Friday, May 20, 2016

धर्म

सांप्रदायिकता
धर्म, संस्कृति और साम्प्रदायिकता आखिर धर्म की आलोचना क्यों नहीं?

‘‘असल में धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता एक साथ नहीं चल सकते। धर्म एकांगीपन, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति अपने में समाये हुए हैं। धार्मिक चेतना मुक्ति का आभास और पराधीनता का यथार्थ बन जाती है।’’

भौतिक स्तर पर दंगों में और वैचारिक स्तर पर एकांगीपन, संकीर्णता और नफरत की प्रवृत्तियों में व्यक्त होने वाली साम्प्रदायिकता की सही आलोचना उस सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक ढांचे की आलोचना के बिना सार्थक नहीं हो सकती, जिसमें वह पनपती और बढ़ती है। प्रायः देखा यह जा रहा है कि जो लोग साम्प्रदायिकता की आलोचना करते हुए उनके स्रोतों की ओर निगाह डालने की कोशिश करते हैं, वे भी कुछ खुले साम्प्रदायिकता-राजनीतिक संगठनों की आलोचना करके छुट्टी पा लेते हैं। धर्म तो इस आलोचना के दायरे से बाहर ही रखा जाता है। धर्म के बारे में यह दृष्टिकोण फैलाया गया है कि वह आध्यात्मिक गौरव की अभिव्यक्ति है, पारलौकिक सत्य का दर्पण है, सबसे प्रेम करना सिखाता है, उसे साम्प्रदायिकता से कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन जब साम्प्रदायिकता धर्म को ही प्रत्यक्ष आधार बनाती है तो देखना होगा कि कहीं एकांगीपन और संकीर्णता धर्म की संरचना में ही निहित तो नहीं है? कहीं बुद्धि को ताक पर रख कर महज भावना से काम लेने की प्रवृत्ति धर्म में ही मौजूद तो नहीं है? अगर है तो साम्प्रदायिकता का विकास खास परिस्थितियों में धर्म की निहित प्रवृत्ति का ही विकास तो नहीं है?

इस सिलसिले में धर्म की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर ध्यान दिया जा सकता है :

धर्म हजारों साल से वर्गों और वर्णों में विभाजित समाज के आध्यात्मिक कवच का काम करता आ रहा है। अभाव, दुख और पराधीनता की शिकार आम जनता के लिए वह आशा का केन्द्र-बिन्दु रहा है। जब तमाम श्रम करने के बावजूद जनता इस समाज में सुख और मुक्ति का कोई उपाय नहीं देखती और विरोधी प्राकृतिक तथा सामाजिक शक्तियों के सामने असहाय महसूस करती है, तब एक ऐसे लोक की कल्पना करने और उसमें रमने के लिए मजबूर होती है, जहां सुख और स्वतन्त्राता की अतिरंजित सम्भावनाएं मौजूद हों। असहाय आदमी की सारी वंचित इच्छाएं, सारी उम्मीदें, सारे सपने धार्मिक चेतना में केन्द्रित हो उठते हैं। इस चेतना पर किसी तरह का प्रहार जीवन की सारी वांछित इच्छाओं, उम्मीदों, विश्वासों और सपनों के केन्द्र बिन्दु पर, और इस तरह समूचे जीवन पर ही, प्रहार लगता है। यह स्थिति भारी उत्तेजना और आवेश पैदा करने के लिए काफी होती है। अब अगर किसी समुदाय की धार्मिक भावना को दूसरे समुदाय के खिलाफ प्रेरित करते हुए कहा जाए कि यह तुम्हारी इच्छाओं, उम्मीदों, विश्वासों और सपनों के केन्द्र पर हमला कर रहा है तो उस समुदाय को, और इस तर्क के आधार पर दोनों समुदायों को, भावनात्मक उत्तेजना और उन्माद की उस स्थिति तक ले जाया जा सकता है, जहां उसे जीवन के मूल भौतिक रूप का संहार करने वाले दंगे में बदला जा सके।
इससे जुड़े एक दूसरे पहलू पर विचार करें। धर्म आम तौर पर इन्द्रिय-ज्ञान, बुद्धि और तर्क की पद्धति का निषेध करता है। वह एक ऐसे सत्य की उपलब्धि का दावा करता है, जो भाषा, ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि की सीमाओं से परे है। इसका सारा जोर अन्तर्ज्ञान और भावना पर होता है। वह सन्देह की नहीं, विश्वास की मांग करता है। वह स्वतन्त्रा विचार की नहीं, समर्पण की मांग करता है। ऐसा नहीं कि धर्म के संस्थापक और धर्म-शास्त्री बुद्धि का उपयोग नहीं करते। वे करते हैं। विज्ञान का जोर बढ़ते देखकर कई धर्म-शास्त्री कहने लगे हैं कि उनका धर्म विज्ञान पर आधारित है। लेकिन प्रत्यक्ष ज्ञान और विज्ञान के ज़रिए इस संसार से परे रहने वाली किसी सचेतन शक्ति अथवा परलोक की मान्यता का समर्थन करना असम्भव है। इसलिए जब विज्ञान और अनुभव पर आधारित ज्ञान, धर्म की मान्यताओं पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है तो वे अबुद्धिवाद और रहस्यवाद की गोद में चले जाते हैं। अब गौर कीजिए कि अगर धर्म एक तरफ अनुभव और बुद्धि का निषेध करता है और दूसरी तरफ इच्छाओं, भावनाओं और सपनों में संगठित होता है तो बुद्धि और विवेक के अनुशासन से एकदम रहित भावनाओं और सपनों में संगठित होता है तो बुद्धि और विवेक के अनुशासन से एकदम रहित भावनाओं के इस पुंज को उत्तेजना और उन्माद तक उठा ले जाना कितना आसान हो सकता है।

कई धर्म हैं। समकालीन दुनिया में ये सब समानान्तर सक्रिय हैं। इन सब में स्वर्ग की कल्पना समान रूप से मौजूद है। बौद्ध धर्म को छोड़ कर लगभग सब में ईश्वर की धारणा भी मौजूद है। लेकिन ईश्वर, देवी-देवता, स्वर्ग और कर्म-काण्ड की धारणाएं तथा विधियां सबकी अलग-अलग हैं। ये धर्म जिन भौगोलिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों से जन्मे हैं, उनसे प्रतिमाएं, कल्पनाएं, मूल्य, विश्वास और रीति-रिवाज लेकर आए हैं। उदाहरण के लिए विश्व की उत्पत्ति से सम्बन्धित धारणा को लीजिए। वेदों में उत्पत्ति की कई धारणाएं हैं। कहीं जल को मूल तत्व माना गया। कहीं अण्ड को और कहीं ब्रह्म या फिर आत्मा को। पौराणिक काल से उपनिषदों वाले निराकार ब्रह्म की जगह निश्चित रूप-रेखा वाले ब्रह्मा विश्व के जनक बन जाते हैं। बुद्ध के अनुसार संसार की उत्पत्ति अविद्या से हुई। बाइबिल में ईश्वर ने गिन कर सात दिनों में सारे विश्व की रचना की। यह एक उदाहरण इस तथ्य का प्रमाण देने के लिए काफी है कि सारे धर्म, धारणाओं, विश्वासों और कर्म-काण्डों का अलग ढांचा रखते हैं और एक ही धर्म के भिन्न सम्प्रदाय परस्पर काफी भेद रखते हैं। ये अनुभव, बुद्धि और प्रयोग की इजाजत नहीं देते कि इनकी धारणाओं की जांच की जाए और विज्ञान की तरह किसी सार्वभौम निष्कर्ष पर पहुंचा जाए। ये अपने अनुयायियों से अपने-अपने मत को उसी रूप में स्वीकार करने का आग्रह करते हैं। तब स्वाभाविक है कि एक धर्म दूसरे धर्म की भिन्न धारणाओं के प्रति सन्देह, उपेक्षा और निषेध का रुख अपनाएगा। इस तरह धर्म परस्पर एकांगीपन, संकीर्णता और इस हद तक साम्प्रदायिकता का दृष्टिकोण बनाए रखते हैं।


यह साम्प्रदायिक रुख वहां और खुल कर सामने आता है जहां धर्म अपने प्रति सम्पूर्ण समर्पण की मांग करते हैं। बुद्ध के अनुयायी उनके धर्म और संघ की शरण में जाते हैं। इसके जवाब में गीता के कृष्ण अपने अनुयायियों को निर्देश देते हैं कि सारे धर्म छोड़ कर मेरी शरण में आओ। यहूदियों का ईश्वर दूसरे कबीलों के देवी-देवताओं के प्रति भारी ईर्ष्या का भाव रखता है और अगर इसका कोई अनुयायी (यहूदी) दूसरे देवता की प्रार्थना करता है तो वह (ईश्वर) नाराज होकर खुद उसे दूसरे कबीले के हाथों गुलाम के रूप में बेच देता है। ईसा मसीह उत्पीड़ित मानवता को सम्बोधित करते हैं, लेकिन उनका आग्रह भी यही है कि अनुयायी उनके पीछे चलें क्योंकि उनके द्वारा दिखाया गया रास्ता ही मुक्ति का रास्ता है। इसलाम में काफिरों के लिए कोई जगह नहीं है। यह पूर्ण आस्था और समर्पण की मांग दूसरे धर्म के प्रति पूर्ण अनास्था और निषेध का रुख ले लेती है। धर्मों का यह परस्पर निषेधी रुख साम्प्रदायिकता में बदल जाता है।

एकांगीपन धर्म की आन्तरिक संरचना में निहित है। वेद, बाद का सनातन धर्म और उसके बाद का हिन्दू धर्म, श्रम और वर्ग विभाजन पर आधारित वर्ण-व्यवस्था को मान कर चलता है। यहूधी धर्म सिर्फ यहूदियों के लिए है, दूसरों के लिए नहीं। बौद्ध धर्म वर्ण-व्यवस्था को जरूर नकारता है, लेकिन कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत मानकर उसे दूसरी तरफ से स्वीकार भी कर लेता है। ईसाई धर्म मानवता को और खास तौर से गुलामों को सम्बोधित है। लेकिन वहां भी समान स्तर पर ईश्वर और रोम के बादशाह की स्वीकृति है और कहा गया है कि इनका देय इन्हें दें। इसके अलावा सभी धर्मों में पाई जाने वाली दो लोकों की कल्पना इस लोक में मौजूद वर्ग-विभाजन की अभिव्यक्ति तो है ही, इसे मजबूत भी करती है। यह कल्पना ऐसे समाज की उपज है, जिसमें सारा अभाव, दुख, विपदा और पराधीनता एक हिस्से में है और सारा सुख, सम्पदा और स्वाधीनता दूसरे हिस्से में है। यह विभाजन बरकरार रहेगा। हिन्दू धर्म का, इन्द्र के शासन में चलने वाला कल्प वृक्ष, अप्सराओं और किन्नरों वाला, ऊँच-नीच के विभाजन से भरा, स्वर्ग जहां नहीं है, वहां भी स्वर्ग का शासन करने वाली शक्ति कोई मानवेतर या ईश्वरीय शक्ति ही है। ईश्वर इस दुनिया के सम्राट की तर्ज पर उस दुनिया का एकछत्र मालिक है। मनुष्य वहां भी पराधीन है। कुछ इन्हीं अर्थों में सार्त्रा ने कहा था कि अगर ईश्वर है तो मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। क्योंकि फिर मनुष्य के आदि और अन्त का सारा कार्यक्रम उसने तय कर दिया है। चूंकि मनुष्य स्वतन्त्रा है या स्वतन्त्रा होने की सम्भावना रखता है, इसलिए ईश्वर नहीं है। बहरहाल, धार्मिक चेतना व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधीन खण्डित सामाजिक यथार्थ का ऐसा प्रतिबिम्ब है, जो मुक्ति की आशा जगाती है, मगर इस जीवन में उसे असम्भव मान कर पराधीनता पैदा करने वाली आंशिक सामाजिक शक्तियों का आध्यात्मिक औजार बन जाती है। वह मुक्ति का आभास और पराधीनता का यथार्थ बन जाती है।


इस मायने में देखें तो धर्म एकांगीपन, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति अपने से समोये हुए है। वह मानव-जाति की सार्वभौम समानता और उसे यथार्थ बनाने का कोई वास्तविक मार्ग नहीं बताता। लेकिन यहां हमें यह भी देखना होगा कि धर्म की चेतना उस यथार्थ का महज एक प्रतिबिम्ब है, जो मानव-जाति की सार्वभौमिकता और मुक्ति का निषेध करता है। यानी, धर्म की वास्तविक आलोचना उस समाज की आलोचना है, जिसमें इस तरह का खण्डित और कल्पनिक प्रतिबिम्ब सम्भव होता है। विभाजन और विषमता पर आधारित समाज की बुनियादी आलोचना किए बगैर और उसे समता और स्वतन्त्राता पर आधरित समाज में बदलने के लिए संघर्ष किए बगैर धर्म की इस खण्डित चेतना और इसके साम्प्रदायिक रूप से मुक्त हो पाना सम्भव नहीं है।

मेरे यह कहने का आशय कतई नहीं कि धर्म और साम्प्रदायिकता एक ही चीज है या धर्म का उपयोग कभी मानव-मुक्ति के लिए नहीं किया गया है। साम्प्रदायिकता धर्म की एक निहित प्रवृत्ति जरूर है, लेकिन उसे दूसरे समुदाय के खिलाफ संचालित करके मार-काट की स्थिति तक ले जाना धर्म की एक प्रवृत्ति को पूरा धर्म बना देना है। यह एक भिन्न स्थिति है, जिसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इसके अलावा धर्म में मानव की पीड़ा और मुक्ति की आकांक्षा व्यक्त होती है, जिसे कई बार उत्पीड़ित तबकों ने अपने वास्तविक सामाजिक संघर्ष में इस्तेमाल किया है। कबीर धर्म का इस्तेमाल इसी रूप में करते हैं। ईसा मसीह ने इसी रूप में किया था। नानक ने श्रम और समता पर जोर दिया था। मीरा ने सामन्ती और पित्तृसत्तात्मक समाज के खिलाफ अपने विद्रोह को धार्मिक स्वर दिया था। आजकल अमेरीकी नवउपनिवेशवाद के खिलाफ लातीनी अमेरीका में चल रहे वामपन्थी और जनवादी संघर्षों की कतार में ईसाइयों का एक हिस्सा शामिल है।
लेकिन मार्के की बात यह है कि धार्मिक चेतना का रूप ग्रहण करने वाले पुराने सारे विद्रोह वर्ग विभाजन की तत्कालीन सीमाओं में विसर्जित हो गए। आज अगर धार्मिक चेतना से लैस कोई सामाजिक समूह या व्यक्ति सामाजिक मुक्ति के संघर्ष में शामिल है तो इसकी एक वजह यह है कि सामाजिक और मानवीय मुक्ति के संघर्ष में अगुआई करने वाली नई विचार-धाराओं और नये संगठनों से उसने अपने को जोड़ा है। धर्म इस समय मुक्ति-संघर्ष की दूसरी कतार में ही कहीं-कहीं सक्रिय है। आम तौर पर इसका उपयोग विभाजन, विषमता, उत्पीड़न और पराधीनता को कायम रखने वाली शक्तियां कर रही हैं। भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेज जब कभी सिख समुदाय या मुस्लिम समुदाय को शह देते थे तो इसका कारण उनकी धार्मिकता नहीं, बल्कि भारतीय जनता में फूट डालने और स्वतन्त्रता आन्दोलन को विभाजित और कमजोर करने की उनकी चाल थी। बिड़ला के तमाम मन्दिर उनकी धार्मिकता की बजाय उनकी पूंजी की सत्ता को गौरव और औचित्य प्रदान करते हैं। कांग्रेस में इस दौरान फूट पड़ी गंगा-धारा सत्ता में बने रहने का उसका एक साधन है। अकाली दल या मुस्लिम लीग की राजनीति अपने-अपने समुदाय को धर्म के नाम पर उत्तेजित करके निश्चित राजनीतिक और आर्थिक क्षमता हासिल करने का तरीका है। हमारे शासक-वर्ग ने धर्मनिरपेक्षता को सर्व-धर्म समभाव से गुजार कर साम्प्रदायिकता की ओर मोड़ दिया है। वह देश को विभाजन और दमन की ओर भी गंभीर परिस्थितियों में ले जा रहा है।

धर्मनिरपेक्षता क्या है? क्या यह सर्व-धर्म समभाव है? क्या आप धार्मिक भी बने रह सकते हैं और धर्मनिरपेक्ष भी? कोई भी धार्मिक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह सर्व-धर्म समभाव के अर्थ में धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। क्योंकि उसका अपना एक धर्म है और उसके लिए दूसरे धर्म पराये हैं। असल में धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता एक साथ नहीं चल सकती। यूरोप के आधुनिक इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे कि वहां इसकी धारणा सीधे धर्म के विरोध में विकसित हुई। दूसरे लोक की कल्पना को नकारना और इस लोक या यथार्थ को इसी के नियमों के आधार पर व्याख्यायित करना चिन्तन का इहलोकीकरण (सेक्युलराइजेशन) माना गया। इस अर्थ में धर्मनिरपेक्षता चिन्तन की वह प्रवृत्ति है, जो विज्ञान और बुद्धिवाद के आधार पर विकसित होती है, अनुभव, तर्क और प्रयोग पर बल देती है और धार्मिक चिन्तन की अबौद्धिक पारलौकिकता का निषेध करती है। इसके साथ यूरोप के इतिहास का यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि मध्य युग में राज्य के ऊपर धर्म (चर्च) की स्थापित सत्ता को चुनौती देना और राज्य के समस्त इहलौकिक क्रियाकलाप से धर्म को अलग कर देना भी क्रमशः धर्मनिरपेक्षता का एक रूप बन गया। धर्मनिरपेक्षता राज्य के एक गुण के रूप में विकसित हुई, जिसके अनुसार वह धर्म को व्यक्तिगत सरोकार मानेगा, सामाजिक संबंधों से धर्म को अलग करेगा और धर्म के आधार पर किसी को विशेषाधिकार प्रदान नहीं करेगा। इसका आशय यह भी है धर्मनिरपेक्ष राज्य अपनी विचारधारा निर्मित और प्रचारित करेगा, बुद्धि और तर्क को प्रोत्साहन देगा और धार्मिक चेतना के आग्रहों को अप्रासंगिक बनाता जाएगा।

अपने देश में धर्म निरपेक्षता की जो परिभाषाएं फैलाई गईं, वह धार्मिकता के ज्यादा करीब थी। इसे सर्व-धर्म समभाव या धर्मों से समान सापेक्षता के रूप में लिया जाता है। इस परिभाषा के अनुसार हमारा शासक वर्ग किसी भी या सभी धर्मों को समान रूप से प्रोत्साहन देकर साम्प्रदायिकता की ताकतों को मजबूत करता है और उनसे वोट की लगातार भ्रष्ट होती गई राजनीति की शतरंज खेलता है।

इस स्थिति का फायदा उठाकर कुछ लोग धर्मनिरपेक्षता की जरूरत से ही इनकार करने लगे हैं। वे कहते हैं कि भारत धर्म और सम्प्रदायों का देश है और धर्मनिरपेक्षता यहां की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। उनके तर्क पर चला जाय तो हमें यूरोप से प्राप्त आधुनिक विज्ञान, तकनालाजी तथा लोकतन्त्रा और समाजवाद की धारणाओं से भी मुक्त हो जाना चाहिए। ऐसी हालत में जो हमारे पास बच जाएगा, वह वर्गों और वर्णों में विभाजित, मध्य-युगीन और अस्पृश्यता के काले धब्बों से भरा जर्जर समाज होगा या फिर हिंदू साम्प्रदायिकता के वर्चस्व से नियंत्रित एक ऐसा राज्य तन्त्रा, जो अपने मूल आशय में फासिज्म का भारतीय रूप होगा। साम्प्रदायिकता की विघटनकारी परिणतियों से परिचित कोई भी व्यक्ति इन दोनों विकल्पों को स्वीकार नहीं करेगा।

जहां तक परम्परा का सवाल है, भारत में धार्मिक और साम्प्रदायिक चिन्तन के अलावा और उसके खिलाफ, बुद्धिवादी और भौतिकवादी चिन्तन की एक मजबूत परम्परा रही है। बुद्ध के समय में चिन्तन के तमाम रूप सक्रिय थे और उनमें अधिकांश बुद्धिवादी तथा भौतिकवादी थे। खुद बुद्ध ने ईश्वर की धारणा का निषेध करके आत्मवादी चिन्तन पर गम्भीर प्रहार किया। चाणक्य का प्रसिद्ध अर्थशास्त्रा अपनी मूल संरचना में एक धर्मनिरपेक्ष कृति है। बाद में मुगल बादशाह अकबर ने एक खास तरह की धर्म निरपेक्षता बरतने की कोशिश की। असली मुद्दा यह है कि आप परम्परा से क्या चुनते हैं और वर्तमान में आपका पक्ष क्या है? अब समय आ गया है कि धर्मनिरपेक्षता को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाय और जनता की एकता तथा उसके जनवादी आन्दोलन के सामने खतरा बन रही तानाशाही और साम्प्रदायिकता की शक्तियों का मुकाबला किया जाए।

2.
साम्प्रदायिकता हमारे देश, समाज और संस्कृति के लिए गम्भीर खतरा बन गई है। इस लेख में साम्प्रदायिकता के उन पहलुओं पर विचार किया जाएगा, जो संस्कृति के सीधे विरोध में जाते हैं और उसके अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करते हैं।

हम कह सकते हैं कि संस्कृति मनुष्य का वह सचेतन और सामूहिक क्रिया कलाप है, जो उसे प्रकृति की अचेतन व्यवस्था के ऊपर सोद्देश्य नियन्त्राण कायम करने की क्षमता प्रदान करता है। यह क्रिया कलाप मनुष्य को प्रकृति और उसमें पाये जाने वाले दूसरे जीवों से अलग करता है। यानी संस्कृति, श्रम और सृजन के ज़रिए, मानव-जाति के निर्माण और विकास की प्रक्रिया है। इस मायने में, मनुष्य होना और सांस्कृतिक होना एक-दूसरे का पर्याय है। उत्पादन के तौर-तरीकों, दर्शन और विज्ञान के विचार और विविध कलाओं के ज़रिए मनुष्य ने अपने विश्वव्यापी सम्बन्धों और उनकी चेतना का विकास किया है, अपनी भावनाओं और अनुभूतियों का विस्तार किया है, अपने परिवेश तथा अपने आपको ज्यादा-से-ज्यादा मानवीय बनाया है। अब हम स्थान और काल की सीमाएं पार कर समस्त मानव-जाति और उसकी संस्कृति के लिहाज से सोच सकते हैं।

साम्प्रदायिकता संस्कृति के इस प्राथमिक मानवीय पहलू के विरोध से ही शुरू होती है। यह मानव-जाति के बदले एक-दूसरे से भेद या विरोध रखने वाले समूहों की धारणा पर आधारित होती है। यह धर्म या नस्ल के आधार पर जाति के विभाजन और विभाजित समूहों की असमानता पर जोर देती है। एकता की जगह भेद, सहयोग की जगह विरोध और सार्वभौमिकता की जगह संकीर्णता-साम्प्रदायिकता के मूल तत्व होते हैं। ये सारे तत्व मानव-जाति की पहचान धुंधली करते हैं और उसके अस्तित्व के मूल तत्वों का निषेध करते हैं। यह आकस्मिक नहीं कि साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ने पर लोग पड़ोसियों तक को पहचानने से इंकार करने लगते हैं, अच्छे-भले लोग भी जघन्य हरकतें करने लगते हैं और समाज को आपसी मारकाट के नरक में बदल देते हैं। साम्प्रदायिकता अपने उग्र रूप में खुली बर्बरता की शक्ल ले लेती है। अगर संस्कृति मानवता है, तो साम्प्रदायिकता बर्बरता है।

संस्कृति मानव-चेतना के उन विविध रूपों का उत्पादन और विकास है, जिनके ज़रिए वह बाहरी और भीतरी यथार्थ की पहचान करता है तथा पहचान और अपनी जरूरत के अनुसार यथार्थ को बदलता है, उसका मानवीकरण करता है। जाहिर है, यथार्थ के ज्ञान के लिए मनुष्य अनुभव बुद्धि और प्रयोग (व्यवहार) का सहारा लेता है। अनुभव ज्ञान की सामग्री प्रदान करता है तो व्यवहार कसौटी। बुद्धि इन दोनों के सहयाग से विचारों का निर्माण करती है, सामान्य गुणों और नियमों को प्रतिबिम्बित करने वाली धारणाओं का सृजन करती है। संस्कृति का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जो बुद्धि के सक्रिय हस्तक्षेप के बिना सम्भव है। सारा ज्ञान-विज्ञान और सभी कलाएं मनुष्य की इस बोध-प्रक्रिया के विविध रूप हैं। कोई भी संस्कृति बुद्धिहीन नहीं हो सकती।

लेकिन साम्प्रदायिकता एक ऐसी चीज है जो बुद्धि का विरोध किए बगैर आगे नहीं बढ़ सकती। वह यथार्थ का वास्तविक ज्ञान हासिल करने की बजाय अर्द्ध सत्यों और झूठी अफवाहों पर जिन्दा रहती है। वह विद्वेष और घृणा जैसे भावों को उत्तेजना और उन्माद के छोर तक ले जाकर और सहयोग तथा प्रेम जैसे बुनियादी भावों को नष्ट करके मनुष्य को आत्महीन तो बनाती ही है, बुद्धि और विवेक के प्रखर आध्यात्मिक औजारों से भी वंचित कर देती है।

बुद्धि-विरोध साम्प्रदायिकता के उस एकांगी नज़रिये का परिणाम है, जो यथार्थ को इसकी समग्रता में देखने की बजाय अंश को ही समग्र यथार्थ मानने पर उतारू होता है। वह धर्म, नस्ल या जाति के आधार पर मानव-जाति को टुकड़ों में बांटने तथा किसी एक टुकड़े को ही सत्य मानने के आग्रह से पैदा होता है। चूंकि बुद्धि अपने मूल रुझान में चीजों के कार्य-कारण सम्बन्धों की जांच करती है और उनके सार्वभौम लक्षणों तथा नियमों की जानकारी हासिल कने की ओर अग्रसर होती है, इसलिए यथार्थ के किसी एक हिस्से को मनमाने ढंग से सम्पूर्ण सच मानने का दुराग्रह बुद्धि के वास्तविक, विकृत भावों की ऐसी आंधी खड़ी करती है, जिसमें पैर और दिमाग, दोनों जमीन से उखड़ जाते हैं।

साम्प्रदायिकता का यह बुद्धि विरोधी और एकांगी रूप हमारे देश के इतिहास चिन्तन में बखूबी दिखायी पड़ता है। अपने इतिहास और लेखन की कई धाराएं हैं, जिनमें एक धारा हिन्दू साम्प्रदायिकता के नज़रिये से काम करती है। इस धारा के अनुसार, हमारे देश में सारा पतन, सारी दुर्दशा और सारी दासता मुसलमानों के भारत आने पर शुरू हुई। उससे पहले राम राज्य था, खरे सोने का युग था। हम सब जानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था हिन्दू समाज की विशेषता है, जो समाज के बड़े उत्पादक हिस्से (वैश्य और शूद्रों) तथा महिलाओं को तमाम मानवीय अधिकारों से वंचित करती है। वंचना की इस व्यवस्था को मनु और दूसरे स्मृतिकारों ने धर्म की मर्यादा दे दी थी। लेकिन इस मामूली और सर्वविदित ऐतिहासिक तथ्य को छिपाये बगैर हिन्दू समुदाय के बीच सक्रिय साम्प्रदायिक तत्व इस बहुसंख्यक समुदाय को धार्मिक अल्प संख्यकों, खास कर मुसलमानों के खिलाफ प्रेरित करने का अपना मकसद पूरा करने में समर्थ नहीं दीखते।

इतिहास के प्रति इस साम्प्रदायिक रवैये का ही नतीजा है कि कुछ लोग ताज महल और कुतुब मीनार जैसे गौरवशाली भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को जबरन हिन्दू राजाओं की कृति साबित करने का प्रयास करते हैं। अरसे से चल रहा बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवाद ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति साम्प्रदायिक रुख अपनाने का ही सबूत है। विवेक और प्रमाण के आधार पर ऐतिहासिक तथ्यों की जांच करने और सही निष्कर्षों तक पहुंचने की बजाय दुराग्रहों और अन्ध विश्वासों को बल देने वाला यह रवैया हमारे देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को विकृत रूप में पेश करता है।

मध्य युग के सांस्कृतिक-साहित्यिक आंदोलन में हिंदू और मुसलमान रचनाकारों का समान रूप से योगदान है। अमीर खुसरो, जायसी, कबीर, रहीम और रसखान के बगैर तत्कालीन हिंदी साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। पंजाबी में प्रेम-काव्यों की महान रचना-परम्परा की शुरुआत मुसलमान कवियों ने की थी। आधुनिक बंगला के महान कवियों में एक तरफ रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं, तो दूसरी तरफ नजरुल इसलाम। खुद उर्दू भाषा के महान कवियों ने धर्म निरपेक्ष मूल्यों और साम्प्रदायिकता की विभाजनकारी अमानवीयता का जमकर विरोध किया है। लेकिन साम्प्रदायिक नज़रिया रखने वाले लोग भारतीय संस्कृति का मतलब सिर्फ हिन्दू संस्कृति से लगाते हैं और उसके तमाम गतिशील और गौरवशाली पक्षों को खारिज कर देते हैं। साम्प्रदायिक नज़रिया बढ़ कर अब भाषा के प्रति संकीर्ण रुख तक आ पहुंचा है। उर्दू और हिंदी के बीच दूरी दिखाने, उर्दू को कमजोर और अलगाववादी ठहराने और उसे देश विभाजन की भाषा बताने का दृष्टिकोण इधर जोर पकड़ने लगा है। भाषाओं के समान विकास के लिए संघर्ष करने की बजाय किसी एक भाषा को सर्वोच्च स्थान पर बैठा कर और दूसरी भाषाओं को उसके अधीन या अप्रासंगिक ठहरा कर साम्प्रदायिक नज़रिये का जोर कितना बढ़ गया है और हमारे ये प्रगतिशील साथी उस जोर के आगे कितने झुक गए हैं।

संस्कृति और प्रकृति में भेद का प्रमुख पहलू यह है कि जहां प्रकृति निहित नियमों की स्वतःस्फूर्त गति का क्षेत्र होती है, वहां संस्कृति उन नियमों के ज्ञान और उस ज्ञान के आधार पर यथार्थ को योजनाबद्ध ढंग से बदलने और उसे अपने नियन्त्राण में लेने का क्षेत्र है। श्रम की बुनियादी प्रक्रियाओं से लेकर विज्ञान और कला के विविध रूप यथार्थ के बाहरी और भीतरी नियमों से प्रकृति के अनन्त और अनिवार्य ढाँचे के भीतर स्वतन्त्रता का क्षेत्र बनाते हैं। यह क्षेत्र ही संस्कृति है।

साम्प्रदायिकता इसके ठीक विपरीत मानव समुदायों के परम्पर भेद और विरोध का झूठ गढ़ कर स्वतन्त्रता के सामूहिक निर्माण की प्रक्रिया को असम्भव बनाती है। वह न सिर्फ यथार्थ के समग्र ज्ञान और परिवर्तन की प्रक्रिया का हनन करती है, बल्कि इन कारणों से वह प्रकृति और समाज में सक्रिय मानव-विरोधी शक्तियों की दासता का मार्ग खोलती है। मनुष्य आपसी सम्बन्धों में उतनी स्वतन्त्रता हासिल कर पाता है जितनी अपने गैर-मानवीय यथार्थ के बीच वह हासिल करता है। यानी, वह जिस हद तक असंस्कृत होता है, उस हद तक परतन्त्र होता है। साम्प्रदायिकता संस्कृति या स्वतन्त्रता के क्षेत्र में तोड़-फोड़ करके बर्बरता या पराधीनता को बढ़ावा देती है।

इस सिलसिले में कुछ अरसा पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ द्वारा प्रचारित भारतीयकरण के नारे पर गौर किया जा सकता है। इस नारे के अनुसार भारत सिर्फ हिन्दुओं का देश है और भारतीय होने के लिए सभी गैर-हिन्दू समुदायों, खास कर मुसलमानों को हिन्दुओं के नक्शे-कदम पर चलना चाहिए। यानी गैर-हिन्दू समुदायों के लोग भारत के नागरिक हैं ही नहीं। उन्हें भारत का नागरिक तभी माना जाएगा जब वे हिंदू धर्म अपनाएं, हिंदुओं की श्रेष्ठता और अधीनता स्वीकार करें। सभी जानते हैं कि हिन्दू धर्म वर्ण और जाति की भारी विषमता पर आधारित है। उसमें आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग और वर्ण के लोग ही शासन की बागडोर संभाल रहे हैं। उसका बहुमत अब भी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित है। इस हालत में दूसरे समुदायों के लोगों को इस धर्म की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहना पराधीन लोगों की दूसरी या तीसरी कतार कायम करने के बराबर है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या उस जैसी दूसरी साम्प्रदायिक शक्तियां स्वतन्त्र चिन्तन और उसकी अभिव्यक्ति का जबर्दस्त विरोध करती रही हैं। इसका एक उदाहरण 1960 के आस-पास मुक्तिबोध की एक इतिहास-सम्बन्धी किताब पर पाबन्दी लगाने के लिए इन शक्तियों के द्वारा छेड़े गये अभियान में दिखाई पड़ा था। मुसिलम महिला विधेयक का विरोध करने वाले कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के प्रति हैदराबाद में मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा किया गया अपमानजनक और हमलावराना व्यवहार इसका दूसरा नमूना है। पंजाब में साम्प्रदायिकता ने आतंक की जो हालत पैदा कर रखी है, उससे स्वतन्त्रा चिन्तन करने और उसे स्वर देने के बुनियादी मानवीय अधिकार को भारी खतरा पैदा हो गया है। असल में, विघटन और दमन साम्प्रदायिकता के जुड़वां परिणाम हैं।

संस्कृति के जिन गुणों, मानवीयता, बुद्धिपरकता और स्वतन्त्रता की चर्चा मैंने की है, उन्हें उसके बुनियादी रुझानों के रूप में देखना चाहिए। ऐसा नहीं है कि ये रुझान पूरा यथार्थ रूप ले चुके हैं या फिर साम्प्रदायिकता कहीं से अचानक टपक कर उनके लिए खतरा पैदा कर रही है।

अनेक ऐतिहासिक कारणों से मानव समाज का विकास असमान ढंग से हुआ है और हमारे यहां वर्णों में भी विभाजित रहा है। विभाजन और विषमता की इन सामाजिक और ऐतिहासिक स्थितियों ने संस्कृति के क्षेत्र पर, मूल्य, विचार और सृजन के क्षेत्र पर प्रभाव डाला है। वर्ग विभाजन मनुष्य की चेतना में धार्मिक रूप ले कर दो लोगों, इहलोक और परलोक, की धारणा में व्यक्त होता रहा है, परतंत्रता को बल देने वाले विचार भी गढ़े गए हैं। हमारे यहां कर्म, पुनर्जन्म और भाग्य के विचार परतन्त्रता को बल देने के लिए ही गढ़े गए हैं। आज तक के हर परजीवी शासक वर्ग ने मूल्य, विचार और कला को यथास्थिति की सेवा में लगाने के लिए एकांगी, अबौद्धिक और सृजन-विरोधी दृष्टिकोण निर्मित और प्रचारित किया है। इस तरह उसने संस्कृति के बुनियादी रुझानों का हनन कर अपसंस्कृति या संस्कृतहीनता की प्रवृति को बढ़ावा दिया है। साम्प्रदायिकता इस अपसंस्कृतिक का ही एक रूप हैएक उग्र रूप, जिसका इस्तेमाल ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से लेकर भारत के मौजूदा शासक वर्ग तक ने किया है।

हमें गौर करना चाहिए कि मौजूदा हालत में धर्म निरपेक्ष मूल्यों की हिफाजत और विकास का कार्य जनता और उससे जुड़े बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक और अन्य संस्कृतिकर्मी ही कर सकते हैं। हमें अपने सृजन और चिन्तन में जुझारू धर्म निरपेक्ष रुख अपनाना चाहिए, ताकि साम्प्रदायिकता और तानाशाही की संस्कृति विरोधी शक्तियों को पराजित किया जा सके l 

No comments:

Post a Comment