भूपेन सिंह
प्रणय रॉय,
राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, अरुण पुरी,
रजत शर्मा, राघव बहल, चंदन मित्रा,
एमजे अकबर, अवीक सरकार, एन राम, जहांगीर पोचा और राजीव शुक्ला का परिचय क्या है?
ये पत्रकार हैं या व्यवसायी? बहुत सारे लोगों को ये सवाल बेमानी लग सकता है।
लेकिन भारतीय मीडिया में नैतिकता का संकट जहां पहुंचा है, उसकी पड़ताल के लिए इन सवालों का जवाब तलाशना बहुत जरूरी हो
गया है। इस लिहाज से पत्रकारीय मूल्यों और धंधे के बीच के अंतर्विरोधों का जिक्र
करना भी जरूरी है।
जो लोग न्यूज
मीडिया को वॉच डॉग, समाज का प्रहरी
या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जैसा कुछ मानते हैं, वे अपेक्षा करते हैं कि मीडिया सामाजिक सरोकारों से जुड़ा
काम करेगा। वे नहीं मानते कि खबर सिर्फ एक उत्पाद है, जिसका धंधा किया जाना है। टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप उन्नीस सौ
नब्बे के दशक में समीर जैन के प्रभाव में आने के बाद से ही इस बात को सामाजिक
स्वीकृति दिलाने के प्रोपेगैंडा में जुटा है कि खबरें बिक्री की वस्तु के अलावा और
कुछ नही हैं। इसलिए इस अखबार में संपादक की बजाय ब्रैंड मैनेजर हावी होते जा रहे
हैं, जो तय करते हैं कि अखबार
में वहीं खबर छपेगी, जो उनकी नजर में
बिकाऊ हो।
एक पत्रकार से हम
लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में खड़ा होने की अपेक्षा करते हैं। पत्रकार का
धंधेबाज बन जाना इस पेशे की नैतिकता पर सवाल खड़ा करता है। व्यवसायी हमेशा पूंजी
और मुनाफे की दौड़ में शामिल होता है। पत्रकार अगर व्यवसायी बनेगा तो निश्चित तौर
पर व्यवसायी और पत्रकार के हित आपस में टकराएंगे। पत्रकारीय हितों को मुनाफे के
हित बाधित करेंगे। यहां पर पत्रकारिता का इस्तेमाल मुनाफा कमाने के लिए होने लगेगा,
इस बात में कोई शक नहीं।
पेड न्यूज और
नीरा राडिया परिघटना के सामने आने के बाद ये बात साबित हो गयी है कि हमारे यहां पत्रकारिता,
धंधेबाजी का पर्याय बनती जा रही है। इस संकट का
मूल कारण जहां मीडिया का धंधेबाज बनना है, वहीं धंधेबाज मीडिया ने कई पत्रकारों को भी दलालों में बदल दिया है। ऐसी
मीडिया कंपनियों में उच्च पदों पर काम करने वाले पत्रकारों को बड़ी-बड़ी अश्लील
तनख्वाहों के साथ कंपनी के शेयर का एक हिस्सा भी दिया जाता है। जाहिर है कि ऐसा
करके उसे कंपनी को मुनाफे में लाने के लिए पत्रकारिता करने का
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव बनाया जाता है। पत्रकारिता और धंधे के बीच की लाइन के
धुंधला होने से वामपंथी रुझान के माने जाने वाले कई तीसमार खां पत्रकार भी इस खेल
में शामिल होकर धन्य हो रहे हैं। अब ये सवाल उठाने का वक्त आ गया है कि कुछ साल
पहले तक के सामान्य पत्रकार आखिर करोड़पति-अरबपति कैसे बने हैं। नेताओं से संपत्ति
की घोषणा करने और उसके स्रोत बताने की मांग करने वालों को अब ऐसे लोगों से भी सवाल
पूछना पड़ेगा कि वे अपनी संपत्ति का ब्योरा दें।
आज अगर मीडिया के
पतन की गाथा को समझना है तो उसके लिए इसके ऑनरशिप पैटर्न यानी मालिकाने की असलियत
को समझना जरूरी होगा। अब ये बात किसी से छिपी नहीं है कि किसी भी मीडिया हाउस से
कैसी खबरें बाहर निकलेंगी, उसके लिए सबसे
ज्यादा प्रभावी उसका मालिक ही होता है। वहां काम करने वाले पत्रकार अगर मालिक की
मंशा के खिलाफ एक भी खबर सामने लाएंगे, तो अगले पल ही उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। आर्थिक उदारीकरण के दौर में
शातिर लोग जानते हैं कि सीधे दलाली करने में कई मुश्किलें आ सकती हैं। इसलिए अगर
कोई भी धंधा चमकाना है, तो मीडिया के
मालिकाने में अपना हिस्सा रखना जरूरी है। अंबानी बंधुओं ने कई मीडिया घरानों में
ऐसे ही अपना पैसा नहीं लगाया है!
अब असली बात पर
अगर आएं, तो प्रणय रॉय अगर
एनडीटीवी के मालिक हैं तो क्या एक पत्रकार के तौर पर उनके आर्थिक हित मालिक प्रणय
रॉय से नहीं टकराते। यही बात सीएनएन-आईबीएन के मालिक राजदीप सरदेसाई, एनडीटीवी के मालिकाने में हिस्सेदार बरखा दत्त,
टीवी 18 के मालिक राघव बहल, इंडिया टीवी के
मालिक रजत शर्मा, पायनियर के मालिक
चंदन मित्रा, न्यूज 24 के मालिक राजीव शुक्ला, द संडे गार्डियन के मालिक एमजे अकबर, आनंद बाजार पत्रिका, टेलीग्राफ और स्टार न्यूज के मालिक अवीक सरकार, द हिंदू के मालिक एन राम और इंडिया टुडे ग्रुप
के मालिक अरुण पुरी के संदर्भ में भी पूछी जानी चाहिए। (इस मामले में अवीक सरकार
और एन राम अपवाद हैं, आनंद बाजार
पत्रिका समहू और द हिंदू समूह जिनको पारिवारिक विरासत में मिला, लेकिन सवाल यहां भी जस का तस है कि कोई एक ही
व्यक्ति पत्रकार और मालिक क्यों रहे?)। इन लोगों ने पत्रकारिता से मालिक बनने का सफर क्यों और कैसे तय किया है,
इस पूरे गोरखधंधे से अगर पर्दा हट जाए तो
राडिया कांड से मिलता-जुलता एक और कांड सामने आ सकता है। मालिक-पत्रकारों की
श्रेणी में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला नाम है न्यूज एक्स के मालिक जहांगीर पोचा का।
कभी लंदन में पोचा की गहरी मित्र रही नीरा राडिया ही उसके कर्मचारियों की तनख्वाह
दिया करती थी। राडिया और पोचा के बीच बातचीत के टेप सामने आने के बाद ये बात जाहिर
हो चुकी है। इस बात का भी पता चल चुका है कि बिजनेस वर्ल्ड का संपादक रहने के
दौरान पोचा ने राडिया के क्लाइंट रतन टाटा की तारीफ में कई खबरें प्रकाशित की थीं।
अब तक कई ऐसी
बातें सामने आ भी चुकी हैं। जो पत्रकार से मीडिया मुगल बने ऐसे लोगों के भयानक
अतीत की तरफ इशारा करने वाली है। द संडे गार्डियन में प्रणय रॉय के बारे में छपी
खबरें इस बात का ज्वलंत प्रमाण हैं। पत्रकारिता की आड़ में कैसे-कैसे खेल हो रहे
हैं, इसे समझने के लिए ये
जानना भी दिलचस्प होगा कि पिछले एक-दो दशक में कई पत्रकार, मालिक बन चुके हैं और कई मालिक पत्रकार की खाल ओढ़े अवतरित
हो रहे हैं। इस पूरे घालमेल का मकसद दोनों हाथों से मलाई बटोरने के अलावा और कुछ
नहीं है। इस सिलसिले में नई दुनिया के मालिक अभय छजलानी का पत्रकारिता के हिस्से का
पद्मश्री हड़प लेना एक मजेदार उदाहरण हो सकता है। पत्रकारों और मालिकों के
एक-दूसरे के क्षेत्र में इतनी आसानी से छलांग लगाने की वजह से भारतीय पत्रकारिता
बेईमानी और झूठ-फरेब का पर्याय बनती जा रही है। इस सब के बावजूद पत्रकारों का एक
बड़ा हिस्सा है। जो श्रम बेचकर सम्मान अर्जित करने पर भरोसा करता है, सरोकारों की पत्रकारिता करता है। जिसे मीडिया
के दलाली में बदलने का गुस्सा है। अच्छी बात है कि ऐसे लोगों का गुस्सा फूटकर अब
सामने आने लगा है। भले ही मालिक बने पत्रकार अपनी कंपनियों में पत्रकारों को उनके
अधिकार न दे रहे हों, पत्रकार संगठनों
को पनपने न दे रहे हों, इस बात के खिलाफ
आम पत्रकारों की एकता की सुगबुगाहट एक बार फिर शुरू हो चुकी हैं।
पिछले दिनों
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राजदीप सरदेसाई बरखा के कामों को सही साबित करने की
कोशिश कर रहे थे तो उनके खिलाफ आम पत्रकारों का गुस्सा फूट पड़ा। राजदीप का कहना
था कि हो सकता है कुछ पत्रकार बरखा की प्रसिद्धि से जलने की वजह से भी उसके खिलाफ
बोल रहे हों। उन्हें इस बात का करारा जवाब उसी मीटिंग में मौजूद पत्रकार पूर्णिमा
जोशी ने बहुत अच्छी तरह दिया। बीच-बीच में राजदीप की हूटिंग सुनकर उनकी पत्नी और
सीएनएन-आईबीएन की एंकर सागरिका घोष को भयानक कष्ट हो रहा था। आम पत्रकारों का
गुस्सा उनके लिए अशिष्ट था। इन पंक्तियों के लेखक के पीछे बैठी वे बोलती रही कि
बातचीत में कोई सोफिस्टिकेशन तो होना ही चाहिए। राजदीप और सागरिका को उस दिन पता
चला कि स्टूडियो में कैमरे के सामने मनमाने प्रवचन देने और जनता के सामने बोलने
में कितना फर्क होता है। बाद में दिन की घटना से परेशान सागरिका ने ट्वीटर पर लिखा
कि आम आदमी पत्रकार और सेलेब्रिटी पत्रकारों के बीच एक वर्गयुद्ध छिड़ चुका है।
जाहिर है कि इसमें आम आदमी पत्रकार का जिक्र हिकारत के तौर पर था। यहां यह याद
दिलाना जरूरी है कि राजदीप खुद नीरा राडिया से आपत्तिजनक बात करते हुए पकड़े गये
हैं। लेकिन अब तक वे बड़ी शान से पत्रकारिता की आड़ में मालिकों की संस्था एडिटर्स
गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष बने हुए हैं।
मीडिया की नैतिकता
में आ रही गिरावट को अगर रोकना है तो एक छोटा सा कदम ये हो सकता है कि धंधेबाजों
को धंधेबाजों के तौर पर ही पहचाना जाए। अखबारों और न्यूज चैनलों का धंधा करने
वालों के लिए भी कड़े नियम बनाये जाएं ताकि वे पत्रकारिता का इस्तेमाल अपने दूसरे
धंधों को चमकाने में न कर सकें। इस लिहाज से क्रॉस मीडिया होल्डिंग और क्रॉस
बिजनेस होल्डिंग पर लगाम लगाना जरूरी है। यानी ऐसा न होने पाये कि एक व्यक्ति
फिल्म बनाये और अपने समाचार माध्यम में उसका प्रचार भी करे या कोई धन्ना सेठ अपने
दो नंबर के धंधों को चलाने और सत्ता की दलाली के लिए मीडिया का मालिक बनकर उसका
मनमाना उपयोग करे। प्राइवेट ट्रीटीज (मीडिया कंपनी दूसरी व्यावसायिक कंपनी में
हिस्सेदारी के बदले उसका मुफ्त में प्रचार करे) का मामला भी मीडिया की नैतिकता के
खिलाफ है। इस मामले में मालिकों की मुनाफाखोरी के मुकाबले श्रमजीवी पत्रकारों की
एकता इस गतिरोध को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। ईमानदार पत्रकारों
की सामाजिक-आर्थिक न्याय के आंदोलनों में हिस्सेदारी ही हमारे सामने एक नए मीडिया
परिदृश्य की रचना कर सकती है।
(समयांतर के जनवरी
अंक में प्रकाशित)
(भूपेन सिंह। युव
पत्रकार और प्राध्यापक। वाम आंदोलनों से जुड़ाव। सहारा समय, स्टार न्यूज और जी न्यूज में लंबे समय तक
नौकरी करने के बाद इन दिनों पूर्णकालिक रूप से अध्यापन कार्य से जुड़े हैं।
कई अखबारों में
नियमित रूप से लिखते हैं। सिनेमा में खासी दिलचस्पी है।
उनसे bhupens@gmail.com
पर संपर्क किया जा सकता है।)
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एक निर्भीक पत्रकार (Journalist) को देश और समाज की नब्ज को परखना पड़ता है और यह उसके लिए एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। उसे समाज के लिए शान्ति से लेकर संघर्ष तक की अवधारणा को अपनाना पड़ता है।
पत्रकारिता के प्रमुख रूप:
- रोजमर्रा की घटनाओं का प्रभावशाली एवं सुरूचिपूर्ण प्रकाशन।
- स्वस्थ जनमत का निर्माण – समाचारों, समीक्षाओं, आलेखों, आलोचनाओं के द्वारा।
- समाज के व्यक्तियों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान का सषक्त माध्यम बनना।
- राष्ट्र और समाज के लोगों का स्वस्थ मनोरंजन का साधन उपलब्ध कराना।
- राष्ट्र व समाज में सांस्कृतिक, साहित्यिक, औ़द्योगिक आदि सर्वांगीण विकास को बढावा देना।
- राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना।
पत्रकारिता जो की
लोकतंत्र का स्तम्भ है, जिसकी समाज के प्रति एक अहम भूमिका होती है, ये समाज में हो रही बुराईयों को जनता के सामने लाता है तथा उन बुराईयों को
खत्म करने के लिए लोगो को प्रेरित करता है। पत्रकारिता समाज और सरकार के प्रति एक
ऐसी मुख्य कड़ी है, जो कि समाज के लोगो और सरकार को आपस में जोड़े
रहती है। वह जनता के विचारों और भावनाओं को सरकार के सामने रखकर उन्हे प्रतिबिंबित
करता है तथा लोगो में एक नई राष्टीय चेतना जगाता है।
ज्ञात रहे कि पत्रकारिता
के माध्यम से हम देश में क्रान्ति ला सकते है, देश
में फैली कई बुराईयो को हमेशा के लिए खत्म कर सकते है। अत: पत्रकारिता का उपयोग हम
जनहित और समाज के भलाई के लिए करें न कि किसी व्यक्ति विशेष के पक्ष में।
पत्रकारिता की छवी साफ सुथरी रहे तभी समाज के कल्याण की उम्मीद कर सकते है।
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