Tuesday, May 31, 2016

सुप्रीम कोर्ट में एक भी दलित जज नहीं

नई दिल्लीः केजी बालाकृष्णन के 11 मई 2010 को देश के मुख्य न्यायाधीश पद से रिटायर  होने के बाद से देश की शीर्ष अदालत में पिछले छह साल से कोई भी अनुसूचित वर्ग का जज नहीं चुना गया है। यही नहीं देश के किसी भी हाईकोर्ट में इस समय दलित वर्ग से ताल्लुक रखने वाला मुख्य न्यायाधीश नहीं है। यह हाल तब है जबकि देश में करीब 16 फीसद दलित आबादी है। दो प्रकार के सवाल उठते हैं कि क्या अनुसूचित वर्ग के लोग न्यायिक सेवा में अपेक्षित संख्या में नहीं है या फिर काबिलियत के आधार पर उन्हें कोलेजियम के स्तर से सुप्रीम कोर्ट तक पदोन्नति अभी नहीं मिल पा रही। यह हाल तब है कि जब इसी देश में दलित वर्ग से निकलकर डॉ. अंबेडकर जैसे कानूविद पैदा हुए और उन्होंने संविधान का निर्माण किया।
10 साल में सिर्फ तीन महिला जज
सुप्रीम कोर्ट में पिछले दस साल में सिर्फ तीन महिला जज नियुक्त हो सकी हैं। इसमें जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा व जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई सेवानिवृत्त हो चुकी हैं जबकि जस्टिस बानुमती अभी सुप्रीम कोर्ट मे कार्यरत हैं। 
कोलेजियम नियुक्त करती है जज
सु्प्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम सिस्टम है। इसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश करते हैं जबकि उनके अंडर में चार अन्य जज बतौर सदस्य कार्य करते हैं। विधि एवं न्याय मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि कोलेजिमय के स्तर से कोई ठोस मापदंड का पालन जजों को पदोन्नति देकर सु्प्रीम कोर्ट में लाने में नहीं किया जा रहा। 
हालिया में तीन जज  हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट
जस्टिस टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली कोलेजियम ने अभी हाल में हाईकोर्ट के तीन मुख्य न्यायाधीश को पदोन्नति देकर सुप्रीम कोर्ट में तैनाती दी है। इसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस चंद्रचूड़, केरल हाईकोर्ट के अशोक भूषण और एमपी हाईकोर्ट के एएम खनविलकर को सुप्रीम कोर्ट में तैनाती दी गई। 

Wednesday, May 25, 2016

रैगर समाज की महिलाओं से छेड़छाड




रैगर समाज की महिलाओं से छेड़छाड करने वाले दोषी लोगो को गिरफ्तार एवं शक्त कार्यवाही करने की मांग
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रैगर समाज नवनिर्माण महासमिति के प्रतिनिधि मंडल ने मुख्यमंत्री व गृह मंत्री को दिया ज्ञापन
रैगर समाज नवनिर्माण महासमिति के प्रतिनिधि मंडल ने बुधवार को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे व गृह मंत्री गुलाब चन्द कटरिया को ज्ञापन देकर टोंक जिले की निवाई तहसील के बस्सी गांव में एक शादी समारोह मे रैगर समाज की महिलाओं और लोगो के साथ मारपीट व छेड़छाड़ करने वाले गुर्जर समाज के दोषी लोगो को शीघ्र गिरफ्तार करने और उनके खिलाफ शक्त कार्यवाही करने की मांग की, प्रतिनिधि मंडल ने मुख्यमंत्री व गृह मंत्री को बताया की 18 मई 2016 को बस्सी गांव में एक शादी समारोह के दौरान गुर्जर समाज के कुछ दबंग लोगो ने रैगर समाज की महिलाओं के साथ छेड़छाड व मार पीट की और जलती हुई बीडियो से दागा गया इससे समाज की महिलाओं द्वारा विरोध करने की बावजूद ये लोग नहीं मानें और घराने पर मेहमानों और बस्ती की लोगो के साथ लाठियों से मारपीट की इस घटना मे कई लोगो के चोटें भी आई बरौनी पुलिस थाने में जब इसकी रिपोर्ट दर्ज कराइ तो पांच दिन तक कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की और 23 मई को रिपोर्ट दर्ज की गई लेकिन दोषी लोगो को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया |
दोषी लोगो द्वारा रैगर समाज के लोगो को जान से मारने की धमकी दी जा रही है जिससे रैगर समाज के लोग डरे हुए है और गांव से पलायन करने को मजबूर हो रहे है गृह मंत्री ने टोंक जिले के S P से तुरंत फ़ोन पर बात कर गुर्जर समाज के दोषी लोगो को गिरफ्तार करने और उनके खिलाफ कठोर कार्यवाही करने की निर्देश दिए है |
प्रतिनिधि मंडल में रैगर समाज नव निर्माण महासमिति की राष्ट्रीय अध्यक्ष अंजुरानी कराडिया राष्ट्रीय उपाध्यक्ष फूलचंद बिलोनिया युवा प्रकोष्ठ के जयपुर जिलाध्यक्ष समाज सेवक सुरेश आलोरिया बस्सी गांव के जगदीश प्रशाद, विजय नारायण, सीताराम बृजमोहन, बद्रीलाल, राजेंद्र, भंवर लाल और बुद्धि प्रकाश आदि शामिल थे |

Tuesday, May 24, 2016

पत्रकारों की सुरक्षा के लिए “पत्रकार सुरक्षा कानून”

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दुनिया के कई देशों में पत्रकार सुरक्षा कानून बने हैं, जो पत्रकारों को सही और सच्ची खबर लाने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। लेकिन भारत आज भी पत्रकार सुरक्षा कानून से वंचित है। अत: सरकार भारत में तुरंत प्रभाव से “पत्रकार सुरक्षा कानून” निर्माण व लागू करे।
“कानूनी सुरक्षा” हेतु
1- “पत्रकार सुरक्षा कानून” अविलम्ब लागू हो।
2- पत्रकार/मीडियाकर्मी पर कवरेज के दौरान हमले को विषेश कानून के तहत दर्ज किया जाए।
3- पत्रकार/मीडियाकर्मी को कवरेज करने से रोकने को सरकारी काम में बाधा की तरह देखा जाए।
4- पत्रकार/मीडियाकर्मी पर दर्ज हुए मामलों की पहले स्पेशल सेल के तहत जांच की जाए, मामले की पुष्टि होने पर ही केस दर्ज किया जाए।
5- पत्रकार/मीडियाकर्मी पर दर्ज हुए मामले की जांच के लिये कम से कम पीसीएस या आईपीएस अधिकारी द्वारा जांच हो।
6- यदि पत्रकार/मीडियाकर्मी पर झूठा मामला दर्ज किया जाता है और उसकी पुष्टि होती है तो झूठा मुकदमा करने वालों के खिलाफ आजीवन कारावास और अधिकतम जुर्माने का प्रावधान हो।
7- पत्रकार/मीडियाकर्मी की हत्या को रेयरेस्ट क्राइम के अंतर्गत रखा जाए।
8- पत्रकार/मीडियाकर्मी की कवरेज के दौरान दुर्घटना या मृत्यू होने पर नि:शुल्क बीमा प्रदान किया जाए।
9- कवरेज के दौरान घायल हुए पत्रकार/मीडियाकर्मी का इलाज सरकारी अथवा निजि अस्पताल में नि:शुल्क किया जाए।
10- यदि पत्रकार/मीडियाकर्मी के परिजनो पर रंजिशन हमला किया जाता है तो उनका इलाज सरकारी अथवा निजि अस्पताल में नि:शुल्क किया जाए।
11- कवरेज के दौरान अथवा किसी मिशन पर काम करते हुए पत्रकार/मीडियाकर्मी की मृत्यु होने पर उसके परिजन को सरकारी नौकरी दी जाए।
12- पत्रकार/मीडियाकर्मी को आत्म सुरक्षा हेतु लाइसेंस इश्यू किया जाए।
13- सभी पत्रकार/मीडियाकर्मी को कवरेज के लिये राज्य तथा केन्द्र की ओर से आई-कार्ड जारी किया जाए।
14- प्रशासनिक व विभागीय बैठकों में पत्रकारों की उपस्थिति अनिवार्य हो।
15- पत्रकार/मीडियाकर्मी को कवरेज हेतु आवागमन के लिये आधे किराये का प्रावधान हो, तथा रेलवे में यात्रा के लिये शीघ्र आरक्षण का प्रावधान हो।
16- पत्रकार/मीडियाकर्मी के लिये टोल टैक्स में छूट प्रदान की जाए।
17- यदि पत्रकार/मीडियाकर्मी को धमकियां मिले तो उसकी सुनवाई शीघ्र हो तथा उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाए।
सामाजिक सुरक्षा हेतु संस्तुतियां
1- राज्य एवं केन्द्र के स्तर पर “पत्रकार आर्थिक सुरक्षा निधि” योजना का संचालन हो।
2- 1000000 का नि:शुल्क बीमा सुनिश्चित हो।
3- गम्भीर बीमारी की स्थिति में अच्छे अस्पताल में नि:शुल्क इलाज की व्यवस्था हो।
4- पत्रकार/मीडियाकर्मी के लिये स्वास्थ्य बीमा योजना हो।
5- जिस तरह किसान ऋण योजना है उसी प्रकार पत्रकार/मीडियाकर्मियो हेतु ऋण योजना बैंको द्वारा संचालित हो।
6- पत्रकार/मीडियाकर्मियों हेतु कार्यालय योजना हो जिसमें सस्ते व आसान किश्तों पर कार्यालय उपलब्ध हों।
7- प्रिंटिंग प्रेस लगाने हेतु विषेश पैकेज व्यवस्था हो तथा प्रिंटिंग प्रेस पर आयत शुल्क में रियायत हो।
8- पत्रकार/मीडियाकर्मियों के बच्चों के लिये अच्छे शिक्षण संस्थानों में कोटा हो अथवा उनकी फीस में रियायत हो।
9- पत्रकार/मीडियाकर्मी हेतु आवास योजना हो, जिसमें सस्ते व आसान किश्तों पर आवास उपलब्ध हों।
10- NUJ (I) और उपजा सहित उसकी 23 राज्य शाखा पत्रकारो के हित मे संघर्ष का संकल्प ले चुकी है। इसी क्रम मे 7 दिसम्बर 2015 को NUJI पत्रकार सुरक्षा कानून के लिए संसद के सामने प्रदर्शन करने जा रही है। पत्रकारो क़ो अब एकजुट होना होगा
जब तक लोकतंत्र के प्रहरी पत्रकार/मीडियाकर्मी की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चि नहीं हो जाती तब तक किस तरह एक स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है और किस तरह भारत विश्व में निष्पक्ष भयहीन और स्वतंत्र मीडिया होने का दम्भ भर सकता है। जल्द से जल्द पत्रकार सुरक्षा कानून लागू किया जाए।
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रतन कुमार दीक्षित
महासचिव
नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट

कल्लूरी या पुलिस और जनसंपर्क नहीं तय करती कि कौन पत्रकार है या नहीं : प्रत्येक नागरिक पत्रकारिता कर सकता है , संविधान ने दिया है अधिकार


अधिमान्यता केवल उन पत्रकारों के लिए है जो सरकारी दामाद बनना चाहते है बाकि ईमानदारी से पत्रकारिता करने के लिए आपको कही पंजीयन या अनुमति की जरुरत नहीं है आप जिस प्रिंट मिडिया तंत्र से जुड़े है उसके लिए ही आर एन आई पंजीयन जरुरी है यदि इलेक्ट्रानिक मिडिया  से जुड़े   हैं  तो  केवल आईडी  कार्ड  होने से नहीं बल्कि यह भी जांच  लीजिये की उनका लायसेंस वैध है या नहीं | पुलिस विभाग इस गलत फहमी में है कि पत्रकारिता के लिए लायसेंस जन सम्पर्क  जारी  करती है \ आश्चर्य्य है कि बस्तर आई जी जैसे पद में बैठा व्यक्ति इतनी मुर्खता पूर्ण बात कर सकता है कि कौन पत्रकार हैं और कौन पत्रकार नहीं इसका निर्णय जनसंपर्क विभाग करता है | जन सम्पर्क के पास केवल जिला मुख्यालय के ही पत्रकारों की सूचि रहती है और यह सूची केवल सरकारी कार्यक्रम को जनता तक पहुँचाने के लिए होती है | इन्हें इस बात के लिए इन पत्रकारों की चिरौरी करने के लिए बाकायदा बजट भी मिलता है , जिससे पत्रकरों को पटाया जा सके | कुल मिलकर जनसंपर्क विभाग सरकार का मिडिया मैनेजमेंट होता है | मेरे पास सूचना का अधिकार से प्राप्त किया गया दस्तावेज है , जिसमे स्पष्ट है कि कोई  पत्रकार है या नहीं यह तय करने की एजेंसी जनसम्पर्क  विभाग नही है |साथ ही यह भी कि कोई दुसरा भी ऐसा कोई सरकारी एजेंसी नहीं है जो यह तय करे कि प्त्रस्कार कौन हो सकता है | यह तो विधिवत निकल चल रहे मिडिया संस्थान का नियुक्ति पत्र और आईकार्ड ही तय करता है | 
                साथ ही अधिमान्यता की स्थिति यह है की यह फिल्ड से दूर बुजुर्ग हो चुके वरिष्ठ पत्रकारों राजधानी के टेबल रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों अख़बार मालिकों दैनिक अख़बारों के संपादकों और नेताओं की सूची बनकर रह गयी है किन्तु आदरणीय वरिष्ठ साथियों को किसी भी प्रकार की सुविधा पाने का पूरा  हक़ है  प्रदेश के कुल १५१ राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त पत्रकारों में १0७ रायपुर में बसते है इन्ही की समिति है इस गैंग ने यंहा ऐसी घेराबंदी कर रखी है की किसी मेहनतकश पत्रकार को बिना सिफारिश या किसी संघ के पदाधिकारी बने यहाँ घुसने नहीं दिया जाता बस्तर जिसके समाचार के भरोसे देश भर की मिडिया जिन्दा है हजारों सेठों की रोजी-रोटी चल रही है ---- वहां से दहाई की संख्या में भी  पत्रकार अधिमान्य नहीं है इसी बात से इस गणित को समझ लीजिये अधिमान्यता विरोधी संघ बनाइये उसी में शामिल रहने से ही इज्जत है जो सच लिखना चाहतें है सरकार किसी की भी रहे उनका इस संघ में स्वागत है कम से कम पुलिस को पत्रकारिता नापने या जांचने का अधिकार अभी तक तो है ही नहीं |
               भारतीय संविधान के तहत प्रत्येक नागरिक को न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत अपने विचार बनाने से पहले हर प्रकार की बात जानने का और  उसके प्रकट करने का अधिकार प्राप्त है इसी अधिकार के तहत प्रत्येक नागरिक पत्रकारिता कर सकता है कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक जनता के नौकर है इन्हें हमारे हर प्रश्न का जवाब देना है शासन भी अपना है सत्ता किसी भी पार्टी की क्यों ना हो हर घटना - दुर्घटना अपराध और ताजा स्थिति जानने के लिए आप अपने एस पी और कलेक्टर , कंट्रोल रूम  को फोन व मेल उनकी जवाबदारी है की वे आपकी जिज्ञासा शांत करने की उचित व्यवस्था करें इसी तरह आप  नीति - नियम सरकारी योजना की जानकारी सीधे कलेक्टर से जान सकते है इसके लिए आप को पत्रकार का परिचय पत्र लेने या दिखाने की जरुरत नहीं है |  न ही पत्रकार होने का मतलब कोई तोपचंद होता है  | बिना आपकी अनुमति के कोई पत्रकार न तो फोटो ले सकता है ना ही आपका इंटरव्यू रिकार्ड कर सकता है |  
              नागरिक मिडिया को मंच प्रदान करने कई संस्थाएं आज सक्रिय भूमिका निभा रही है इनमे बीबीसी हिंदी न्यूज पोर्टलhttp://www.merikhabar.com  , मल्हार  मिडिया www.malharmedia.comआदि के आलावा सबसे अच्छा माध्यम फेसबुक ब्लॉग ट्यूटर गूगल प्लस आदि है प्रसिद्द पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी ने तो आपको कहीं से भी कभी भी पत्रकार बनने का ना केवल मौका दिया है बल्कि अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ भी एक मंच प्रदान किया है |आप यहाँ http://cgnetswara.org/about.html तथ्य व सबूत के साथ अपनी आवाज में समाचार रिकार्ड का सकतें है 

कुछ हालात भी देख, कुछ दुश्वारी भी सुन। ऐ ज़िंदगी! कुछ हमारी भी सुन।।

चाटुकारिता, जिसे ठेठ भाषा में तेल लगाना भी कहते हैं, एक ऐसी अति वांक्षित योग्यता है जो पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रख रहे लोगों के लिए अकथित रूप से बेहद आवश्यक है। जिसे जितनी अच्छी तरह से तेल लगाना आता है, अधिकृत पत्रकारिता में उसकी तरक्की के विकल्प उतने ही ज्यादा होते हैं। इस कला के बिना कम से कम पत्रकारिता के क्षेत्र में टिक पाना तो लगभग असंभव होता है। यह महज एक अनुभव नहीं है। इस तथ्य को पूरे पत्रकारिता जगत में मौन स्वीकृति प्राप्त है। हर वो श़ख्स जो अपने शुरुआती दिनों तेल लगाना पसंद नहीं करता, वह सीनियर हो जाने पर अपने अधीनस्थों से तेल लगवाने का शौक जरूर रखता है।
पत्रकारिता के बाहरी रुतबे व कद को देखकर और उस पर आकर्षित होकर तमाम युवा पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में चुनते हैं। देशभक्ति-भाईचारे और सहिष्णुता के भावों से लबरेज होकर वे पत्रकार बनने का सपना संजोते हैं मगर बाद में इसके (पत्रकारिता के) वर्तमान स्वरूप की सच्चाई से वाकिफ होकर उन्हें अपने आस-पास के वातावरण से घिन आने लगती है। काफी दिन तक वह युवा संघर्ष करता है और सिस्टम में बदलाव लाने की हरसंभव कोशिश करता है मगर हालात यह होते हैं कि सिस्टम में नीचे से ऊपर तक मौजूद तेल के शौकीन लोग हर कीमत पर इस सुख का आनंद लेना चाहते हैं। ऐसे में उक्त युवा इस वातावरण को समझने का प्रयास करते-करते न चाहते हुए भी उसमें ढल जाता है। सिस्टम बदलने का उसका सपना, सिर्फ सपना ही रह जाता है और उसमें वक्त गुजरने के साथ धूल की पर्त जमने लगती है। फलस्वरूप परिवर्तन का उसका सपना खामोशी से दम तोड़ देता है।
कुछ युवा तो अपने कैरियर के शुरुआत में कुछ दिनों तक यह समझकर भी अपने सीनियर या बॉस द्वारा आदेशित हर काम को खुशी से करते रहते हैं कि उन्हें इससे कुछ सीखने को मिलेगा। मगर इसके विपरीत सीनियर्स सिखाने के नाम पर उस जूनियर को अपना चपरासी समझने लगते हैं। कुछ समय बाद जब वह जूनियर उनके हर एक आदेश को मानने से मना करने लगता है तो फिर मन-मोटाव और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो संस्थान छोड़ने की भी नौबत आ जाती है।
एक बात और गौर करने वाली है कि जो लोग अपने प्रारंभिक दिनों में यह सहते हैं, वे सीनियर हो जाने पर दूसरों से (जूनियरों से) इसकी उम्मीद करते हैं। उनमें मन ही मन एक चिढ़ भरी रहती है जो धीरे-धीरे अवसाद का रूप अख्तियार कर लेती है।
पत्रकारिता जगत में अमूमन चाटुकारों को ही वेतनवृद्धि भी नसीब होती है, अन्यथा इस क्षेत्र में चाहे जितने दिन गुजर जाएं, वेतन उतना का उतना ही रह जाता है। बॉस के लुक की तारीफ, उसके लहजे की सराहना, उसके काम करने के ढंग की बड़ाई, हर बात में बॉस की जीहुजूरी और यह कहना कि मुझे तो आपके साथ काम करने में सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, आदि कथन अखबारों और टीवी चैनलों के आफिसों में आम बातें हो गईं हैं। आधुनिक पत्रकारिता के गुणात्मक और चारित्रिक क्षरण की भी यही वजह है कि हम भविष्य में हो सकने वाले छोटे से फायदे के लिए हर वह बात स्वीकार कर लेते हैं जिसे हम एकदम पसंद नहीं करते।
कुछ युवा (नए पत्रकार) ऐसे भी होते हैं जो अपनी योग्यता को ही सर्वोपरि रखते हैं और किसी भी कीमत पर चाटुकारिता को बढ़वा नहीं देते। पहले तो तमाम उपाय करके उनके तरीके को बदलने की या उन्हें सिस्टम से बाहर कर देने की कोशिश की जाती है मगर फिर भी न झुकने पर आखिरकार उसके तेवरों को स्वीकार कर लिया जाता है और फिर उस युवा पत्रकार का सिक्का जम जाता है। तदुपरांत उस संस्थान का गुणात्मक सुधार होने लगता है।
पत्रकारिता को चाटुकारिता के चंगुल से अगर कोई छुड़ा सकता है तो वह है आज की युवा पीढ़ी। हम युवाओं को चाहिए कि हम बड़े-बुजुर्गों की काबलियत और उम्र का लिहाज तो करें मगर यदि कोई हमें अपना चाटुकार या वैचारिक चपरासी बनाना चाहे तो हम न सिर्फ उसका विरोध करें, बल्कि ऐसी तुच्छ मानसिकता के लोगों को मुंहतोड़ जवाब भी दें।

आइए! हम उठ खड़े हों उन लोगों के खिलाफ जो पत्रकारिता को अपने पैर की जूती समझते हैं। हमें सबक सिखाना होगा उन मुट्ठी भर लोगों को जो पत्रकारिता को जेब में भर कर टहलने का दावा करते हैं। क्योंकि यही वर्तमान समाज की जरूरत भी है मजबूरी भी।

हमने उदासी को अपनी आदत कहना नहीं सीखा।
गुमसुम किसी भी हाल में रहना नहीं सीखा।।
बदले हैं हमने हरदम दरियाओं के रुख़,
दरिया के साथ हमने बहना नहीं सीखा।।

" मेरे होठों से निकल के हवा में एक आह उड़ी
फिर भी खुश हूँ मैं लोगो में ये अफवाह उड़ी है॥"
अफवाहें भले ही सच न होती हों मगर ये सच है कि ये अपने पीछे तमाम वांछित-अवांछित परिणाम ले कर आती हैं। अफवाहों का अपना समाज व स्तर होता है। कुछ अफवाहों के परिणाम हास्यास्पद तो कुछ के गंभीर व भयावह भी होते हैं। कभी-कभी अफवाहों के कारण बड़ी ही अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो जाती है। कुछ लोग तो अफवाह फैला कर बड़ी ही सुखद अनुभूति करते हैं वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एक बार किसी अफवाह का शिकार हो जाने के बाद दूसरी किसी सच्चाई पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाते। उन्हें हर एक बात में अफवाह का अंदेशा होता है। खैर कुछ अफवाहें हमें सचेत व प्रेरित भी करती हैं।
कुछ दिन पहले मैं एक विचित्र घटनाक्रम का गवाह बना। उस दिन मैं किसी काम से पड़ोस के एक नर्सरी स्कूल गया था. मैं प्रधानाचार्य के दफ्तर की तरफ जा ही रहा था कि अचानक इमरजेंसी वार्निंग बेल बजने लगी. पलक झपकते ही सभी अध्यापक और विद्यार्थी स्कूल के मैदान में इक्ट्ठे हो गए. आखिर बात क्या है? यह जानने के लिए मैं भी वहां पहुंचा और सबसे पीछे खड़ा हो गया. स्कूल के प्रधानाचार्य ने अपने संक्षिप्त भाषण में ये सूचना दी कि हमारे देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री का निधन हो गया है. उनकी आत्मा कि शांति के लिए दो मिनट का मौन रखा गया और फिर स्कूल की छुट्टी कर दी गयी.इस शोक सभा में मैं भी शरीक हुआ. मौन के दौरान मेरे मन में एक क्लेश उत्पन्न हो रहा था कि मैं उन पूर्व प्रधानमंत्री से मिलने की अपनी हार्दिक इच्छा पूरी नहीं कर सका. शोक सभा समाप्त के बाद भारी मन से मैं घर वापस आया और पूर्व प्रधानमंत्री के निधन के बारे में पूरी तरह से जानने के लिए टीवी आन करके समाचार देखने लगा. टीवी देखते-देखते ही मैं उस समय अचानक भौचक्का रह गया जब मैंने उन पूर्व प्रधानमंत्री के निधन के विपरीत उनके स्वस्थ्य में सुधार का समाचार देखा. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मगर थोडी देर में यह साफ़ हो गया कि वह पूर्व प्रधानमंत्री अभी जीवित हैं और उनके स्वस्थ्य में तेजी से सुधार भी हो रहा है. मुझे थोड़ी सी हंसी आई. मुझे हंसी का कारण स्पष्टतः पता नहीं चला. शायद यह हंसी उस लचर सूचना तंत्र पर रही होगी जिसके कारण एक अजीब सी घटना घटी या फिर यह हंसी इस ख़ुशी के कारण थी कि उन पूर्व प्रधानमंत्री से मिलने कि हार्दिक इच्छा को पूरा करने मौका अभी भी मेरे पास मौजूद था.
कुछ भी हो मगर इस अफवाह ने मुझे ठंडे बस्ते में जा चुकी अपनी ख्वाहिश को जल्द से जल्द हकीकत का रूप देने के लिए प्रेरित जरूर किया. और अब मैं जल्दी ही उनसे मिल लेने के लिए आतुर हूँ.नसे मिल लेने के लिए आतुर हूँ.


संस्कृतियों के विकास से लेकर अब तक इंसानी जात लगातार कुदरत को अपने तरीके से संचालित करने की कोशिशें करती आई है। समय-समय पर कुदरत के तमाम रहस्यों से पर्दा उठाने के दावे भी किए जाते रहे हैं। मगर इतिहास गवाह है कि बीती शताब्दियों में ऐसे अनगिनत मौके आए हैं जब न केवल इंसान की तकनीकी तरक्की खोखली साबित हुई है, बल्कि अनेक संस्कृतियां समूल नष्ट होकर अतीत का हिस्सा बनने पर मजबूर हुई हैं। इंसान सदियों से ख़ुद को पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान जीव कहता रहा है और दूसरे जीवों पर शासन करता आया है, मगर कुदरती विभीषिकाओं के आगम के समय इंसान के अलावा बाकी सभी जीव खतरे को पहले से भांपकर सुरक्षित स्थानों में चले जाते रहे हैं, वहीं कथित बुद्धिमान जीव इंसान कभी इस खतरे की आहट भी नहीं सुन पाया। कुदरत के द्वारा तमाम बार सचेत किए जाने के बावजूद इंसान कभी कुदरती नियम-कायदों से छेड़छाड़ करने से बाज नहीं आया और फलस्वरूप पृथ्वी को बार-बार तबाही के मंजर से दो-चार होना पड़ रहा है।

सालाना समीक्षा

मई का महीना समीक्षा का होता है। भारतीय लोकतंत्र के इस रूटीन उत्सव में यही एक महीना होता है जिसमें सरकार हमेशा अच्छा करती है। दबी ज़ुबान आलोचना होती है, मुखर रूप से तारीफ़। संपादक और उद्योग जगत के कप्तान दस में आठ या सात नंबर देते हैं। नंबर देते वक्त सब यह ख़्याल रखते हैं कि छह से कम न हो। हमारे जनमानस में प्रथम श्रेणी का इतना आतंक है कि आज भी साठ प्रतिशत का मोल है। जबकि इतने नंबर पर आपको देश के किसी अच्छे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलता है। अगर कहीं से आंकड़ें मिल जायें तो आप मनमोहन सिंह से लेकर मोदी तक के कार्यकाल में एक निरंतरता देख सकते हैं। पता लगा सकते है कि पिछली सरकार में फलां उद्योगपति या संपादक दस में से कितना नंबर देता था, हो सकता है कि आपको मोदी सरकार में वो आदमी उतना या उससे ज्यादा नंबर देता मिल जाए। आलोचना इस तरीके से की जाएगी कि नेतृत्व को सबसे अधिक नंबर मिले और नीतियों के आधार पर मंत्रियों के नंबर काट लिय जाएं। नेता को नब्बे परसेंट और सरकार को साठ या सत्तर परसेंट!
किसी भी सरकार को हक है कि वो अपने कार्य का प्रचार करे। यह उसके तमाम मुख्य कार्यों में से एक है। इस मामले में मोदी सरकार के मंत्री काफी सक्रिय हैं। भले ही वो तमाम जनप्रदर्शनों पर ट्वीट न करते हों मगर व्यक्तिगत समस्याओं को ट्विट कर और कई बार उनका तुरंत समाधान कर जनमानस में मौजूदगी का अहसास कराते रहते हैं । सुष्मा स्वराज की इस मामले में सराहना की जानी चाहिए। दूर देश में फंसा कोई भी व्यक्ति उनसे गुहार लगाता है वो समाधान कर देती हैं। बकायदा बता देती हैं कि आप यहां जाकर इस अधिकारी से संपर्क कीजिए। इस मायने में मोदी सरकार का कोई मंत्री सचुमच जनभागीदारी कर रहा है तो वे सुषमा स्वराज हैं। मैं उनकी इस भूमिका से काफी प्रभावित हूं और इस मामले में बिना अगर-मगर लगाये उनकी तारीफ़ करता हूं। लोगों में भी उनकी ऐसी छवि बनी है कि उनके कई बार ट्वीट करने के बाद भी कि आगे से पासपोर्ट या कहीं फंसे होने पर आप विदेश राज्य मंत्री से संपर्क कर लें, लोग उन्हीं से संपर्क करते हैं और वही अभी तक जवाब दिये जा रही हैं।
क्या आपने सुषमा स्वराज को विदेश नीतियों के बारे में भी बोलते सुना है? बहुत कम । अगर विदेश नीति की दिशा में कोई बदलाव आ रहा है तो विदेश मंत्री से बेहतर कौन बता सकता है। हिन्दू अख़बार में सुहासिनी हैदर ने लिखा है कि किस तरह विदेश मंत्रालय की भूमिका गौण हो गई है। तमाम सरकारों में प्रधानमंत्री ही विदेश नीति का नेतृत्व करते हैं लेकिन आप याद कीजिए, विदेश नीतियों को लेकर विदेश मंत्री के कितने बयान आते थे। विदेश मंत्री अपने मूल कार्य पर कम बोलती हैं मुझे यह बात हैरान करती है।  क्या विदेश मंत्रालय के मूल कार्य में उनकी भागीदारी नहीं है। सुहासिनी हैदर के लेख से तो यही झलक मिलती है।
अख़बारों, चैनलों और सोशल मीडिया पर नए नए आंकड़ें आ रहे हैं। ये वही आंकड़ें हैं जो साल भर से चल रहे हैं। मंत्रीगण कई अख़बारों और चैनलों पर इंटरव्यू देने लगे हैं। सब में उन्हीं आंकड़ों को दोहराया जा रहा है। इतना प्रतिशत ये हो गया उतना प्रतिशत वो गया। बीच में सुब्रमण्यिन स्वामी आ जाते हैं जो रिज़र्व बैंक के गर्वनर पर हमला करते हुए कह देते हैं कि इनकी वजह से उद्योग धंधे चौपट हो गए हैं और बेरोज़गारी बढ़ गई है। स्वामी जी के अर्थशास्त्री होने का गुणगान वित्त मंत्री राज्य सभा में भी कर देते हैं। अब जब राजन की वजह से उद्योग धंधे चौपट हो गए हैं तो फिर मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक उपलब्धियों के आंकड़ें कहां से ला रहे हैं!
रविवार के इकोनोमिक टाइम्स में कई मंत्रियों के इंटरव्यू छपे हैं। मंत्री अपने कार्यों को गिना रहे हैं। यह भी कह रहे हैं कि इतना पूरा हुआ है और इतना इतने समय तक पूरा हो जाएगा। यह एक अच्छा बदलाव है। अब काम मीडिया और विपक्ष का है वो उन जगहों पर जाकर ज़मीन से मूल्यांकन करे। भारतीय विपक्ष प्रेस कांफ्रेंस में ही सक्रिय दिखता है। ज़मीन पर जाकर गांव गांव घूमकर वो योजनाओं का मूल्याकंन नहीं करता। उसका सारा प्रयास किसी घटना तक है। कोई घटना हो जाए बस सरकार को घेरना है लेकिन कार्यों के दावों पर कोई घेराबंदी नहीं है। बहुत से बहुत एक लाइन का बयान दे देंगे कि सरकार फेल हो गई। किसी सरकार के मूल्यांकन का यह सबसे लापरवाह तरीका है।
कई अख़बारों में पढ़ रहा हूं कि मोदी के मंत्रियों में स्वतंत्र रूप से और तीव्र गति से कोई कार्य कर रहा है तो वे हैं नितिन गडकरी। कोई मीडिया हाउस सड़कों पर जाकर, राज्यवार मूल्यांकन नहीं करता कि किस राज्य में कौन सी सड़क परियोजना पास होने के कितने दिनों के अंदर लागू होने लगी  है। गडकरी के मंत्रालय में ज़मीन पर कार्यों की प्रगति क्या है। अगर अच्छा हो रहा है तो बिल्कुल बताया जाना चाहिए। इससे गडकरी की छवि और निखरेगी। ऐसा करने में बुराई क्या है। अगर गडकरी ठीक नहीं कर रहे हैं तो उन जगहों पर जाकर दिखाइये कि जो बोला जा रहा है और जो हो रहा है उसमें क्या अंतर है।
सरकार तो अपनी तरफ़ से एकतरफा संवाद करेगी ही. उस संवाद में विविधता लाने का कार्य विपक्ष और मीडिया का है। विपक्ष की भूमिका में एक किस्म का तदर्थवाद दिखता है। अब इसके लिए तो मोदी ज़िम्मेदार नहीं हैं। दरअसल विपक्ष अभी भी मौकापरस्ती के खेल में लगा हुआ है। उन्हें एक फर्क बता देता हूं। भले बीजेपी बिहार और दिल्ली हार गई लेकिन बीजेपी एक मेहनती पार्टी है। वो लगातार जगह बनाने का प्रयास कर रही है। सोशल मीडिया से लेकर अलग अलग ज़िलों में उसके सांसद, प्रवक्ता, कार्यकर्ता जूझ रहे हैं। प्रधानमंत्री सांसदों को फटकार रहे हैं कि आपके पास कौन कौन सा एप है। सोशल मीडिया पर आपकी सक्रियता क्या है। अपने क्षेत्र में क्यों नहीं रहते हैं। क्या प्रधानमंत्री ने विपक्ष को ऐसा करने से मना कर दिया है।
बीजेपी के जो सांसद प्रधानमंत्री की बात नहीं सुन रहे हैं उन्हें  गुजरात में उनका पुराना रिकार्ड देखना चाहिए।  गुजरात में मोदी हर चुनाव के वक्त बड़ी संख्या में विधायकों के टिकट काट देते थे। अभी जितने भी सांसद हैं उन्हें इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि अगले चुनाव में हो सकता है पार्टी का टिकट न मिले। इकोनोमिक टाइम ने बकायदा कई मंत्रियों को दस में से छह से लेकर सात नंबर दिये हैं कि वे सोशल मीडिया पर कितना सक्रिय हैं। ऐसा लगता है कि यह सरकार सोशल मीडिया के द्वारा चुनी गई है और उसके प्रति ज़िम्मेदार है। पर आप इस तरह से भी देखिये। संवाद के मामले में मोदी ने अपने सहयोगियों को कितना बदल दिया है। जिन्हें लगता है कि सिर्फ मोदी मोदी है उन्हें यह भी देखना चाहिए कि मोदी इन मंत्रियों को ट्वीट करने की कितनी आज़ादी दे रहे हैं!
फिर भी सरकार की उपलब्धि इतनी ही शानदार होती तो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को उज्जैन कुंभ में दलित संतों के साथ समरसता स्नान क्यों करनी पड़ी। यूपी के चुनाव में अमित शाह ने 71 सीटें पार्टी को दिला थी। मायावती की पार्टी को ज़ीरो पर पहुंचा दिया था और समाजवादी और कांग्रेस पार्टी को परिवार तक सीमित कर दिया था। क्या अमित शाह ने इलाहाबाद कुंभ में कोई कोई समरसता स्नान किया था? लोकसभा चुनाव के पहले इलाहाबाद में भी तो कुंभ लगा था। आखिर क्या वजह है कि बीजेपी इन प्रतीकों का सहारा ले रही है। यूपी में बोद्ध यात्रा निकाली जा रही है। बुद्ध की सबसे ऊंची प्रतिमा का वादा किया जा रहा है। अगर कार्यों को लेकर कोई यात्रा निकलती तो क्या जनता स्वागत नहीं करेगी?काम के लिए ही तो जनता ने इतने खुले दिल से प्रधानमंत्री मोदी को चुना था।
सरकार भी समझ रही है। समय तेज़ी से बदल रहा है। उसने संवाद का तरीका बदला है तो मीडिया में भी समीक्षा का तरीका बदलने लगा है। इकोनोमिक टाइम्स ने एक डेटा कंपनी से करार किया है। इस कंपनी ने पंद्रह हज़ार लोगों की बातचीत को ट्रैक किया है। उसके आधार पर विश्लेषण निकाला है कि सोशल मीडिया पर बात कर रहे इन लोगों के बीच सरकार की छवि बदली है या नहीं। राजनीतिक बदलाव को समझने के पुराने पैमाने के भरोसे नहीं रहा जाता। यह और बात है कि  दिल्ली और बिहार चुनाव के वक्त मीडिया और सोशल मीडिया में बीजेपी की ही चर्चा होती रही मगर उसे जीत नहीं मिली। आपको देखना चाहिए कि कैसे हमारी राजनीति ‘बिग डेटा’ के विश्लेषण पर आश्रित होती जा रही है।
इकोनोमिक टाइम्स को दिये इंटरव्यू में  केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने गंगा सफाई योजना को लेकर व्यावहारिक टारगेट दिया है। एक दो साल बाद या अभी ही आप मौके पर जाकर चेक कर सकते हैं। उन्होंने कहा है कि गंगा किनारे 500 श्मशानों का पुनरोद्धार किया जा रहा है। अगर ऐसा हो रहा है तो किसी मीडिया संस्थान को जाकर दिखाना चाहिए कि वहां क्या हो रहा है। कब तक हम और आप सिर्फ अच्छे या बुरे की धारणा के सहारे जीते रहेंगे। इससे सिर्फ एक भ्रमित मतदाता ही बनकर रह जाएंगे। विरोधी या समर्थक दोनों के लिए यह अच्छा नहीं है। भ्रमित विरोधी न बनें और भ्रमित समर्थक न बनें।
अख़बार ने पीयूष गोयल को ऊर्जावान मंत्री कहा है। मंत्री ने कहा है कि दो साल में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि हम कर सकते हैं। सोच बदल गई है। अख़बार पीयूष गोयल को लेकर उत्साहित नहीं दिखता है। हालांकि पीयूष गोयल जिस तरह से रोज़ ट्विट करते हैं कि आज इस राज्य में इतने गांवों में बिजली पहुंचा दी है मुझे यह तरीका पसंद आया है। आप जाकर चेक कर सकते हैं कि ऐसा हुआ है या नहीं। अब कोई नहीं जाएगा तो इसमें पीयूष गोयल की ग़लती नहीं है।
मैंने हाल ही एक किताब पढ़ी है। Achieving universal energy access in India by P C MAITHANI, DEEPAK GUPTA ने लिखी है और इसे सेज प्रकाशन ने छापा है। इसके पेज नंबर 52 पर लिखा है कि भारत सरकार ने 2005 में  भारत निर्माण के तहत लक्ष्य तय किया था कि मार्च 2012 तक एक लाख गांवों में बिजली पहुंचाई जाएगी और पौने दो करोड़ बीपीएल परिवारों के घरों में कनेक्शन दिया जाएगा। तब उस योजना का नाम राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना था। मैथानी साहब लिखते हैं कि सेंट्रल इलेक्ट्रीसिटी एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक भारत के 593,732 गांवों में से 556,633 गांवों को बिजली से जोड़ा जा चुका था।
अब देखना होगा कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना कब ख़त्म हुई। मैथानी साहब NEW AND RENEWABLE ENERGY मंत्रालय में निदेशक हैं और यह किताब 2015 में छपी है तब भी वे निदेशक थे। क्या पता आ ज भी निदेशक हों। मोदी सरकार के एक साल बाद एक मंत्रालय के निदेशक की किताब में यह लिखा गया है कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के खत्म होने पर 593,732 गांवों में से 556,633 गांवों को बिजली से जोड़ा जा चुका था। तो बाकी बचे 37,069 गांव जिसे बिजली से जोड़ा जाना था। अब यूपीए ने तो अपनी उपलब्धि गिनाई नहीं तो इसमें पीयूष गोयल का दोष नहीं है। इसी किताब के एक टेबल के अनुसार 31 जनवरी 2014 तक आंध्रप्रदेश, गोवा, हरियाणा, दिल्ली, केरल, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडू, में के शत प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच गई थी। गुजरात का आंकड़ा 99.8 प्रतिशत है। पश्चिम बंगाल का 99.9 प्रतिशत। बिहार का 97, मध्यप्रदेश का 97.7 और छत्तीसगढ़ का 97.4 फीसदी गांवों में बिजली पहुंचाई जा चुकी थी. 31 जनवरी 2014 तक देश का कोई भी राज्य नहीं हैं जहां 85 प्रतिशत से कम गांवों का बिजलीकरण हुआ हो। उत्तर प्रदेश का आंकड़ा था 88.9 प्रतिशत।
अगर आई ए एस अफसर मैथानी की किताब के आंकड़ें सही हैं तो फिर देखिये कि किस तरह पीयूष गोयल साहब बता रहे हैं कि कितनी मेहतन से वे 7,108 गांवों में बिजली पहुंचाई है। 97 से 100 फीसदी की उपलब्धि हासिल करने वाले हम केंद्र से लेकर राज्यों के बिजली मंत्री का नाम भी नहीं जानते होंगे। इकोनोमिक टाइम्स में ही टी के अरुण ने मंत्रियों के कार्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि आज भी 30 फीसदी बिजली चोरी हो रही है। बिजली उत्पादन की क्षमता 2,80,000 मेगावाट है। इसे इंस्टाल्ड कैपेसिटी कहते हैं। मगर मांग के उच्चतम स्तर पर बिजली का उत्पादन है 1,50,000 मेगावाट। यानी की हम बिजली का उत्पादन करने के लिए तैयार हैं फिर भी 1, 30,000 मेगावाट बिजली कम पैदा कर रहे हैं। इसका क्या मतलब है टी के अरुण ने नहीं लिखा है। क्या इसका मतलब है बिजली की खपत के लिए पर्याप्त मात्रा में औद्योगिक खपत नहीं है, या लोगों में बिजली ख़रीदने की क्षमता नहीं है।
मोदी सरकार ने संवाद का तरीका बदल दिया है लेकिन सरकार को देखने का नज़रिया नहीं बदला है। इतने आंकड़ें सरकार खुद ही दे रही है जिसे मीडिया जांच सकता है। मगर हकीकत यह है कि ज़्यादातर पत्रकार भी आर्थिक मुद्दों को समझने में सक्षम नहीं हैं। मैं ख़ुद इस कमज़ोरी से जूझता रहता हूं। आर्थिक मसले पल्ले ही नहीं पड़ते। मीडिया को पूछना चाहिए कि क्या हम आज के दौर में सरकारों के कार्य का सही मूल्यांकन करने में सक्षम हैं? हिन्दी में तो घोर कमी दिखती है और अंग्रेज़ी में दो चार पत्रकारों को छोड़ दें तो वहां भी यही हालत है। विपक्ष की हालत तो आप जानते ही हैं। धारणा ही तथ्य है। तथ्य का कोई परीक्षण नहीं हैं। तो मान लेने में हर्ज़ क्या है कि सरकार ने अच्छा काम किया। सत्य तो तभी विवादित होगा जब दूसरा तथ्य होगा। क्या किसी के पास दूसरा तथ्य है?

स्वस्थ लोकतंत्र मे मजबूत विपक्ष होना चाहिए. अगर कांग्रेस सत्ता मे होती और उसके समक्ष भी विपक्ष कमजोर होता, तब भी हमारी चिंता यही होती. हम ये चाहते हैं कि विपक्ष उभरे, वो भी सकारात्मक.

खोजी पत्रकारिता की चुनौतियाँ…

खोजी पत्रकारिता की चुनौतियाँ…
दूर के ढोल सुहावने होने ‘की कहावत खोजी पत्रकारिता पर सोलहों आने लागू होती है. यदि आप सत्ताधीशों से मेलजोल रखना चाहते हैं, “पेज थ्री” पार्टियों में आमंत्रित होना चाहते हैं, तबादलों, नियुक्तियों, सरकारी ठेकों और लाइजनिंग के ज़रिये अथाह धन अर्जित करना चाहते हैं, सरकारी सम्मान पाना चाहते हैं तो मुआफ करें, आपका जन्म खोजी पत्रकारिता के लिए नहीं हुआ है. यह तो ऐसा कार्य है जिसके हो जाने के बाद आपको कोई धन्यवाद भी नहीं देगा. हाँ, यदि आपके पास पुख्ता जानकारियां नहीं हैं तो आप मानहानि के मुकद्दमें में भी फंस सकते हैं. यही नहीं जान पर भी बन सकती है, आपके खिलाफ पुलिस में झूठे मामले भी बनाये जा सकते हैं या फिर दबंगई का भी शिकार होना पड़ सकता है, यहाँ तक कि ताकतवर जमातें आपके विरोध में लामबंद हो सकती है.
खोजी पत्रकारिता आपको अपने लिखे से मानसिक संतुष्टि तो देती है साथ ही साथ आपको शक्तिशाली लोगों और समूहों की नाराज़गी का पात्र भी बना देती है. धमकियाँ भी मिलती हैं, परोक्ष-अपरोक्ष हमले भी होते हैं. इसका मतलब यह भी नहीं कि इस नाराज़गी के भय से खोजी पत्रकारिता से परे रहा जाये. हाँ, किसी भी मामले की पड़ताल करते समय कई सावधानियां बरतने की जरूरत होती है. खास तौर पर यह भी देखा जाना चाहिए कि मामला जनहित का हो. कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके सूत्र आपका इस्तेमाल कर रहे हों. क्योंकि एक पक्ष का नुकसान होने पर किसी दूसरे पक्ष को फायदा भी पहुंचता है. यदि वह फायदा जायज़ है तो कोई दिक्कत नहीं मगर नाजायज़ है तो आप सांपनाथ को होने वाला फायदा नागनाथ को दिलवा कर समाज का कोई भला नहीं करते. बस थोड़ी सी सनसनी भर फैला कर एक का रायता बिखेर देते हैं और दूसरे को थाली परोस देते हैं.
हर खोज़ी पत्रकार को दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियाँ सदा अपने ज़ेहन में रखनी चाहिए कि
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.”
यह तभी हो सकता है कि खोजी पत्रकार स्वयं की नज़रों में खुद को नैतिक रूप से मज़बूत पाता हो, यहीं से आत्मविश्वास पनपता है. आपमें तथ्यों का पोस्टमार्टम करने की उत्सुकता का होना खोजी पत्रकारिता का सबसे जरूरी तत्व है. उत्सुकता आपको मामले की तह तक पहुँचाने में महती भूमिका निभाती है.
चूँकि खोजी पत्रकारिता के साथ कई तरह के खतरे जुड़े होते हैं और कानूनी तौर पर भी अपने आपको मज़बूत बनाये रखने के लिए आपको हर छोटे से छोटे तथ्य की तह तक जाकर बारीकी से पड़ताल करनी होती है ताकि रिपोर्ट में किसी तरह की गलती न रहे, कोई भी लूप होल रह जाने पर काफी मेहनत से तैयार की गई रिपोर्ट अविश्वसनीय ठहराई सकती है और आपकी रिपोर्ट का निशाना बन रहे ताकतवर लोग आपको झूठा साबित कर सकते हैं.
कई बार हम अपने अनुसन्धान या पड़ताल के दौरान खुद को एक गहरी और अँधेरी गुफा में पाते हैं जहाँ से आगे बढ़ने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता. आगे बढ़ने का कोई सूत्र नहीं. ऐसे में हार नहीं मान लेनी चाहिए. अपनी रिसर्च एक बार फिर नए सिरे से शुरू करनी चाहिए और उन सारे कोणों से मामले को देखा जाना चाहिए जो पिछली बार अनदेखे रह गए.
कई बार हमें अपनी पड़ताल के दौरान कुछ अन्य लोगों की सहायता लेनी पड़ती है मगर रिपोर्ट की गोपनीयता को बनाये रखना भी बहुत जरूरी है. गोपनीयता के प्रति हमेशा सावचेत रहें मगर यह भी ध्यान रहे कि आपकी इस पड़ताल की सहायता करने वाली टीम को आपका आशय अच्छी तरह समझ में आये ताकि आपको बिलकुल सही सूचना मिल सके.
किसी भी खोजी रिपोर्ट पर काम करने से पहले उस विषय में अच्छी तरह से जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए ताकि किसी से सवाल करते समय उसके जवाबों में उलझे बिना सत्य की तह तक पहुच सकें. यह जानकारी इन्टरनेट के जरिये भी आसानी से हासिल की जा सकती है तो किताबों से भी या फिर किसी विषय विशेषज्ञ से भी दक्षता हासिल की जा सकती है.
आपके जितने ज्यादा विश्वसनीय सम्पर्क होंगे आपकी रिपोर्ट उतनी ही बेहतर बनेगी, जोकि कई अलग अलग जगहों से जांची हुई होगी.
एक अच्छा खोजी पत्रकार वही होता है जो अपने विषय से सम्बंधित पक्ष की सुरक्षा का पूरा ध्यान रख सके, अपने सम्पर्क सूत्रों की गोपनीयता बरक़रार रख सके. साथ ही खुद को भी नैतिकता के दायरे में बाँध कर रख सके. न कि किसी लालच के वशीभूत हो.
किसी भी विषय पर पड़ताल करने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि जिस विषय को आप उठाने जा रहे हैं वह जनहित से जुड़ा हो ना कि किसी संस्था, राजनैतिक दल, कॉर्पोरेट या व्यक्ति विशेष के हित से.
दस्तावेजी सबूतों के रूप में हमेशा फोटो कॉपी मिलती है, असल दस्तावेज देखने को नहीं मिलते. अब फोटो कॉपी मेन्युप्लेट नहीं हुई, इसकी क्या गारंटी? बेहतर होगा इन सबूतों के अलावा भी सबूत जमा करें. यह लोगों के मौखिक बयान भी हो सकते हैं. ऐसे किसी भी बयान की विडियो रिकॉर्डिंग जरूर करें, वह भी बयान देने वाले की जानकारी में लाकर. वीडियो रिकॉर्ड ना कर सकें तो ऑडियो रिकॉर्डिंग जरूर करें. बिना रिकॉर्डिंग बयान बदल भी सकते हैं. रिकॉर्डिंग करते समय बयान देने वाले को बता दें कि आप अपनी सहूलियत के लिए इस बातचीत को रिकॉर्ड कर रहे हैं ताकि वक्त जरूरत काम आ सके. इसी सूरत में आपकी रिकॉर्डिंग कानूनी तौर पर वैध होगी. निजता के अधिकार का सम्मान करें. रिकॉर्डिंग के लिए अच्छी गुणवत्ता के मोबाइल फोन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है पर उच्च गुणवत्ता की रिकॉर्डिंग महंगे फोन से ही हो सकती है.
सबूत जमा करने की प्रक्रिया में जब एक से अधिक व्यक्तियों के बयान लिए जाएँ तो जाँच लें कि बयान विरोधाभासी ना हों. विरोधाभासी बयान रिपोर्ट की सत्यता पर सवालिया निशान लगा देंगें.
आरोपों की पुष्टि के लिए विभिन्न स्रोत्रों का इस्तेमाल करें. कभी भी एक सूत्र के हवाले से रिपोर्ट तैयार ना करें. यदि आपने एक सूत्र पर विश्वास कर रिपोर्ट बना दी तो वह खोजी रिपोर्ट नहीं गॉसिप होगी.
अपनी रिपोर्ट में कभी भी अजीबो गरीब शब्दों का प्रयोग न करें. “कुछ समय बाद” और “एक बड़ी राशि” या “किसी इलाके में” जैसे जुमलों के साथ पूरे किये गए वाक्य रिपोर्ट को अधकचरी जानकारी का तमगा दिलवा देंगें. तथ्यों को पुख्ता करने वाले तथ्य एक के बाद एक सामने रखते जाएँ.
रिपोर्ट लिखते समय अपने शब्दों को अपने नियंत्रण में रखें. आरोपी के लिए कभी अपनी रिपोर्ट में “अपराधी” या अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल न करें. निष्कर्ष निकालने का काम पाठकों या दर्शकों पर छोड़ दें. यदि आपकी रिपोर्ट में दम है तो बाकि का काम आपके पाठक और दर्शक कर देंगें.
आरोपी से उसका पक्ष जानना बहुत जरूरी है. यदि आरोपी अपना पक्ष ना रखना चाहे तो आप किसी भी तरह उसका पक्ष जानें और अपनी रिपोर्ट में शामिल करें.
रिपोर्ट सार्वजनिक करने से पहले एक बार फिर से अपनी रिपोर्ट गौर से पढ़ें और देखें कि आपकी रिपोर्ट में कहीं पर भी ऐसा संकेत ना हो जिससे आपके सूत्रों का पता चलता हो, आपके सूत्रों की पहचान उजागर हो सकती हो. क्योंकि आरोपी सबसे पहले यही सोचेगा कि इस पत्रकार को यह बात कौन कौन बता सकता है. यदि ऐसा है तो उसे तुरंत दुरुस्त करें.
जब तक आपके पास आरोप प्रमाणित करने वाले पक्के सबूत न हों कभी भी रिपोर्ट न लिखें. अपनी रिपोर्ट प्रसारित या प्रकाशित करने से पहले इसे अपने विश्वस्त वकील को दिखवा लेने से आप कानूनी पचड़ों से बच सकते हैं.
यदि आपको लगता है कि आरोप तो सही हैं मगर सबूत नहीं हैं तब स्टिंग ऑपरेशन का सहारा लिया जा सकता है. स्टिंग ऑपरेशन करते समय आपको अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ेगी.


रैगर समाज का विवाह सम्मलेन



सवाईमाधोपुर में रैगर समाज के सामूहिक विवाह सम्मेलन में 21 जोड़े बने हमसफर
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सवाईमाधोपुर । अखिल भारतीय रैगर महासभा पंजी के जिला इकाई एव सामूहिक विवाह सम्मेलन समिति के तत्वाधान में समाज के 21 जोड़ो ने एक दूजे का हाथ थामा । समारोह के मुख्य अतिथि रामसहाय वर्मा राष्टीय महासचिव अखिल भारतीय रैगर महासभा पंजी , समारोह की अध्यक्षता महासभा के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष डॉ एस के मोहनपुरिया , विशिष्ट अतिथि राष्टीय प्रचार प्रसार सचिव मुकेश कुमार गाड़ेगावलिया पत्रकार , राष्टीय कार्यकारणी सदस्य किशन लाल जलुथरिया , महासभा के प्रदेश युवा प्रकोष्ट अध्यक्ष भानु खोरवाल , बूंदी जिला अध्यक्ष हरिप्रसाद कांवरिया हीरालाल चोकडायत मौजूद थे। समाज के सैकड़ो समाज के नर और नारियो ने एकता का परिचय दिया। समारोह के अतिथियों ने नवदम्पति जोड़ो को आशीर्वाद दिया साथ ही विवाह प्रमाण पत्र दिया गया ।
समारोह के मुख्य अतिथि रामसहाय वर्मा ने समाज की एकता कायम करने के लिए गांव गांव के लोग एकजुट हो जावे तभी हमारा समाज विकाश होगा । समाज के लोग राजनीती में अपनी पेठ जमाये अपनी जगह बनाये तभी हम आगामी विधान सभा चुनावों में समाज के अधिक से अधिक टिकट मिले । महासभा के द्वारा किये गए कार्यो की जानकारी दी । समाज के अलग संस्थाये बनी हुई है वो महासभा में विलय करे ।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए डॉ एस के मोहनपुरिया प्रदेश अध्यक्ष अखिल भारतीय रैगर महासभा ने अपने सम्बोधन में कहा की फिजूल खर्ची को खत्म करो मृत्यु भोज को बन्द करना होगा । मृत्यु भोज में मिठाई बन्द करो
जिस घर में परिवारजन चला जाता है उसका शोक मानते है वही बारवे में मिठाई बना कर अपनी मुखता का परिचय देते महासभा ने इस पर प्रतिबन्द लगा रखा है । जिसमे समाज ने इसे लागु कर दिया है
समारोह में विशिष्ट अतिथि मुकेश कुमार गाड़ेगावलिया राष्टीय प्रचार प्रसार सचिव अखिल भारतीय रैगर महासभा पंजी ने अपने उद्बोधन में कहा की रैगर महासभा राष्टीय अध्यक्ष श्री भंवर लाल खटनावलिया पूर्व आई ए एस के नेतृत्व में गांव गांव ढाणी ढाणी में महासभा का परचम लहराया है आज समाज की एकता की अग्रसर है
समारोह में मुकेश कुमार गाड़ेगावलिया पत्रकार ने कहा की जहाँ जहाँ रैगर समाज पर दूसरे कौम के लोग अत्याचार किया वही राष्टीय अध्यक्ष ने गम्भीरता से लेकर पीड़ित रैगर बन्धु को न्याय दिलवाकर आरोपियों को गिरप्तार करवाये है राजस्थान के कोने कोने से पीड़ित रैगर महासभा कार्यालय में आते है । ऐसा समाज की पूर्व कार्यकारणी और कोई संस्था नही करती है
समारोह में महासभा के युवा प्रकोष्ट के प्रदेश अध्यक्ष भानु खोरवाल ने विशिस्ट अतिथि पद से बोलते हुए कहा की युवा समाज की तकदीर पलट देगा । राष्टीय अध्यक्ष जी के सपने को साकार किया जायेगा ।आगामी वर्ष 2017-18 में महासम्मेलन किया जायेगा । जो 1984 के सम्मेलन को बुला देगा । इस बार दो सांसद और 10 विधायक बनाने का प्रयास किया जायेगा । समारोह में प्रदेश प्रचार सचिव बिहारी लाल मानोलिया ने अपने सम्बोधन में समाज की कुरूतियों को खत्म करने और समाज में एकता कायम करने की बात कही ।
हर तरफ एतराज होता है,
मैं अगर रौशनी में आता हूं।
पूरा जो आदमी हो वो आखिर नहीं मिला।
धड़ मिल गया अगर तो यहां सर नहीं मिला।
रिश्ते हैं आंच के या कि बुत हैं ये कांच के,
ये साबुत हैं चूंकि संग या काफिर नहीं मिला।
यारों की दोस्ती का यहां जिक्र क्या करें,
उनसे गले मिले तो गला फिर नहीं मिला।
हर हमसफर पर आज बस मंजिल का जुनूं है,
हर डग का मजा ले वो मुसाफिर नहीं मिला।
ये बदली हुई फिजा, ये बदली हुई हवा
मेरी छत से गुजर गई
ये हसरत लिए हुए कि मैं बाहर नहीं मिला।