Saturday, June 25, 2016

वक्त के साथ परिवार और समाज बदल गया है.

वक्त के साथ समाज बदल गया है. इंसान की सोच में फर्क आया. लोगों ने परंपराओं के नाम पर रूढि़वादी सोच को निकाल फेंकने का साहस भी जुटा लिया. हम ने बेशक इस में कामयाबी क्यों न हासिल कर ली हो पर यहीं से शुरू हो जाता है रिश्तों के टूटने का सिलसिला. आधुनिकता का प्रभाव हमारे दम तोड़ते रिश्तों में नजर आने लगा है.
अकसर अखबारों और टैलीविजन चैनलों में सुर्खियां बनती हैं कि पत्नी ने प्रेमी के साथ मिल कर पति की हत्या कर दी. एक पिता ने अपनी ही औलाद को गला घोंट कर मार दिया. बेटे ने अपने ही चाचा के लड़के का अपहरण कर फिरौती की मांग की और फिरौती नहीं मिलने पर भतीजे को मार डाला वगैरहवगैरह.
जिस तेजी से अपराध बढ़ रहे हैं वह बदलते परिवेश का एक हिस्सा ही हैं. हत्या की वारदातों में बेहिसाब इजाफा हुआ है. भारत दुनिया के ऐसे देशों में शामिल हो चुका है जहां ज्यादा हत्याएं हो रही हैं. नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के अनुसार हर 18 से 20 मिनट में भारत में एक हत्या होती है. हर 23 मिनट में एक अपहरण और हर 28 मिनट में एक बलात्कार होता है.
देश का कोई ऐसा हिस्सा नहीं बचा है जहां महिलाओं की अस्मत न लूटी जा रही हो. यह अलग बात है कि कुछ मामलों में बात सामने आ जाती है और बाकी मामले दब कर दफन हो जाते हैं. इन में तो बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं जो रिश्तों को तारतार कर देने वाले होते हैं. जानीमानी मनोवैज्ञानिक डा. नीना गुप्ता का मानना है, ‘‘जब हम अपने ही वजूद से बेईमानी करने लगे हैं तो इस का असर हमारे रिश्तों पर पड़ेगा ही.’’
सामाजिक परिवर्तन
समाज में जो बदलाव सब से बड़ा आया है वह है महिलाओं का समाज में योगदान. एक तरह से समाज की तरक्की के लिए यह जरूरी भी है. घर की दहलीज तक सीमित रहने वाली स्त्री आज समाज में ऐसी भूमिकाएं निभाने लगी है जिस पर अभी तक पुरुष अपना वर्चस्व जमाए बैठे थे. शिक्षा के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा कर महिलाओं ने दिखा दिया है कि चूल्हेचौके में ही वे दक्ष नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच रखते हुए टैक्नोलौजी में भी वे अपनी महारत हासिल कर सकती हैं.
विवाह जैसी सामाजिक प्रथा अब व्यक्तिगत होती नजर आने लगी है. परिवार वालों की रजामंदी से थोपे गए रिश्ते अब नकारे जाने लगे हैं. व्यक्ति अपनी खुशी के पैमाने पर रिश्ते जोड़ने लगा है. परिवार, रिश्तेदारी का दायरा उन के लिए उतना माने नहीं रखता जितनी स्वयं की व्यक्तिगत अभिरुचि  व पसंद.
लिव इन रिलेशनशिप खुल कर सामने आने लगी है. व्यक्ति को यह कहते कोई संकोच नहीं रहा है कि वह रिश्तों को केवल समाज की परवा करते हुए क्यों ढोए. रिश्ते इतने खुले होने चाहिए कि जब चाहे उन्हें उतार फेंक दिया जाए. पाश्चात्य शैली व ग्लोबलाइजेशन का दावा करती नई पीढ़ी के साथसाथ पुरानी पीढ़ी भी रिश्तों को नया रूप देने में लग गई है.
सैक्स एक ढकाछिपा शब्द अब आम हो गया है. जिंदगी का एक अहम हिस्सा मानते हुए सैक्स के प्रति भ्रांतियों को दूर करने के पक्ष में प्रशासन भी अब पीछे नहीं है. स्कूलों में यौन शिक्षा के हिमायती अब कम नहीं हैं. शायद यही कारण है कि अब विवाहेतर संबंधों को लोग खुलेआम स्वीकार करने लगे हैं. व्यक्ति के लिए रिश्तेनाते, सामाजिकता, परिवारवाद सब बाद में, पहले स्वयं का सुख माने रखने लगा है. कामयाबी, परंपरा, संस्कार सभी भौतिकवादिता में बदल गए हैं.
संबंधों पर असर
लेकिन इन सब परिवर्तनों का कहीं न कहीं असर पड़ रहा है हमारे आपसी रिश्तों पर. हाथ से छूटते, दरकते ये रिश्ते कहानी बता रहे हैं इन्हीं परिवर्तनों की. इन्हीं का असर है कि आपसी संबंध बिखरने लगे हैं. समझौता जैसा शब्द रिश्तों के बीच गायब हो चुका है.
आर्थिक सबलता ने हर किसी की सहनशक्ति को कम कर दिया है. प्रैक्टिकल सोच के आगे भावनाएं महत्त्वहीन होती जा रही हैं. आपस में कम्युनिकेशन गैप बढ़ा है. पैसा और भौतिक सुविधाएं ही महत्त्वपूर्ण बन गई हैं. भाईबहन, पतिपत्नी, बच्चों, पेरैंट्स के बीच औपचारिकताएं न रह कर दोस्ताना रिश्ते बन गए हैं जिन्होंने इन के बीच का सम्मान खत्म कर दिया है. इसी का नतीजा है अधिकतर बच्चे पेरैंट्स की सुनते नहीं हैं. पेरैंट्स और बच्चों के बीच दूरियां और टकराव भी बढ़ रहे हैं. बच्चों की मनमानी रोकने पर मातापिता आउटडेटेड मान लिए जाते हैं. पतिपत्नी की बनती नहीं है. वे अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हैं. वे अपनी सहूलियत के अनुसार एकदूसरे को वक्त देते हैं. भाईबहन के रिश्तों में अब वह लगाव नहीं है. टीनएज प्रैग्नैंसी बढ़ती जा रही है. सैक्सुअल बीमारियां आम होती जा रही हैं. फ्रीसैक्स आधुनिकता का सिंबल बन गया है.
इन हालात को देखते हुए क्या तरक्की के माने ये हैं कि व्यक्ति केवल अपने तक सीमित रह कर रिश्तों की अहमियत को भूल जाए और संकुचित सोच के दायरे में रह कर जिसे वह अपना सुख मानता है, जीने लगे? नहीं, यह सुख, सुख नहीं स्वार्थ है. व्यक्ति के रिश्ते उतने ही अहमियत रखते हैं जितना कि खाने में नमक. इस में कोई दोराय नहीं कि रिश्ते गले की फांस नहीं, गले का हार बनने चाहिए. इसलिए आपसी संबंधों को बचाए रखना भी जरूरी है.
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एक युग में हिंदू समाज के ब्राह्मण, नेता और समाज व धर्म के ठेकेदार बाल विवाह का प्रचारप्रसार करते थे. ऐसे में मूढ़मति लोग अपनी छोटी मासूम बेटियों का विवाह 50-60 साल के बूढ़ों से भी कर देते थे.
बाल विवाह की कुप्रथा के कारण समाज में युवा विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी. कई सती प्रथा की शिकार होने लगीं. ‘विधवा’ का ठप्पा लगने के बाद युवतियों को सफेद कपड़े पहनने, जमीन पर सोने, एक वक्त खाने और मुंडन कराने जैसे नियम मानने पड़ते. शादी के अवसरों पर उन्हें आमंत्रित नहीं किया जाता. कुल मिला कर महिलाओं की स्थिति बड़ी दयनीय थी. ऐसे में समाज में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान दिलाने, उन के अधिकारों की बात उठाने और उन्हें बराबरी का दरजा दिलाने के लिए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद, शरतचंद्र चटर्जी और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे समाज सुधारक आगे आए.
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने समाज की युवा विधवाओं और परित्यक्ताओं को अच्छे तरीके से जीने का हक दिलाने, नारी को सम्मान दिलाने के लिए 987 लोगों द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रस्ताव भारत की लैजिस्लेटिव कौंसिल को भेजा. प्रस्ताव में हिंदू विवाह अधिनियम में उपयुक्त परिवर्तन का निवेदन किया गया. काउंसिल के वरिष्ठ सदस्य सर जेम्स कोलविले ने इस बिल का समर्थन किया. आधुनिक भारत में नारी सशक्तीकरण की शुरुआत यहां से ही हुई. पूरे देश में इस बिल के पक्षविपक्ष में हजारों प्रस्ताव आए, लेकिन अंत में 26 जुलाई, 1856 को विधवाओं द्वारा पुनर्विवाह का रास्ता खोलने वाला ‘धारा एक्सवी 1856’ कानून पास हो गया. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 10 वर्ष की आयु में विधवा हुई बर्दवान की कालीमती देवी और पंडित श्रीशचंद्र विद्यारत्न का विवाह कर कानून को व्यावहारिक जामा पहना दिया. विद्यासागर ने खुद अपने बेटे का विवाह भी एक विधवा से ही करवाया.
आगे चल कर आजाद भारत में हिंदू विवाह अधिनियम में और भी संशोधन हुए. महिलाओं को तलाक का अधिकार भी मिला. स्त्री की स्वतंत्र सत्ता को समाज और कानून दोनों ने सम्मानित किया. 1978 से जब घरेलू हिंसा की वारदातों में इजाफा हुआ तो नारी सशक्तीकरण के और उपाय सोचे जाने लगे. 1983 में क्रिमिनल लौ ऐक्ट पास किया गया, जिस में धारा 498ए शामिल की गई. इस के तहत किसी महिला के पति या उस के रिश्तेदारों द्वारा की गई हिंसा के लिए सजा का प्रावधान है.
यह धारा इतनी कठोर है कि आरोपित व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार कर लिया जाता है और उस की बेल भी नहीं हो सकती. दहेज के मामलों से निबटने के लिए भारतीय दंड संहिता में कई संशोधन जोड़े गए. 2005 में घरेलू हिंसा कानून आया, जो 2006 से लागू हुआ.
पर बन गया महिला सख्तीकरण
शिक्षा, कारोबार, विज्ञान, चिकित्सा, कानून, पुलिस, सेना, राजनीति, खेल आदि सभी क्षेत्रों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ी, जो एक जिम्मेदार समाज के लिए आवश्यक भी है और महत्त्वपूर्ण भी. लेकिन इस आपाधापी में समाज का भीतर ही भीतर काफी अहित भी हो रहा है. पारिवारिक और सामाजिक तानाबाना ढीला पड़ने लगा है. पति और पत्नी कहने भर को दो जिस्म एक जान हैं.
हकीकत तो यह है कि स्नेह, अपनापन और अधिकार की भावना का क्षरण होने लगा है, जिसे हम बारीकी से न देखें तो जानना भी मुश्किल है. नारी और पुरुष को एकदूसरे का पूरक मानने के बजाय प्रतिद्वंद्वी माना जाने लगा है. जरा बताएं, किस भाईबहन में आपस में झगड़े नहीं हुए होंगे या कभी भाई ने अपनी बहन को चांटा नहीं लगा दिया होगा? क्या कभी पिता किसी गलती पर अपनी बेटी को चपत नहीं लगा देता? मां अपनी बेटी को कस कर डांट नहीं लगा देती?
ऐसे मामलों में तो कभी पुलिस या कानून को बीच में नहीं लाया जाता. पति अधिकारपूर्वक अपनेपन से पत्नी के साथ प्यार कर ले, तो यह रेप हो गया (केस नं. 1). सासससुर अपनी बहू को अधिकारपूर्वक उस की गलती पर डांट दें, तो यह ‘प्रताड़ना’ हो गया. ननद अपनी भाभी को जरा ऊंची आवाज में बोल दे, तो यह भाभी का अपमान हो गया (केस नं. 2). यहां आप गौर करें तो पाएंगे कि सशक्तीकरण ‘बहू’ या ‘पत्नी’ नाम की नारी का ही हुआ है. सास और ननद जैसी नारी का तो ‘निर्बलीकरण’ ही हो गया है. (केस नं. 3 में देखें). यौन उत्पीड़न के कानून का कैसा दुरुपयोग किया जाता रहा है. घूर कर देखना, गंदी निगाहों से देखना, अश्लील शब्दों का इस्तेमाल करना, शारीरिक संबंधों का प्रस्ताव देना आदि आरोपों के लिए तो मैडिकल जांच या प्रमाण की भी जरूरत नहीं. किसी स्त्री द्वारा इतना कहना भर काफी है और पुरुष के चरित्र की चिंदीचिंदी हो जाती है. आरोप प्रमाणित हो या न हो लेकिन वह बेचारा भरे समाज में सिर उठा कर चलने तक को तरस जाता है. हर इंसान उसे ऐसे देखने लगता है मानो वह हवस का पुतला, बलात्कारी और चरित्रभ्रष्ट इंसान है.
जरा सोचिए, आज महिलाओं ने जो तरक्की की है क्या उस में पुरुषों का कोई योगदान नहीं? पुरुष के सहयोग के बिना नारी अकेली आगे कैसे बढ़ सकती है? आखिर प्रकृति की ये दोनों कृतियां मिल कर ही तो संपूर्ण हुई हैं. फिर पुरुषों की इतनी गलत छवि प्रस्तुत कर के क्या हासिल होने वाला है?
कुछ समय पहले बेंगलुरु हाईकोर्ट के न्यायाधीश मंजूनाथ भी यह कहने के लिए मजबूर हो गए थे कि महिला सशक्तीकरण के नाम पर समाज का कबाड़ा हो रहा है. यद्यपि उन के कथन को ले कर बड़ा बवाल मचा लेकिन उन की बातों में काफी हद तक सचाई है. एक महिला समाजसेवी भी उन के इस विचार से इत्तफाक रखती हैं. उन का कहना है, ‘‘ऐसे कई मामले होते हैं जिन में पुरुष को गलत इरादों के साथ बलात्कारी, सताने वाला या छेड़छाड़ का दोषी बना दिया जाता है. ऐसा या तो बदला लेने के लिए किया जाता है या पैसे ऐंठने के लिए.’’
कानून के दुरुपयोग का आलम कुछ ऐसा है कि मकानमालिक किराया बढ़ाने के लिए दबाव डाले या घर खाली करने के लिए कहने लगे, तो उस घर की महिलाएं उसे फंसा देने की धमकी दे सकती हैं. बौस अपनी महिला कर्मचारी की मनमानी से तंग हो कर उसे नौकरी से निकालने की धमकी दे तो उसे भी बदले में ‘मोलेस्टेशन’ केस में फंसाने की धमकी मिल सकती है.
ऐसे मामलों की छानबीन करने वाले जज, वकील, पुलिस और सामाजिक संगठन कई बार यह समझने के बावजूद कुछ नहीं कर पाते क्योंकि वे कानून के दायरे में ही ऐसा कर सकते हैं. एक जज ने इस स्थिति से दुखी हो कर कहा भी है, ‘‘बड़े दुख की बात है कि कमजोर, बीमार और उम्रदराज पुरुषों को भी बलात्कार जैसे मामलों में गलत आरोप से बख्शा नहीं जाता.’’ महिला बलात्कार का गलत आरोप भी लगा दे तो उस की बात को सोलह आना सच मान कर कार्यवाही की जाती है.
जो कानून महिलाओं के लिए समाज में सम्मान और अधिकार दिलाने के लिए बनाए गए थे, उन को अब पति और ससुराल वालों के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.
सिक्के का दूसरा पहलू
बड़ा बवाल मचाया जाता है कि महिलाओं पर विवाह के बाद अत्याचार होते हैं लेकिन नैशनल क्राइम ब्यूरो के रिकौर्ड्स बताते हैं कि महिलाओं की तुलना में विवाहित पुरुष आत्महत्या करने को ज्यादा मजबूर होते हैं. इस की वजह है मानसिक अशांति और तनाव, पत्नी द्वारा आएदिन कलह, कानून का डर दिखाना और पति के मातापिता का तनाव आदि.
तलाक के ज्यादातर मामलों में पत्नियों को ही बच्चों की देखभाल सौंपी जाती है, पति का बच्चों के प्रति कितना भी स्नेह हो, यह माने नहीं रखता. तलाक के बाद पति द्वारा उन्हें भरणपोषण की एक खास रकम देनी पड़ती है. पति की चलअचल संपत्ति में भागीदारी का आदेश भी दिया जा सकता है. भले ही पत्नी ने खुद ही यह तलाक लेने का निश्चय किया हो और पति तथा उस के परिवार वालों द्वारा की गई सुलह की हर कोशिश ठुकरा दी हो. पति को ही अपनी पत्नी, बच्चे, विवाहित जीवन, मातापिता का चैन आदि खोने पर मजबूर होना पड़ता है क्योंकि पूरा सिस्टम इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त है कि पत्नी ‘बेचारी महिला’ है.
हमारा सिस्टम और समाज यह भी भूल जाता है कि अमीर घराने की महिलाएं, उच्च पदों पर नौकरी करने वाली महिलाएं और मानसिक रूप से अस्वस्थ महिलाएं या असहिष्णु महिलाएं ऐसा करने में जरा भी आगापीछा नहीं सोचतीं. घरेलू खटपट के मामले में महिलाओं में जीरो टौलरेंस के मामले बढ़ रहे हैं. पाश्चात्य विचारों से बुरी तरह प्रभावित ये महिलाएं छोटी सी बात पर भरीपूरी गृहस्थी को ठोकर मार कर आगे बढ़ने को तत्पर रहती हैं क्योंकि हर कोई उन्हें उकसाने और उन का साथ देने को तैयार बैठा दिखता है. यह ताज्जुब की बात है कि ज्यादातर महिलाएं कोर्ट के माध्यम से अलग होना चाहती हैं क्योंकि फैमिली कोर्ट के फैसलों में उन्हें ज्यादा फायदा मिलता है.
समाज को छिन्नभिन्न करने की इस कोशिश में बाजारवाद की भी घिनौनी भूमिका है. टीवी सीरियल दिनरात यही दिखाने में लगे हैं कि कैसे बहू ने सासससुर और पति की अक्ल ठिकाने लगा दी, कैसे छलकपट से उन्हें समझौता करने पर मजबूर कर दिया. नारी सशक्तीकरण के नाम पर खेल खेला जा रहा है. मुट्ठीभर महिलाएं मीडिया में छाई हुई हैं और करोड़ों स्त्रियां उन के जैसी बनने की चाहत में घर की जिम्मेदारियों को तुच्छ समझ कर, पति को अपने सपनों का हंता मान कर भागदौड़ में लगी हैं, मन में कुंठित हो रही हैं, येनकेनप्रकारेण धन कमाने के लिए जुटी हुई हैं. ये हर वक्त या तो टैंशन में रहती हैं या अकड़ में या फिर अपने आसमानी अरमानों को पूरा करने के चक्कर में किसी के हाथों पहले जानबूझ कर समर्पण कर देती हैं और बाद में शोरगुल मचाती हैं जैसा कि कुछ महीने पहले एक अभिनेत्री और उस की सहेली ने एक निर्देशक पर झूठा आरोप लगाया था, ये मोहतरमा राजनीति में भी चारों खाने चित हो चुकी हैं. ऐसी महिलाएं खुद भी दुखी रहती हैं और अपने पति, बच्चों, सासससुर आदि को भी दुखी रखती हैं.
समाज भी बहकावे में
कहते हैं कि एक झूठ को बारबार बोला जाए और जोरजोर से बोला जाए तो वह सच व विवेक पर हावी हो जाता है. यह बात यहां भी लागू होती है. नारी अधिकार, नारी अधिकार, इतनी बार और इतने शोर के साथ बोला गया है कि इस के आगे पुरुष अधिकार नाम की चीज किसी को नजर ही नहीं आती.
एक समय था जब मातापिता, बेटीदामाद के बीच हुई खटपट व झगड़ों को साधारण बात मानते थे और अपनी बेटियों को सहिष्णु बनने की सलाह देते थे, लेकिन आज स्थिति बिलकुल उलट है. बेटी पति के खिलाफ कोई आरोप लगा दे, तो बेटी के मांबाप उसे (दामाद को) पूरे समाज में नंगा कर देने की धमकी देने लगते हैं. ये सब कानून के डंडे और सामाजिक तानेबाने के ढीले पड़ने की वजह से हुआ है. कोई पति सबकुछ भूल कर विवाह बचाने की कोशिश करता है तो पत्नी और भी अकड़ जाती है और समझती है कि यह कानून के डर से ऐसा कर रहा है, इसीलिए इसे मजा चखाना जरूरी है.
सच तो यह है कि महिलाओं के सशक्तीकरण की गलत व्याख्या की गई है. समझना होगा कि महिला सशक्तीकरण का सही मकसद और महत्त्व ‘स्त्रीत्व’ को बचाना है, न कि पुरुष के ऊपर धौंस जमाना या उसे नीचा दिखाना. महिला सशक्तीकरण का मतलब है जीवन के उतारचढ़ाव और चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम होना, न कि पारिवारिक जीवन को तहसनहस करना.
सशक्तीकरण का असली उद्देश्य तब पूरा होगा जब नारी सकारात्मक रूप से सोचने की ताकत बढ़ा लेगी. आत्महत्या जैसे कदम नहीं उठाएगी, अपने बच्चों का भविष्य संवारने के काबिल बनेगी, बुरे दिनों में पति की ताकत बनेगी, बीमार सासससुर की पूरी क्षमता के साथ वैसी ही तीमारदारी करेगी जैसी अपने मातापिता की करती है, भटकते पति को पूरी ताकत के साथ रास्ते पर ला सकेगी, आर्थिक रूप से सशक्त होगी ताकि पति पर निर्भर न होना पड़े. लेकिन कानून की आड़ में महिलाओं का सुपीरिएरिटी कौंप्लैक्स का शिकार होना और एकल जिंदगी जीने की जिद करना समाज को नुकसान ही पहुंचाएगा. ऐसे में यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाएगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे देश में नारी सशक्तीकरण की दिशा भटक गई है.   

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