RTE के अंतर्गत
पहली से लेकर आठवीं तक के किसी भी विद्यार्थी को फेल नहीं करना , उसका नाम नहीं काटना । पत्र-पत्रिकाओं में यह सूचना इतने जोर-शोर से बताई
गई कि बच्चा- बच्चा इससे परिचित है । इसके अतिरिक्त अध्यापक को बच्चों को डांटने
तक का अधिकार नहीं है , यह बात भी आज के बच्चे जानते हैं ।
इन सब बातों के परिणाम भविष्य में हम सबके सामने होंगे, लेकिन
फिलहाल जो माहौल बन रहा है उसकी बानगी इन दो बातों से हो सकती है। ये दोनों बातें
मेरे दोस्तों के साथ घटी और शत-प्रतिशत सही हैं ।
पहली घटना एक
वरिष्ठ माध्मिक स्कूल की है, यहाँ इन दिनों नौवीं और
ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा चल रही है । छटी से आठवीं तक के बच्चे कम आ रहे थे तो
अध्यापक ने आए हुए बच्चों से पूछा कि बाकी क्यों नहीं आ रहे । जवाब मिला बड़ी
कक्षाओं की परीक्षाएं चल रही हैं , इसलिए वे कहते हैं कि हम
नहीं जाएँगे । अध्यापक कहता है इससे क्या होता है तुम्हारी तो पढ़ाई हो ही रही है
। तभी दूसरा बच्चा बोलता है कि हमारे कौन-से पेपर होने हैं ।
दूसरी घटना एक उच्च विद्यालय की है । बच्चे मन लगाकर
पढ़ें, इस उद्देश्य से अध्यापक कहता है कि बच्चो पढ़ा करो ,
तुम्हारी भी परीक्षा होगी । आगे से एक बच्चा जवाब देता है कि सर मैं
तो पेपर खाली छोड़कर आऊंगा और फिर भी देखना पास हो जाऊंगा ।
ये दो उदाहरण
वस्तुस्थिति से अवगत करा रहे हैं । मुझे याद है DPEP के अंतर्गत खेल-खेल में शिक्षा के उद्देश्य से नया पाठ्यक्रम लागू किया
गया था । उसमें एक ही पुस्तक में सभी विषय होते थे । बच्चे को वर्णमाला नहीं
सिखानी होती थी अपितु कहानी कविता से उन्हें भाषा सीखने देना था , वह योजना बुरी तरह से फेल हुई और पुराने पाठ्यक्रम की तरफ लौटना पड़ा
लेकिन वह प्रणाली एक बैच का भविष्य अंधकारमय कर गई क्योंकि उस पाठ्क्रम से पांचवी
पास करने वालों में से अधिकाँश को हिंदी पढनी नहीं आती थी ।अब शिक्षा में जो
प्रयोग चल रहे हैं , डर है कहीं वह भी बच्चों के भविष्य को
अंधकारमय न बना दें ।
यह तो नहीं कहा
जा सकता कि नीति बनाने वाले गलत नीति बनाते हैं लेकिन इतना सच है कि धरातल से
नीतियों का जुड़ाव अमूमन कम ही होता है । प्राइवेट संस्थाओं में जागरूक परिवारों
के बच्चे होते है जबकि सरकारी स्कूल में अशिक्षित मां-बाप की सन्तान होती है ।
मां-बाप की शिक्षा के प्रति कोई रूचि नहीं । स्कूल समय के बाद वे उनसे काम करवाते
हैं , कुछ तो कई-कई दिन स्कूल न भेज कर अपने साथ काम करवाते
हैं । बच्चे तो होते ही नासमझ हैं , उनसे तो उम्मीद ही क्या
की जा सकती है । ऐसे में नाम का कट जाना और फेल हो जाना ही दो ऐसे डर थे जो बच्चे
को स्कूल लेकर आते थे और पढने के लिए प्रेरित करते थे अब वो दोनों डर समाप्त हो
चुके हैं तो शिक्षा का कितना भला होगा , यह आप खुद ही सोच
सकते हैं।
RTE को गलत नहीं
कहा जा सकता है । सब तक शिक्षा को पहुँचाना सरकार का दायित्व है लेकिन इसके लिए
अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए थी । जो बच्चे स्कूल छोड़ गए, किसी कक्षा में फेल हो गए या फिर जिन्होनें स्कूल में दाखिला ही नहीं लिया
उन्हें आधारभूत ज्ञान देने के लिए हर गाँव-कस्बे -शहर में संख्या के आधार पर
अध्यापक की व्यवस्था करके ब्रिज कोर्स करवाना चाहिए था । स्कूल में न आने पर नाम
काटने , पेपर न करने या अच्छा न करने पर फेल करने की
व्यवस्था बरकरार रखी जानी चाहिए थी । ब्रिज कोर्स वाले बच्चों की प्रवेश परीक्षा
के बाद नियमित स्कूल में भर्ती हो सकने के प्रावधान से उन बच्चों को शिक्षा की
मुख्धारा में लौटने के अवसर रहते , लेकिन वर्तमान नीति ने
सभी बच्चों को एक डंडे से हांक लिया जिसका नुक्सान ग्रामीण आंचल और अशिक्षित
परिवारों के उन बच्चों को अवश्य होगा जो नाम के कट जाना और फेल हो जाने के थोड़े
डर से बहुत आगे निकल सकते थे ।
* * * * *
आज समाज में शिक्षा का जो हाल है वो किसी
से छुपा नही है।
सरकार हम विद्यार्थियों को 33%अंक पाने पर पास कर तो देती है ,परन्तु इसी समाज में नौकरी पाने के लिए 85+% अंको का होना अति आवश्यक है।
अतः बीच वाले विधार्थी कहाँ जाएँ?
अधिकारियों को समझाना होगा क़ि वो हाईस्कूल
या इंटरमीडिएट के अंको के आधार पर हमे नौकरी नही दे रहे है।
यदि ऐसा है तो नौकरी हेतु परीक्षा की क्या
आवश्यकता है?
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