जहां तक भारतीय अध्यात्मिक विषय से जुध विद्वान लोगों का ज्ञान है वह इस बात की पुष्टि नहीं करता कि इस देश का पूरा समाज मूर्ख और रूढ़िवादी हैं जैसा कि कथित सुधारवादी मानते हैं| जिस तरह पिछले साठ वर्षों से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से कुछ मुद्दे पेशेवर समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने तय कर रखे हैं , उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया उससे तो लगता है कि वह यहां के आम आदमी को अपने जैसा ही जड़बुद्धि ही समझते हैं। उनकी बहसें और प्रचार से तो ऐसा लगता है कि जैसे यहां का समाज बौद्धिकरूप से जड़ है और यह उन भ्रम उन विद्वानों को भी हो सकता है जो ज्ञान होते हुए भी कुछ देर अपना दिमाग इस तरह की बहसों और प्रचारित विषयों को देखने सुनने में लगा देते हैं। दरअसल जब राजनीति, समाज सेवा और अध्यात्मिक ज्ञान देना एक व्यापार हो गया हो तब यह आशा करना बेकार है कि इन क्षेत्रों में सक्रियमहानुभाव अपने प्रयोक्तओं या उपभोक्ताओं के समक्ष अपनी विक्रय कला का प्रदर्शन कर उनको प्रभावित न करें। हम उन पर आक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि प्रयोक्ताओं और उपभोक्ताओं को भी अपने ढंग से सोचना चाहिये। अगर आम आदमी कहीं इस तरह के व्यापारों में सेद्धांतिक और काल्पनिक आदर्शवाद ढूंढता हो तो दोष उसमें उसकी सोच का है। जिस तरह एक व्यवसायी अपना आय देने वाला व्यवसाय नहीं बदलता वैसे ही यह पेशेवर सुधारवादी अपने विचार व्यवसाय नहीं बदल सकते क्योंकि वह उनको पद, प्रतिष्ठा और पैसा देता है|
हां, हम इसी सोच की बात करने जा रहे हैं जो हमारे लिये महत्वपूर्ण है। जिस तरह इस देह में स्थित मन के लिये दो मार्ग है एक रोग का दूसरा योग का वैसे ही बुद्धि के लिये भी दो मार्ग है एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। जब बुद्धि सकारात्मक मार्ग पर चलती है तब मनुष्य के अंतर्मन में कोई नयी रचना करने का भाव आने के साथ ही तार्किक ढंग से विचार करने की शक्ति पैदा होती है। जब बुद्धि नकारात्मक मार्ग का अनुसरण करती है तब मनुष्य कोई चीज तोड़ने को लालायित होता है और तर्क शक्ति से तो उसका कोई वास्ता हीं नहीं रह जाता-वह असहज हो जाता है। यही असहजता उसे ऐसे मार्ग पर ले जाती है जहां उसका ऐसे ही भावनाओं के व्यापारी उसका भौतिक दोहन करते हैं जो स्वयं भी अनेक कुंठाओं और अशंकाओं का शिकार होते हैं और धन संचय में उनको अपने जीवन की सुरक्षा अनुभव होती है।
अपने स्वार्थ के कारण ही आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक शिखर पर बैठे शीर्ष पुरुष समाज में ऐसे विषयों का प्रतिपादन करते हैं जिनसे समाज की बुद्धि उनके अधीन रहे और नये विषय या व्यक्ति कभी समाज में स्थापित न हो पायें-एक तरह से उनका वंश भी उनके बनाये शिखर पर विराजमान रहे। वह अपने प्रयास में सफल रहते हैं क्योंकि समाज ऐसे ही कथित श्रेष्ठ पुरुषों का अनुसरण करता है। अगर कोई सामान्य वर्ग का कोई चिंतक उनको नयेपन की बात कहे तो पहले वह उसकी भौतिक परिलब्धियों की जानकारी लेते है। सामान्य लोगों की भी यही मानसिकता है कि जिसके पास भौतिक उपलब्धियां हैं वही श्रेष्ठ व्यक्ति है।
बहरहाल यही कारण है कि बरसों से बना एक समाज है तो उसकी बुद्धि को व्यस्त रखने वाले विषय भी उतने ही पुराने हैं। मनुष्य द्वंद्व देखकर खुश होता है तो उसके लिये वैसे विषय हैं। उसी तरह उनमें कुछ लोग सपने देखने के आदी हैं तो उनको बहलाने के लिये काल्पनिक कथानक भी बनाये गये। इनमें भी बदलाव नहीं आता।
पिछले एक सदी से इस देश में भाषा, जाति, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर विवाद खड़े किये गये। उनका लक्ष्य किसी समाज का भला करने से अधिक उसके नाम पर चलने वाले अभियानों के मुखियाओं का द्वारा अपने घर भरना था। इनमें से कईयों ने तो अपने संगठन दुकानों की तरह अपनी संतानों को दुकानों की तरह उत्तराधिकार में सौंपे| ऐसा करते हुए वह नये देवता बनते नजर आने लगे। सच बात तो यह है कि इस दुनियां में कभी भी कोई अभियान बिना माया के नहीं चल सकता। फिर जो लोग दावा करते हैं कि वह अमुक समूह का भला कर रहे हैं उनका कृत्य देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह काम निस्वार्थ कर रहे हैं। ऐसे में बार बार एक ही सवाल आता है कि कौन लोग हैं जो उनको धन प्रदान कर रहे हैं। तय बात है कि यह धन उन्हीं मायावी लोगों द्वारा दिया जाता होगा जो इस समाज को सैद्धांतिक मनोरंजन प्रदान करने के लिये उनका आभार मानते हैं।
अभियान चल रहे हैं। आंदोलन इतने पुराने कि कब शुरु हुए उनका सन् तक याद नहीं रहता। आंदोलन के मुखिया देह छोड़ गये या इसके तैयार हैं तो उनके परिवार के पास वह विरासत में जाता है। पिता नहीं कर सका वह पुत्र करेगा-यानि समाज सेवा, अध्यात्मिक ज्ञान तथा कलाजगत का काम भी पैतृक संपदा की तरह चलने लगा है।
सत्य और माया का यह खेल अनवरत है। ऐसा नहीं है इस संसार में ज्ञानी लोगों की कमी है अलबत्ता उनकी संख्या इतनी कम है कि वह समाज को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता नहीं रखते। वैसे भी कहीं किसी नये विषय या वस्तु का सृजन चाहता भी कौन है? अमन में लोग जीना भी कहां चाहते हैं। अमन तो स्वाभाविक रूप से रहता है जबकि लोग तो शोर से प्रभावित होते हैं। ऐसा शोर जो उनको अंदर तक प्रसन्न कर सके। यह काम तो कोई व्यापारी ही कर सकते हैं। इसके अलावा लोगों को चाहिये अनवरत अपने दिल बहलाने वाला विषय! यह तभी संभव है जब उसे अनावश्यक खींचा जाये-टीवी चैनलों में सामाजिक कथानकों को विस्तार देने के लिये यही किया जाता है। यह विस्तार बहस करने के लायक विषयों में अधिक नहीं हो सकता क्योंकि उसमें तो नारे और वाद ही बहुत है। समाज को नारी, बालक, वृद्ध, जवान, बीमार, भूखा, बेरोजगार तथा अन्य शीर्षकों के अंदर बांटकर उनके कल्याण का नारा देकर काम चल जाता है। इसके अलावा इतनी सारी भाषायें हैं जिसके लिये अनेक सेवकों की आवश्यकता पड़ती है जो सेवा करते हुए स्वामी बन जाते हैं। ऐसा हर सेवक अपनी भाषा, जाति, धर्म तथा क्षेत्र के विकास और उसकी रक्षा के लिये जुटा है।
मगर क्या वाकई लोग इतने भोले हैं! नहीं! बात दरअसल यह है कि इस देश का आदमी कहीं न कहीं से अपने देश के अध्यात्मिक ज्ञान से सराबोर है। वह यह सब मनोरंजन के रूप में देखता है। सामने नहीं कहता पर जानता है कि यह सब बाजारीकरण है। यही कारण है कि कोई भी बड़ा आंदोलन या अभियान चलता है तब उसमें लोगों की संख्या सीमित रहती है। उसमें लोग इसलिये अधिक दिखते हैं क्योंकि वहना नारों शोर होता हैं। शोर करने वाला दिखता है पर शांति रखने वाले की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। पिछले अनेक महापुरुषों को पौराणिक कथानकों के नायकों की तरह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा हैं इतनी सारी पुण्यतिथियां और जन्म दिन घोषित किये गये हैं कि लगता है कि सदियों में नहीं बल्कि हर वर्ष एक महापुरुष पैदा होता है। लोग सुनते हैं पर देखते और समझते नहीं है। यह जन्म दिन और पुण्यतिथियां उन लोगों के नाम पर भी बनाये गये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के पुरोधा समझे जाते हैं जिसमें जन्म और मृत्यु को दैहिक सीमा में रखा गया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी अवधारणा को यह कहकर खारिज किया गया है कि आत्मा तो अमर है। जो लोग बचपन से ऐसे कार्यक्रम देख रहे हैं वह जानते हैं कि आम आदमी इनसे कितना जुड़ा है। हालांकि इसका परिणाम यह हो गया है कि लोगों ने अपने अपने जन्म दिन मनाना शुरु कर दिया है। प्रचार माध्यमों ने अति ही कर दी है। हर दिन उनके किसी खिलाड़ी या फिल्म सितारे का जन्म दिन होता है जिससे उनको उस पर समय खर्च करने का अवसर मिल जाता है। काल्पनिक महानायकों से पटा पड़ा है प्रचार माध्यमों को पूरा जाल।
इसके बावजूद एक तसल्ली होती है यह देखकर कि काल्पनिक व्यवसायिक महानायकों का कितना भी जोरशोर से प्रचार किया जाता है पर उससे आम आदमी अप्रभावित रहता है। वह उन पर अच्छी या बुरी चर्चा करता है पर उसके हृदय में आज भी पौराणिक महानायक स्थापित हैं जो दैहिक रूप से यहां भले ही मौजूद न हों पर इंसानों के दिल में उनके लिये जगह है। यह काल्पनिक व्यवसायिक नायक तभी तक उसकी आंखो में चमककर उसकी जेब जरूर खाली करा लें जब तक वह देह धारण किये हुए हैं उसके बाद उनको कौन याद रखता है। सतही तौर पर जड़ समाज अपने अंदर चेतना रखता है यह संतोष का विषय है भले ही वह व्यक्त नहीं होती।
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सबकी भलाई का दावा शोरकर जतायें, उगाहें धन पर समाजसेवक कहलायें।
तिकड़म से करें अपना काम, बेबस का दिल हमेशा वादे से बहलायें।।
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इंसानी नीयत का पता नहीं चलता, अक्लमंद शब्द के अर्थ से छलता।
भावनाओं के व्यापार में, हर रस सौदे की शक्ल में ढलता।।
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तूफान की तरह सांस ले रहे सभी शहर, हर कदम मिलता हादसे का कहर।
समुद्र मंथन में अमृत पी गये देवता, बनाते नकल में सब जहर।।
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कोई रोये तो तरस आता नहीं, कोई हंसे तो पसंद आता नहीं।
हम हैरान है उन लोगों पर, कोई रस जिनको भाता नहीं।।
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जंगल खा गया इंसान शेर हुए लापता, चालाक लोग करें लोमड़ी जैसी खता।
संसार में छा गया कागज का राज, पत्थरों में ढूंढते अपना पता।।
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लालची का नहीं होता ज्ञान से वास्ता, माया महल ही जाता उसका रास्ता।
धर्म दाव पर लगा देते, काम क्रोध लोभ से जो होते बावस्ता।।
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धर्म की रक्षा अर्थ से बताते हैं, ज्ञान से शक्तिशाली धन बताते हैं।
पाखंड का जाल बुनकर, भक्तों के भय से कमाते हैं।।
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दिमाग में राजकाज की समझ नहीं है, जहां भीड़ का अंगूठा सहमति वहीं है।
दाल रोटी के फेर में फंसे, जहां चूल्हे पर पके घर भी वहीं है।।
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चिड़िया तिनका तिनका चुन बनाती घर, इंसान छत के लिये रहता दर-ब-दर।
किश्तों में चलाते जिंदगी, उम्र जंग में गुजरे मिले न चैन की डगर।।
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उत्सव में अब खुशी कहां मिलती है, चम्मच समेटे चावल थाली हिलती है।
दिल हो गये पत्थर जैसे, जीभ केवल खाने पर ही पिलती है।।
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पत्थर के बुत पर भले यकीन करना, व्यर्थ है मांस के पुतले याचना करना।
संगीनों के पहरे में अमीर बने राजा, न जाने भभकी से डरना।।
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कर्मकांड की गठरी सिर पर रखे हैं, धर्म के पाखंड में हर मिठाई चखे हैं।
‘दीपकबापू’ सर्वशक्तिमान का गायें भजन, मन में स्वाद के कांटे रखे हैं।।
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अपने हिस्से की खुशी उठा लेते हैं, फिर भी आगे के लिये जुटा लेते हैं।
‘दीपकबापू’ मुफ्त का चिराग ढूंढ रहे, अंधेरों में जो सब लुटा देते हैं।।
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मन विज्ञान न जाने भ्रम में अटके हैं, माया ज्ञान बिना लालच में भटके हैं।
‘दीपकबापू’ जुबान में भर लिये शब्द, अर्थ से बेखबर अपमान में लटके हैं।।
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मौके के मेलों में लोगों की भीड़ लगे, मन के बहलने में सब जाते ठगे।
‘दीपकबापू’ एकांत साधना करें नहीं, शोर में करें आशा शायद चेतना जगे।।
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हर पल आदमी की नस्ल बदल जाती, छोटी सोच से याद साथ नहीं आती।
ताकतवर डालें अपने पाप पर परदा, ‘दीपकबापू’ गरीब जुबां बोल नहीं पाती।।
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कोई काम न हो भलाई का व्यापार करें, सेवा का नाम लेकर घर में माल भरें।
‘दीपकबापू’ सजायें बाज़ार में अपनी छवि, विज्ञापन से चमके नाम चिंता न करें।।
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अपने ही मसलों के हल उन्हें नहीं सूझते, बेबसों के लिये वह कहीं भी जूझते।
‘दीपकबापू’ तख्त पाया गज़ब ढाया, अचंभित लोग विकास की पहेली नहीं बूझते।।
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बिना कालापीला किये अमीर नहीं बनते, धरा पर वार बिना शामियाने नहीं तनते।
‘दीपकबापू’ सभी को मान लेते ईमानदार, पकड़े गये चोर नहीं तो साहुकार बनते।।
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बड़े भाग्य माने अगर कोई पूछता नहीं, मुकुटहीन सिर से कोई विरोधी जूझता नहीं।
भीड़ से बेहतर लगे जिंदगी में एकांत, ‘दीपकबापू शोर में श्रेष्ठ विचार सूझता नहीं।।
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पुजते वही छवि जिनकी साफ दिखती, किसी की सोच पर नीयत नहीं टिकती।
‘दीपकबापू’ दौलत के गुलामों की मंडी में, औकात काबलियत से नहीं बिकती।।
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अपना कर्तव्य भूल अधिकार की बात करें, फल चाहें पर दायित्व लेने से डरें।
‘दीपकबापू’ मुख से शब्द बरसायें बेमौसम, दिल में कीचड़ जैसी नीयत धरें।।
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सभी इंसान स्वभाव से चिकने हैं, स्वार्थ के मोल हर जगह बिकने हैं।
भक्त फल के लिये जुआ खेलें, सत्संग में कहां पांव टिकने हैं।।
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सामानों के दाम ऊंचाई पर डटे हैं, समाज में रिश्तों के दाम घटे हैं।
लोग राख से सजाते चेहरा, अकेलेपन से दिल सभी के फटे हैं।।
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खुशी कहीं दाम से नहीं मिलती, सोचने से कभी तकदीर नहीं हिलती।
जब दिल लगाया लोहे में, जहां संवेदना की कली नहीं खिलती।
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इंसानों ने जिंदगी सस्ती बना ली, ऋण का घृत पीकर मस्ती मना ली।
ब्याज भूत लगाया पीछे, छिपने के लिये अंधेरी बस्ती बना ली।।
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संवेदनाओं को लालच के विषधर डसे हैं, दिमाग में जहरीले सपने बसे हैं।
लोग हंस रहे पराये दर्द पर, सभी इंसान अपने ही जंजाल में फसे हैं।।
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किसी की छवि खराब करना जरूरी है, प्रचार युद्ध में सभी की यही मजबूरी है।
अपने पराये में भेद न करें, कचड़ा शब्द फैंकने की तैयारी पूरी है।।
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कागज के शेर रंगीन पर्दे पर छाये हैं, काले इरादे से सफेद चेहरा लाये हैं।
शोर से आंख कान लाचार, रोशनी के सौदे में अंधेरा सजाये हैं।
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पीपल की जगह पत्थर के वृ़क्ष खड़े हैं, विकास के प्रतीक की तरह अड़े हैं।
किताब पढ़ प्यास बुझाते, जलाशय उसमें चित्र की तरह जड़े हैं।।
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कुचली जाती हर दिन धूल पांव तले, सिर पर करे सवारी जब आंधी चले।
ज्ञानी मत्था टेकते धरा पर, गिरें कभी तो दिल में दर्द न पले।।
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बेचैन दिल बाहर भी न रम पाये, घर की याद हर जगह जम जाये।
पैसे से पा रहे मनोरंजन, हिसाब लगाकर फिर गम पाये।।
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समाज कल्याण के लिये सक्रिय दिखते, विरासत परिवार के नाम लिखते।
मानव उद्धार के बने विक्रेता, पाखंड से ही बाज़ार में टिकते।।
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स्वाद लोभी अन्न का पचना न जाने, रंग देखते चक्षु अंदर का इष्ट न माने।
बाज़ार की रोशनी में अंधे, उजाले के पीछे छिपा अंधेरा न जाने।।
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ढोंगी भ्रम का मार्ग बता नर्क में डालें, फिर स्वर्ग का ख्वाब दिखाकर टालें।
ओम का जाप नित करें, घर में ही बाहरी सुख का मंत्र पालें।।
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