जिस वर्ग या जाति के हाथ में सामाजिक प्रशासन होता है, प्रायः उसी के हाथ में राजनैतिक प्रशासन भी हो जाता है।
वस्तुतः सामाजिक प्रशासन, राजनैतिक प्रशासन
के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है। भारत में द्विजवर्ग ने इस स्थिति का फायदा
उठाकर सदियों से राजनैतिक और सामाजिक दोनों प्रशासनों पर अपना नियन्त्रण बनाये रखा
और आज भी काफी हद तक वही स्थिति बरकरार है।
सामाजिक प्रशासन में परिवर्तन करना यद्यपि किसी क्रान्ति से कम नहीं, परन्तु समय-समय पर तमाम महान विभूतियों ने इसको
चुनौती दी है और उसके सुखद परिणाम भी सामने आये। कबीरदास, रैदास, गुरुनानक,
नारायणगुरु, ज्योतिबा फुले, डॉ० अम्बेडकर इत्यादि ने सामाजिक प्रशासन के पुरातनपंथी कारकों -
अन्धविश्वासों, रूढ़िगत परम्पराओं,
मूर्तिपूजा, अस्पृश्यता, जातिवाद इत्यादि
पर हमला बोला।
बिना सामाजिक प्रशासन के राजनैतिक प्रशासन नहीं मिलता और मिलता भी है तो उसका
चरित्र स्थायी नहीं होता। कारण कि उस वर्ग के लोगों में जागरुकता, चेतना और स्वाभिमान का अभाव होता है, जिससे वे अपने जायज अधिकारों को नहीं समझ पाते।
उनको जन्म से ही ऐसे संस्कारों और हीनता के भावों से कुपोषित कर दिया जाता है कि
वे संघर्ष करना भूलकर भाग्यवाद के सहारे जी रहे होते हैं। उनको कोल्हू के बैल की
तरह एक घेरे में ही सीमित कर दिया जाता है। अतः सामाजिक परिवर्तन के लिए इस वर्ग
को जागरुक, चेतनशील और चौकन्ना बनना
होगा तभी वास्तविक रूप से सामाजिक परिवर्तन आयेगा और राजनैतिक परिवर्तन के लिए
सामाजिक परिवर्तन का होना एक अति आवश्यक कारक है। इस हेतु सर्वप्रथम समाज को बदलना
पड़ेगा, जो कि एक दुरूह कार्य है।
वैसे तो समय-समय पर ऐसे बहुतेरे समाज सुधारक हुये, जिन्होंने सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई
परन्तु ये सभी पुरातनपंथी समाज व्यवस्था के पोषक द्विज वर्गों में से ही थे। फिर
यह कैसे सम्भव है कि ये अपने ही लोगों को सदियों से प्राप्त जन्मना विशेषाधिकारों
का हनन करते। इन समाज सुधारकों ने ऊपरी तौर पर सामाजिक व्यवस्था को बदलने का
प्रयास तो किया, किन्तु उस
पुरातनपंथी सामाजिक व्यवस्था की जड़ पर हमला नहीं किया। कहीं न कहीं यह एक तरह से
शोषित, पिछड़े और दलित वर्ग के
बीच फूट रही चिंगारी को दबाने के लिए महज एक सेफ्टी-वाल्व के रूप में साबित हुआ और
यही कारण था कि इन समाज सुधारकों के प्रयास से सामाजिक व्यवस्था में कोई बुनियादी
और दूरगामी परिवर्तन सम्भव नहीं हुआ। द्विज वर्ग की सामाजिक प्रभुता ज्यों की
त्यों बनी रही और समाज में ऊँच-नीच की भावना और जातिगत कारक जैसे तत्व यथावत् बने
रहे जिससे सामाजिक लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका।
डॉ० अम्बेडकर ने कहा था कि राजनैतिक सुधारों की अपेक्षा सामाजिक सुधार ज्यादा
कठिन हैं। अपने कटु अनुभवों के आधार पर उन्होंने देख लिया था कि हिन्दू धर्म में
विगत के तमाम सुधारवादी आन्दोलनों के बावजूद समता और भ्रातृत्व की भावना नहीं आ
पाई और भविष्य में भी इसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नजर नहीं दिख रही थी। १९३५ में
एक सभा में उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि-आप लोग ऐसा धर्म चुनें, जिसमें समान दर्जा, समान अधिकार और समान अवसर हों। डॉ० अम्बेडकर को हिन्दू
जाति-व्यवस्था का बचपन से ही काफी कटु और तीखा अनुभव था और इसीलिये उन्होंने
भारतीय संस्कृति को जाति आधारित ब्राह्मण संस्कृति कहा था। वे हिन्दू समाज की जाति
व्यवस्था से सर्वाधिक आहत थे। यही कारण रहा कि वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के
खिलाफ जैसा खुला संघर्ष उन्होंने किया, वैसी मिसाल भारत के इतिहास में मिलना दुर्लभ है। डॉ० अम्बेडकर ने संविधान सभा
को संविधान समर्पित करते हुये कहा था कि-राजनैतिक लोकतन्त्र तभी सार्थक होगा जब
देश में सामाजिक लोकतन्त्र कायम होगा। संविधान तो लागू हो गया पर दुर्भाग्य से आज
तक भारत में सामाजिक लोकतन्त्र स्थापित नहीं हो सका। कारण स्पष्ट है कि निहित
स्वार्थी वर्गों ने बड़े जटिल ताने-बाने के माध्यम से अपना सामाजिक प्रशासन स्थापित
कर रखा है और धर्मिक संस्कारों व सांस्कृतिक परम्पराओं की आड़ में इसे अभेद्य बना
दिया है। इस अभेद्य दुर्ग को एक झटके में तोड़ना सम्भव नहीं है वरन् इसके लिए अथक्
संघर्ष और सतत् सद्-प्रयासों की जरूरत है। आजकल दलित, पिछड़े और आदिवासी जैसे शोषित वर्ग इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था
को तोड़ने के लिए प्रयासरत हैं, विशेषकर दलित
साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का यह कार्य बखूबी किया जा रहा है। वहीं
दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी वर्ग अपनी सामाजिक प्रभुता को बचाये रखने हेतु एड़ी-चोटी का
पसीना एक किये हुये है और अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किसी भी हद तक जाने को
तैयार है। वस्तुतः इसी सामाजिक प्रभुता के बल पर वह आबादी में मात्र १५ प्रतिशत
होते हुये भी राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, तकनीकी, चिकित्सकीय,
शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में अपना पूर्ण
वर्चस्व बनाये हुये हैं। यहाँ तक कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को आरक्षण तक का सहारा लेने में सतत्
अवरोध खड़ा किया जा रहा है, जबकि सामाजिक
न्याय के सम्वर्द्धन हेतु आरक्षण व्यवस्था भारतीय संविधान तक में निहित है।
वस्तुतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामाजिक प्रशासन और इसके द्वारा निहित हितों की
पूर्ति स्वयं में एक साध्य बन गई है। अतः आज सबसे बड़ी आवश्यता है कि दलित, पिछड़े, आदिवासी मिलकर सामूहिक रूप से ब्राह्मणवादियों के इस सामाजिक प्रशासन और उसमें
सन्निहित उनके स्वार्थी हितों के चक्रव्यूह को ध्वस्त करें, फिर राजसत्ता तो उनके हाथों में स्वतः आ जायेगी। पर अफसोस
कि डॉ० अम्बेडकर, ज्योतिबा फूले,
पेरियार जैसी महान विभूतियों के अलावा द्विजों
की इस सामाजिक प्रशासन रूपी अवधारणा के तन्तुओं को किसी अन्य ने नहीं समझा या
समझने का प्रयास नहीं किया। यही कारण है कि आज भी हिन्दू सामाजिक व्यवस्था उसी
प्राचीन मनुवादी सूत्रों से संचालित हो रही है। आर०एस०एस० जैसे संगठनों की स्थापना
भी कहीं न कहीं इसी मकसद से की गई। सार्वजनिक मंचों पर भाषणों और प्रवचनों के
जरिये सामाजिक समता व भ्रातृत्व का तो खूब प्रचार किया जाता है किन्तु हिन्दू
सामाजिक व्यवस्था के रस्मों-रिवाज और परम्परायें, रोजमर्रा का जीवन, जन्म-मरण, विवाह, खान-पान, सम्बोधन, अभिवादन इत्यादि
सब कुछ अभी भी मनुवाद से ओत-प्रोत हैं। हिन्दुओं की प्राचीन जीवन पद्धति जिसमें सब
कुछ जाति आधारित है, जस की तस है। अगर
उसमें कुछ परिवर्तन आया भी तो वह नगण्य है। अंग्रेंजो ने भी इस देश पर शासन करने
के लिए उस सामंती और पुरोहिती सत्ता के सामाजिक आधार को पोषित और पुनर्जीवित किया,
जिसका आधिपत्य पहले से ही भारतीय समाज पर था।
इस सन्दर्भ में भारत के प्रथम गर्वनर जनरल लॉर्ड वारेन हेसिंटग्स का कथन दृष्टव्य
है- यदि अंग्रेजों को भारतीयों पर स्थायी शासन करना है, तो उन्हें संस्कृत में उपलब्ध हिन्दुओं के उन पुराने
कानूनों पर महारत हासिल करनी चाहिए, जिनके कारण एक ही जाति के मुट्ठी भर लोग हजारों साल तक बहुसंख्यक वर्ग पर शासन
करते रहे। इस नीति से जहाँ भारतीयों को गुलामी की जंजीरों का भार थोड़ा हल्का लगेगा,
वहीं उन्हें यह भी महसूस होगा कि ये लोग हमारे पुरोहितों
की तरह हमारे शुभचिन्तक हैं और इनकी भाषा भी वही है, जो हमारे पुरोहितों की है।
अब समय आ गया है कि गरीब, किसान, दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्गों में व्यापक चेतना तथा जागरुकता पैदा की जाय जिससे वे
अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सरकारों को बाध्य कर सकें। यद्यपि यह काम
इतना आसान नहीं है क्योंकि द्विज वर्ग आम लोगों का उनकी जरूरतों की तरफ से ध्यान
हटाने के लिए सदैव नाना प्रकार के स्वांग रचते रहते हैं। कभी मन्दिर-मस्जिद,
कभी राष्ट्रवाद, कभी साम्प्रदायिकता, कभी कशमीर तो कभी आतंकवाद की बात उठाकर लोगों को गुमराह
किया जाता है जिससे मूल मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। आज जरूरत है कि देश में
सबके साथ समान व्यवहार किया जाये, सबको समान अवसर
प्रदान किया जाये और जो वर्ग सदियों से दमित-शोषित रहा है उसे संविधान में प्रदत्त
विशेष अवसर और अधिकार देकर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया जाये, तभी इस देश में सामाजिक न्याय और सामाजित
लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त होगा और भारत एक समृद्ध राष्ट्र के रूप में विश्व के
मानचित्र पर अपना अग्रणी स्थान बना सकेगा।
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