" लोकतंत्र की
समस्या और समाधान "
देश को स्वतंत्र
हुए ६८ वर्ष हो गए किन्तु अभी तक हम अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए। क्योंकि हम
लक्ष्य से ही भटक गए। हमने अंग्रेजों से
मुक्ति पाई किन्तु अंग्रेजी संस्कृति के आज तक गुलाम हैं। हमारा शिक्षित वर्ग तो
पाश्चात्य मानसिकता से मुक्त होना भी नहीं चाहता।
इसका बड़ा कारण है कि हमारा संविधान ही 'सेक्यूलर' (अधर्मी) बनकर रह
गया है। सरकारी योजनायें समस्त देशवासियों के लिये न होकर वोट-बैंक, माइनॉरिटी-मेजॉरिटी की दृष्टि से बनाई जाती
हैं। तभी समस्त सरकारी निर्णयों में सच्चे धर्म (मानवता) का प्रवेश कहीं दिखाई
नहीं पड़ता। संविधान की मूल प्रस्तावना में "सेकुलर" और
"सोशलिस्ट" शब्दों का समावेश नहीं था, किन्तु वर्ष १९७६ में आपातकाल के दौरान ४२ वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से इन दोनों
शब्दों को जोड़ दिया गया है।
धर्म प्रत्येक व्यक्ति की निजी धरोहर है। इसका
सामूहिक स्वरूप सम्प्रदाय कहलाता है। हमारी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा (मूल्य परक
शिक्षा) की यह सबसे बड़ी बाधा है, छात्रों के
सिलेबस में सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने की व्यवस्था आज कहीं नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " हम मनुष्य- जाति को उस स्थान पर पहुँचाना
चाहते हैं जहाँ न वेद है, न बाइबिल है,
न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान
के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि संसार के
सारे धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय
धर्म के भिन्न भिन्न रूप हैं, जिसका पालन करने
से पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति उन
धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।" प्रसिद्ध शायर मुहम्मद
इक़बाल ने भी १९०५ में लिखा था-'मज़हब नहीं
सिखाता, आपस में बैर रखना।'
कार्यपालिका और
न्यायपालिका का प्रशिक्षण एवं कार्य आज भी उसी पाश्चात्य शैली में हो रहा है।
इसीलिये आज तक भी संविधान का भारतीयकरण नहीं हो पाया। देश में तो अभी समान
नागरिकता भी स्वीकृत नहीं है। संविधान की
मूल प्रस्तावना में ही इतने संशोधन कर दिए कि सामान्य भारतीय नागरिक तो उन्हें समझ
ही नहीं सकता। तभी तो 'धर्मनिरपेक्षता'
के नाम पर संविधान की मूल प्रति में भारत के
गौवरव-शाली राष्ट्रीय विरासत से जुड़े उन २२ चित्रों को भी हटा दिया गया, जिन्हें शांतिनिकेतन के प्रतिष्ठित कलाकार नंदलाल बोस ने २२
खण्डों में सज्जित किया था !
भारत के संविधान
की हिंदी और अंग्रेजी में कैलिग्राफि अर्थात सुवाच्य शैली में हस्तलिखित सिर्फ दो
मूल प्रतियाँ हैं- जिन्हें लोकसभा की लाइब्रेरी में हीलियम से भरे पेटी में
संरक्षित किया गया है। यहाँ यह विशेष रूप
से स्मरणीय है कि भारतीय संविधान की मूल प्रति में श्री राम के रेखाचित्र के हवाले
से, पहली जनवरी १९९३ ई. को
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो माननीय न्यायाधीशों न्यायमूर्ति एच.एन. तिलहारी तथा
न्यायमूर्ति गुप्ता ने सेकुलरवाद की व्याख्या तथा ध्वंसित बाबरी ढांचे में रखी
रामलला की मूर्ति के दर्शन पर रोक लगाने सम्बंधी याचिका को अस्वीकार करते हुए,अपना ऐतिहासिक निर्णय दिया था। उन्होंने यह
स्पष्ट रूप से कहा कि " श्रीराम का एक संवैधानिक अस्तित्व है, तथा श्रीराम स्वीकृत रूप से हमारी राष्ट्रीय
संस्कृति की सत्यता एवं आदर्श हैं , न कि कोई कोरी कल्पना।" दोनों विद्वान न्यायधीशों न्यायधीशों ने यह माना
है कि " संविधान सभा में श्रीराम को इतिहास में स्थान की दृष्टि से एक तथ्य
माना है तथा क महत्व की एक सच्चाई के रूप में स्वीकार किया है।" उपरोक्त
निर्णय में माननीय न्यायधीशों ने यह भी कि "ये चित्र हमारे राष्ट्रीय जीवन,
हमारी विरासत तथा हमारी संस्कृति को चित्रित
करते हैं।"
प्रजातंत्र के
चारों स्तम्भों -विशेष रूप से न्यायपालिका की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वह
संविधान का सही इंटरपटेशन करे ताकि 'सेक्यूलर' या 'धर्मनिरपेक्ष' के स्थान पर उसे “सम्प्रदाय निरपेक्ष” का स्वरूप प्राप्त हो। उसी प्रकार भारतीय संविधान में जोड़े
गए 'सोशलिस्ट' शब्द की वास्तविक व्याख्या होगी 'आध्यात्मिक साम्यवाद ' के आधार पर भारतीय सांस्कृतिक विरासत में सन्निहित 'विविधता में एकता' को ही 'गंगा-जमुनी तहजीब'
कहा जाता है ! "
भारत में २६
जनवरी १९५० को भारतीय सविंधान द्वारा संवैधानिक प्रजातंत्र की स्थापना की गयी,और डा० राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के प्रथम
निर्वाचित राष्ट्रपति बने। लिखित रूप में इस संविधान को बनाने में देश के कई
नेताओं का योगदान था। संविधान की इस प्रति में उन सभी ३०८ सदस्यों के हस्ताक्षर
हैं, जो संविधान समिति में
सदस्य थे। इनमें संविधान ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर, के साथ ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, कन्हैया लाल मुंशी, सी राज गोपालाचारी, आदि के नाम शामिल
हैं। विख्यात चित्रकार नंदलाल बोस [१८८२ -१९६६] का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के
तारापुर ग्राम में हुआ था। उनके पिता
पूर्णचंद्र बोस उस समय महाराजा दरभंगा की रियासत के मैनेजर थे। नंदलाल बोस १९२२ से
१९५१ तक शांति- निकेतन के कलाभवन के प्रधानाध्यापक रहे वहीं उनकी मुलाकात पं.
नेहरू जी से हुई। नेहरू जी ने नंदलाल बोस को संविधान की मूलप्रति को चित्रकारी से
सजाने के लिये आमंत्रित किया। २२१ पेज के इस दस्तावेज के हर पन्नों पर तो चित्र
बनाना संभव नहीं था. लिहाजा, नंदलाल जी ने
संविधान के हर भाग की शुरुआत में ८-१३ इंच के चित्र बनाए। यह मौका उन्हें देश के
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिया।
चित्रकार नंदलाल के इस काम की काफी प्रशंसा हुई. उन्हें तब इस काम के लिए
२१,००० मेहनताना भी दिया
गया. नंदलाल बोस ने ही राष्ट्रीय पुरस्कारों जैसे भारत रत्न और पद्म श्री के
प्रतीक भी बनाये। १९५४ में उन्हें भारत सरकार ने पद्म भूषण से भी सम्मानित किया
था।
सुनहरे बार्डर और लाल पीले रंग की अधिकता लिये
हुए इन चित्रों की शुरुआत भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक के लाट से की गई है।
२.'' विविधता में एकता '' - ही भारतीय गणतंत्र की आधारशिला और सबसे बड़ी विशेषता है!
हमारे संविधान निर्माताओं को यह आदर्श
वैदिक ज्ञान- " एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति" से प्राप्त हुआ
था। उस सत्य को ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया। जिन देशों ने
विविधता को मिटाने की चेष्टा की उन देशों की राष्ट्रीय एकता भंग हो गई। इसी वैदिक
काल के प्रारम्भ को दर्शाते हुए किसी ऋषी के आश्रम का दृष्य है, जहाँ मध्य में विराजित गुरू और उनके शिष्यों को
बैठे हुए हैं और पास में ही एक यज्ञशाला भी बनी हुई है।
३. मूल अधिकार वाले भाग की शुरुवात त्रेता युग से होती है।
इस चित्र में लंका विजय के पश्चात भगवान राम रावण को हरा कर लक्ष्मण के साथ सीता
माता को पुष्पक विमान में लंका से वापस ला रहे हैं। राम धनुष बांण लेकर आगे बैठे
हैं और उनके पीछे लक्षमण हैं।
४.अगले क्रम में नीति निर्देशक तत्व हैं जिसमें
श्री कृष्ण को गीता का उपदेश देते हुए दिखाया गया है। अर्जुन को गीता का उपदेश
देते श्रीकृष्ण,
५. पाँचवें खण्ड में भगवान बुद्ध बीच में बैठे
हुए हैं और उनके चारो ओर उनके पांच शिष्य बैठे हैं। हिरन और बारहसिंहा जैसे
जानवरों को भी दर्शाया गया है।
६.अगले भाग में संघ और राज्यक्षेत्र में भगवान
महावीर को समाधी मुद्रा में दर्शाया गया है।
७. सम्राट अशोक
द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार को दिखाया गया है। ८. आठवें भाग में
गुप्तकालीन कलायें एवं क्रमिक विकसित हुई कलाकृतियों को उकेरा गया है। इस चित्र में नृत्य करती हुई
नर्तकियों के चारों ओर राजाओं का घेरा है। यह चित्र कलात्मक दृष्टीकोंण से अत्यन्त
महत्वपूर्ण है। ९. विक्रमादित्य का दरबार १०. वें भाग में प्राचीन नालंदा
विश्वविद्यालय की मुहर दिखाई गई है। ११ . वें भाग में मध्यकालीन इतिहास की शुरुवात
होती है, वहाँ उड़ीसा की
मूर्ति-स्थापत्य कला को दर्शाया गया है । १२.
वें भाग में नटराज की प्रतिमा बनाई
गई है। १३. वें भाग में महाबलीपुरम मंदिर
पर उकेरी गई कलाकृति में भागरीथ की तपस्या और गंगा अवतरण को दर्शाया गया।
१४. वाँ भाग
केन्द्र और राज्यों के अधीन है। इस खण्ड में मुगल स्थापत्यकला के साथ सम्राट
अकबर को जगह दी गई है। बादशाह अकबर बैठे
हुए हैं, उनके पीछे चँवर झुलाती
महिलाएँ हैं।
१५. वें भाग में
गुरु गोविन्द सिहं और शिवाजी को दिखाया गया है।१६.वें भाग में ब्रिटिशकाल शुरू
होता है, इसमें ब्रिाटिश प्रतिरोध
का उदय टीपूसुल्तान और रानी लक्षमीबाई को
अंग्रेजो से लोहा लेते दर्शाया गया है।
१७. वां खण्ड मूल
संविधान में अधिकारिक भाषाओं का खण्ड है, जिसमें गाँधी जी की दांडी यात्रा का दृष्य है। १८. अगले भाग में गाँधी जी की
नोआखली यात्रा का चित्र है, जिसमें बापू को
एक शांति दूत के रूप में दर्शाया गया है।
एन्ड्रयूज भी उनके साथ हैं, और एक हिन्दू
महिला गाँधी जी को तिलक लगा रही है और कुछ मुस्लिम पुरूष हाँथ जोङकर खङे हैं।
१९.वें भाग में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आजाद हिन्द फौज को
सेल्यूट कर रहे हैं। चित्र में अंग्रेजी भाषा में लिखा है कि- इस पवित्र युद्ध में
हमें राष्ट्रपिता महात्मा गाधीँ की आवश्यकता हमेशा रहेगी।
२०. वें भाग में
हिमालय के उच्च शिखरों को दिखाया गया है जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक
है। २१. वें भाग में रेगिस्तान का चित्रण है। दूर दूर तक फैले रेगिस्तान के बीच
ऊँटों का काफिला, वास्तव में इस
चित्र का उद्देश्य हमारी प्राकृतिक विविधता को दर्शाना है।
२२. अंतिम भाग में समुंद्र का चित्र है, जिसमें एक विशालकाय पानी का जहाज है जो हमारे
गौरवशाली सामुंद्रिक विस्तार और यात्राओं का प्रतीक है।
अधिकारों एवं
कर्तव्य का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। समाज का उद्देश्य किसी एक मनुष्य का विकास न
होकर सभी मनुष्यों के चरित्र का समुचित विकास है। कर्तव्य आधारित सामाजिक व्यवस्था
और जीवन शैली ने हमारे देश को युगों तक सुखी तथा समृद्ध बनाये रखा है। अधिकारों से
अभिप्राय है कि मनुष्य को कुछ स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए, जबकि कर्तव्यों का अर्थ है कि समाज के प्रत्येक
व्यक्ति के ऊपर समाज का कुछ न कुछ ऋण अवश्य है। लोग अपने अधिकार कि मांग तो करते
हैं, पर अपने कर्तव्य का पालन
नहीं करते ! इसलिए ब्रह्माजी देवताओं और मनुष्यों को उपदेश देते हैं कि एक-दूसरे
का हित करना तुमलोगों का कर्तव्य है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के
साथ-साथ अपने चरित्र को सुंदर ढंग से गठित करने गठित करने का कर्तव्य भी जुड़ा हुआ
है। किन्तु हमारे मूल संविधान में, मौलिक कर्तव्य का
उल्लेख नहीं था। इन्हे ४२ वें संविधान
संशोधन द्ववारा जोड़ा गया है, तथा संविधान के
भाग ४ अनुच्छेद ५१ ’क’ में मूल कर्तव्य के अंतर्गत कुल ११ कर्तब्यों
का निर्देश इस प्रकार है-
भारत के प्रत्येक
नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि--
(१ ) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे
(२ ) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित
करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे;
(३ ) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;
(४) देश की रक्षा करे और आह्वान करने किए जाने पर राष्ट्र की
सेवा करे;
(५) भारत के सभी
लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव
से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे
जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है;
(६) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व
समझे और उस का परिरक्षण करे;
(७) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस
का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे;
(८) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार (चरित्र-निर्माण ?)
की भावना का विकास करे;
(९) सार्वजनिक
संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
(१०) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में
उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न
और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले;
(११) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।
संविधान के
अनुच्छेद 51 'क'(१-६-८-१०) में उल्लेखित छोटे-छोटे मौलिक कर्तव्यों का बार-बार स्मरण करवाकर,
प्रत्येक युवा में चरित्र-निर्माण और जीवन गठन
के प्रति जागरूकता पैदा करना अत्यन्त आवश्यक है। अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित
नागरिक - या चरित्रवान मनुष्य ही एक आदर्शस्वरूप कर्मी (प्रोटोटाइप वर्कर) की
भूमिका का निर्वहन कर सकता है। इसीलिये भारत सरकार ने विश्वमानवता के प्रति
वैज्ञानिक दृष्टि को विकसित करने के उद्देश्य से १९८४ में ही विश्वमानवता के प्रति
सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने विश्वमानवता के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित
करने स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिन - १२
जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित कर दिया था। ताकि भारत के युवा स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श
या 'रोल मॉडल ' चुने सकें। और उनके मनुष्य निर्माण और
चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण पद्धति - 'BE AND MAKE ' (मनुष्य बनने और बनाने) का प्रशिक्षण देकर, उनके जीवन को आदर्शस्वरूप कर्मी (प्रोटोटाइप
वर्कर) के साँचे में ढाला जा सके।
प्रत्येक वर्ष २६
जनवरी प्रजातंत्र दिवस के अवसर पर विद्यार्थियों और युवाओं को डिग्री प्रदान करने
वाली शिक्षा की साथ साथ 'चरित्रनिर्माण और
जीवन गठन ' के प्रति जागरूक करने की
दृष्टि से, संविधान के भाग ४
अनुच्छेद ५१ ’क’ विशेष रूप से 'आठवें' मूल
कर्तव्यों के अन्तर्गत के अन्तर्गत
१. वैज्ञानिक
दृष्टिकोण की भावना का विकास, बनाम अन्धविश्वास
!
२. मानववाद की
भावना का विकास, बनाम
सम्प्रदायवाद और जातिवाद !
३. ज्ञानार्जन की
भावना का विकास, बनाम 'आत्मज्ञान ', आत्मश्रद्धा और विवेक-दृष्टि अर्जन !
४. सुधार की
भावना का विकास , बनाम 'BE AND MAKE ' पशुमानव को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत करना
!
आदि विविध मूल
कर्तव्यों पर, सभी विद्यालयों एवं विश्विद्यालयों में ग्रुप बनाकर निबंध
एवं वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन करना अनिवार्य बनाना चाहिए ।
पर निबंध एवं
वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन करना अनिवार्य बनाना चाहिएसंविधान पढ़ना प्रत्येक
नागरिक का कर्तव्य है और संविधान की मूल प्रति
प्राप्त करना उसका अधिकार है।
जिससे वह उसे बार-बार पढ़कर अपने अधिकारों को भली-भांति जाने व समझे तथा
अपने कर्तव्यों के अनुसार आचरण करे, तभी हम एक सच्चे एवं गौरवशाली लोकतंत्र के उद्देश्यों को प्राप्त करने में
समर्थ हो सकेंगे। किन्तु भारत का संविधान उनके नागरिकों के लिए सहज उलपब्ध नहीं है
और कोई पढ़ना चाहे तो उसे खरीदने के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ता है, क्योंकि यह राजधानी स्थित केवल दो सरकारी
कार्यालयों में यह सार्वजनिक बिक्री के लिए उपलब्ध है।
संविधान में
प्रत्येक नागरिक का सर्वाधिकार निहित रहने तथा संविधान के अनुसार ही देश का संचालन
होने तथा के कारण, भारत के प्रत्येक
नागरिक को, अपने मौलिक कर्तव्य एवं
अधिकार का पर्याप्त ज्ञान होना ही चाहिए। संविधान का पालन तभी हो सकेगा जब
विद्यार्थियों को संविधान की वह मूल प्रति उपलब्ध हो जिसके २२ खण्डों को
शांतिनिकेतन के प्रतिष्ठित कलाकार नंदलाल बोस ने २२ चित्रों के माध्यम से सज्जित
किया था ! विचारणीय मुद्दा यह है कि भारतीय विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राएं इन
२२ चित्रों के माध्यम से सज्जित भारतीय संविधान रूपी प्रेरणास्रोतों तथा भारतीय
इतिहास दृष्टि से क्यों वंचित किए गए?
सरकार को एक ऐसी
देशव्यापी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए, जिससे सहजता से संविधान की मूलप्रति को प्रकाशित कर जिससे नागरिकों को उनके
निकटतम स्थान पर निःशुल्क/ सशुल्क उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।
संविधान के सभी
अनुच्छेदों के क्रियान्वन की जिम्मेदारी जिम्मेदारी प्रजातंत्र के चारों स्तम्भों
पर सामान रूप से निर्भर करता है, किन्तु
न्यायपालिका के ऊपर इसकी विशेष जिम्मेदारी है, क्योंकि संक्षेप में लिखित संविधान का सही सही इंटरपटेशन
करना विधायिका और न्यायपालिका का परम पुनीत कर्तव्य है!
प्रजातंत्र की निरन्तरता के लिए चार स्तम्भ
आवश्यक माने गये हैं।
१. विधायिका
(लेजिस्लेटिव संसद के नेता प्रधानमंत्री)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद ७४ के
अनुसार प्रधानमंत्री ही संघ की कार्यपालिका का भी प्रमुख होता है। क्योंकि वह
राष्ट्रपति के कृत्यों का संचालन करता है। इसीलिये प्रधानमंत्री का पद ही सबसे
महत्वपूर्ण पद है।
२. कार्यपालिका (
इग्ज़ेक्यूटिव या राष्ट्रपति)- भारत के राष्ट्रपति नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन
में रहते हैं, जिसे रायसीना हिल
के नाम से भी जाना जाता है, जो लगभग १८ मीटर
की ऊंचाई पर स्थित है । १९५० के पहले तक इसे वॉयसरॉय हाउस कहा जाता था और इस इलाके
का नाम लुटियंस जोन था। रायसीना हिल्स पर 'वॉयसरॉय हाउस' बना हुआ था और अंग्रेजों का शासन वहीं से चल रहा था। २३ जनवरी १९३१ को पहली
बार अंग्रेजों के जमाने में वॉयसरॉय ऑफ इंडिया लॉर्ड इरविन यहां रहने आये। इसी के आसपास संसद भवन, इंडिया गेट, विजय चौक और
राजपथ आदि इमारतें बनी हैं ।
भारत के
राष्ट्रपति संघ का कार्यपालक अध्यक्ष हैं। संघ के सभी कार्यपालक कार्य उनके नाम से
किये जाते हैं। वे तीनों सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च सेनानायक भी होते हैं।
सिद्धांततः राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है। पर कुछ अपवादों के अलावा
राष्ट्रपति के पद में निहित अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता
वाले मंत्रिपरिषद् के द्वारा उपयोग किए जाते हैं।
३. न्यायपालिका
(जूडिशीएरी या न्यायालय)। उच्चतम न्यायालय संविधान का रक्षक है और यह सरकार द्वारा
या किसी अन्य शक्ति द्वारा संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन को रोकता है। यद्यपि
भारत में इंग्लैंण्ड की संसदीय शासन प्रणाली के आधार पर संसदीय सरकार की स्थापना
की गयी है। लेकिन इंग्लैंण्ड में, जहाँ संसदीय
सर्वोच्चता को मान्यता दी गयी है, वहीँ भारत में संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त
को स्वीकार किया गया है।
संविधान में
विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारक्षेत्र की लक्ष्मण
रेखा साफ साफ खींच दी गई है। इसके अनुसार
कानून बनाना विधायिका (संसद) का काम है, इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान
सम्मत होने की जांच करना न्यायपालिका का काम है।
ब्यूरोक्रेट्स (अधिकारी वर्ग) तथा जूडिशीएरी न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करती है, उनका उल्लंघन करने वालों को सजा देती है। उनके
पास गलती करने वालों को सजा देने का अधिकार होता है, इसीलिये उनको अधिकारी वर्ग कहा जाता है।
कार्यपालिका,
ब्यूरोक्रैसी (Bureaucracy) या अफसरशाही कर्मियों (कार्मिकों) का वह समूह
है जिस पर किसी संघ के प्रशासन का केंद्र आधारित है। यह आम धारणा बन गई है कि विधायिका (राजनीतिक नेतृत्व) अपने स्वार्थ को
पूरा करने के लिए ब्यूरोक्रेसी का इस्तेमाल करता है और वही अफसरों को भ्रष्ट बनाता
है। पर यह अधूरा सच है। असल में जिस तरह राजनीतिक नेतृत्व ऊंचे पदों पर बैठे
ब्यूरोक्रेट्स का अपने लिए इस्तेमाल करता है, उसी तरह ब्यूरोक्रेसी भी अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए
राजनीतिक संरक्षण हासिल करती है। यदि हमारी ब्यूरोक्रेसी ने पूरी ईमानदारी और
तटस्थता से भ्रष्टाचार का विरोध किया होता, तो भ्रष्टाचार का मौजूदा स्वरूप नहीं दिखता. यह ब्यूरोक्रेसी
में व्याप्त भ्रष्टाचार का नतीजा है कि आज हर योजना में भ्रष्टाचार मौजूद है।
ब्रिटिश शासकों
ने वर्तमान नौकरशाही को अपनी वफादारी सुनिश्चित करने के लिये यूरोपियन माडल के
अनुरुप ढाला था। स्वाधीनता का इतिहास इस बात की गवाह है कि उन दिनों के अधिकांश
आई.सी.एस अफसरों में अंग्रेजों की चाटुकारिता, बेइमानी, बदनीयती का पलडा
इतना भारी था कि ईमानदारी खो गयी थी। और सोने की चिड़िया की लूट इस नौकरशाही के ही
हाथों होती रही।
सीबीआई प्रमुख
रंजीत सिन्हा के बारे में सुप्रीम कोर्ट की हालिया राय - इसी कड़ी का खुलासा करती
है. तभी तो हमारे देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने पार्लियामेन्ट के
भीतर और बाहर यह कहा था कि सरकार द्वारा खर्च किए गए प्रत्येक रुपए का सिर्फ़ १५
पैसा ही जनता तक पहुँचता है, बाकी ८५ पैसा
भ्रष्टाचारियों की जेबों में चला जाता है। सी.डब्लू.जी. घोटाला (कॉमनवेल्थ गेम्स
में गड़बड़ी का मामला) हो या आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला, 2जी स्कैम हो या कोयला घोटाला- सभी में ऊंचे ओहदों पर बैठे अफसरों की
संदेहास्पद भूमिका रही है.
४. दूरदर्शन एवं
प्रिंट मिडिया : दूरदर्शन की भूमिका एक
पहरेदार जैसी है,जो समसामयिक
विषयों पर लोगों को जागरुक करने तथा उनकी राय बनाने में बड़ी भूमिका निभाता है,
वहीं वह अधिकारों/शक्ति के दुरुपयोग कर बड़े बड़े घोटालों (टूजी,चारा, अलकतरा, कोयला) को रोकने
में भी उसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए कहा जाता है कि किसी देश में स्वतंत्र,
निष्पक्ष मीडिया भी उतना ही महत्वपूर्ण है
जितना कि लोकतंत्र के दूसरे स्तंभ।
किन्तु लोकतंत्र के चोथे स्तम्भ अधिकांश मीडिया का
सबसे बुरा हाल क्यों है ? सुप्रीम कोर्ट ने
गुजरात काडर के बर्खास्त आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट की वो याचिका खारिज कर दी है,
जिसमें उन्होंने ये दावा किया था कि गोधरा कांड के बाद हुई इस बैठक में नरेंद्र
मोदी ने अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को सबक सिखाने की बात करते हुए आपत्तिजनक
टिप्पणियां की थी और वो खुद उस बैठक में मौजूद थे। प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह
को बदनाम करके हिन्दू-मुस्लिम एकता को नष्ट करके की साजिश रचने के चक्कर में स्वयं
भट्ट ही पूरी तरह बेनकाब हो ही गये हैं।
इस फैसले से यही नहीं, वो विपक्षी
पार्टी के नेताओं से पैकेज और अन्य सामग्री भी हासिल कर रहे थे और विपक्षी पार्टी
को अपनी पार्टी तक बता रहे थे. स्पष्ट
होता है कि नेता-अफसर और इलेट्रॉनिक
मिडिया का नेक्सस विगत १२ वर्षों से 'मोदी सरकार' तथा भाजपा
अध्यक्ष 'अमित शाह' को बदनाम करके देश के हिन्दू-मुसलमानों में फूट
डालने के साजिश को कैसे आगे बढ़ाया जाए,
इसकी तैयारी कर रहे थे।
प्रजातंत्र के ये
चारों स्तम्भ मिलकर भी 'आदर्श कर्मी'
(चरित्रवान, और देशभक्त नागरिक) का निर्माण करने में असमर्थ क्यों हो
रहे हैं ? क्योंकि हमारी
ब्यूरोक्रेसी का मौजूदा ढांचा और काम करने के उसके तौर-तरीके देश और जनता की
जरूरतों से मेल नहीं खाते हैं। हमेशा अपने स्वार्थ का ध्यान पहले रखने वाली
ब्यूरोक्रेसी विगत ६५ वर्षों से भारत में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था लागु होने के
बावजूद, आज भी भारत की जनता को
अपना शासक नही मानतीै। नेता और नौकरशाह लोग अपने को जनता का सेवक नहीं जनता का
मालिक ही समझते आ रहे हैं। किंतु ये सभी जनता के सेवक या पब्लिक सर्वेन्ट हैं,
क्योंकि इन्हें जनता द्वारा दिये गए टैक्स के
पैसों से तनख्वाह मिलती है।
कार्यपालिका
भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में क्यों विफल हो रही है ? क्योंकि कार्यपालिका के कर्मी आदर्श कर्मी न होकर लालफ़ीता
शाह बन गए हैं। अफ़सरशाही में अनावश्यक औपचारिकता का अपनाया जाना लालफीताशाही है।
लालफीताशाही कार्यपालिका को कठोर, यन्त्रवत और
अत्यन्त अनौपचारिक कार्यविधि बना दे ती हैं। जब लालफीताशाही बहुत बढ़ जाती है तो
प्रशासन में लचीलापन समाप्त हो जाता है। फलस्वरूप प्रशासकीय निर्णयों में देरी
होती है और प्रशासकीय कार्यों के संचालन में सहानुभूति , जन -सहयोग और लोक-सेवक होने का भाव गौण हो जाता है।
२०१० में
इन्फोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने भी भारतीय नौकरशाही के स्वरूप में
बदलाव की सलाह दी थी. उन्होंने कहा था कि भारतीय नौकरशाही का माइंडसेट और ढांचा आज
के समय के अनुकूल नहीं रह गया है। हमारी ब्यूरोक्रेसी कई तरह की समस्याओं की गिरफ्त में है. वह
लापरवाही, सुस्ती और भ्रष्टाचार का
पर्याय बन गई है, ऊपर से राजनीतिक
अवमूल्यन ने उसे भ्रष्ट और निकम्मा बना दिया है। देश की ब्यूरोक्रेसी को सोच-विचार
का अपना तरीका यानी माइंडसेट बदलना चाहिए। आई.ए.एस सेवाओं को खत्म कर उसकी जगह
इंडियन मैनेजमेंट सर्विस का गठन किया जाना चाहिए।
एक निजी टीवी चैनल द्वारा आयोजित राष्ट्रीय
न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम पर आयोजित परिचर्चा में जाने-माने वकील
और वित्त मंत्री अरूण जेटली, सुप्रीम कोर्ट के
पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढ़ा, न्यायविद सोली सोराबजी और राजीव धवन ने महसूस किया कि न्यायाधीशों द्वारा
न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था में खामियों को सही करने की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग NJAC को खारिज करने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली
ने करारा हमला किया। उन्होंने कहा, भारतीय लोकतंत्र
में ‘ऐसे लोगों की निरंकुशता
नहीं चल सकती जो चुने नहीं गए हों।’ कॉलेजियम का विरोध करते हुए जेटली ने कहा कि जहां देश को स्वतंत्र न्यायपालिका
की आवश्यकता है, वहीं उसका विश्वसनीय होना अधिक महत्वपूर्ण है। हम सब
जानते हैं कि एक 'सीबीआई निदेशक'
था जो स्वतंत्र था लेकिन भरोसेमंद नहीं था।
जेटली ने बिना विधायिका और कार्यपालिका के हस्तक्षेप के न्यायाधीशों को नियुक्त
करने की प्रक्रिया में न्यायपालिका को मिले विशेष अधिकार पर सवाल उठाए। उन्होंने
कहा कि कॉलेजियम व्यवस्था जिमखाना क्लब की तरह है जहां के सदस्य ही भावी सदस्यों
को नियुक्त करते हैं। मंत्री ने कहा कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में अंकुश और
संतुलन ' चेक्स ऐंड
बैलन्सेस ' की एक व्यवस्था
होनी चाहिए। उन्होंने कहा, सिर्फ
न्यायपालिका ही संविधान का मूल आधार नहीं है। विधायिका (संसदीय लोकतंत्र) संविधान
का सबसे अहम मौलिक ढांचा है। प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष, कानून मंत्री, सभी संविधान के
मूल आधार का हिस्सा हैं, वे लोगों की
इच्छा की नुमाइंदगी करते हैं। जेटली के अलावा कानून मंत्री सदानंद गौडा और
दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की थी।
जस्टिस लोढा ने कहा कि यह बात सही है कि कॉलेजियम व्यवस्था अपारदर्शी और गोपनीय
है। इसमें तीन खामियां हैं- पारदर्शिता का अभाव, स्थायी समिति जैसे विशेषज्ञ निकाय का अभाव, कॉलेजियम की मदद और भागीदारी प्रक्रिया में
विधायिका और कार्यपालिका की उदासीनता भरी भूमिका।
अभी हाल में ही
दूरदर्शन पर ब्यूरोक्रेसी में सुधार लाने, उसे अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से एक परिचर्चा का लाइव टेलीकास्ट चल रहा
था; जिसमें सांसद
(पक्ष-विपक्ष के नेता), सरकार के पूर्व
चीफ़ सेक्रेटरी और एक वरिष्ठ पत्रकार आपस में चर्चा कर रहे थे, जिसे मैं भी देख रहा था। दूरदर्शन के ऐंकर ने
कहा- चूंकि प्रशासन में समाज की कोई भागीदारी नहीं होती, लिहाजा अधिकारी भी जनता की जरूरतों को नहीं समझ पाते हैं.
गुलाम भारत के
ब्यूरोक्रेट्स या नौकरशाह अपने अंग्रेज आकाओं के आदेश को लागु करते थे, इसीलिये वे अपने को जनसेवक (पब्लिक सर्वेन्ट)
नहीं जनता के मालिक समझते थे। और जनता के साथ उनका व्यवहार भी एक अंग्रेज-शासक के
जैसा होता था, इसलिये काली चमड़ी
होने के बावजूद अपने लिये साहब या मेमसाहब का सम्बोधन सुनना पसन्द करते हैं । किन्तु आज की ब्यूरोक्रेसी भी औपनिवेशिक शासन
काल की तरह सोचती और व्यवहार करती है. वह अब भी खुद को शासक मानती है. न तो उसके
पास पास काम करने की इच्छाशक्ति है और न कोई दृष्टि. इसी का नतीजा है कि सरकारी
प्रशासन और आम जनता में दूरी बनी हुई है और योजनाओं का फायदा जनता को मिलने के
बजाय दलालों को मिल रहा है।
भाजपा सांसद श्री
चंदन मित्रा ने ब्यूरोक्रेसी पर कटाक्ष करते हुए चर्चित फिल्म शोले के
प्रसिद्ध डायलॉग को उद्धृत किया - " हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर
हैं।आधे दाएँ जाओ, आधे बाएँ बाकी मेरे पीछे आओ। हम नहीं सुधरे तो तुम क्या
सुधरोगे-हा हा!? " जो 'अंग्रेजों के ज़माने के जेलर (नौकरशाह) हैं उनकी
उम्र इतनी अधिक हो गयी है, और आदतें इतनी
पक्की हो गयीं हैं कि अब उन पुरानी आदतों को बदलना, और उनके चरित्र में सुधार लाना बहुत कठिन है।
भ्रष्टाचार का
दानव तभी मरेगा जब हम स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनेगे। हमे भी ईमानदारी से अपने आप को टटोलना होगा कि
इसके लिये हम खुद कितने तैयार है ? स्वामीजी ने कहा
था - ' भारत तभी जागेगा, जब विशाल ह्रदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष
भोग-विलास और सुख के सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन तथा कर्म से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण हेतु सचेष्ट
होंगे, जो निरन्तर निर्धनता एवं
अज्ञान के अगाध सागर में डूबते जा रहे हैं'.
भ्रष्टाचारी
अंग्रेजों के जमाने के -अपना पदनाम 'जेलर-साहब' शब्द सुनते ही
उसके चित्तरूपी सरोवर में बहुत सी छोटी छोटी लहरें उठने लगती हैं। यही स्मृति है !
इस देहाध्यास की स्मृति में फंस कर वह अपने यथार्थ स्वरूप (आत्मा) को भूल कर कहने
लगता है - 'मैं अंग्रेजों के जमाने
का जेलर हूँ'! निद्रा में भी
यही घटना होती है। जब निद्रा नमक लहर चित्तरूपी सरोवर में स्मृति रूपी लहर उत्पन्न
कर देती है, तब उसे स्वप्न
कहते हैं। जाग्रत अवस्था में जिसे स्मृति कहते हैं, निद्राकाल में उसी प्रकार की वृत्ति को स्वप्न कहते हैं।
इसीलिये वह दिनरात स्वप्न में भी अपने को भूतपूर्व जेलर ही सोचता है, और वैसा ही सपना देखता है। इस स्तर के
भ्रष्टाचारी जेलर, के लिये उपचारात्मक
कानून, सी.बी.आई छापा आदि तो
पहले से ही बने हुए हैं।
किन्तु यदि कोई
भ्रष्टाचारी नेता, प्रशासक या
मीडियाकर्मी , किसी कारण वश
(ईश्वर की कृपा-सत्संग, विवेक-प्रयोग
करने से) अपने पूर्व चरित्र से ऊब चुका हो, और अपना सुंदर चरित्र गढ़ना चाहे, तो इसका उपाय वैसे व्यक्ति के (जेलर का) चरित्र में सुधार लाने का उपाय बतलाते हुए
महर्षि पतंजलि समाधिपाद में - पहले 'अथ योग अनुशासनम् ' कह लेने के बाद,
कहते हैं-
अभ्यासवैराग्याभ्यां
तन्निरोधः ॥१२॥
" प्रत्येक कार्य से मानो चित्तरूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल
जाती है। यह कम्पन कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है। तब शेष क्या रहता है ? --केवल संस्कार समूह। मन में ऐसे बहुत से संस्कार
पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि 'आदत ही मनुष्य का दूसरा स्वभाव है'। किन्तु केवल दूसरा स्वभाव ही नहीं यह आदत ही
मनुष्य का पहला स्वभाव भी है -मनुष्य का समस्त स्वभाव इस आदत पर ही निर्भर करता
है।
यह जान सकने से
कि सब कुछ आदत का ही परिणाम है, मन में शांति आती
है। क्योंकि यदि हमारा वर्तमान स्वभाव केवल आदत से निर्मित हुआ है, तो हम जब चाहें अपनी इच्छानुसार विवेक-प्रयोग
करके पुरानी अशुभ या बुरी आदतों को नष्ट भी कर सकते हैं! इस तरह यह निष्कर्ष
निकलता है कि मैं स्वतंत्र हूँ ! दैव या भाग्य नाम की कोई चीज नहीं है। बाह्य जगत
में कोई भी ऐसी चीज नहीं, जो हमें बाध्य कर
सके! जो हमने किया है, उसका हम निराकरण भी कर सकते हैं।२/२३०
हमारे मन में
उठने वाला प्रत्येक विचार अपना एक एक चिन्ह या संस्कार छोड़ जाता है। हमारा चरित्र
इन सब संस्कारों की समष्टि स्वरूप है। बुरी आदतों (bad habits) को नष्ट करने का एकमात्र 'रेमिडी' या उपाय है प्रतिकूल आदतों (counter habits) अर्थात अच्छे कर्मों का पुनः पुनः विवेक-पूर्ण
अभ्यास। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र
चिंतन करो - 'बेस इम्प्रेसंस'
पूर्व संचित संस्कारों को दबा कर नये
विवेक-सम्मत संस्कारों के निर्माण का बस, यही एक उपाय है। ' नेवर से एनी मैन
इज होपलेस'--ऐसा कभी मत कहो
कि अमुक (अंग्रेजों के ज़माने के जेलर या ब्यूरोक्रेट्स ) के चरित्र में सुधार की
कोई आशा नहीं; क्योंकि उस
व्यक्ति का वर्तमान बुरा-चरित्र केवल कुछ असत प्रकार की आदतों की समष्टि -'
बंडल ऑफ़ हैबिट्स' मात्र है, और इन बुरी आदतों
को अच्छी आदतों के अभ्यास से दूर किया जा सकता है। ' कैरेक्टर इज
रिपीटेड हैबिट्स' -चरित्र बस पुनः
पुनः दुहराये जाने वाली आदतों की समष्टि मात्र है, और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर
सकता है - ' रिपीटेड हैबिट्स
अलोन कैन रिफार्म करैक्टर' !
किसी समस्या को
हल करने के दो तरीके हो सकते हैं- पहला तरीका है, उपचार करना और दूसरा तरीका है निरोध। किन्तु हमलोग जानते
हैं कि -'प्रिवेंशन इज बेटर दैन
क्योर.' अर्थात किसी मर्ज का इलाज
करने से बेहतर है उसकी रोकथाम की जाये !इसीलिये 'अंग्रेजों के जमाने का जेलर 'हूँ'- इस मिथ्या 'अहं रूपी कैंसर ' का प्राइमरी स्टेज पर इलाज कराकर इस बीमारी से निजात पाई जा
सकती है। इस प्रिवेन्टिव उपाय को विज्ञान
की भाषा में 'कॉन्शसनेस
मैनेजमेन्ट सिस्टम' और आध्यात्म की
भाषा में 'विवेक-प्रयोग' कहते हैं ।
यह चेतनता या विवेक-प्रयोग करने की
शक्ति ही मनुष्य के जड़-पदार्थ या पशु से
भिन्न 'ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ
रचना' होने की पहचान है !
मैटर से
कॉन्शसनेस को अलग करने की विधि है- मनःसंयोग ! मनुष्य के मन में चेतनता (अर्थात
विवेक-प्रयोग करने की शक्तिअर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्ति) रहने के कारण उसमें खुद से (मिथ्या अहं से)
भिन्न होने की प्रवृत्ति होती है, इसीलिये मन अपने
को दो भागों में बाँट सकता है । 'डबल-प्रेजेन्स ऑफ़ माइन्ड' की शक्ति से द्रष्टा मन अपने ही दृश्य मन को
देख सकता है !श्रेय-प्रेय, नित्य-अनित्य का
विवेक करके वह अपने को इन्द्रियों (मस्तिष्क में स्थित -स्नायुकेन्द्र, ऑप्टिक नर्भ आदि) से खींच कर सत्य (ईश्वर) में
नियोजित रख सकता है।
विवेक-प्रयोग करने यह क्षमता ही उसे- पुरानी
आदतों, प्रवृत्तियों (प्रकृति )
से स्वतंत्र बनाती है। [हमारी चेतना की
धार जहां-जहां (देहाध्यास की मान्यताओं में -इन्द्रिय विषयों में ) फंसी है,
वहां-वहां से उसे हटाना होगा। उस विधि को
भारतीय योग-शास्त्र में प्रत्याहार कहा जाता है। इसके बाद स्रोत (आत्मा-ह्रदय ) की
तरफ लौटना, या श्रोत से जुड़ जाने का
अभ्यास । यानी जहाँ से सब कुछ निकला है, जिसमें स्थित है, जिसमे लीन हो
जाता है - अपने ह्रदय से जुड़ना। इसीको धारणा कहते हैं।]
" क्या
(भ्रष्ट-ब्यूरोक्रेट्स से) लोगों से हमारा यह कहना उचित होगा कि घुटने टेककर
चिल्लाओं -कन्फेशन करो ! कि प्रभु हम इतने बड़े पापी हैं ? नहीं, नहीं, बल्कि हम उन्हें उनकी खोई हुई आत्मश्रद्धा को
वापस लौटा दें ; उन्हें उनकी दैवी
प्रकृति की याद दिला दें ! मैं तुमसे एक कहानी कहूँगा। एक आसन्नप्रसवा सिंहनी
शिकार की टोह में भेड़ों के किसी झुण्ड के ऊपर कूद पड़ी। किन्तु ज्यों ही वह अपने
शिकार पर झपटी कि उसे प्रसव हो गया और वह वहीं मर गयी। वह सिंह-शावक भेड़ों के बीच
ही पाला -पोसा गया। वह घास (घूस खाता) खाता और भेड़ों की तरह ही में-में करके बोलता,क्योंकि उसे कभी यह ज्ञान नहीं हुआ कि वह सिंह
है। एक दिन एक दूसरा सिंह उधर से निकला। एक भीमकाय सिंह को भेड़ों के बीच घास खाते
और भेड़ों की तरह ही में-में करते देख उसे बहुत आश्चर्य हुआ। इस नये सिंह को देख
सभी भेड़ें भाग खड़ी हुईं और उनके साथ वह सिंह-भेड़ भी।
किन्तु सिंह मौके
की ताक में रहने लगा, और एक दिन उसने
सिंह-भेड़ को अकेला सोते पाया। उसने उसे जगाया और कहा - "तुम सिंह हो !"
दूसरे सिंह ने जवाब दिया -'नहीं', और यह कहकर वह भेड़ों की तरह मिमियाने लगा। इस
पर वह नया सिंह उसको एक झील के किनारे ले गया और कहा- " तुम पानी में देखो और
बताओ कि क्या तुम्हारा चेहरा मुझसे मिलता-जुलता नहीं है ? देखो ! दोनों का चेहरा हाँडी के जैसा दीखता है ? उसने वैसा ही किया और देखकर स्वीकार किया कि
हाँ, बात तो बिल्कुल ठीक है।
तब उस नये सिंह ने गरजना शुरू किया और उससे कहा कि तुम भी ऐसा करो ! सिंह-भेड़ ने
अपनी आवाज आजमायी और फिर तो वह भी नये सिंह की ही भाँति विकराल रूप से गरजने लगा।
और तब उसका भेड़पन जाता रहा। मेरे मित्रों, मैं तो तुमसे यही कहूँगा कि तुम सभी बलशाली सिंह हो ! " (२/२३६)
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