकी बातों से वह गृहस्थ घबड़ा गया । वह खोजते हुए महात्मा के आश्रम पर पहुंचा और वहां उसने अपनी व्यथा सुना डाली । महात्मा बोले, “अब देर हो चुकी है । यदि तुमने मेरी बात मान ली होती और उस विद्या में रुचि न ली होती तो तुम सुखी रहते । मुझे मालूम था कि तुम लोभ-लालच से नहीं बच पाओगे और उस विद्या का दुरुपयोग करोगे । बिरले ही होते हैं जो लोभ से अपने को बचा पाते हैं । अब जाओ और जीवन का शेष समय शुभकर्मों में लगाकर परलोक सुधारो ।”
गृहस्थ को निराश हो लौटना पड़ा । 

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