Sunday, June 26, 2016

1‐ मैं एक व्यक्ति नहीं, मैं सम्पूर्ण राष्ट्र की अभिव्यक्ति हूँ। मैं संकीर्ण नहीं, वि राट हूँ। मैं परमात्मा का प्रतिरूप हूँ। मैं सत्य, अहिंसा व सदाचार का प्रतिनिधि हूँ। मेरे तन में, मेरा वतन बसता है। मैं भारत की तकदीर व तस्वीर हूँ। मैं अपना व अपने वतन का भाग्यविधाता हूँ।
2‐ मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है। मैं जो भी देख रहा हूँ, सब भगवान् का ही स्वरूप है। मैं जो भी कर रहा हूँ, सब प्रभु की पूजा है। मैं जो भी पा रहा हूँ, सब भगवान् का प्रसाद है। मैं भगवान् का पुत्र-पुत्री हूँ, वह विश्वनियन्ता ब्रह्माण्ड का रचयिता भगवान् मेरा पिता है, विश्व की सर्वापरि सत्ता-शक्ति के आशीष, सदा मेरे शीश पर हैं।
3‐ मैं सौभाग्य शाली हूँ कि मैंने उस पवित्र भूमि व देश में जन्म लि या है, जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्रीकृष्ण, महावीर, गुरु नानकदेव, गुरु गोविन्द सिंह जैसे देवपुरुषों, महाराणा प्रताप, छत्रपति शवाजी, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाष चन्द्र बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, राजगुरु व अश्फाक उल्ला खां, अल्लूरी सीताराम राजू, रानी लक्ष्मीबाई, कित्तूर रानी चन्नमा जैसे वीरों एवं वीरांगनाओं तथा महर्षि बाल्मीकि, संत रवीदास, संत कबीर, संत तुका राम, संत बस्वेश्वर महाराज, महर्षि दयानन्द व स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष पैदा हुए हैं। मैं अपने जीवन पुष्प से माँ भारती की आराधना करुँगा।
4‐ धरती जैसा धैर्य, अग्नि जैसा तेज, वायु जैसा वेग, जल जैसी शीतलता व आकाश जैसी विराटता मेरे परमात्मा ने मुझे विरासत में दी है।
5‐ माता, पिता, गुरु या पूवर्जों से मेरी पहचान हो, ये मेरी शान नहीं क्योंकि इसमें मेरा कोई योगदान नहीं, माता-पिता ने मुझे जन्म दिया है और गुरुअों ने दि या है, मुझे ज्ञान। मेरे पूर्वज हैं, मेरे स्वाभिमान। अपने ज्ञान, कर्म व जीवन से मैं बनाऊँगा, अपनी पहचान व बढ़ाऊँगा माता-पिता, गुरु, वंश व देश का सम्मान।
6‐ मैं भाग्यवादी या भोगवादी या आतंकवादी नहीं, मैं पुरुषार्थवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी व अध्यात्मवादी हूँ। प्रान्तवाद, भाषावाद, मजहबवाद, वैचारिक विवादों से मुक्त, मैं राष्ट्रवाद का शंखनाद हूँ।
7‐ मैं मात्र एक व्यक्ति नहीं, अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र व देश की सभ्यता व संस्कृति की अभिव्यक्ति हूँ। अतः मेरे प्रत् येक अच्छे या बुरे आचरण से मेरा पूरा राष्ट्र प्रभावित होता है। जब तक मेरी नाड़ियों में खून बह रहा है और देह में प्राण प्रवाहमान हो रहा है, मैं देश के साथ धोखा नहीं करुँगा। यह मेरी भीष्म प्रतिज्ञा है।
8‐ बच्चों जैसी निर्मलता व निर्भयता, जवानों जैसा जोश, प्रौढ़ जैसा होश व सन्यासी जैसा समर्पण : ये मेरे जीवन के आदर्श हैं। शिशु और सन्त को मोह माया की रस्सी नहीं बांधती।
9‐ कर्म ही मेरा धर्म है। कर्म ही मेरी पूजा है। कर्म ही जीवन व जगत का सत्य है। निष्काम कर्म, कर्म का अभाव नहीं, कर्तृत्व के अहंकार का अभाव होता है।
10‐ पराक्रमशीलता, राष्ट्रवादिता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता, आध्यात्मिकता, मानवता एवं विनयशीलता मेरी कार्यशैली के आदर्श हैं।
11‐ राष्ट्र-धर्म सबसे बड़ा धर्म है। राष्ट्रदेव सबसे बड़ा देवता व राष्ट्रप्रेम सबसे उत्कृष्ट कोटि का प्रेम है। राष्ट्रहित सर्वोपरि है। राष्ट्र मेरा सर्वस्व है। इदं राष्ट्राय इदन्न मम। मेरा तन-मन-धन व जीवन राष्ट्रहित में समर्पित रहेगा। राष्ट्रवाद के सप्त सिद्धान्त, अध्यात्मवाद व आदर्शवाद की सप्तमर्यादाएं मेरे वैयक्तिक राष्ट्रीय जीवन के आदर्श हैं।
12‐ जब मैं अकेला होता हूँ तो वहाँ खालीपन नहीं होता, वहाँ मौन में मैं दिव्य ज्ञान व ईश्वरीय प्रेरणा के अजस्र प्रवाह से सदैव आप्लावित रहता हूँ और बाहर-भीतर व चारों ओर एक अखण्ड ज्योतिपुँज से स्वयं को सदा आलोकित पाता हूँ।
13‐ जब मेरा अन्तर्जागरण हुआ तो मैंने स्वयं को संबोधि वृक्ष की छाया में पूर्ण तृप्त पाया।
14‐ इन्सान का जन्म ही, दर्द एवं पीड़ा के साथ होता है। अतः जीवन भर जीवन में काँटे रहेंगे। उन काँटों के बीच तुम्हें गुलाब के फूलों की तरह, अपने जीवन-पुष्प को विकसित करना है।
15‐ भगवान् महान् कार्य करने के लिए तुम्हारा चयन करना चाहते हैं। तुम उस विराट् को अपने भीतर समग्रता से उतरने तो दो। ध्यान-उपासना के द्वारा जब तुम ईश्वरीय शक्तियों के संवाहक बन जाते हो तब तुम्हें निमित्त बनाकर भगवत् शक्ति कार्य कर रही होती है।
16‐ बाह्य जगत् में प्रसिद्ध की तीव्र लालसा का अर्थ है : तुम्हें आन्तरिक समृद्धि व शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई है। जिस दिन तुम्हें भीतर का साम्राज्य या सुख मिल जायेगा, तुम स्वयं कह उठोगे ”प्राप्तं प्रापणीयं क्षीणाः क्षेतव्याः क्लेशाः छिन्नः श्लिष्टपर्वा भवसंक्रमः यस्याविच्छेदाज्जायते जनित्वा च म्रियते।“ (महर्षि व्यास-योगसूत्र 1‐16)
17‐ गलतियों की पुनरावृत्ति न हो, गलतियों की पुनरावृत्ति से प्रगति अवरुद्ध हो जाती है और आत्मबल क्षीण हो जाता है।
18‐ ज्ञान का अर्थ मात्र जानना नहीं, वैसा हो जाना है। स एवं भवति य एवं वेद।
19‐ दृढ़ता हो, जिद्द नहीं। बहादुरी हो, जल्दबाजी नहीं। दया हो, कमजोरी नहीं। मौन हो, दंभ नहीं। चतुराई हो, दगाबाजी नहीं। धीरज हो, बेपरवाही नहीं। अहमियत हो, बुज़दिली नहीं। मिठास हो, खुशामद नहीं। इंसाफ हो, बदले की भावना नहीं।
20‐ प्रार्थना या प्रायश्चित् (तौबा) उसको कहते हैं जो एक बार करके, दुबारा न करनी पड़े।
21‐ मेरे मस्तिष्क में ब्राह्मण जैसा विवेक, मेरी भुजाओं में क्षत्रियों जैसा शौर्य, बल, पराक्रम ऊर्जा व स्वाभिमान, उदर में वैश्य जैसा व्यापार व प्रबन्धन कौशल व चरणों में शूद्रवत् सेवा करने का सामर्थ्य है। यही मेरा वर्णाश्रम धर्म है।
22‐ मैं अग्नि हूँ, मैं ज्ञान, प्रकाश, गति व अग्रणी हूँ। ”अग्निरस्मि जन्मना जातवेदः“ (ऋग्वेद 3‐26‐7)। मेरे भीतर संकल्प की अग्नि निरन्तर प्रज्वलित है। मेरे जीवन का पथ सदा प्रकाशमान है। माता-पिता-धरती के भगवान हैं।
23‐ सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो। दूसरों को सम्मान दो, तुम्हें सम्मान मिलेगा। दूसरां को सुख दो, तुम्हें सुख मिलेगा। अपने माँ-बाप की सेवा करना, बुढ़ापे में तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी सेवा करेंगे।
24‐ माँ नौ महीने बच्चे को कोख में प्रेम, करुणा, ममता व वात्सल्य से रखती है। इसके बाद नौ माह गोद में और जब तक माँ का प्राणान्त नहीं हो जाता तब तक वह अपने बच्चे को हृदय में रखती है। माता-पिता के चरणों में चारों धाम हैं। माता-पिता इस धरती के भगवान् हैं। बच्चे ही माँ-बाप के अरमान हैं। ऐसे माता-पिता का कभी अपमान नहीं करना। उनको वृद्धाश्रमों में नहीं छोड़ना, नहीं तो अगले जीवन में भगवान् तुम्हें पशु योनि में पैदा करेंगे जिससे कि तुम्हें तुम्हारे बाप का तो अक्सर पता ही नहीं होगा और माँ बचपन में ही तुम्हें छोड़ देगी। जैसा करोगे, वैसा भरोगे। अतः आओ! फिर से ”मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव“ की संस्कृति अपनाओ!
25‐ भगवान् ही माता-पिता बनकर हमें जन्म देते हैं तथा गुरु बनकर हमें ज्ञान देते हैं। इस प्रकार सब सम्बन्धों में ब्रह्म-सम्बन्ध की अनुभूति करना ही योग है।
26‐ अतीत को कभी विस्मृत न करो-अतीत को कभी वि स्मृत नहीं करना चाहिए। अतीत का बोध हमें गलति यों से बचाता है तथा शीर्ष पर पहुँचे हुए व्यक्ति को अतीत की स्मृति अहंकार नहीं आने देती। अतीत को विस्मृत करने के कारण ही व्यक्ति माँ-बाप को भूल जाता है। यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे तो हम कभी भी माँ-बाप के कृतघ्न नहीं हो सकते। आसमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद भी अतीत की याद व्यक्ति के जमीन से पैर नहीं उखड़ने देती।
नारी का अपमान, माँ का अपमान है
नारी का असली सान्दर्य शरीर नहीं, शील है। नारी बाजार का बिकाऊ उत्पाद नहीं है। वह सीता, सावि त्री, कौशल्या, जगदम्बा, दुर्गा, तारावती, गार्गी, मदालसा, महालक्ष्मी, मीरा व लक्ष्मीबाई है। नारी माँ की ममता, पत्नी की पवित्रता व बेटी का प्यार है। नारी को बाजार का बिकाऊ सा मान मत बनाओ एवं नारी की तस्वीर में शील का मजाक मत उड़ावो। यह माँ का अपमान है। राष्ट्र की जागरुक माँ, बहन एवं बेटि यों के चरित्र पर आज इलैक्ट्रोनिक मीडिया में जिस तरह से प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं, उनका पूरी ताकत से विरोध करना चाहिए और इन सड़े हुए दिमाग वाले बाजार के क्रूर दरिन्दों को अहसास दिलाना चाहिए कि भारत की नारी चरित्रहीन नहीं, वह पवित्रता की पराकाष्ठा है। भारत की 50 करोड़ से अधिक माँ, बहन, बेटियों का सम्मान, मेरा सम्मान है एवं उनका अपमान मेरा अपमान है। नारी के सम्मान की रक्षा करना, मेरा स्वधर्म है। क्योंकि वह मेरी माँ, बहन, बेटी है।

अखण्ड विचार-प्रवाह

27‐ हमारे बाह्य एवं आन्तरिक जीवन में अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा, वात्सल्य, शौर्य, साहस, बल, पराक्रम व स्वा भमान आदि पुण्यभावों का प्रवाह नि रन्तर बना रहना चाहिए। यह प्रवाह टूटे नहीं इसके लिए तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान रूप क्रियायोग का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। बार-बार सद् गुरुओं का सान्निध्य एवं उनके जीवन, शिक्षाओं एवं आचरण का ध् यान हमें भीतर से बल प्रदान करता है और हमारे जीवन के पुण्य प्रवाह को अखंड बनाये रखता है।
28‐ यदि तुम मुस्कुराते हो तो दुनिया मुस्कराती है और यदि तुम मायूस उदास, हताश व निराश होते हो, तो दुनिया तुम्हें उदास सी दिखने लगती है।
29‐ सुख बाहर से नहीं भीतर से आता है। जब तुम पूर्ण मौन, सुषुप्ति या शान्त अवस्था में होते हो तब सुख प्रकट होता है। भीतर हर समय प्रतिपल उत्साह, ऊर्जा व आत्मविश्वास से भरा हुआ जीवन जिओ। भगवान् ने महान् कार्य करने के लिए तुम्हारा सृजन व चयन किया है।
30‐ तुम स्वयं पर और ईश्वर के अस्तित्व पर कभी-कभी शंका करने लगते हो परन्तु आश्चर्य है कि व्यक्ति असत्य व घृणा पर कभी भी शंका नहीं करता।
उठो! सदा सकारात्मक रहो! सदा मधु-ग्राही बनो, जिज्ञासु बनो! प्रतिपल भगवान् की कृपा का संस्पर्श अनुभव करो! भगवान् सदा हमें हमा री क्षमता, पात्रता व श्रम से अि धक ही प्रदान करते हैं।
31‐ चरैवेति-चरैवेति , चरन् वै मधु विन्दति। कार्यान्तर ही विश्राम है तो आराम हराम है। बाधाओं से रुकें नहीं, संकटों एवं प्रलोभनों में झुकें नहीं, नि न्दाओं से वि चलित न होकर, तब तक आगे बढ़ते रहना जब तक ध्येय न मिल जाए।
32‐ हजारों शब्दों से एक कर्म की ध्वनि अधिक सबल होती है, व तीव्र गुंजायमान होती है। अतः हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखें।
33‐ विचारवान् व संस्कारवान् ही अमीर व महान् है तथा विचारहीन व संस्कारहीन ही कंगाल, दरिद्र व बदनाम है।
34‐ भीड़ में खोया हुआ इन्सान खोज लिया जाता है परन्तु विचारों की भीड़ के बीहड़ में भटके हुए इंसान का पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है। विचारों के मकड़जाल में फंसकर व्यक्ति का जीवन वैसे ही समाप्त हो जाता है, जैसे मकड़ी अपने ही बुने हुए ताने-बाने में स्वयं को बांधकर समाप्त कर लेती है।
35‐ बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है। यदि विचारों में जाश, शक्ति, शौर्य, साहस व स्वाभिमान है तो व्यक्ति आयु ढलने पर भी जवान होता है। बुजुर्गों के ज्ञान व जवानों के साहस, शौर्य व स्वाभिमानपूर्ण का मों से ही देश महान् बनेगा। जवान एवं बुजुर्ग में एक बहुत बड़ा भेद यह होता है- जवान परिणाम से भयभीत नहीं होता और बुजुर्ग व्यक्ति परिणाम को लेकर अधिक आशंकित रहता है, अतः शीघ्र निर्णय नहीं ले पाता।
36‐ यदि मेरे वैचारिक प्रवाह से देश के भ्रष्ट लोग एवं भ्रष्ट सत्ताएँ व भ्रष्ट व्यवस्थाएँ नहीं बदल पाईं तो मुझे विवश व मजबूर होकर अन्याय, गरीबी, भूख, अशिक्षा, सामाजिक विषमता, हिंसा, अपराध, दुरा चार, व्यभिचार, क्रोध व प्रति शोध से मातृभूमि की रक्षा करनी होगी और देश में व्याप्त अन्याय, अपराध, शोषण व हिंसा को मिटाने हेतु एक व्यापक आन्दोलन करना हो गा।
37‐ विचार सबसे बड़ी शक्ति व सम्पत्ति है। विचार विश्व की सबसे बड़ी ताकत है। विचार में अपि रमित बल व ऊर्जा है। विचार शहादत, कुर्बानी, शक्ति, शौर्य, साहस व स्वाभिमान है। विचार आग व तूफान है साथ ही शान्त व सन्तुष्टि का पैगाम है।
38‐ पवित्र विचार-प्रवाह ही जीवन है तथा विचार-प्रवाह का विघटन ही मृत्यु है।
39‐ विचारों की पवित्रता ही अहिंसा व सत्यादि महाव्रत हैं।
40‐ विचारों की पवित्रता ही नैतिकता, आध्यात्मिकता व मानवता है।
41‐ विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है।
42‐ पवित्र विचार प्रवाह ही व्यक्ति के पवित्र आहार, पवित्र व्यवहार, पवित्र आचरण व पवित्र जीवन का आधार है।
43‐ विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है।
44‐ विचारों की दृढ़ता ही सफलता का सेतु है।
45‐ वैचारिक पवित्रता ही सामाजिक समरसता है।
46‐ विचार ही सम्पूर्ण खु शयों का आधार है।
47‐ सद्विचार ही सद्व्यवहार का मूल है।
48‐ विचारों का ही परिणाम है:हमारा सम्पूर्ण जीवन। विचार ही बीज है, जीवनरूपी इस वृक्ष का।
49‐ प्रतिक्षण के पवित्र संकल्प या विचार से दुष्ट व्यक्ति भी महान् बन सकता है।
50‐ विचारशीलता ही मनुष्यता, और विचारहीनता ही पशुता है।
51‐ पवित्र विचार प्रवाह ही मधुर व प्रभावशाली वाणी का मूल स्रोत है।
52‐ वैचारिक पवित्रता ही समस्त समस्याओं का समाधान है। पवित्र विचार ही एक स्वस्थ, समृद्ध व शक्तिशाली राष्ट्र की आधारशिला हैं।
53‐ जिन पवित्र विचारों ने मुझे ऊँचा उठाया, मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया व अग्निपथ पर आगे बढ़ाया, मै आश्वस्त हूँ कि उन्हीं पवि त्र विचारों से मेरे देश का प्रत्येक व्यक्ति जागेगा व देश का स्वाभिमान जगेगा और जब वह पूरी शक्ति से स्वधर्म का अनुष्ठान करेगा तो निश्चित रूप से मेरा देश महान् बनेगा, विश्व का नेतृत्व करेगा।
54‐ मेरी सबसे बड़ी ताकत मेरे विचार हैं। मेरे पवि त्र विचारों ने मुझे पापों में गिरने से बचाया, मेरे विचारों ने ही मुझे संघर्षों व प्रतिकूलताओं से लड़ने की हिम्मत दी। विचारों के बल पर हर पराजय को, मैं विजय में बदल पाया और उन्हीं के बल पर विकट से विकट संकट से, मैं और अधिक सशक्त होकर बाहर निकल पाया।
55‐ हिंसा, विद्वेष, क्रोध व प्रति शोध जैसे अपवित्र विचारों से जब व्यक्ति को हिंसक, अपराधी बनाया जा सकता है तो पवित्र विचारों से एक व्यक्ति को राष्ट्रवादी, अध्यात्मवादी, मानवतावादी व प्रगतिवादी क्यों नहीं बनाया जा सकता?
56‐ जब अपवित्र विचारों से एक व्यक्ति को चरित्रहीन बनाया जा सकता है, व्यक्ति अपना जिस्म, धर्म एवं ईमान बेच सकता है तो पवि त्र विचारों से व्यक्ति को चरित्रवान क्यों नहीं बनाया जा सकता?
57‐ जब अपवित्र विचारों से एक व्यक्ति के भीतर घृणा व नफरत के बीज बोये जा सकते हैं तो पवित्र विचारों से एक व्यक्ति के जीवन में प्रेम, करुणा व वात्सल्य के पुष्प क्यों नहीं खिलाए जा सकते?
58‐ जब अपवित्र विचारों से एक व्यक्ति को हिंसा, अपराध व अराजकता के लिए उकसाकर समाज को तोड़ जा सकता है तो पवित्र विचारों से जोड़कर व्यक्ति के भीतर आत्मा को जागृत करके समाज को क्यों नहीं जाड़ा जा सकता?
59‐ जैसे हमारे शारीरिक विकास का आधार हमारा आहार होता है वैसे ही हमारे मन, बुद्धि, चित्त सहित समस्त भावनात्मक विकास का आधार हमारे विचार होते हैं।
60‐ जैसे दूषित व असंतुलित आहार से व्यक्ति कुपोषण का शिकार होता है वैसे ही दूषित, अपवित्र व असंतुलित विचार से व्यक्ति भ्रम का शिकार हो जाता है और ये वैचारिक भ्रम ही भ्रष्टाचार, हिंसा, अपराध व अशांति का कारण हैं।
61‐ हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या परि स्थति याँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बुरे विचार होते हैं।
62‐ अपवित्र विचार ही हिंसा, तनाव, अपराध, हत्या या आत्महत्या जैसी समस्त समस्याओं का मूल कारण हैं। अपवित्र विचार ही समस्त प्रकार की कुंठा, आग्रह व अहंकार आदि समस्त विकारों के कारण हैं।
63‐ वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास का मूल मन्त्र है।
64‐ ऐतिहासिक वि रासतों का ध्यान रखना आवश्यक है। परन्तु यदि महात्मा गाँधी की बकरी जिस जंजीर से बांधी जाती थी वह आज हमें सं ग्राहलयों में दिखाई जाती है किन्तु अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अश्फाक उल्ला खाँ एवं राम प्रसाद बिस्मिल आदि की फाँसी की रस्सी हमें नहीं दिखाई जाती, यह देश का दुर्भाग्य है। क्योंकि इससे शहीदों की शहादत याद करके देश का स्वाभिमान जाग उठेगा और भ्रष्ट, बेईमान व अपराधी लोग देश को लूट नहीं सकेंगे।

जीवन[सम्पादन]

65‐ जीवन की प्रत्येक प्रभात मेरा एक नया जन्म है और मेरा एक दिन मेरे लिए एक जीवन के बराबर है। मैं आज ही वह सब कुछ करूँगा जिसके लिए मेरे परमात्मा ने इस धरती पर मुझे जन्म दिया है।
66‐ हमारा जीना व दुनि या से जाना दोनों ही गौरवपूर्ण होने चाहिए। कीर्तिर्यस्य स जीवति। कायर व कमजोर होकर नहीं अपितु स्वाभिमान व आत्मज्ञान के साथ जीवन को जियो। भगवान ने महान् कार्य करने हेतु तुम्हा रा सृजन किया है। न भागो! न भोगा!! भागने वाले कायर, कमजोर बुज़दिल लोग होते हैं तथा भो गी अविवेकी होते हैं। अतः जागो!
67‐ जीवन एक उत्सव है। जीवन परमात्मा की सबसे बड़ी सौगात है। जीवन परमेश्वर का उत्कृष्ट उपहार है। यह देह देवालय, शिवालय व भगवान का मन्दिर है। यह शरीर अयोध्या है, आत्मा अमर, अजर, नि त्य, अनिवाशी, ज्योति र्मय, तेजोम य, शान्तिमय व तृप्त है।
68‐ जब तक दम में दम है, व्यक्ति को बेदम नहीं होना चहिए। सुखि यों के प्रति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा, सज्जनों से प्रीति एवं दुष्टों की उपेक्षा करते हुए दृढ़ता के साथ ध्येय की ओर आगे बढ़ते रहना, आपको एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी व जीवन में सदा प्रसन्नता रहेगी। उत्कर्ष के साथ संघर्ष न छोड़ो!
70‐ जो संस्कृति जितनी विकसित होती है, जो संस्कृति , व्यक्ति, समाज व राष्ट्र जितना विकसित होता है, अधिकतर वो संस्कृति , व्यक्ति, समाज व राष्ट्र उतना ही आलसी हो जाता है और यही उसके पतन का कारण बन जाता है, अतः उत्कर्ष के साथ सं घर्ष कम नहीं होना चहिए।

सेवा
71‐ बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती है और चितशुद्धि के बिना परमात्मतत्त्व की अनुभूति नहीं होती। अतः सेवा के अवसर ढूंढते रहना चाहिए।

समाज सुधारक
72‐ मनुष्य स्वयं से अधिक दूसरों के प्रति सजग रहता है। जितनी सजगता दूसरों के लिए रखते हैं उतने ही यदि हम स्वयं के प्रति सजग हो जायें, अपने मन, विचार, भाव, स्वभाव व का र्यों के प्रति जागरूक हो जाएं तो हमारा कल्याण हो जाए। अतः जगत् कल्याण के लिए सुधारक बनने से पहले एक अच्छे साधक बनना। पहले साधक बनो, सुधारक तो फिर तुम स्वयं बन जाओगे। जैसे छाया वृक्ष का परिणाम होती है, वृक्ष होगा तो छा या मिले गी ही। साधक बन जाओगे तो सुधार तो स्वतः ही घटित होगा।
73‐ जो स्वयं तृप्त नहीं है वह दूसरों को कैसे तृप्त कर पा येगा। सोया हुआ इन्सान दूसरां को कैसे जगायेगा या भूखा इन्सान दूसरों की भूख कैसे मिटा पायेगा? अतः विश्व कल्याण हेतु प्रथम आत्म-कल्याण के लिए साधना करो, प्रथम साधक बनो, फिर सुधारक बनना। प्रथम स्व यं जागो! फिर औरों को जगाओ!! चित्र नहीं, चरित्र की पूजा करो
94‐ चित्र नहीं चरित्र की पूजा करो, व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की पूजा करो। हम मात्र पाषाण प्रति माओं के पूजक बनकर ही जीवन न जियें। हम चैतन्य के उपासक बनकर पाषाण हृदयों में यो गशक्ति से भक्ति एवं राष्ट्र चेतना का प्रवाह जगाएं।
कर्म
75‐ कर्म ही धर्म है, कर्म ही पूजा है। आराम हराम है तथा कार्यान्तर ही विश्राम है। स्वकर्म ही स्वधर्म है। स्वकर्म के प्रति पूर्ण समर्पण ही भगवान् की पूजा है। ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
76‐ जब चन्द पैसों की खातिर अपने ही वतन के लोग बेईमान हो सकते हैं तो देश के वैभव को बचाने की खातिर देश के लो गों को क्या ईमानदार नहीं बनाया जा सकता। चन्द लोग चन्द टुकड़ों की खातिर राष्ट्र बेच देते हैं, गद्दारी कर लेते हैं परन्तु ऐसे सैकड़ों आैर हजा रों लोग हैं, जो राष्ट्र के लिए कट सकते हैं किन्तु बिक नहीं सकते। हमें ऐसे राष्ट्रवादी लोगों को सं गठित करना है।
मैं से ममता
77‐ जहाँ मैं और मेरा जुड़ जाता है वहाँ ममता, प्रेम, करुणा एवं समर्पण पैदा होते हैं, वहाँ सेवा एवं सद्भाव स्वतः स्फुटित होने लगते हैं। सांसारिक सम्बन्धों में जहाँ मैं और मेरा जुड़ा होता है, उन सगे सम्बन्धियों के लिए हम सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर रहते हैं। जब देश के साथ मैं और मेरा जुड़ता है अर्थात् यह देश मेरा है और मैं आज जो कुछ भी हूँ, देश की बदौलत हूँ। तब व्यक्ति में दे श के लिए सर्वस्व आहूत करने की भावना जागती है। मुझमें जो प्राण हैं, वे इस दे श की माटी पर लगे वृक्षों की वजह से हैं। इस देश ने मुझे जन्म दि या, इस दे श की माटी से पैदा हुए अन्न-जल से मैं जीवित हूँ। देश से मुझे धन, सत्ता, सम्पत्ति व सम्मान मिला है। इस देश की माँ, बहन, बेटि यों, बच्चों व इन्सानों की आँखों के आँसू मेरी पीड़ा है व देश की खुश हाली मेरी प्रसन्नता है। देश का एक भी व्यक्ति यदि बेसहा रा, बेबस, ला चार, भूखा या बीमार है, तो माँ भारती की यह पीड़ा मेरी पीड़ा है, मेरा दर्द है, यह मेरा कर्त्तव्य या फर्ज़ है, यह मेरा राष्ट्र धर्म है, यह मेरा सेवा धर्म है कि मेरे देश के एक भी व्यक्ति की मौत बीमारी या भूख से न हो।
ऐसा क्यों न सोचें? - दृष्टि
78‐ ”न“ के लिए अनुमति नहीं है।
79‐ करिष्ये वचनं तव: आत्मा, समाज, राष्ट्र और विश्वकल्याण के लिए गुरु व शास्त्र ने जो उपदेश व निर्देश दिये हैं, मैं उनका प्राणार्पण से पालन करूँगा। यह हमारी कार्य-संस्कृति है।
80‐ अपनी फ्रेक्वेंसी (frequency) सदैव सकारात्मक मोड (Positive Mode) पर सेट करके रखें क्योंकि इस ब्रह्माण्ड के द्यूलोक व अन्तरिक्ष लोक से सकारात्मक ऊर्जा व नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता रहता है। हमें ब्रह्माण्ड से सकारात्मक ऊर्जा को ही स्वीकार करना है।
81‐ मैं, अकेला क्या कर सकता हूँ, इसकी बजाय हमेशा यह सोचें कि मैं क्या नहीं कर सकता! दुनि या में कुछ भी असम्भव नहीं, सब कुछ सम्भव है।
82‐ जब भ्रष्ट , बेईमान , अपराधी, गैर जिम्मेदार, देशद्रोही व देश के गद्दार लोग मिल कर देश को लूट सकते हैं तो देशभक्त, ईमानदार, कर्तव्य-पा रायण व जागरुक लोग मिल कर देश को क्यों नहीं बचा सकते! शंका त्याग, सकारात्मक बनो!
83‐ तुम सत्य, प्रेम, स्वयं और ईश्व र पर भी कभी-कभी शंका करने लगते हो परन्तु आश्चर्य है कि व्यक्ति असत्य व घृणा पर कभी भी शंका नहीं करता। सदा सका रात्मक रहो! सदा ग्राही बनो! प्रतिपल भगवान् की ड्डपा का संस्पश र् अनुभव करो! भगवान् सदा हमें हमारी क्षमता, पात्रता व श्रम से अधिक ही प्रदान करते हैं।
संवेदनशील बनो
84‐ भावुकता व्यक्ति को विवेक शून्य बना देती और संवेदनहीनता इन्सानियत को मिटा देती है। अतः भावुक नहीं संवेदनशील बनो। संवेदनशीलता हमें अपने कर्त्तव्य-परायणता का अहसास करवाती है व स्वधर्म एवं राष्ट्रधर्म में नियुक्त करती है।
स्वधर्म
85‐ जैसे सर्दी, गर्मी, भूख व प् यास आदि शरीर के धर्म हैं, मान-अपमान, सुख-दुःख व लाभ-हानि आदि मन के धम र् हैं। वैसे ही प्रेम, करुणा, वात्सल् य, श्रद्धा, भक्ति, सर्मपण, शान्ति व आनन्द आदि आत्मा के धर्म हैं। आत्मधर्म ही तुम्हारा स्वधर्म है। स्वधर्म में अवस्थित रहकर स्वकर्म से परमात्मा की पूजा करते हुए तुम्हें समाधि व सिद्धि मिले गी। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता 18‐46)।
प्रेम
86‐ प्रेम, वासना नहीं उपासना है। वासना का उत्कर्ष प्रेम की हत्या है प्रेम समर्पण एवं विश्वास की परकाष्ठा है। प्रेम, करुणा एवं वात्सल्य स्वधर्म है। प्रेम, पवित्रता, ममता व वात्सल्य की शीतल छा या तथा सं घर्ष साहस, शौर्य व स्वाभिमान का सम्मान है। माता-पिता का बच्चों के प्रति , आचार्य का शिष् यों के प्रति , राष्ट्रभक्त का मातृभूमि के प्रति प्रेम ही सच्चा प्रेम है। अन्य तो प्रेम के नाम पर मोह, भ्रम व शरीर तृष्ण की मिथ्या तृप्ति का धोखा है।
गुरु
87‐ सन्त, गुरु या आ चार्य चेतना के जिस उन्नत स्तर पर जी रहे हैं या जीवन मुक्त अवस्था में रहते हुए प्रज्ञा प्रासाद पर आरूढ़ होकर व ऋतम्भ रा प्रज्ञा से युक्त होकर जो हमें उपदेश दे रहे हैं यदि जीवन चेतना के उसी स्तर से हम स्वयं को जोड़ देंगे तो हम भी वही बोलेंगे जो सन्त बोल रहे हैं और हमारा भी जीवन सन्तों की तरह पूर्ण रूप से रूपान्तरित हो जायेगा।
88‐ गुरु वह जो जगा दे, परम से मिला दे, दि शा बता दे, खोया हुआ दिला दे, पुकारना सिखा दे, आत्म-परिचय करा दे, मार्ग दिखा दे और अन्त में अपने जैसा बना दे। लेकिन याद रखना गुरु मार्गदर्शक है, चलना तो स्वयं ही पड़ेगा।
89‐ किसी सू फी सन्त से किसी ने परिचय पूछा:क्या खाते हो? क्या पहनते हो? कहाँ रहते हो? उस सन्त ने उत्तर दि या- मौत को खाता हूँ, कफन ओढ़ता हूँ तथा कब्र में रहता हूँ। गुरु का दर्शन
90‐ गुरु या साधु-संत के साथ मन, बु द्ध, वाणी, व्यवहार एवं संकल्प से एकाकार हो जाना तथा उन जैसी दि व्य चेतना के साथ जीवन को जीना ही उनका सच्चा दर्शन है। इसे ही कहते हैं ”साधूनां दर्शनं पुण् यं, तीर्थभूता हि साधवः।“ हाड़-मांस के इस देह के दर्शन करने मात्र से सम्पूर्ण पुण् य मिलने वाला नहीं है। देह के भीतर दे ही को देखो।
गुरु से संवाद
91‐ प्रत्यक्ष या परोक्ष गुरुओं के ग्रन्थों का स्वाध्याय करने का अर्थ है संबोधि को प्राप्त उन प्रत्यक्ष या परोक्ष गुरुओं के साथ सीधा संवाद। शास्त्र एवं गुरु के द्वारा लिखित शब्दों से एक-एक दि व्य ध्वनि तुम् हें प्रति ध्वनित हो गी और तुम् हें लगेगा शास्त्र एवं गुरु के शब्दों में उनका जीवन बोल रहा है। ऐसा स्वाध् याय हमारे जीवन को रूपा न्तरित करता है और हमें गुरुओं का प्रतिरूप बना देता है।
धर्म
92‐ सार्वभामिक व वैज्ञानिक सत्य ही सार्वभौमिक धर्म है। जो सार्वभौमिक व वैज्ञानिक मापदण्डों पर खरा नहीं उतरता वह धर्म नहीं, भ्रम है। मैं धार्मिक हूँ, धर्मान्ध नहीं। मैं धर्म को धन्धा व कर्म को गन्दा नहीं बनाऊं गा।
93‐ श्रेष्ठ आचरण का नाम ही धर्म है। धर्म मात्र प्रतीकात्मक नहीं आचरणात्मक है। शिखा सूत्र व अन्य धार्मिक प्रतीकों के भी मूल में आचरण ही प्रधान है। आचारहीन प्रतीकात्मक धर्म से भ्रम या धर्मान्धता पैदा होती है। अतः हम धार्मिक बनें, धर्मान्ध नहीं।
94‐ मैं धर्म-परिवर्तन में वि श्वास नहीं करता। अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा, वात्सल्य, सेवा, संयम व सदा चार आदि जीवन का श्रेष्ठ आचरण ही धर्म है। और ये सभी आचरणात्मक गुण, सभी धर्मों में हैं। अतः धर्म में परिवर्तन जैसा कुछ है ही नहीं। धर्म तो धारण करने योग्य जीवन की श्रेष्ठ मर्यादाएं हैं।
95‐ विद्यालय या चकित्सालय चलाकर लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित करने को मैं उचित नहीं मानता क्योंकि मैंने भी सभी वर्ग व मजहबों के करोड़ों लोगों के जीवन में परिवर्तन किया है। उनको आरोग्य दि या है, मौत के करीब पहुँच चुके लोगों को जिन्दगी दी है, परन्तु एक भी व्यक्ति का धर्म या मजहब नहीं बदला।
आहार
96‐ जैसे विषयुक्त आहार हमारे शरीर में भयंकर विकार उत्पन्न करता है वैसे ही विकार युक्त विचार भी हमारे मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर भयंकर तनाव, दुःख, अशान्ति व असाध्य रोग उत्पन्न करते हैं। अतः यदि आप एक ऊँचा व्यक्तित्व पाना चाहते हो तो आ हार एवं विचारों के प्रति प्रतिपल सजग रहना। व्यक्ति अपने शरीर के प्रति जितनी बेरह मी बर्तता है शायद इतनी बेरह मी वह किसी के साथ नहीं करता।
97‐ यह देह देवालय, शिवालय है। यह शरीर भगवान् का मन्दिर है। इसे शराब पीकर सुराल य, तम्बाकु आदि खाकर रोगालय और मांसादि खाकर इसे श्मशान या कबि्रस्तान नहीं बनाओ। ऋत्भुक्, मित्भुक् व हितभुक् बनो। समय से, सात्विक, संतुलित व सम्पूर्ण आ हार का सेवन कर शरीर को स्वस्थ बनाओ।
शाकाहार ही क्यों?
98‐ जैसे इस दुनि या में हमें जीने का हक है, वैसे ही सृष्टि के अन्य प्राणि्ायों को भी नि र्भय होकर यहां जीने का अधिकार है। यदि हम किसी जीव को पैदा नहीं कर सकते तो आखिर उन्हें मारने का अधिकार हमें किसने दि या है। और हम किसी पशु-जीव या प्राणी को इसलिए मार देते हैं कि ये देखने में हमारे जैसे नहीं लगते। वैसे तो सब प्राणि्ायों के दिल, दि माग व आँखें होती हैं। इनको दुःख या गहरी पीड़ा होती है। लेकिन हम इसलिए उन्हें मार दें कि उनके पास अपनी सुरक्षा के लिए हथियार नहीं हैं या लोकत न्त्र की नई तानाशाही के इस युग में उन्हें मतदान करने का अधिकार नहीं है। इसलिए उनकी सुरक्षा का सरका रों को दरकार नहीं है। काश! उनको भी हमारे जैसी बोली बोलनी आती तो अपनी पीड़ा व दर्द से शायद वे इन्सान को अवगत करा देते, लेकिन क्या करें, बेचारे इन जीवों को इन्सानी भाषा नहीं आती और हम बेरह मी से निरपराधी, नि रीह, मूक प्राणि्ा यों की हत्याएं करके खुशि यां मनाते हैं और दरिंद गी के साथ कुत्तों एवं भेडि़यों की तरह मांस को नोच-नोचकर खाने में गौरव का अनुभव करते हैं। इससे ज्यादा घोर पाप और अपराध और कुछ नहीं हो सकता। जब बिना निर्दोष प्राणि्ायों की हत्या किए शाकाहार से तुम जीवन जी सकते हो तो क्यों प्राणि्ायों का कत्ल कर रहे हो? मनुष्य स्वभाव से ही शाकाहारी है। मानवीय शरीर की संरचना शाकाहारी प्राणी की है, यह वैज्ञानिक सत्य है।
क्षमता
77‐ असम्भव को सम्भव करने की अपार क्षमता, सामर्थ्य व ऊर्जा तुम्हारे भीतर सन्निहित है। तुम भी दुनि या के प्रथम पंक्ति के लोगों में खड़े होने का गौरव प्राप्त कर सकते हो। काल के भाल पर अपनी शक्ति, साहस व शौ र्य से नया इति हास लिख सकते हो।
समय व जीवन-प्रबन्धन
78‐ समय ही सम्पत्ति है जो समय का सम्मान नहीं करता तथा समय के साथ नहीं चलता उसको समय कभी माफ नहीं करता।
79‐ छः घंटा निद्रा के लिए, एक घंटा योग के लिए, एक घंटा नित्यकर्म के लिए, दो घंटे का समय परिवार के सदस्यों के लिए देते हुए चौदह घंटे कठोर परिश्रम करना चाहिए। यह जीवन में समय का श्रेष्ठ प्रबन्धन है। यह जीवन प्रबन्ध या जीवन दर्शन है। व्यवहार-समदर्शी बनो!
80‐ समभाव सर्वत्र रखें; समद र्शी बनें परन्तु समव्यवहार कभी भी सम्भव नहीं होता है। सब मेरे भगवान् के स्वरूप हैं। सब मेरे ही स्वरूप हैं, मैं सबमें हूँ, सब मुझमें हैं, मेरे ही ‘मैं’ का विस्तार है सारा संसार:यह है समभाव। गुरु के साथ गुरु जैसा व्यवहार करना चाहिए। माँ, बेटी एवं पत्नी के साथ सांसारिक व व्यवहारिक भेद हो गा। परमात्मा भी सबके साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करता, वह दुष्टों को दण्ड देता व सज्जनों की रक्षा करता है। वह दयालु भी है आैर न्यायका री भी है। भाव आत्मा के स्तर पर होता है जबकि व्यवहार शरीर एवं संसार के स्तर पर होता है।

राष्ट्र-धर्म

राष्ट्रहित सर्वोपरि
1‐ राष्ट्रधर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं और राष्ट्रदेव से बड़ा कोई देव नहीं। राष्ट्रहित सर्वोपरि है। मैं अपने वैयक्तिक, राजनैतिक, आर्थिक व पारिवारिक हितों के लिए देश के साथ धोखा नहीं करुंगा। मैं, अपना तन-मन-धन-जीवन एवं मतदान को देश को ऊँ चा उठाने में लगाऊं गा।
राज-सत्ता
2‐ देश की सत्ता भ्रष्ट-बेईमान -अपराधी-कायर-कमजोर , शक्तिहीन एवं मूर्ख लोगों के हाथों में सौंपना देश का अपमान है। अतः आओ! अब 100ø मतदान का संकल् प लो और भ्रष्ट-बेईमान व अपराधी लो गों को सत्ताओं के शीर्ष पर पहुँचने से रोका!
3‐ भारत की राजसत्ताओं ने विकास के झूठे सपने दिखाए तथा धर्मसत्ता ने स्व र्ग के झूठे आश्वासन देकर दे श की जनता का सदि यों से शाषण किया है। अब वक्त आ गया है हम सपनों, आश्वासनों व कल्पनाओं से हटकर देश व धर्म को वर्तमान के ध रातल पर देखें और एक स्वस्थ एवं आदर्श राजधर्म एवं पारदर्शी, वैज्ञानिक, धार्मिक व आध्यात्मिक चिन्तन को अपनाकर आस्थाओं का दोहन रोकने के लिए आगे आएं।
स्वतन्त्रता
4‐ दिशाहीन स्वतन्त्रता व्यक्ति-समाज एवं राष्ट्र को उच्छृंखल तथा विवेकहीन बन्धन या दंभयुक्त अनुशासन व्यक्ति को कुंठित बना देता है। अतः स्वतन्त्रता एवं अनुशासन में विवेक के नेत्रों को बन्द नहीं होने देना चाहिए। सत्य की खोज सहज स्वतन्त्रता में ही होती है।
राष्ट्रीय नेतृत्व
5‐ जिस देश के नेतृत्व में पराक्रमशीलता, विनयशीलता, पारदर्शिता व दूरदर्शिता नहीं होती वह राष्ट्र सुरक्षित नहीं रह सकता। आज दुर्भाग्य से पराक्रमशीलता के स्थान पर कायरता, भीरूपन, ला चारी, पारदर्शिता के स्थान पर दोहरे चरित्र व दूरदर्शिता के स्थान पर तात्कालिक निजहित, स्वार्थ सर्वोपरि हो गए हैं। इस दुर्भाग्य को हमें सौभाग्य में बदलना है। राष्ट्र की तरह ही जिस व्यक्ति, परिवार, समाज व संगठन में भी पराक्रम, विनयशीलता, पारदशि्ार्ता व दूरदृष्टि नहीं होती वह व्यक्ति, परिवार, समाज व संगठन अपने लक्ष्य में कभी सफल नहीं हो सकता।
भाषा
6‐ विदेशी भाषाओं का ज्ञान रखना उत्तम बात है क्योंकि संवाद, सम्पर्क, व्यापार व व्यवहार के लिए यह आवश्यक है परन्तु अन्य दे श की भाषा का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग करना, यह घोर अपमान व शर्म की बात है। वि श्व का कोई भी सभ्य दे श अपने नागरिकों को विदेशी भाषा में शिक्षा नहीं देता। हम राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं यथा:गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, पंजाबी आदि को राजकाज की भाषा बनवायेंगे एवं विज्ञान तकनीकी एवं प्रबन्धन आदि की शिक्षा भारतीय भाषाओं व राष्ट्रभाषा हिन्दी में देकर देश के गरीब, मजदूर, किसान के बच्चों को भी डॉक्टर, आई‐ए‐एस‐, आई‐पी‐एस‐ व वैज्ञानिक बनने का हक दिलायेंगे।
दृष्टिकोण
7‐ जिस समाज व राष्ट्र में, सज्जनों का सम्मान व सत्कार तथा दुष्टों का अपमान व तिरस्कार नहीं होता उस समाज व राष्ट्र का विनाश सुनिश्चित है।
अपूज् या यत्र पूज्यन्ते पूज् यानां च विमानना।
त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम्॥ (पंचत न्त्र 3‐192)
अतः सज्जनों, सत्पुरुषों एवं राष्ट्रभक्तों का देश में सार्वजनिक रूप से सम्मान होना चाहिए और दुष्ट व देशद्रोहियों का भीड़ भरे चौराहों एवं सार्वजनिक-स्थलों पर अपमान होना चाहिए, तभी समाज में श्रेष्ठ लो गों की वृद्धि एवं भ्रष्ट लोगों का अन्त होगा।
8‐ कानून को तोड़ने वाले, कानून बनाने वाले कैसे हो सकते हैं? जब दागदार व्यक्ति छोटा कर्मचारी या अि धकारी नहीं हो सकता तो एम‐एल‐ए‐/एम‐पी‐/ मन्त्री या प्रधानमन्त्री कैसे हो सकता है?
9‐ कभी भी किसी के बारे में अन्तिम निर्णय नहीं देना। कभी भी दो व्यक्तियों या महापुरुषों की परस्प र तुलना नहीं करना। कभी भी उपेक्षा या अपेक्षा मत करना। अपेक्षाएं कभी भी पूर्ण नहीं होती। अतः पूर्ण न होने पर दुःख्ा होता है और अपूर्ण अपेक्षाएं, क्रोध व प्रति शोध की ज्वालाओं को जन्म देती हैं।
10‐ यदि तुम अन्याय व अपराध का विरोध नहीं करते हो तो समझ लो कि तुम स्व यं भी अन्याय, अधर्म व शो षण के समर्थक हो। तुम भी उतने ही बड़े अपराधी, हो जितना कि अन्याय, अधर्म व अपराध करने वाला व्यक्ति।
11‐ मैं समाज की भ्रष्ट व्यवस्थाओं, कानूनों व प्रताड़नाओं से व्यथित होकर हार मानकर बैठने वाला या आत्महत्या करने वाला व्यक्ति नही हूँ। मैं अंतिम श्वास तक सत्य, न्याय व मर्यादाओं को स्थापित करने के लिए संघर्ष करके, विजय पाने वाला यो द्धा हूँ। हार मानने वाले बुज़दिल, कायर एवं कमजोर प्रकृति के लोग होते हैं। चार महाशक्तियाँ
12‐ धनशक्ति, जनशक्ति, राजशक्ति व आत्मशक्ति ये चार महा शक्तियाँ हैं, हम यो गशक्ति से आत्मशक्ति का विकास करके जनशक्ति को सं गठित करना चाहते हैं और दे श के धन का दोहन रोकक र, देश को अर्थिक दृढ़ता देना चाहते हैं साथ ही राजशक्ति पर संय म, सदाचार, मर्यादा एवं संस्का रों का अंकु श चाहते हैं। क्योंकि निरंकुश राजशक्ति से जनशक्ति कुंठित हो जाती है और फिर धनशक्ति के दुरुपयोग से समाज में विषमता, हिंसा, अराजकता व अशान्ति पैदा होने लगती है।
शक्ति के दो रूप
13‐ जब जन-शक्ति व धन-शक्ति भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के इन्सानों के पास बढ़ती है तो देश व दुनि या में हिंसा, अपराध, भय, आतंकवाद, अन्याय शोषण व अन्त में विनाश होता है। जब श्रेष्ठ लो गों के पास जनशक्ति व धनशक्ति बढ़ेगी तो सेवा, सद्भावना, भाईचा रा व प्रेम बढ़ेगा राष्ट्रवाद व अध्यात्मवाद व मानवतावाद को बल मिले गा और राष्ट्र में विकास व समृद्धि आयेगी। असुरों को जब-जब सत्ता, सम्पत्ति व शक्ति मिली, उन्होंने विनाश किया और देवताओं ने सत्ता, सम्पत्ति व शक्ति का उपयोग मानवता के विकास के लिए कि या।
14‐ राष्ट्र का गौरव शाली अतीत मेरा स्वा भमान है। जिस राष्ट्र को अतीत का आत्मगौरव नहीं होता व वर्तमान की पीड़ाअों का अहसास नहीं होता वह राष्ट्र कभी भी अपना स्वर्णिम भविष्य नहीं बना सकता।
15‐ मेरी मातृभूमि से मुझे वैसा ही प्यार है, जैसा मेरी माँ, बहन, बेटी या गुरु से होता है। मेरा राष्ट्र मेरा सर्वस्व है। देश न होता तो मैं नहीं होता। मेरा सि र हिमालय है, मेरी बाईं भुजा पूर्वा´चल, दाईं भुजा पशि् चमा´चल व चरणांं की ओर हिन्दमहासागर है। मुझमें भारत है। मैं भारत से हूँ। मैं भारत हूँ। मैं भारत को दुनि या की महाशक्ति बनाऊंगा। सामाजिक, आध्यात्मिक, आर्थिक व राजनैतिक रूप में भारत वि श्व का नेतृत्व करे, मैं ऐसा विश्व विजयी भारत बनाऊँगा। यह मेरा प्रण है।
16़‐ देश का सम्मान मेरा सम्मान व स्वा भमान है और दे श की छवि , राष्ट्र का स्वाभि मान यदि कहीं पर भी आहत होता है तो वह मेरा अपमान है। मैं देश का स्वाभि मान जगाऊंगा, राष्ट्रहित में अपना पू रा जीवन लगाऊं गा। ”ओ३म् राष्ट्राय स्वाहा। इदं राष्ट्राय इदन्न मम“ ये जीवन देश के लिए है। यह मेरा पावन संकल्प है और जो देशद्रोही हैं मैं उनका ना मोनि शां मिटाऊँगा। लोग यदि कहते हैं कि मैं देश के लिए क्यों बोलता हूँ तो मैं कहता हूँ कि क्योंकि ये देश मेरा है इसलिए मैं दिल की पीड़ा को शब्दों में घोलता हूँ और पूरी शक्ति से अपनी बात को अभि व्यक्ति देता हूँ, जिससे कि पूरे देश का स्वाभि मान जाग उठे। जो देश के लिए नहीं बोलता अर्थात् देश के साथ अन्याय, धोखा हो रहा हो, फिर भी मौन होकर बैठा रहे, देश का सम्मान नहीं करे, देश के लिए काम नहीं करे, ऐसे लोगों के लिए मेरा स्पष्ट मन्तव्य है कि जिसको इस देश से प्यार नहीं, उसको इस देश में रहने का अधिकार नहीं।
17‐ हमारी संस्कृति , हमारे मूल्य, आदर्श सा माजिक व्यवस्थाएं एवं परम्पराएं इतनी कमजोर नहीं हैं कि हमें अपना देश चलाने के लिए लेनिन, मार्क्स या माओ आदि विदेशी चिन्तकों के दर्शन का मोहताज बनना पड़े। हमा रा वैदिक समाजवाद एवं अध्यात्मवाद एक संतुलित सार्वभामिक व वैज्ञानिक संपूर्ण दर्शन है। भारतीय दर्शन में स्वयं के सुख्ा से अधिक दूसरां के हित का चन्तन है। अतः हमें आ यातित सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक व राजनैतिक चिन्तन की आवश्यकता नहीं है। यह हमारा अहंकार नहीं, आत्म गौरव है। हम ज्ञान के विरोधी नहीं, परंतु हम अज्ञान के समर्थक भी नहीं है। यह सर्वमान् य सत्य है कि भारतीय वैदिक दर्शन विश्व का श्रेष्ठतम दर्शन है।
18‐ समाज के नि यम, कानून व लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का उपयोग दुष्टों व अपराधि यों को दण्ड देने के लिए कम, सज्जनों एवं राष्ट्र-भक्तों को प्रताड़ित करने के लिए अधिक हो रहा है। यह लोकतंत्र या आजादी का अपमान नहीं तो और क्या है?
योग-धर्म से राष्ट्र-धर्म तक
19‐ हम प्रत्येक व्यक्ति को योगधर्म से जोड़कर उसके भीतर राष्ट्रधर्म की अलख जगाना चाहते हैं। हम योग-शक्ति से जन-जन में राष्ट्रभक्ति का ज़ज़्बा भरना चाहते हैं। हम हर सुब ह योग द्वारा आत्मोन्नति कर अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को राष्ट्रोन्नति में लगाना चाहते हैं। हम योग से आत्मजागरण कर राष्ट्र-जागरण के पुण्य अभियान को आगे बढ़ाना चाहते हैं। बहुत से लो गों के मन में प्रश्न उत्पन्न होता है कि योग एवं दे श का विकास इनका क्या सम्बन्ध है? तो हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि बिना आत्मविकास किये राष्ट्र का विकास एक सपना है। अतः प्रत्येक प्रभात में हम योग द्वारा आत्मविकास कर, पूरे दिन राष्ट्र के विकास या समृद्धि के लिए समर्पित होंगे। योगधर्म एवं राष्ट्रधर्म विरोधाभासी विचारधाराएं नहीं, अपितु एक दूसरे की पूरक हैं!

राष्ट्रवाद के सप्त-सिद्धान्त

देशके नागरिक एवं नेतृत्व का आचरण
राष्ट्रवादिता, पराक्रमशीलता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता, मानवतावाद, अध्यात्मवाद व विनयशीलता ये सप्त-सिद्धान्त हमारे वैयक्तिक व राष्ट्रीय जीवन के मूलभूत सि द्धान्त एवं आदर्श हैं। सप्त-सि द्धान्त हमारे स्वधर्म, राष्ट्रधर्म व हमारी कार्यपद्धति के मूल-मंत्र हैं। सप्त-सिद्धान्त हमारे देश के नागरिक व नेतृत्व की मुख्य कसाटी हैं। अर्थात् इन सप्त-सि द्धान्तों का पूर्णतः पालन करने वाला व्यक्ति ही इस देश का सच्चा नागरिक है। इन सप्त-सिद्धान्तों के अनुरूप जीवन जीने वाला व्यक्ति ही इस राष्ट्र को सही नेतृत्व दे सकता है। इन्हीं सप्त-सिद्धान्तों पर चलकर हम वैयक्तिक व राष्ट्रीय जीवन में एक नई क्रान्ति व नई आजादी लाना चाहते हैं और राष्ट्र में एक आदर्श व्यवस्था स्थापित कर भारत को फिर से विश्व गुरु बनाना चाहते हैं। इन्हीं सप्त-सिद्धान्तों पर चलकर हम भारत को विश्व की महा शक्ति बनाएंगे। भारत आध्यात्मिक, नैतिक व सा माजिक दृष्टि से वि श्व का नेतृत्व करेगा और पूरे विश्व में सुख, समृद्धि, शान्ति व समरसता के एक नये युग का सूत्रपात हो गा। हम चाहते हैं कि देश का प्रत्येक ना गरिक एवं देश का नेतृत्व करने वाले जन-सेवक राष्ट्रवाद के इन सप्त-सि द्धान्तों के अनुकूल आचरण करें:
  • (१)­ राष्ट्रवादिता - जो राष्ट्र को अपने जीवन में सदा सबसे ऊँचे स्थान पर रखता हो, वह राष्ट्रवादी है। धर्म में सबसे पहले राष्ट्रधर्म, उसके बाद अपना वैयक्तिक धर्म- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्म, देवों में प्रथम देवता राष्ट्रदेव को जो मानता हो, वह राष्ट्रवादी है। वैयक्तिक, पारिवारिक व आथि र्क हितों में प्रथम राष्ट्रहित को सर्वापरि मानना, प्रेम में सबसे प्रथम राष्ट्रप्रेम, जीवन में एवं जगत में भी उससे ही प्रेम करना, जो देश से प्रेम करे। जो देश से प्रेम नहीं करे, उससे प्रेम नहीं करना। पूजा-भक्ति में प्रथम पूजा-भक्ति राष्ट्र की, उसके बाद ईश-भक्ति, मातृ- भक्ति व गुरुभक्ति आदि को मानना। वन्दना में प्रथम राष्ट्रव न्दना, ध्यान में प्रथम देश का ध् यान, चिन्तन व चिन्ता में भी प्रथम राष्ट्र का चिन्तन व राष्ट्र की चिन्ता, काम में प्रथम देश का का म, अभि मान में जो प्रथम स्वदेश का स्वाभि मान करे, वह राष्ट्रवादी है, रिश्तों में प्रथम रिश्ता व नाता देश का, यदि कोई रिश्तेदार भी देश से प्यार नहीं करे तो उससे भी कोई रिश्ता-नाता नहीं रखना। स्वच्छता व स्वस्थता में भी प्रथम देश की स्वच्छता व स्वस्थता, समृद्धि में प्रथम देश की समृद्धि, विकास में भी प्रथम राष्ट्र के विकास का प्रयास जो करता है, वह राष्ट्रवादी है।ि शक्षा में जो स्वदेशी शक्षा को सबसे श्रेष्ठ मानता है, वह राष्ट्रवादी है। भाषाओं में जिसके जीवन, आचरण व व्यवहार में प्रथम राष्ट्रभाषा है, वह राष्ट्रवादी है। जो स्वदेशी शिक्षा, स्वदेश के संस्कार, स्वदे श की संस्ड्डति-योग, धर्म, दर्शन व अध्यात्म से प्यार करे, वह राष्ट्रवादी है। जो स्वस्थ, स्वच्छ, समृद्ध व संस्कारवान भारत बनाने के लिए एवं स्वदेशी से स्वावलम्बी राष्ट्र बनाने के लिए, जो नि यन्त्रित जनसंख् या के नियम से भूख, गरीबी, बेरोजगारी से मुक्त व सौ प्रतिशत अनिवार्य मतदान के विधान से देश की भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था के समाधान के लिए प्रतिबद्ध है, वह राष्ट्रवादी है। जो स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियां:यो ग, आयुर्वेद, यूनानी व सिद्ध आदि के पूर्ण विकास व इन पर अनुसंधान के लिए संकल्पित है, वह राष्ट्रवादी है। जो स्वदेशी ज्ञान अर्थात् वेद , दर्शन व उपनिषद् आदि से प्राप्त वैदिक स्वदेशी ज्ञान, स्वदेशी खान-पान, स्वदेशी वेशभूषा, स्वदेशी कृषि व स्वदेशी ऋषि-संस्कृति से प्यार करता है, वह राष्ट्रवादी है। जो स्वदे शी खेल, स्वदेशी कला-संस्कृति एवं स्वदेश की प्रा चीन भाषा संस्कृत एवं समस्त भारतीय भाषाओं एवं राष्ट्रभ्ाषा से प् यार करता है व राष्ट्रभाषा को सर्वाच्च मानता है, वह राष्ट्रवादी है। मनोरंजन में भी जो मूल्यों, आदर्शों व परम्पराओं पर आधारित भारतीय मनोरंजन में विश्वास करता है, वह राष्ट्रवादी है। राष्ट्रवाद, राष्ट्रधर्म या राजनीति से हमारा अभिप्राय राष्ट्र की उन तमाम व्यवस्थाओं, नियम-कानूनों, आदर्श-मूल् यों व परम्पराओं से है, जिन पर चलकर देश में सुख, समृद्धि एवं खुश हाली आती है तथा देश नि रन्तर विकास की दि शा में आगे बढ़ता है। हमारे राष्ट्रवाद या राष्ट्रधर्म के आदर्श हैं- मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, चन्द्रगुप्त, विक्रमादि त्य, सम्राट अशोक, तिलक, गोखले, गाँधी, नेताजी सुभाष, छत्रपति शवाजी, लोहपुरुष सरदार पटेल व लाल बहादुर शास्त्री आदि।
जो शून्य तकनीकी से बनी विदेशी वस्तुएं अपने दैनिक जीवन में उपयोग नहीं करता, वह राष्ट्रवादी है।
  • (२) पराक्रमशीलता - जो राष्ट्रहित के निर्णय लेने में एक पल भी विलम्ब न करे और राष्ट्रहित में निर्णय लेने व उन निर्णयों के क्रियान्वयन में किसी से भी न डरे, जो भाग्यवादी न होकर पुरुषार्थवादी हो, जो अन्धविश्वासों में न फंसकर कर्म, श्रम, उद्यम, साहस, शौर्य व स्वाभि मान के साथ जीता हो, वह पराक्रमी होता है। जो समाज एवं राष्ट्रहित के काम को धीमी गति से न करके आक्रामक ढंग से करे, जो प्रत्येक पवित्र कार्य को सं घर्ष, बाधाओं व नि न्दाओं से वि चलित न होकर तथा प्रलोभनों से बिना प्रभावित हुए सफलता तक पहुँचकर ही वि राम लेता हो, ऐसा व्यक्ति पराक्रमी होता है। जो कल करना हो, उसको आज करने में विश्वास रखता हो, जो यह मानता हो कि जो कार्य कल हो सकता है वह आज क्यों नही हो सकता और जो आज नहीं हुआ, हम कैसे साचें कि वह कल हो जा येगा? जो अभी नहीं तो कभी नहीं, जो कभी थके नहीं, कभी रुके नहीं, जो आराम हराम है तथा कार्यान्तर ही विश्राम है, की कार्य संस्कृति में विश्वास रखता हो, जो कर्म न करने की प्रवृति को आसुरी संस्कृति मानता हो। ”अकर्मा दस्युः“ (वेद) तथा
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥(यजुवेर्द 40‐2)
कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीओ, यही जीवन का एकमात्र श्रेष्ठ मार्ग है। कर्म ही धर्म है। कर्म ही जीवन व जगत् का सत्य है। यह सम्पूर्ण सृष्टि, कर्म का ही परिणाम है। ”स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः“ (गीता 18‐46) योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने कर्म से भगवान् की पूजा कर। कर्म ही पूजा है। जो ”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन“ (गीता 2‐47) को अपना आदर्श मानता हो, वह पराक्रमी है।
  • (३) पारदर्शिता - जिसका जीवन नि ष्कलंक, पवि त्र व बेदाग हो, जिसका वैयक्तिक, पारिवारिक, व्यावसायिक व सा माजिक जीवन सप्त मर्यादाओं की कसौटी पर खरा उतरता हो, जो दोहरे चरित्र में न जीकर निर्दोष जीवन के प्रति प्रतिपल सजग रहता हो, वह व्यक्ति पारदर्शी है। जिसके बाह्य एवं आन्तरिक जीवन में विरोधाभास न होकर पूर्ण शुचिता हो, वह पारदर्शी है।
  • (४)­ दूरदर्शिता - जो जाति , प्रान्त, क्षेत्र, मजहब, मत, पंथ, संप्रदाय एवं भाषा आदि के आग्रह एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सब जाति यों का सम्मान करे, अपने क्षेत्र व प्रान्त के विकास की भी बात करे, सभी मजहबों एवं समस्त भारतीय भाषाओं का भी सम्मान करे, परन्तु यह सब करता हुआ राष्ट्रहित को न भूले, सभी भारतीय भाषाओं एवं संवाद व सम्पर्क के लिए विदेशी भाषाओं का भी सम्मान करे परन्तु राष्ट्रभाषा ही को सबसे ऊपर रखे। राष्ट्रहित को सर्वाच्च स्थान पर रखने वाला दूरद र्शी है। देश में प्रान्तवाद, क्षेत्रवाद, मजहब एवं क्षे त्रीय भाषाओं का उन्माद पैदा करके देशवासि यों में परस्पर घृणा व नफरत फैलाने वाला, अपने क्षणिक हितों के लिए दे श में आग लगाने वाला व्यक्ति दूरद र्शी नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से आज हमारे देश में अधिकांश नेतागण सड़क से संसद तक वोट मांगते हैं भारतीय भाषाओं में और संसद में बैठकर राज करते हैं अंग्रेजी में। अपने तुच्छ राजनैतिक स्वार्थों की परवाह किए बिना राष्ट्रहित को सर्वापरि मान हम दूरद र्शी बनें, जिससे आने वाली पीढि़याँ हमें गर्व से अपने आदर्श एवं राष्ट्रपुरुष के रूप में याद करें।
  • (५) मानवतावाद - हमि हन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि होने से पहले एक इन्सान हैं और हम सबका पिता एक परमेश्वर है , चाहे हम उसको किसी भी नाम से पुका रें। भगवान् ने हमें इन्सान, मानव बनाकर दुनि या में भेजा है। अतः हमा रा प्रथम व मूल धर्म मानव धर्म है। हम सबके हृदयों में प्रेम, करुणा, वात्सल् य, सत्य व अहिंसा आदि ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक गुण-धर्म हैं। अतः मानवता, सत्य, अहिंसा व प्रेम आदि हमारे मूल धर्म-तत्त्व हैं। बाहर के धर्म एवं मजहब आदि मानव धर्म के लिए व मानवता के लिए खतरा नहीं बनें, यह मानवतावाद है। इन्हीं मानवीय मूल्यों में विश्वास रखने वाला मानवतावादी है।
  • (६) अध्यात्मवाद - जो सार्वभामिक व वैज्ञानिक मूल्यों, आदर्शों एवं परम्पराओं को धर्म मानता हो, जो आस्तिक और धार्मिक तो हो परन्तु धर्मान्ध न हो, जो मनुष्य सहित समस्त प्राणि्ायों एवं जड़-चेतन समस्त स्वरूपों में ईश्वर का मूर्त रूप देखता हो और अपने सम्पूर्ण जीवन को जीव व जगत् की सेवा के लिए समर्पित कर जगत की पीड़ा हरता है, वह अध्यात्मवादी है। जो समस्त संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव-मात्र से प्यार करे व पूरे विश्व को परिवार की तरह देखे। सदैव अपने हृदय में ”वसुधैव कुटुम्बकम्“ (पंचत न्त्र 5‐38) का भाव रखे, वह अध्यात्मवादी है। यह अध्यात्मवाद व राष्ट्रवाद परस्पर विरोधा भासी विचारधारा नहीं है अपितु प्रत्येक देश एवं उस देश के ना गरिकों की पूर्ण स्वतन्त्रता व आत्मसुरक्षा के साथ जीने के लिए दोनों विचारधा राएँ समान रूप से आवश्यक हैं। सांसारिक व राष्ट्रीय व्यवस्था के अनुसार हम एक स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं और अपने देश की आजादी, एकता-अखण्डता व सम्प्रभुता की रक्षा, यह हमारा राष्ट्रीय नैतिक दायित्व है। यह हमारा राष्ट्रधर्म है, साथ ही यदि हम वि श्व-बन्धुत्व, वैश्विक शान्ति व सा माजिक समरसता की दृष्टि से देखें तो हम सब एक हैं एवं एक ईश्वर की संतान हैं। अतः ईश्वर पुत्र होने की दृष्टि से परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार हम सब भाई-बहन हैं। यह हमा रा आध्यात्मिक दर्शन व अध्यात्मवाद है।
  • (७) विनयशीलता - जो सत्ता, सम्पत्ति, वैभव एवं ज्ञान के शीर्ष पर पहुँचकर भी सदा विनम्र भाव से दूस रों की सेवा करता हो और सदा यह विश्वास रखता हो कि यह जीवन एवं सम्पूर्ण जगत उस परमात्मा की ड्डति है। इस दृश्य जीवन और जगत का नि यन्ता व मालिक एक अदृश्य सत्ता परमेश्वर है, मैं नि मित्त मात्र हूँ, मुझे निमित्त बनाकर सभी कार्य भगवान् स्वयं ही कर रहे हैं। यह तन-मन-धन-जीवन भगवान् का है, इस भाव में जीने वाले व्यक्ति को कभी अपने कर्म सत्ता व सम्पत्ति का अहंकार नहीं होता, ऐसा व्यक्ति विनयशील होता है। हमें अपने जीवन को ऐसे ही जीना चाहिए और यही जीवन व जगत् का सत्य है।
21‐ अध्यात्मवाद
(अध्यात्म, धर्म एवं संस्कृति का सार्वभामिक व वैज्ञानिक स्वरूप)
जो यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्या हार-धारणा-ध्यान एवं समाधि, इस अष्टांग योग एवं सम्पूर्ण भारतीय धर्म, दर्शन , अध्यात्म एवं सांस्कृतिक परम्पराओं, ऋषि-मुनि यों द्वारा प्रतिपादित जीवन मूल्यों व आदर्शों के प्रति पूर्ण नि ष्ठावान व प्रतिबद्ध है, वह आध्यात्मिक है, वह धा र्मक है। हम महर्षि पतंजलि प्रतिपादित अहिंसा, सत्य, अस्ते य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह इन पाँच यम तथा शाच, संतोष, तप, स्वाध् याय व ईश्वर प्रणिधान इन पाँच नियमों को सार्वभामिक, वैज्ञानिक व वैश्विक धर्म, अध्यात्म व संस्कृति के रूप में स्वीकार कर मनसा, वाचा, कर्मणा इनका पालन करने के लिए संकल्पित हैं। यम-नि यमों के विपरीत हिंसा, असत्य व चोरी आदि करना, कराना व अनुमोदित (समर्थन) करना पाप एवं अपराध समझते हैं। भारत एक बहु-आयामी सांस्कृतिक परम्प राओं का देश है। अतः विविध, धामि र्क, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक व साम्प्रदायिक परम्पराओं में जो भी सार्वभौमिक व वैज्ञानिक सत्य हैं, हम उन्हीं को धर्म मानते हैं। परन्तु धार्मिक व साम्प्रदायिक परम्पराओं में जो अन्धविश्वास, ढोंग, पाखण्ड, आडम्बर व अवैज्ञानिक बातें हैं, हम उनके पोषक नहीं हैं। हम उनमें विश्वास नहीं रखते, इसीलिए हम धार्मिक हैं, धर्मान्ध नहीं। हम धर्म के प्रतीका त्मक पक्ष के प्रचारक, उपासक या समर्थक न होकर धर्म को आचरण की श्रेष्ठता मानते हैं। हम अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा, दया, सेवा, धृति , क्षमा, शुचिता व संतोष आदि जीवन-मूल्यों को ध र्म मानते हैं। सब वेद-शास्त्र, कुरान , बाइबिल व गुरुग्रन्थ साहिब आदि पवित्र ग्रन्थां में वर्णित अहिंसा व सत्य आदि मूल्यों को ही धर्म कहते हैं। हमारी वैयक्तिक आस्थाएं चाहे किसी भी धर्म, मजहब, मत, पंथ व सम्प्रदाय आदि के साथ जुड़ी हों परन्तु सं स्थागत रूप से व राष्ट्रीय संद र्भ में हम विविध देवों की उपासना में वि भाजित न होकर सब देवों के देव ब्रह्मदेव की अथा र्त् एक ईश्वर की उपासना में वि श्वास रखते हैं। हम नास्तिक नहीं, हम आस्तिक हैं। परमात्मा के हन्दी, संस्कृत , पंजाबी, अरबी व अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में अनेकों नाम हैं। इन सब नामों में हम ओंका र नाम से भगवान् का सम्बोधन इसलिए करते है क्योंकि यह सृष्टि का सबसे आदि व पुरातन शब्द है। यह शब्द सार्वभौमिक व वैज्ञानिक है। समस्त भारतीय दर्शन व अन्य देशों की संस्कृति में भी किसी न किसी रूप में ओ३म्, आमीन, ओमेन आदि रूपों में ओ३म् का समावेश्ा है। ओ३म् के वैज्ञानिक प्रभावों पर गहन अनुसंधान से पता चला है कि ओ३म् एक पवि त्र, वैज्ञानिक व चिकित्सकीय शब्द है। यह कोई मूर्ति, प्रति मा या मजहबी परम्परा का द्योतक नहीं है। संक्षेप में, हम राष्ट्रवादी, अध्यात्मवादी व आदर्शवादी जीवन-पद्धति में वि श्वास रखते हैं। हम मजहबवाद, प्रान्तवाद के पोषक नहीं हैं, हम राष्ट्रवाद, मानवतावाद व अध्यात्मवाद के पोषक हैं।
22‐ योग शिक्षकों के लिए आदर्शवाद की सप्त-मर्यादाएँ
राष्ट्रवाद को समर्पित सभी यो गी भाई-बहनों के लिए निर्धारित सप्त मर्यादाएँ निम्न हैं:
  • 1‐ शाकाहारी
  • 2‐ निर्व्यसनी
  • 3‐ स्वस्थ
  • 4‐ समर्थ
  • 5‐ समर्पित
  • 6‐ गैर-राजनैतिक जीवन
  • 7‐ योग व राष्ट्रहित में प्रतिदिन कम से कम एक से दो घण्टे का समय देने के लिए प्रतिबद्धता।
उपरोक्त का मुख्य सम्बन्ध हमारे वैयक्तिक जीवन व आचरण से है। यदि हमारे वैयक्तिक जीवन में शुचिता, सार्वभामिकता एवं राष्ट्रीयता की प्राथमिकता नहीं हो गी और यदि हम स्वयं ही स्वस्थ, समर्थ, समर्पित एवं राजनैतिक आग्रहों से रहित नहीं होंगे तो कैसे एक भ्रष्टाचार, अपराध एवं शोषण रहित शासन, समाज व राष्ट्र की संकल्पना पूरी कर पायेंगे। हमारे मुख्य-योग शिक्षक, सह-योगि शक्षक, उप-योग शिक्षक, कार्यकर्त्ता एवं योग साधक इन सप्त मर्यादाओं में रहकर प्रथम वैयक्तिक जीवन में पवि त्रता, शालीनता व पारदर्शिता ला येंगे और फिर राष्ट्रीय-चरित्र नि र्माण के अभियान को आगे बढ़ाएँगे। प्रथम आत्मोन्नति कर हम राष्ट्रोन्नति में अपना सर्वस्व समर्पित करेंगे। प्रथम आत्मकल्याण फिर राष्ट्र व विश्व का कल्याण:यह हमा रा आदर्श है।
गैर-राजनैतिक जीवन से अभिप्राय है कि हमारा राष्ट्र के नवनि र्माण के संकल्प से दृढ़ता से जुड़ने वाला व्यक्ति किसी राजनैतिक दल का प्रतिनि धित्व नहीं करेगा और न ही प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किसी दल वि शेष का सहयोग करेगा। हमारा राजनैतिक दर्शन है:सर्वदलीय व नि र्दलीय। अर्थात् सब दलों में जो चरित्रवान्, पारद र्शी, पराक्रमी व राष्ट्रवादी लोग हैं, उनको भावनात्मक समर्थन देना। याद रहे राष्ट्रवादी व ईमानदार राजनेताओं को भी प्रत्यक्ष समर्थन नहीं देना, जैसे योगपीठ द्वारा हम राष्ट्रवादी व ईमानदार लोगों का सार्वजनिक रूप से नैतिक समर्थन करते हैं, इसी तरह आदर्श व्यक्तित्त्वों, चरित्रवान् व राष्ट्रवादी राजनेताओं को भी भावनात्मक समर्थन देना है। सर्वदलीय या निर्दलीय होने का तात्पर्य है कि हमें किसी दल वि शेष का प्रतिनि धित्व नहीं करना है, अपितु सभी दलों में जो श्रेष्ठ लोग हैं, उनको हमारा नैतिक व भावनात्मक समर्थन है। अतः हम सर्वदलीय हैं तथा सभी दलों में जो भ्रष्ट लोग हैं, उनसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं, इसीलिए हम निर्दली य हैं। हमारा विरोध किसी व्यक्ति या पार्टी से नहीं, बल्कि हमारा विरोध सैद्धान्तिक है, और यही रहना चाहिए। किसी भी राजनैतिक पार्टी से प्रत्यक्ष पदेन जुड़ा हुआ व्यक्ति इस संकल्पना के साथ पूर्णतः न्याय नहीं कर पाएगा। हम किसी राजनैतिक पार्टी के प्रतिनि धि या प्रचारक नहीं हैं। हम राष्ट्रधर्म के प्रतिनि धि व प्रचारक हैं। यह हमें सदा स्मरण रखना चाहिए कि हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व, हमा री वाणी, व्यवहार, खान-पान व आचरण ऋषि संस्कृति व इस संकल्पना की गरिमा के पूर्ण रूप से अनुकूल रहना चाहिए।
राष्ट्र-देव
23‐ माता भूमि : पुत्रोऽहं पृथिव्याः (अथर्ववेद 12‐1‐12) धरती हमा री माँ है हम इसके पुत्र हैं। राष्ट्रदेव सबसे बड़ा देवता है। राष्ट्रधर्म, माने राष्ट्र के प्रति हमारे कर्त्तव् य, हमारे दायित्व, इनको नि भाना यह सबसे बड़ा धर्म है। अन्याय एवं अधर्म को करना जितना पाप है, उतना ही पाप, अत्याचार को सहना भी है। राष्ट्र के प्रति कृतज्ञता, श्रद्धा व स्वाभिमान हर इन्सान में होना चाहिए।
24‐ दुर्भाग्य है कि आजादी के 60 वर्षों के बाद भी दे श को हम एक नाम, एक भाषा, एक सांस्कृतिक पहचान नहीं दे पाए। अब ऋषियों के इस देश आ र्यावर्त्त को भारत ही रहने दो, अब गुलामी की पहचान इण्डिया कहकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस मत करो।
25‐ जिसको इस देश की माटी, संस्कृति , सभ्यता व स्वदेश के लो गों से प्यार नहीं तथा स्वदेश का स्वा भमान नहीं उसको इस देश में रहने का अधिकार नहीं है।

भारत स्वाभिमान

संक्षिप्त लक्ष्य, दर्शन एवं सिद्धान्त
हमारे पाँच मुख्य लक्ष्य
1‐ 100% मतदान, 100% राष्ट्रवादी चिन्तन, 100% विदेशी कम्पनि यों का बहिष्कार व स्वदेशी को आत्मसात् करके, देशभक्त लो गों को 100% सं गठित करना तथा 100% योगमय भारत का नि र्माण कर स्वस्थ, समृद्ध, संस्कारवान् भारत बनाना:यही है ”भारत स्वाभिमान“ का अभियान। इसी से आयेगी देश में नई आजादी व नई व्यवस्था और भारत बनेगा महान् और राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या:भ्रष्टा चार का होगा पूर्ण समाधान।
2‐ हमारी पाँच प्रतिज्ञाएं
भारत के जन-जन को योगधर्म से स्वधर्म का बोध करवा, उनके तन, मन एवं चिंतन को स्वस्थ करने हेतु तथा वैयक्तिक चरित्र को पवित्र कर राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करेंगे एवं इस हेतु, योग शिक्षकों के वि शेष प्रशिक्षण शिवि रों में सभी शिवि रार्थी भाई-बहनों से पांच प्रतिज्ञायें करवाई जा येंगी। आप भी इन प्रतिज्ञाओं को जहां स्वयं अंगीकार करें, वहीं अपने जिले के प्रत् येक शिक्षक, साध्ाक, विशिष्ट सदस्य, का र्यकर्त्ता सदस्य, साधारण सदस्य एवं प्रत्येक नागरिक से भी यह प्रतिज्ञायें करवायें और एक स्वस्थ, समृद्ध एवं संस्कारवान भारत बनाने का संकल्प लें:
  • 1‐ हम राष्ट्रभक्त, ईमानदार, पराक्रमी, दूरद र्शी एवं पारद र्शी लो गों को ही वोट करेंगे। हम स्वयं 100 प्रतिशत मतदान करेंगे एवं दूसरों से करवायेंगे।
  • 2‐ हम राष्ट्रभक्त, कर्त्तव्यनि ष्ठ, जागरुक, संवेदनशील, वि वेकशील एवं ईमानदार लो गों को 100 प्रतिशत सं गठित करेंगे एवं सम्पूर्ण राष्ट्रवादी शक्तियों को सं गठित कर देश में एक नई आजादी, नई व्यवस्था एवं नया परिवर्तन लायेंगे। और भारत को विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति बनायेंगे।
  • 3‐ हम शून्य तकनीकी से बनी विदेशी वस्तुओं का 100%बहिष्कार तथा स्वदे शी वस्तुओं का प्रयोग करेंगे।
  • 4‐ हम 100% राष्ट्रवादी चिन्तन अपनाते हुए हम अपने वैयक्तिक जीवन में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बाद्ध एवं जैन आदि धार्मिक परम्पराओं का निर्वहन करेंगे, परन्तु राष्ट्रीय जीवन में हम एक सच्चे भारतीय-सच्चे हिन्दुस्तानी बनकर रहेंगे।
  • 5‐ हम सम्पूर्ण भारत को 100% योगमय एवं स्वस्थ बनाकर राष्ट्रवासियों को आत्मकेन्द्रित करेंगे और आत्मविमुखता से पैदा हुई बेइ र्मानी, भ्रष्टाचार, नि राशा, अविश्वास व आत्मग्लानि को मिटा जन-जन में आत्मगारव का भाव जगायेंगे एवं वैयक्तिक व राष्ट्रीय चरित्र का नि र्माण कर भारत का साया हुआ स्वाभिमान जगायेंगे।
3‐ हमारी संगठन रचना एवं भावी कार्य-योजना
उपरोक्त पाँच प्रतिज्ञाओं के आचरण से स्व स्थ, स्व च्छ, समृद्ध तथा स्वावलम्बी, भ्रष्टा चार-मुक्त, बेरोजगारी एवं गरीबी-मुक्त भारत का नि र्माण करना, यह हमारी दृढ़ संकल्पना है। इस संकल्पना को पूर्ण करने के लिए:1‐ दि व्य योग मन्दिर (ट्रस्ट) 2‐ पतंजलि योगपीठ (ट्रस्ट) भारत व अन्तर्राष्ट्रीय, 3‐ भारत स्वाभि मान अन्तर्राष्ट्रीय (अप्रवासी भारतीय संगठन), 4‐ पतंजलि चकित्सालय, 5‐पतंजलि योग समिति एवं 6‐ महिला पतंजलि योग समिति:ये छः मुख्य संस्थाएं समाज एवं राष्ट्र के लोगों को वि भन्न 15 सगंठनों के माध्यम से योग क्रांति एवं राष्ट्रीय जन-जागरण अभि यान से जोड़ेंगी। इन 15 संगठनों (प्रकाष्ठों) में:
1‐ युवा-संगठन
2‐ शिक्षक संगठन
3‐ चिकित्सक-संगठन
4‐ वित्तीय व्यवसायी संगठन
5‐ अधिवक्ता एवं पूर्व न्यायाधीशों का न्यायविद् संगठन
6‐ पूर्व-सैनिक संगठन
7‐ किसान संगठन
8‐ उद्योग एवं वाणिज्य संगठन
9‐ कर्मचारी संगठन
10‐ अधिकारी संगठन
11‐ श्रमिक संगठन
12‐ विज्ञान एवं तकनीकी संगठन
13‐ कला-संस्ड्डति संगठन
14‐ मीडिया सगंठन
15‐ वरिष्ठ नागरिक सगंठन
अर्थात् कुल 15 संगठन कार्य करेंगे। प्रत्येक जिले में इन 15 संगठनों को स्थापित करने के लिए सदस्यों के चयन करने एवं कार्यवाहक संयोजक नियुक्त करने की जिम्मेदा री भारत स्वा भमान के उपरोक्त छः मुख्य सं स्थाएं एवं 15 सहयो गी संगठन, सब मिलाकर हमारे सम्पूणर् संगठन के कुल 21 घटक होंगे। ये 21 संगठन, 21वीं शताब्दी में, सम्पूर्ण भारत में सम्पूर्ण सामाजिक, आध्यात्मिक, नैतिक उत्थान का आन्दोलन/अनुष्ठान चलाकर, देश में नई आजादी व नई व्यवस्था लाकर, भारत का स्वा भमान जगायेंगे।
प्रत्येक जिले में हमारे 1100 से 2100 योगशिक्षक मिलकर 2100 से 5000 भारत स्वाभि मान के वरिष्ठ सदस्य तैयार करेंगे और वरिष्ठ सदस्य 5000 से 11000 कार्यकर्त्ता सदस्यों का चयन करेंगे एवं ये कार्यकर्त्ता सदस्य 5 से 11 लाख भारत स्वाभि मान (ट्रस्ट) के सा धारण सदस्य तैयार करेंगे।
आप भारत स्वाभिमान के माध्यम से इस राष्ट्रीय क्रान्ति से जुड़ने के लिए अपने सम्बन्धित इन 15 संगठनों में से किसी भी संगठन से जुड़ने के लिए स्थानीय पतंजलि योग समिति/पतंजलि चकित्सालय से सम्पर्क करें एवं हमारे शक्षक/सदस्य बनने के लिए आगे आयें!
4‐ लोकतन्त्र व संविधान पर गहरे प्रश्नचिह्न
विधायिका, कार्यपालिका, न्याय-पालिका व मीडिया ये लोकतन्त्र के चार सुदृढ़ स्तम्भ हैं। लोकत न्त्र में मतदाता बेचारा बेबस-असहाय व गुलाम नहीं होता और शासक मालिक नहीं होता, बल्कि शासक जनता द्वारा चुना हुआ एक शक्ति व अधिकार सम्पन्न जनसेवक होता है। उस एम‐एल‐ए‐ या एम‐पी‐ आदि जन-प्रतिनि धि को हमने अपने हितों की रक्षा के लिए चुना है। शासन के नाम पर शोषण करने के लिए व कानून की आड़ लेकर हमें सताने या हमारे साथ अन्याय करने के लिए हमने उसको अपना प्रतिनि धि नियुक्त नहीं किया है। हम जन-प्रतिनि धियों को अधिकार इसलि ए नहीं देते हैं कि वे हमारे ही जीने का अधिकार छीन लेंगे। शासक हमारा सेवक होता है और सेवा करने के बदले हम एक एम‐एल‐ए‐/एम‐पी‐, मन्त्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को हमा री टैक्स की कमाई से वेतन, घर, समस्त खर्च, यात्रा हेतु पेट्रोल व गाड़ी आदि देते हैं। शासक मुफ्त में सेवा नहीं देता है, बल्कि सेवा के बदले हम एक-एक जन प्रतिनि धि को भारी भरकम वेतन व समस्त खर्च देते हैं और अपने समाज, नगर, प्रान्त व राष्ट्र के हितों के लिए उसे अि धकार देते हैं और यदि वह अपने अधिकारों का दुरुपयोग करता है, तो हमें अपने अधिकारों की रक्षा के लिए उसको सत्ता से बेदखल करने का पूरा हक है। वर्तमान समय में, देश में कमोबेश भ्रष्ट-शासक व भ्रष्ट-अधिकारि यों की सांठ-गांठ से एक ऐसा खौफ दे श में फैला हुआ है कि एक आम आदमी स्व यं को बेबस, ला चार, असहाय व ठगा-सा महसूस कर रहा है आैर एक आजाद भारत में रहता हुआ भी शासन के भय से बेबस होकर बार-बार शोषण का शकार होता है। अब जा गो! शासन के नाम पर अब शोषण को नहीं सहो! पूरे आत्मसम्मान, आत्मानुशासन व आजादी से जीओ! यह देश तुम्हारा है, तुम गुलाम नहीं, एक आजाद भारत के नागरिक हो। लोकत न्त्र में विधायिका की तरह ही कार्यपालिका व न्यायपालिका भी अर्थात् समस्त लोकतान्त्रिक प्रणाली में, समस्त प्रशासनिक अधिका री, पुलिस व्यवस्थाएं व न् यायपालिका आदि भी, हम देश के लो गों को सुरक्षा, न्याय एवं आत्मस म्मान के साथ जीने के लिए बनाए गए हैं। परन्तु कोई सरका री अधिकारी, कर्मचारी या पुलिस ऑफिसर आपके साथ अन्याय कर रहा है अथवा असंवैधानिक तरीके अपनाकर आपको अपमानित कर रहा है, तो आपको हक है इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने का और भ्रष्ट अधिकारि यों को दण्ड दिलाने का, उनको सेवामुक्त करवाने का, क्योंकि ये सा रा सरकारी तन्त्र हमारी सुरक्षा व हमें न् याय दिलाने के लिए है और इस सारी नौकरशा ही को काम करने के बदले हम भारी भरकम वेतन देते हैं। इनसे डरो मत, एक गरिमापूर्ण व्यवहार ता अवश्य करना, परन्तु याद रखना कि ये आपके मालिक नहीं, ये आपके सेवक हैं। लोकत न्त्र में प्र त्येक भारतीय मालिक है और उसके मौलिक व संवैधानिक अधिकार हैं। प्रत्येक नागरिक को पूरी आजादी, पूरे अनुशासन व आत्म सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। अतः जा गो! और शासन के नाम पर शोषण, अन्याय व भ्रष्टा चार को बर्दाश्त नहीं करो। जो भी भ्रष्ट शासक हैं, उन्हें अपने मताधिकार का प्रयोग करके, सत्ताओं से बाहर करो और जो दे शभक्त व ईमानदार लोग हैं, जिनके दिलों में देश के लिए दर्द है और जो देश का सच्चे दिल से विकास चाहते हैं, उन राष्ट्रभक्त, पराक्रमी, पारदर्शी व दूरद र्शी लो गों के हाथों में देश की सत्ता सौंपने के लिए 100% मतदान करो और देश को बचाओ! हम संकल्प लें कि न देश को हम लूटेंगे और न ही भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के लो गों को देश को लूट ने देंगे। यह देश मेरा है। मैं इसको बर्बाद नहीं होने दूं गा। लोकतन्त्र की समस्त व्यवस्थाएं व देश का संवि धान दे श के लागों का समान रूप से न्याय व विकास के अवसर उपलब्ध करवाने के लिए होता है परन्तु क्या हमारे संवि धान के निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर जी ने जो संविधान में लिखा है, क्या वह देश में हो रहा है? और क्या जो मेरे दे श में हो रहा है, संसद में हो रहा है, वि धानसभा में हो रहा है, वह सब क्या देश के संवि धान में लिखा है? लोकत न्त्र के सबसे बड़े मन्दिर संसद एवं विधानसभाओं में बैठने वाले अधिकांश्ा तथाकथित नेता ही जब लोकतन्त्र की धज्जियाँ उड़ाने लगें आैर संवि धान की कसम खाने वाले ही जब संवि धान का कत्ल करने लगें तो मैं, मौन नहीं रह सकता। मैं भारत के संवि धान के नि र्माता बाबा साहब अम्बेडकर के सपनों को नहीं टूटने दूंगा। मैं, शहीदों के सपनों का भारत बनाऊँगा, देश में नई आजादी लाऊँगा व देश से भ्रष्टा चार व शासन के नाम पर शोषण को मिटाऊँगा।
5‐ यह कैसा लोकतन्त्र?
लोकत न्त्र में वोट मांगते हैं हन्दी में, और अन्य भारतीय भाषाओं में, और राज करते हैं अं ग्रेजी में। क्या राजकाज की भाषा राष्ट्रभाषा हिन्दी नहीं हो सकती? क्या भारतीय उच्च एवं उच्चतम न् यायालय के निर्णय राष्ट्र भा षा हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में नहीं हो सकते? आजादी के 60 वर्षों के बाद भी अपने देश के लोगों को, अपने देश की भाषा में न्याय भी नहीं मिलता यह कैसा अन्याय है।
6‐ अब तो मौन तोड़ो!
देश की हानि दुष्टों की दुष्टता से कम तथा सज्जन व्यक्तियों की उदासीनता से अधिक होती है। अतः अब मौन तोड़ो! स्वयं जा गो! और देश को जगाओ!! और देश से आसुरी शक्तियों को परास्त करने के लिए आगे आओ!
7‐ मेरे सपनों का भारत
स्वस्थ, समृद्ध एवं संस्कारवान् भारत के नि र्माण हेतु हमारे पांच मुख्य लक्ष्य हैं:स्वस्थ भारत, स्वच्छ भारत, स्वदेशी से स्वावलम्बी भारत, नि यंत्रित-जनसंख्या से भूख, बे रोज गारी व गरीबी से मुक्त भारत एवं 100 प्रतिशत मतदान से राजनैतिक भ्रष्टाचार से मुक्त भारत।
  • 1‐ स्वस्थ भारत
हम एक ऐसे भारत का नि र्माण करना चाहते हैं जहां गरीब-अमीर प्रत्येक भारतीय शारीरिक, वैचारिक एवं भावनात्मक रूप से स्वस्थ हो। दुभा र्ग्य से लगभग 6 लाख करोड़ रुपये चकित्सा सेवाओं में बर्बाद/खर्च करने के बाद भी, देश में मात्र 35 प्रतिशत लोग ही, बीमार होने के पश्चात् अपनी व्याधियों को आधुनिक उपचार पद्धति अर्थात् एलोपैथी से मात्र नि यन्त्रित ही कर पाते हैं और लगभग 65 प्रतिशत लोग तो बीमार होने के पश्चात् एलोपैथी उपचार लेने में समर्थ ही नहीं हैं।
हम लोग यो ग, आयुर्वेद, एक्युप्रेश र, प्राकृतिक एवं संतुलित जीवन शैली आदि परम्परागत् भारतीय उपचार पद्धतियों के अभ्यास से मानव मात्र को सम्पूर्ण आरोग्य देना चाहते हैं। क्योंकि यह नि श्चित है कि स्व स्थ व्यक्ति से ही समृद्ध व वैभवशाली, संस्कारवान् भारत का नि र्माण हो गा।
  • 2‐ स्वच्छ भारत
देश की भूमि-अन्न-जल, पवित्र नदि याँ, वायु व आकाश सब दूषित हो चुके हैं, और भारत मे लगभग 50ः रोगों का मुख्य कारण भी अस्वच्छता है। आहार-वि चार-मन एवम् आचरण के दूषित व कलुषित होने से सम्पूर्ण राष्ट्र में रोग, भय, भ्रष्टाचार अपराध एवं अनाचार हो रहा है। महर्षि पतंजलि ने भी यो गी के लिये पहला नियम शौच बताया है। अग्निहोत्र से ब्रह्माण्ड की शु द्ध, वृक्षारोपण से वायु की शु द्ध, तन की शुद्धि जल से, मन की शुद्धि सत्य से , धन की शुद्धि दान से, बुद्धि की शुद्धि ज्ञान से, आ त्मा की शुद्धि विद्या एवं तप के द्वारा होती है। हम राजनैतिक शुद्धि 100 प्रतिशत मतदान से एवं राष्ट्र की शुद्धि प्रत्येक व्यक्ति के पहचान-पत्र से करके एक स्व च्छ एवम् शक्तिशाली भारत बनाना चाहते हैं। अन्न, जल एवं वायु आदि को प्रदूषण से मुक्त करने के लिये राष्ट्र-व्यापी आन्दोलन बहुत आवश्यक है।
  • 3‐ स्वदेशी से स्वावलम्बी भारत
स्वदेशी उद्याग, स्वदेशी शिक्षा, स्वदेशी चकित्सा, स्वदेशी तकनीकि, स्वदेशी ज्ञान, स्वदेशी खानपान, स्वदेशी भारतीय भाषा, स्वदेशी वेश भूषा एवं स्वदेश के स्वाभि मान के बिना विश्व का कोई भी देश महान् नहीं बन सकता। हम प्रत्येक भारतीय को व सम्पूर्ण भारत को स्वदे शी से स्वावलम्बी बनाकर भारत को विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली देशां की श्रेणी में लाना चाहते हैं।
हम शिक्षा एवं चिकित्सा की सम्पूर्ण व्यवस्थाओं में स्वदेशी भाषा, स्वदेशी संस्कृति , भारतीय संस्कार, वैदिक ज्ञान व देश के स्वा भमान को भारतीय जनमानस में जागृत करके पू रे विश्व में, भारत की एक आदर्श पहचान बनाना चाहते हैं। 1611 में मछली पट्टनम (आन्ध्रप्रदेश) में एवं 11 जनवरी 1613 में सूरत (गजरात) में मुगल शासकों ने एक विदेशी कम्पनी को व्यापार करने का अधिकार दि या था, जिसने धीरे-धीरे दे श का शाषण करते हुए अपनी जड़ें मजबूत कर लीं और बंगाल में सन् 1757 में प्लासी का युद्ध जीतकर कर (टैक्स) की उगाही शुरू कर दी। सन् 1769-70 के बंगाल के अभूतपूर्व अकाल में इस कम्पनी ने पीड़ितों को सहारा देना तो दूर बल्कि उनका और अधिक शोषण किया। देश में अकाल होते हुए भी इस विदेश कम्पनी ने जबरदस्त मुनाफा कमाया। अपनी मक्का री से सन् 1773 में ‘रेग्यूलेट री एक्ट’ का सहारा ले, भारत के बं गाल क्षेत्र से शासन आरम्भ कर दि या अर्थात् एक विदेशी व् यापारी कम्पनी देखते-देखते शासक बन गई। सन् 1615 में ईस्ट इंडि या कम्पनी के प्रथम एजेण्ट थॉमस रो से प्रारम्भ करके तथा प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हास्टिंग्स से लेकर अंतिम गवर्नर जनरल माऊंटबेटन तक एक विदेशी कम्पनी ने लगभग 350 वर्षों तक देश की 278 लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति लूटी। प्रथम विदेशी कम्पनी ‘ईस्ट इण्डिया’ ने देश का सम्पूर्ण धन व वैभव को तो लूटा ही, साथ ही भारत को लगभग 200 वर्षों तक गुलाम भी बनाये रखा और अब तो देश में लगभग 5000 से अधिक विदेशी कम्पनि यां शून्य-तकनीकी अर्थात् जिस समान में वि शेष तकनीक अथवा विज्ञान का उपयोग नहीं होता, का सा मान:आटा, नमक, पानी, कोल्डड्रिंक्स, जूस, चिप्स, साबुन , तेल, क्री म, पाउडर, जूता, चप्पल एवं वस्त्र आदि बेचकर देश का प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ों रुपया लूट रहीं हैं। जो देश की आर्थिक समृद्धि में बहुत ही बड़ी बाधा है। दे श का एक भी रुपया यदि विदे शी बैंकों मे जमा होता है तो यह स्वदेशी मुद्रा भण्डार के लिये बहुत ही हानिकारक व खतरनाक है। दे श की अर्थ व्यवस्था ही, देश की सबसे बड़ी ताकत एवं रीढ़ की हड्डी है। हम दे श को ताकतवर बनायेंगे, विदेशी कम्पनि यों का सामान ख रीद कर हम देश को कमजोर नहीं होने देंगे। विदेशियों ने हमें बहुत लूटा है, अतः विदेशियों से व्यापार एवं कार्य के जरिये विदेशी मुद्रा अपने देश मे लाना, विदेशों से व्यापार करके एक्सपोर्ट को बढ़ावा देना, अपने सामान की विदेशी बाजार में मांग पैदा करना, खपत बढ़ाना, यह देश के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए बहुत आवश्यक है। परन्तु यदि आपके कारण देश का धन विदे शी कंपनि यों के खातों में जमा होता है तो यह देश के साथ वफादा री नहीं, यह देश के साथ गद्दा री है। हमें देश को धोखा नहीं देना है अपितु हमें देश का जिम्मेदार व वफादार नागरिक एवं व्यापारी बनना है।
हम यह प्रतिज्ञा (प्रण) करें कि हम बहुराष्ट्रीय कम्पनि यों द्वारा निर्मित शून्य तकनीकी से बने लक्स, लाइफबॉय, रिन, लिरिल, रेक्सोना, पीयर्स, कॉल गेट, पेप्सोडेंट , क्लोजअप, पॉण्डस, लैक्मे, डिटॉल , डालडा आदि दैनिक उपयोग में आने वाले विदेशी उत्पाद तथा एमवे, पेप्सी व कोका-कोला, के जहरीले कोल्डड्रिंक्स, तथा एक्वाफिना व किन्ले के नाम पर बिक रहा पीने का पानी तथा इन कम्पनि यों के अन्य जूसेज़ व मेक्डोनाल्ड, डोमेनो आदि विदेशी कम्पनि यों द्वारा निर्मित पिज़्ज़ा-बर्गर आदि जंक फूड इत्यादि सा मान का सेवन अब जीवन में कभी भी नहीं करेंगे। यदि कुछ विदेशी कम्पनि याँ फ्रूट जूस, पानी, साबुन या अन्य अच्छे उत्पाद भी उपलब्ध कराती हैं तो भी हम वह सा मान नहीं खरीदें, क्योंकि ये उत्पाद यद्यपि हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं होते हुए भी दे श की अर्थ व्यवस्था या आर्थिक समृद्धि व भारतीय देशी उद्योग के लिए बहुत ही घातक हैं। आज भारतीय स्वदेशी कम्पनि याँ भी हमारे दैनिक जीवन में उपयोग मे आने वाली वस्तुओं का शुद्धता व गुणवत्ता के साथ उत्पादन कर रही हैं। अतः स्वदेशी को अपनाकर हमें देश को आर्थिक गुला मी से बचाना है व स्वदेशी उद्योगों को बढ़ाकर गरीबी, बेरोजगारी व भूख से मुक्त सशक्त भारत बनाना है। जब भारत की उन्नति का इति हास लिखा जाये, तब देश को कमजोर बनाने वालों में कम से कम हमारी गणना न हो अपितु देश को ताकत देने वालों में हमा रा नाम आये। तब हमारा नाम दे शद्रोहियों में नहीं, अपितु स्वदेशी का उपयोग करने वाले देशप्रेमियों में लिखा जाये।
  • 4‐ नियन्त्रित जनसंख्या से गरीबी, भूख एवं बेरोजगारी से मुक्त भारत
गरीबी, भूख एवं बे रोज गारी भारत की राष्ट्रव् यापी समस्याएं हैं और ये तीनों ही समस्याएं किसी भी देश के लिये अपमान एवं सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था की असफलता की सूचक हैं। आज भारत मे यदि 25 करोड़ लोगों की प्रतिदिन की औसत आमदनी 5 रुपये है और दूस री ओर 25 लोग प्रतिदिन 5 करोड़ रुपये कमाते हैं। इसका सीधे-सीधे अर्थ है:एक तो हमा री आर्थिक नीति यां सा मन्तवादी हैं और दूस रा हमारे यहाँ भूमि, अन्न, भवन, काम एवं संसाधन इत्यादि कम होते जा रहे हैं और जनसंख्या प्रतिदिन बेहिसाब तीव्रता के साथ बढ़ती जा रही है। और यदि वक्त रहते हमने कोई प्रभावी कदम नहीं उठा या तो देश की सि् थति बहुत ही खतरनाक व अनि यन्त्रित हो जायेगी, भूख , बेरोज गारी एवं गरीबी से पीड़ित समाज में हेल्थ, वैल्थ व एजूकेशन का असन्तुलन तो हो गा ही, साथ ही हिंसा, अपराध एवं सामाजिक संघर्ष के ऐसे युग की शुरुअात हो जायेगी, जिसमें पू रा देश धू-धू कर जल जायेगा आैर यह देश के लिये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण एवं खतरनाक सि द्ध होगा।
सामन्तवादी, मार्क्सवादी, लेनिनवादी, असामाजिक व्यवस्था के स्थान पर हमें भारतीय समाजवाद, जिसमें पूंजीवाद एवं साम्यवाद के स्थान पर एक सन्तुलित एवं पुरुषार्थ आधारित आदर्श विकासवाद के दर्शन को अपनाना होगा। प्रत्येक गॉव , व्यक्ति, समाज व राष्ट्र आत्मनि र्भर, समर्थ, स्वावलम्बी व सुखी हो, ऐसा भारतीय समाजवाद, जो हमारे गांवों में आजादी से पहले था, ऐसे समाजवाद को पुन : प्रति ष्ठापित करने की आवश्यकता है। कम्यूनिस्ट सोच के अनुसार यदि हम सम्पूर्ण देश की सम्पत्ति सब में बराबर बाँट भी दें तो कुछ दिनों में ही पुनः भूख, बेरोजगारी, बीमारी व गरीबी बढे़गी ही क्योंकि इन समस्या यों का मूल कारण अनि यन्त्रित जनसंख् या है एवं जिसका समाधान है:नि यन्त्रित जनसंख्या। नि यन्त्रित जनसंख् या से ही भूख, भय, बेरोजगारी, बि मारी एवं हिंसा मुक्त, सभ्य, स्वस्थ, सुखी एवं वैभवशाली भारत का नि र्माण सम्भव है। बिना डि माण्ड के प्रोडक्शन की जैसे कोई कीमत नहीं होती, वैसे ही स्थति इंसान के संद र्भ में भी है।
जितने लोग पैदा हो चुके हैं, इनके लिए भी हमारे पास संसाधन व रोज गार नहीं है और बावजूद इसके हम अनावश्यक बच्चे पैदा किये जा रहे हैं। ऐसे में देश की बदहाली को कोई रोक नहीं सकता, इसके लिए दो ही उपाय हैं या तो देश के लोग अपने विवेक से ही कम बच्चे पैदा करें और अपने विवेक से काम न लेने पर अज्ञान में अधिक बच्चे पैदा करने पर चीन जैसा दृढ़ विधान देश में होना चाहिए। तभी हम एक समृद्ध एवं शक्तिशाली भारत बना सकते हैं और देश से गरीबी, भूख एवं बेरोजगारी को मिटा सकते हैं।
  • 5‐ 100 प्रतिशत मतदान से राजनैतिक भ्रष्टाचार से मुक्त भारत
हमने विदेशी गुलामी से तो मुक्ति पा ली, लेकिन आजाद भारत में भी शासन के नाम पर वही शोषण, अन्याय, अत्या चार एवं भ्रष्टाचार शिखर पर है, पूरे देश मे असुरक्षा एवं अविश्वास का वातावरण है। ऐसे में देश को एक वि शुद्ध राष्ट्रवादी चिन्तन की आवश्यकता है, जिससे कि हम सत्ताओं के शीर्ष पर बैठे अधिकांश भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के लोगों को सत्ताओं से बाहर कर देश में नई आजादी ला सकें और देश की सत्ता राष्ट्रवादी, पराक्रमी, पारदर्शी, दूरद र्शी, मानवतावादी, अध्यात्मवादी व विनयशील, देशभक्त-ईमानदार लो गों के हाथों में सौंपकर एक शक्तिशाली लोकतान्त्रिक भारत बना सकें।
हम जिन एम‐एल‐ए‐ व एम‐पी‐ आदि जन-प्रतिनिधियों को चुनकर देश की सत्ताओं के शीर्ष पद व संसद में बैठाते हैं वह संसद राष्ट्र की शक्ति व सम्पत्ति का सर्वोपरि केन्द्र है। देश की संसद देश की समस्त व्यवस्थाओं की सर्वोच् च केन्द्र होती है। यहीं से देश की राज-सत्ता तय करती है कि दे श की शिक्षा-व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, दे श के बच्चों को क्या पढ़ना चाहि ये? देश की चकित्सा-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था, कानून व सुरक्षा की जवाबदेही राज-सत्ता पर होती है। देश की कृषि-व्यवस्था को उन्नत बनाना, जिससे कि देश में भूख व अन्न की समस्या न हो और देश की श्रमशक्ति का सही उपयोग करके देश से बेरोज गारी, गरीबी, भूख व अि शक्षा को मिटाकर देश का विकास करना, देश की राज-सत्ता की जवाबदेही है। यदि देश की राजनीति ठीक होती है तो देश का पू रा सिस्टम ठीक चलता है। राजनीति , राष्ट्रवाद, राष्ट्रधर्म से हमारा अभिप्राय राष्ट्र की उन तमाम व्यवस्थाओं, नियम-कानूनों, आदर्श-मूल्यों व परम्पराओं से है, जिनपर चलकर देश में सुख-समृद्धि एवं खुशहाली आती है तथा देश नि रन्तर विकास की दि शा में आगे बढ़ता है। लेकिन दुर्भाग्य से देश के पूरे सिस्टम को लीड करने वाले अधिकां श लीडर्स का करेक्टर, करेक्ट न होने के कारण ही पूरे देश में भ्रष्टाचार है और भ्रष्टा चार के कारण ही, देश में बे राजगारी पैदा होती है तथा बे रोज गारी ही गरीबी भूख व अपराध को जन्म देती है।
यदि राजनीति से भ्रष्टाचार ख त्म हो जाए तो प्रतिवर्ष दस लाख करोड़ से अधिक धन देश के विकास में खर्च होगा, करोड़ों युवाओं को रोज गार वेळ नए अवसर उपलब् ध होंगे, देश में औद्योगिक विकास होगा एवं राष्ट्र की चहुमुख्ा उन्नति होगी। और देश सुदृढ़, खुश हाल, व अपराध मुक्त होगा।
हमारे राजधर्म या राजनीति , राज्य-व्यवस्था, लोकतंत्र के आदर्श हैं:मर्यादा पुरुषोत्त म राजा राम योगेश्वर श्री कृष्ण, चन्द्रगुप्त, विक्रमादि त्य, सम्राट अशोक, छत्रपति शिवाजी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, तिलक, गोखले, गांधी, लोहपुरुष सरदार पटेल व लाल बहादुर शास्त्री आदि। लेकिन आज की घटिया राजनीति में लोकत न्त्र में, सत्ताओं के शीर्ष पर, अधिकांश भ्रष्ट , बेईमान , अमर्यादित व अपराधी कि स्म के लोग बैठे हुए हैं और यदि कोइ र् देशभक्त, चरित्रवान्, ईमानदार व्यक्ति राजनीति की स्वच्छता की बात करता है और निरंकुश अमर्यादित राजनीति के स्थान पर, देश में राष्ट्रवाद की अलख जगाकर, नई क्रान्ति एवं नई व्यवस्था लाकर एक नया राष्ट्र बनाना चाहता है, भ्रष्टाचार, अपराध, हिंसा व घृणा को मिटाकर, समाज में सुख, समृद्धि व समरसता लाना चाहता है तो इन भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के कुछ तथाकथित लो गों को यह सब रास नहीं आता और ये कहते हैं कि ईमानदार, पढे़-लिखे, देशभक्त सच्चे एवं अच्छे लोगां को राजनीति से दूर रहना चाहिए, जिससे कि ये भ्रष्ट बेईमान लोग देश को बिना भय के मनमाने ढंग से लूट सकें और बर्बाद कर सकें। जिन भ्रष्ट व बेईमान लोगों ने देश को लूटा व बरबाद किया है, उनको सत्ताओं से बाहर कर हम उनको उनके पापों की सजा देंगे। हम मौन व शान्त बैठे रहें और कोई देवदूत या अवतार आकर देश को बदल देगा यह हमा रा भ्रम है। कुछ पाने के लि ये खुद लड़ना व खड़ा होना पड़ता है। बिना सं घर्ष किए विजय नहीं मिलती, अब अपमानित होकर मत जियो, अपनी शक्तियों को पहचानो एवं संगठित होकर इन आसुरी शक्तियों को परास्त कर दो और सत्ताओं के शीर्ष पर बैठे, भ्रष्ट व्यक्तियों को उखाड़ कर, श्रेष्ठ व्यक्तियों को बैठाओ और इसका एकमात्र समाधान है:100% मतदान।
अतः हम 100% मतदान से देश की भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था वेळ स्थान पर एक श्रेष्ठ लोकतान्त्रिक प्रणाली को देश में लाना चाहते हैं आैर जिस तरह आस्ट्रेलिया, इटली, फ्रांस व जर्मनी आदि 30 से ज्यादा देशां में 100% अनिवार्य मतदान का नियम है वैसा ही नि यम हम भारत मे लाना चाहते हैं तभी देश में शासन के नाम पर चल रहा शोषण, अन्याय, अत्याचार व भ्रष्टाचार मिट सकेगा और चारों ओर छा या अवि श्वास व असुरक्षा का भाव भी समाप्त होगा और भारत सच्चे अर्थों में एक शक्तिशाली लोकतान्त्रिक देश बन पायेगा अन्यथा 25-30ः लोग वोट करके सरकारें बना देते हैं और 70-80ः लोग मौन होकर शोषण, अन्याय व अत्या चार के शकार होते रहते हैं और ये भ्रष्ट राजनेता जो 20 से 30ः लोग इनको वोट करते हैं, उनके भी हितों व राष्ट्रहितों के लिये काम न करके देश व देशवासि यों को झूठे आश्वासन एवं विकास के झूठे सपने दिखाकर देश को गुमराह करते व लूटते रहते हैं।
वोट न करने को मैं दे श की आजादी व लोकत न्त्र का अपमान मानता हूँ। यदि हम वोट नहीं करते हैं तो देश की आजादी खतरे में पड़ जाती है। शहीदों की शहादत पर मिली आजादी, गुलामी में तब़दील हो जायेगी। यदि हम वोट नहीं करते हैं, तो शहीदों की शहादत काऋ उनके बलिदान का अपमान करते हैं। शहीदों, वीरों ने अपने प्राणों की आहुति इसलिये नहीं दी थी कि आजाद भारत में कायर, कमजो र, भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के लोग राज करेंगे। भारत की राजनैतिक दुद र्शा के लिए हम सब भारतीय समानरूप से जिम्मेदार हैं।
अतः दृढ़ प्रतिज्ञा करें कि हम मतदान के दौरान मौन होकर नहीं बैठेंगे स्व यं 100% मतदान करेंगे व दूसरों से करवायेंगे और हम मिलकर एक शक्तिशाली लोकतान्त्रिक भारत बनायेंगे व देश में सच्ची आजादी लायेंगे तथा राजनैतिक गुलामी से भारत को मुक्ति दिला येंगे। हमारे मतदान न करने के कारण ही, भ्रष्ट लोगों के हाथों में देश की सत्ता चली जाती है और देश बर्बाद होता है।
8‐ सप्त राष्ट्रीय संकट
1‐ आत्मविमुखता,
2‐ आत्मविमुखता के कारण से-भ्रष्टाचार,
3‐ वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय चरित्र का पतन,
4‐ असंवेदनशीलता,
5‐ अविश्वास,
6‐ निराशा,
7‐ आत्मग्लानि
प्रत्येक राष्ट्रभक्त भारतीय के हृदय में प्रश्न उठता है कि आखिर बेरोजगारी, गरीबी एवं भूख का कारण:भ्रष्टाचार, देश की सबसे बड़ी समस्या क्यों है? शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान एवं व्यक्ति की सम्पूर्ण भावनात्मक संरचना पर अध्ययन, अनुसंधान एवं अनुभव के बाद हम इस नि ष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जब व्यक्ति अपने केन्द्र से हट जाता है अर्थात् अपनी चेतना व आत्मा से वि मुख हो जाता है तभी उसके अन्दर बेईमानी, रिश्वतखो री, हिंसा, घृणा, आत्मग्लानि , असंवेदनशीलता, कर्त्तव्य-विमुखता एवं समस्त गैर-जिम्मेदाराना विचार, चरित्र एवं आचरण पैदा होते हैं। आत्मवि मुखता ही वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय-चरित्र के पतन का मुख्य कारण है‐‐‐ परिणातः पूरे देश में अराजकता छा जाती है। भ्रष्टाचार, हिंसा एवं अपराध का ताण्डव होने लगता है। आत्मवि मुखता से असंवेदनशीलता और असंवेदनशीलता से ही आम जनों में अविश्वास एवं नि राशा का भाव बहुत गहरा छा जाता है और इस सबके परिणाम से करोड़ों देशवासियों के दिल-दि माग, मन-मस्तिष्क एवं विचारों में आत्मग्लानि का भाव बहुत गहरे तक बैठ जाता है। परन्तु इन समस्त राष्ट्रीय संकटों का समाधान है:योग। क्योंकि योग से जब व्यक्ति आत्मोन् मुखी या आत्मकेन्द्रित हो जायेगा अथवा वह अपनी केन्द्र , चेतना या आत्मा से जुड़ जायेगा, तो वह आत्मविरुद्ध आचरण नहीं कर पायेगा। आत्मा तो स्वभाव से ही पावन है। आत्मा:प्रेममय, करुणामय, ज्योतिर्मय, तेजामय, शा न्तिमय, आनन्दमय एवं सदा ही तृप्त है।
आत्मस्थ हुआ व्यक्ति अपने तन में वतन को देखता है। उसको अपने शरीर के रोम-रोम में, अपने शोणि्ात में, लहू में, खून में अपने देश की माटी की खुशबू आती है। क्योंकि वह महसूस करता है कि इस देश की पवित्र माटी से पैदा हुए अन्न-जल-वायु से ही मेरा शरीर बना है। मेरे शरीर की प्रत्येक को शका का नि र्माण परोक्ष रूप से इस देश की माटी से हुआ है। इस देश ने मुझे जीवन दि या है। यह देश मेरी जननी माँ है। मेरे तन में, मेरा वतन बसता है। ये मात्र कोरी कल्पना, कोरी भावना अथवा भावनात्मक विचार ही नहीं है, अपितु जब इस तरह के भावों में, एक व्यक्ति जीने लगता है, तो वह अपने देश को कभी धोखा नहीं दे सकता। वह देश को धोखा देना, स्वयं को धोखा देने जैसा मानने लगेगा। जब वह भारत को, अपनी माँ के रूप में देखने लगेगा, तो माँ भारती की समस्त संतानों में उसे माँ की ममता का विस्तार दिखे गा। तो वह दे श का गद्दार कैसे हो सकता है? वह देश व दे शवासियों से प्यार करेगा। यह समाधान है इन राष्ट्रीय संकटों का।
अतः निश्चित रूप से यह हमा री दृढ़ मान्यता है कि योग एवं अध्यात्म से ही देश में गिरते हुए वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय चरित्र को बचाया जा सकता है। योग से आत्मवि मुखता के स्थान पर आत्मकेन्द्रीयता, भ्रष्टाचार व बेईमानी के स्थान पर ईमानदारी, वैयक्तिक चरित्र-राष्ट्रीय चरित्र के पतन के स्थान पर वैयक्तिक व राष्ट्रीय चरित्र का उत्थान एवं नि र्माण, असंदेन शीलता के स्थान पर संवेदनशीलता, अविश्वास के स्थान पर विश्वास, नि राशा के स्थान पर आशा एवं आत्मग्लानि के स्थान पर देश में आत्मगौरव का भाव जागृत हो गा। और भारत अपना खोया हुआ गौरव पुनः प्राप्त कर विश्व की महा शक्ति बनेगा।
9- राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार एवं उसका समाधान
सभी राष्ट्रभक्त एवं ईमानदार लो गों के द्वारा वोटिंग न करने के कारण ही अधिकांश भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के लोग सत्ताओं के शीर्ष पर पहुँच जाते हैं और देश के लो गों की खून-पसीने की कमाई से, टैक्स के रूप में, देश के विकास के लिए दि या गया धन, भ्रष्टाचार करके लूट लेते हैं। स्थानीय निकायों, राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार का देश के विकास के लिए कुल बजट लगभग 20 लाख करोड़ रुपये का होता है। वर्ष 2008-09 में सभी राज्य सरका रों का कुल बजट था 909444‐75 करोड़ एवं केन्द्र सरकार का कुल बजट था: 801600‐00 करोड़। यदि लोकल अथॉरटीज़, म्युन्सिपल कापार् रेशनों व विकास प्राधिकरणों आदि के बजट की भी यदि एक साथ गिनती की जाए, तो यह राशि लगभग 20 लाख करोड़ रुपये बैठती है।
इस रा श का कम से कम 10 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है एवं राज्य व केन्द्र सरका रों के एक कार्यकाल अर्थात् 5 वर्षों में भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के लो ग, देश के लगभग 50 लाख करोड़ रुपए लूट लेते हैं। यदि 10 लाख करोड़ रुपए को दे श के लगभग 600 जिलों में बिना भेदभाव के समान रूप से बांटा जाए तो एक जिले के हिस्से में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लगभग 4‐5 करोड़ रुपए प्रतिदिन आयेगा तथा एक जिले में प्रतिवर्ष प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लगभग 1666 करोड़ रुपए विकास के कार्यों में खर्च होंगे। और यदि एक जिले में प्रतिवर्ष 1666 करोड़ रुपए विकास का र्यों में लगेंगे तो उस जिले में कोई बे रोज गार नहीं रहेगा और जब कोई बेरोजगार नहीं रहेगा तो गरीबी व भूख की समस्या देश में नहीं होगी और जब गरीबी व भूख की समस्या नहीं हो गी तो सब लोग सुखी होंगे और जब सब लोग सुखी होंगे तो देश में हिंसा, चोरी व अन्य अपराध लगभग शून्य पर होंगे। संक्ष्ोप में भ्रष्टा चार ही जनक है, बेरोज गारी व देश की बर्बादी का। जो पैसा भ्रष्ट लोग लूट लेते हैं यदि वह धन देश के विका स में खर्च होगा तो रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हों गे। जब बेरोज गारी देश में नहीं हो गी तो गरीबी व भूख की समस्या तो स्वतः ही मिट जायेगी।
अतः आओ! हम सब मिलकर प्रण करें कि इस बार मतदान में हम 100% भाग लेंगे और देश को भ्रष्ट लो गों के हाथों लूटने नहीं देंगे। अब भ्रष्ट , बेइ र्मान व अपराधी किस्म के लागों को सत्ताओं से बेदखल कर देशभक्त व ईमानदार लोगों के हाथों में देश की सत्ता सौंपेंगे। जब ईमानदार व देशभक्त लो गों को हम वोट करेंगे तो भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी किस्म के लोग सत्ताओं से बाहर हो जायेंगे और जब अच्छे लोगों के हाथों में देश की सत्ता होगी तभी देश से भ्रष्टाचार मिट पायेगा। देश की बे रोजगारी, गरीबी व भूख की समस्या दूर हो गी। भारत विश्व के विकसित देशं की श्रेणी में खड़ा होगा। भारत दुनि या की सबसे बड़ी अर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक व राजनैतिक ताकत के रूप में विश्व में खड़ा हो गा। भारत का पूरी दुनि या में सम्मान हो गा और देश के सम्मान के साथ ही हम सब भारतीयों का यश व सम्मान भी पूरी दुनि या में बढ़ेगा। भारत का खोया हुआ यश हम पुनः प्रति ष्ठापित कर पा येंगे। जब भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी लोग सं गठित होकर भ्रष्टा चार करके दे श लूट सकते हैं तो श्रेष्ठ, सज्जन, देशभक्त व ईमानदार लोग संगठित होकर देश को लूटने से क्यों नहीं बचा सकते।
भ्रष्टाचार द्वारा देश का जो धन लूटा जा रहा है वह किसान द्वारा भूमि कर, एक आम आदमी द्वारा हाऊस टैक्स, वाटर टैक्स, रोड टैक्स, सीवरेज, सख्रवस टैक्स, वैट टैक्स, इन्कम टैक्स, सेल्स टैक्स व एक्साइज आदि के रूप में 6 4 प्रकार के टैक्स-करों द्वारा दि या गया आपका व हमारा मेहनत व खून-पसीने का धन है। यह धन हमने कर के रूप में, देश के विकास के लि ये दि या था और यह भ्रष्ट व अपराधी किस्म के लोग इसी धन को कागजी हेरा-फेरी करके अर्थात् भ्रष्टाचार करके दे श को लूट रहे हैं।
आओ! हम सब मिलकर संकल्प लें कि हम मेहनत एवं खून-पसीने की कमाई का धन इन भ्रष्ट लो गों को लूटने नहीं देंगे। इस धन को दे श के विकास में खर्च करेंगे और देश को मजबूत बनायेंगे।

भ्रष्टाचार से देश की बर्बादी

  • बेरोजगारी का मुख्य कारण : भ्रष्टाचार के कारण से ही देश में बे रोज गारी पनपती है। बे रोज गारी, गरीबी, भूख , भय, अभाव, चोरी, हिंसा अपहरण व अपराध की वृद्धि का मुख्य कारण भ्रष्टाचार ही है। यदि मेरे दे श में भ्रष्टाचार नहीं होगा तो देश में बेरोज गारी नहीं होगी।
  • विकास में अवरोध का कारण: जब दे श का धन भ्रष्टाचार के कारण कुछ भ्रष्ट , बेइ र्मान व अपराधी वृत्ति के नेताओं व अधिकारियों के पास जमा हो जाता है। देश के लूट की कमाई का पैसा/जायदाद उनके कुत्ते, बिल्ली, गाय आदि के नाम अथवा नकद रुपया उनके कमरों में पड़ा सड़ता रहता है और देश के आम आदमी को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती। यही नहीं, वे इसे छिपाने के लिए स्विस बैंक आदि वि देशी बैंकां में जमा कर देते हैं, जिससे दे श का विकास रुक जाता है।
  • देशभक्तों व ईमानदारों के अपमान का कारण : भ्रष्टाचार के बढ़ने से ही दे शभक्त, ईमानदार व मेहनत करने वाले लोगों को अपमानित होकर जीना पड़ता है। कई बार तो ईमानदारी की कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है।
  • स्वदेशी उद्योगों की हत्या का कारण: देश की पूँजी जब कुछ भ्रष्ट लोगों के पास जमा हो जाती है तो देश में औद्योगिक विकास के लिए विदेशी कम्पनि यों को पूंजी निवेश के लिए बुलाना पड़ता है। पहले तो अपने देश की पूंजी भ्रष्टाचार के कारण कुछ गलत लो गों के पास जमा हो जाती है और ये भ्रष्ट व बेईमान लोग देश व दुनि याभर में प्रसारित कर देते हैं कि भारत एक गरीब देश है। ऐसा प्रसारित कर विश्व बैंक सहित अन्य समृद्ध देशों से लोन लेकर देश को कर्ज़दार व शर्मसार करते हैं। सच तो यह है कि भारत जैसा समृद्ध व सुन्द र देश दुनि या में कोइ र् नहीं है। भारत के प्राकृतिक संसाधनों व सम्पदाओं तथा टैक्स-मनी का सही से उपयोग किया जाये तो हम कुछ चन्द वर्षों में दुनि या की सबसे बड़ी ताकत बन सकते हैं। कुछ भ्रष्ट नेताओं ने और कुछ भ्रष्ट अधिकारियों ने सांठ-गांठ कर देश को गरीब बनाया हुआ है। फिर विदेशी कम्पनि यां हमारे देश की पूंजी का दोहन शुरु कर देती हैं। यह है भ्रष्टाचार की दोह री मार। यदि देश में भ्रष्टाचार नहीं हो तो देश में दोहरा विकास होगा। भ्रष्टाचार न होने से प्रथम तो देश की पूंजी दे श हित में लगेगी और साथ ही देश को विदेशी पूंजी निवेश की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी और देश के धन से दे श का औद्योगिक, शैक्षणिक व अन्य ढां चागत विकास होने से देश की समृद्धि और अधिक बढ़ेगी और देश से विदेश कम्पनि यां जो प्रतिवर्ष हमारे देश के लाखों करोड़ों रुपए लूट कर ले जा रही हैं, वे हमारे देश के धन का दोहन नहीं कर सकेंगी। हमारा देश आि र्थक दृष्टि से और अधिक सुदृढ़ बनेगा। हमारा एक्सपोर्ट बढ़ेगा तथा इम्पोर्ट घटेगा तथा स्वदेशी उद्यागों से देश के करोड़ों लो गों को रोज गार मिले गा। परन्तु राजनेता अपने निहित स्वार्थों के लिए सरका री उद्योगों को भ्रष्टाचार के चलते अपने चहेते अयोग्य, भ्रष्ट , बेइ र्मान, असंवेदनशील व अकर्मण्य अफसरों को बिठाकर व्यवसायिक दौड़ में पीछे कर देते हैं। प्रथम तो यह भ्रष्ट लोग देश को लूटते हैं, भारत माँ को नोंच-नोंच कर खाते हैं और इसके बाद ये बेईमान नेता विदेशी कम्पनि यों से सांठ-गांठ करके देश को विदे शी कम्पनियों के हवाले कर देते हैं कि हमसे तो जितना लूटा जा सकता था, हमने लूट लिया और तुम जितना लूट सकते हो, लूट लो और फिर षड्यन्त्र करके उसे किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को बेच देते हैं। कई बार स्वदे शी उद्योग एवं कल-कारखाने ऐसे भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के षड्यन्त्र का शिकार हुए हैं।
  • टूटी सड़कों एवं यातायात अव्यवस्था का कारण: दे श की यातायात व्यवस्था में जब भ्रष्टाचार नहीं होगा और देश के धन का उपयोग जब अच्छी सड़कें और ओवर-बि्रज आदि बनाने में हो गा तो हमा री याता यात व्यवस्था बहुत सुन्दर होगी आैर इसके मुख्य तीन लाभ हों गे:प्रथम प्रतिवर्ष सड़क दुर्घटनाओं से होने वाली लगभग 1 लाख मौतों से हमें छुटका रा मिलेगा। दूसरा अच्छी सड़कें होने पर देश के लो गों का बेशकीमती समय नष्ट नहीं होगा और तीसरा सड़कों पर खड़े-खड़े लगभग देश की गाडि़यां का जो 50ः पैट्रोल व डीजल आदि नष्ट हो रहा है, इससे मुक्ति मिलेगी। और जब सड़कें अच्छी होंगी तो पैट्रोल आदि तेल के ख र्चे में लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए की देश की बचत होगी और जितना पैट्रोल कम जलेगा, उतना ही प्रदूषण भी देश में कम होगा। दे श के लोग प्रदूषण के बढ़ने से होने वाली कैंसर, टी‐बी‐, एलर्जी, अस्थमा आदि बीमारियों से भी बचेंगे।
  • घातक बीमारियों का कारण: प्रदूषण विभाग में भ्रष्टाचार का प्रदूषण दूर हो जाए तो देश के लोगों को अच्छी हवा, अच्छा पानी व स्वच्छ भूमि मिले गी दुभा र्ग्य से आज हवा, पानी व भूमि आदि इतने दूषित हो चुके हैं कि यदि हमने समय रहते इस पर ध् यान नहीं दि या तो आने वाली पीढि़यों को हम विषभरा देश देकर जायेंगे और हमारे बच्चे कैंस र, टी‐बी‐ एवं एड्स आदि घातक बीमारियों के शिकार होकर बे मौत मरेंगे। यदि समय रहते सांस्कृतिक प्रदूषण के रूप में टी‐वी‐ केबल और इन्टरनेट पर परोसा जा रहा अश्लील एवं नंगा नाच न रोका गया तो, हमारे युवा नशे और व्यसनों व वासनाओं में फंसकर रह जा येंगे। हमारे आने वाले बच्चों का जीना मुश्किल हो जायेगा और वे हमको गालियां देंगे कि कैसा दे श देकर गए हमारे पूव र्ज हमको?
  • सामाजिक अन्याय का कारण: दुनिया का कोई भी सभ्य देश अपने देश के नागरिकों को विदेशी भाषा में शिक्षा नहीं देता, लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश में लगभग 5ः अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों ने देश के 95ः लो गों को अनपढ़ मूर्ख मान लि या है आैर उन्हीं के बच्चे पढ़ लिखकर डॉक्टर, इंजिनियर, वैज्ञानिक, आई‐ए‐एस, या आई‐पी‐ एस‐ अधिका री बन सकें। इसलिए देश में विज्ञान, तकनीकी व प्रबन्धन की उच्चि शक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी को बना दि या है। यह भी एक बहुत बड़ा भ्रष्टाचार व देश के करोड़ों लो गों के साथ अन्याय व धोखा है। क्योंकि यदि गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, उड़िया, बंगाली या असमि या आदि भारतीय भाषाओें या राष्ट्र भाषा हिन्दी में विज्ञान तकनीकी प्रबन्धन की शक्षा दी जाती है तो एक गरीब, मजदूर, या गाँव का किसान का बेटा भी डॉक्टर, इंजिनियर, वैज्ञानिक बन सकता है, वह भी एक आई‐ए‐एस‐, आई‐पी‐एस‐ अधिका री बन सकता है, परन्तु देश की घटिया राजनीति व सामन्तवादी भ्रष्ट नौकरशाही ऐसा नहीं होने देना चाहती, देश की आजादी के पहले दिन से ही यह षड्यन्त्र चल रहा है और अब तक जा री है।
  • गरीबों की मौत का कारण: शिक्षा में भ्रष्टा चार होने से देश का गरीब व आम आदमी कभी विकसित नहीं हो सकता है। ऊपर से चकित्सा में भ्रष्टा चार से नकली दवा, अनावश्यक दवा, अनावश्यक ऑप रेशन व उपचार के नाम पर अत्या चार होने लगता है और गरीब व्यक्ति तड़फता, बिलखता व बेमौत मरता है।
  • शासन के नाम पर शोषण का कारण: भ्रष्टा चार से ही दे श में रिश्वतखारी, फिरोती, हवाला उद्यो ग, पुलिस व प्रशासन द्वारा शासन के नाम पर शोषण व कानून के गलत प्रयोग से लोगों के साथ अन्याय होने लगता है और कानून का उपयोग गरीब, सच्चे व ईमानदार लो गों को सताने के लिए होने लगता है। और यही दे श में कमोबेश हो भी रहा है।
  • अस्वच्छता का कारण: राजनैतिक भ्रष्टाचार से ही दे श में अस्वच्छता है। हमारी असंवेदनशीलता व दृढ़ ईच्छा शक्ति के अभाव से ही देश में अस्वच्छता है। यदि हम दृढ़ता पूव र्क पू री ईमानदारी से कचरा प्रबन्धन करें और गंदगी फैलाने वाले तत्त्वों के साथ सख्ती से निपटें तो देश से गंद गी को मिटाया जा सकता है। जिन कर्मचारि यों को नगर की सफाई करनी होती है उन्हें सरकारी तन्त्र के भ्रष्ट आचरण के चलते अफसरों के घरों की सफाई में लगा दि या जाता है। आज देश में अस्वच्छता के कारण पूरी दुनि या में भारत की एक गंदे देश की छवि बनी हुई है। पूरे वि श्व में अप्रवासी भारतीयों व विदेशियों के मुख से इस वाक्य को आप और हम सामान्यतः सुन सकते हैं कि जहाँ तक इण्डिया के कल्चर की बात है तो वह सबसे अच्छा है, परन्तु भारत एक बहुत गन्दा देश है। ;।े िंत ें जीम बनस जनतम पे बवदबमतदमक प्दकपं पे जीम इमेज इनज तमहंतकपदह बसमंदसपदमे प्दकपं पे ं अमतल कप तज ल बवनदजतलद्ध इस छवि को हमें मिटाना है और दे श की गरिमा को पूरी दुनि या में बढ़ाना है। गन्दगी समाप्त करने के लिए शिक्षा, जागरुकता एवं भ्रष्टा चार मुक्त कठोर दण्ड-व्यवस्था की आवश्यकता है।
  • राष्ट्र की असुरक्षा का कारण: राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण ही देश में, वोट की गंदी, घटिया एवं देश को तोड़ने वाली व गर्त में ले जाने वाली नफरत की राजनीति हमा रे तथाकथित नेता करते हैं। इसी के कारण देश में बेहिसाब जनसंख् या बढ़ रही है और सरकार इसको रोकने हेतु कोई प्रभावी उपाय नहीं कर रही है। अशिक्ष एवं सरका री असंवेदनशीलता ही बेहिसाब बढ़ती, अनि यन्त्रित जनसंख्या के मुख्य कारण हैं। यदि सरकार देश हित में सोचे तो जनसंख्या को चीन की तरह नि यन्त्रित कर सकती है। हमने अपने दे श की जनसंख्या को नि यन्त्रित करने की बजाय अपने पड़ोसी बंगला देश से भी असंवैधानिक तरीके से भारत में आकर रह रहे लगभग चार करोड़ लोगों को देश में पनाह दे रखी है जो देश की सुरक्षा को भी खतरे में डाल सकते हैं और देश में हमारे संसाधनों व श्रम के अवसरों को हमसे छीनकर देश में बेरोजगारी गरीबी एवं भूख की समस्या को बढ़ा रहे हैं। भ्रष्टाचार के कारण ही 500 से 1000 रुपये देकर कोई भी गैर-कानूनी तरीके से देश में राशन-कार्ड बनवा लेता है, पहचान-पत्र/वोटर आई‐डी‐ तक बनवा लेता है, कोई भी आतंकवादी, दे शद्रोही या ड्र गमाफिया असंवैधानिक तरीके से बंगला देश या पाकिस्तान से भारत की सी मा में घुस आता है और चन्द लोग देश की सुरक्षा के साथ गद्दारी करते हुए पैसों के लोभ में हमा री सुरक्षा को दांव पर लगा देते हैं। और वर्तमान में भी चन्द 100-50 रुपयों की खातिर ट्रकों और लारि यों से आ रहे ट्रांसपोर्ट हो रहे सा मान को बिना जांच के कागजों पर मोहर लगाकर भेज दि या जाता है, जो हमारे देश की सुरक्षा में सेंध का कारण है।
  • जबरन वसूली व लूट का कारण: भ्रष्टाचार के साथ ही देश के औद्योगिक विकास एवं अन्य संस् थागत व ढांचागत विकास में लगे लो गों को अनावश्यक रूप से प्रताड़ित करके सताया जाता है और भ्रष्ट अधिकारि यों व भ्रष्ट राजनेताओं द्वारा व्यापारि यों से जबरन वसूली की जाती है, जिसको कभी पार्टी चन्दा का नाम लेकर तो कभी चुनाव लड़ने के नाम पर लोगों से जबरन उगाही की जाती है। पहले चुनाव लड़ने के नाम पर लूट और चुनाव में जीतने पर तो मानो लूटने का परमिट ही मिल जाता है। हर काम का एक दाम नि र्धारित हो जाता है अर्थात् नेता बनने से पहले चन्दे के नाम पर एवं बनने के बाद भ्रष्टाचार के नाम पर लूट एवं वसूली! क्या यही लोकत न्त्र है? क्या यही आजादी है? दे श के लोकतन्त्र के सबसे बड़े न्याय के मन्दिर में जिन कानूनों को बनाया जाता है, उन कानूनों का अधिकांशतः उपयोग दे श की व्यवस्थाओं को ठीक करने के लिए न होकर ऐसे कानूनों का दुरुपयोग देश को लूटने, जबरदस्ती वसूली व भ्रष्टा चार करने के लिए किया जा रहा है। लोकत न्त्र में क्योंकि शक्ति व सम्पत्ति का शीर्ष केन्द्र सत्ताएं होती हैं आैर भ्रष्ट लो गों के हाथों में सत्ता, सम्पत्ति व शक्ति आने पर विकास के स्थान पर महाविनाश होना प्रारम्भ हो जाता है।
  • लाइसेंसी राज का कारण: व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने का काम एक मोटर साइकिल से लेकर गाड़ी तक के रजिस्ट्रेशन का का म, छोटा सा घर, मकान, दुकान, फैक्ट्री व विद्यालय आदि बनाने से लेकर चलाने तक की अनुमति , जमीन की रजिस्ट्री से लेकर राशन-कार्ड व पहचान पत्र तक बनाने का काम सरकारी तन्त्र करता है। जब सिस्टम को लीड करने वाले अधि्ाकांश लीडर्स ही भ्रष्ट हो जाते हैं, तो यह भ्रष्टा चार पी‐एम‐ से प्रारम्भ होकर पिऊन (चपरासी) तक फैल जाता है और पूरे दे श के लोगों को बेरहमी व बेदर्दी के साथ लूटा जाता है, जो आज भारत में हम देख ही रहे हैं। कुछ प्रान्तों में, जहाँ भ्रष्टा चार कम है, वहाँ सरकार एवं सरकारी तन्त्र लोगों की जिन्दगी में बेवजह अधिक दखल नहीं दे रहे हैं।
  • कृषि व्यवस्था व कृषक की दुर्दशा का कारण: गैर जि म्मेदाराना राजनीति के कारण देश में जल का प्रबन्ध ठीक न होने से प्रतिवर्ष देश में बाढ़, सूखा अकाल, भूख व किसानों की आत्महत्याएं जैसी समस्याएं पैदा होती है। देश में कुल कृषि क्षेत्र 17‐5 करोड़ हेक्टेयर है, जिसमें से 10 करोड़ हेक्टेयर भूमि को कृषि कार्य हेतु प्रयोग कि या जा सकता है। यदि जल प्रबन्धन ठीक हो जाए तो हम दे श में इस 10 करोड़ हेक्टेयर भूमि को पूर्ण रूप से उपजाऊ बनाकर देश की अन्न व भूख की समस्या को दूर कर देश को अन्न में खाद्यान्नों व खाद्य तेलों में आत्मनि र्भर बना सकते हैं और देश की ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को उन्नत बनाकर देश के करोड़ों किसानों व कृषि-आश्रित श्रमिकों के जीवन में खुश हाली ला सकते हैं। भारत की सबसे बड़ी राष्ट्रीय चुनौती जल-संकट होगी। हम इजराइल आदि देशां की तरह वर्षाकाल के अधिकतम जल को जो कि 90ः समुद्र में बहकर बेकार हो जाता है, इस जल को संरक्षित करके राष्ट्रीय जल-संकट से बच सकते हैं।
  • मंहगाई का कारण: मूल्यों का ठीक से नि र्धारण न होने से गलत नीति यों के कारण लोहा, सी मेन्ट आदि आम आदमी की जरूरत की चीजों के दाम आसमान छूने लगते हैं और किसान को अपनी खेती का पू रा दाम नहीं मिल पाता है और परिणामतः गरीब और अमीर के बीच में आसमान जितना गहरा अन्तर हो जाता है। और यही असमानता:सा माजिक विषमता व अन्याय का कारण बन जाती है।
  • प्राकृतिक संसाधनों के बेरहमी से दोहन एवं भारत माता (भू-धरा) की नीलामी का कारण: हमारी भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था का ही परिणाम है कि आज भारत के पास अपार प्राकृतिक सम्पदा:लाहा, सोना, हीरे-मोती, खनिज पदार्थ, गैस एवं पैट्रोल के रूप में उपलब्ध है, परन्तु सरकारी तन्त्र द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग कर अथवा जानबूझ कर एक षड्यन्त्र के तहत देश को कमजोर बनाने का नि रन्तर प्रयास कि या जा रहा है। भ्रष्ट-लोग इन प्राकृतिक संसाधनों के साथ मन-मर्जी पूव र्क खिलवाड़ करते हैं अर्थात् लोहा, कोयला, सोना, खनिज की खदानों-खननों ;डपदमेद्ध को जानबूझ कर कुछ भ्रष्ट , बेइ र्मान व अपराधी लोग अपने निहित स्वा र्थों के लिए माफियाओं के हवाले कर देते हैं ताकि नि रन्तर उनसे उगाही कर सकें और देश की उन्नति की खान प्राकृतिक सम्पदाओं का बेह रमी से दोहन कर सकें। यदि प्राकृतिक सम्पदा एवं खनिजों का उचित दोहन , कुशल प्रबन्धन व पारदर्शी नीति हो तो आज भी भारत वैभव-सम्पन्न राष्ट्र बन सकता है।
    भारत माता सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला-धरा, जिसकी कोख से पैदा हुए अन्न को खाकर, देश के करोड़ों लोगों की भूख का समाधान हो सकता था, ऐसी करोड़ों-अरबों रुपये की उपजाऊ जमीन को भारत माँ के गद्दार पुत्रों, भ्रष्ट नेताओं एवं अधिकारियों ने चन्द अनैतिक लो गों को फायदा पहुँचाने के लिए कोड़ी के भाव बेच दी। प्रथम बात तो, हम औद्योगिककरण एवं विकास के विरोधी नहीं हैं। हमारा मानना है कि यदि सेज़ एवं औद्योगिक ढांचागत विकास के लिए, व्यवसाय के लिए भूमि देनी ही थी तो आखिर ऐसी लाखों हेक्टेयर भूमि को क्यों नहीं दि या गया, जो कृषि के अयोग्य है अर्थात् बंजर है, जहां गरीबी है, बेरोजगारी है। यह हकीकत दे श का थोड़ा सा विवेक रखने वाला व्यक्ति महसूस कर सकता है कि जिस जमीन का बाजार-मूल्य हजा रों करोड़ रुपये था, उदाहरणतः 10 हजार करोड़ रुपये था, उस जमीन को 100-50 करोड़ में क्यों बेच दि या गया? हमारे भारत में जहां बंजर भूमि है, गरीबी है, बेरोज गारी है, यदि वहां औद्योगिक विकास हेतु, ढांचागत विकास हेतु या सेज़ हेतु भूमि प्रदान की जाती है तो उससे जहां प्रदूषण की समस्या नहीं रहेगी, शहरों का विधिवत विकास हो पायेगा, उसके साथ-साथ गांवों का पलायन भी रुकेगा।
  • बौद्धिक प्रति भाओं के अपमान का कारण: भारतीयों की बौद्धिक क्षमता एवं प्रति भा अपार है। कई देशों की कई महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं भारतीय सम्भाल रहे हैं। परन्तु यहाँ बौद्धिक प्रति भाओं को जानबूझ कर अपमानित किया जाता है और उन्हें विकास के अवसर उपलब्ध नहीं करवाये जाते ताकि कुछ अि शक्षित, मूढ़, अनपढ़ व अनैतिक लोग देश का बेरहमी एवं बेदर्दी से विनाश कर सकें।
  • अकर्मण्यता, असंवदेनशीलता एवं गैर-जिम्मेदाराना आचरण का कारण: जब सिस्टम को लीड करने वाले नेता ही गैर-जिम्मेदाराना आचरण करने लग जाते हैं और अपने कर्त्तव्यों के प्रति जवाबदेही नहीं नि भाते हैं तो पूरे देश की व्यवस्थाएं व उन व्यवस्थाओं को चलाने वाले लोग असंवेदनशील, अकर्मण्य एवं गैरजिम्मेदाराना आचरण करने लग जाते हैं। यही कारण है कि हमारे यहाँ अधिकांश सरकारी स्कूलों में, कॉलेजों में शक्षक हैं परन्तु शिक्षा नहीं। सरका री अस्पतालों में चिकित्सक हैं परन्तु चकित्सा का दर्शन कहीं खो जाता है। पुलिस प्रशासन के होते हुए भी अपराधियों एवं भ्रष्टा चारि यों को दण्ड नहीं मिलता। पीड़ितों को न्याय पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं और अपराधी लोग बेखौफ घूमते हैं।
  • गलत नीयत व गलत नीति यों का कारण: हमारी गलत नीयत से देश में गलत नीति यां बनती हैं और इन गलत नीति यों के कारण प्रत्येक गाँव में शराब के ठेके खुल जाते हैं। फलस्वरूप गाँव के गरीब, मजदूर, किसान व नाबालिग बच्चों का नशों के कारण नाश होने लगता है। घर में बहन-बेटि यों व बच्चों का जीवन तबाह होने लगता है। हमा री शिक्षा नीति , चिकि त्सा नीति , कृषि नीति , सुरक्षा नीति व विदेश नीति यों के नि र्धारण में हम देश एवं देशवासि यों के साथ न्याय नही कर पाते और देश की दुर्दशा होती रहती है। कुछ लो गों को लाभ पहुँचाने व घटिया मानसिकता के कारण दे श में गाय व भैंस आदि हितकारी जीवों की हत्याओं के लिए हम कत्लखानों पर सब्सिडी देते हैं और इससे प्रतिदिन लाखों निर्दोष प्राणियों के आर्तनाद व चीत्कारों से पूरे देश में एक नाकारात्मक ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। घरों और समाज व राष्ट्र में अशान्ति, असुरक्षा व दैवी-आपदाएं आती हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश है आज भी अधिकां श प्रान्तों में बैल गाड़ी, भैंस गाड़ी, ऊँट गाड़ी और भूमि की जुताई के लिए बैल व ऊँटादि को प्रयोग में लाया जाता है इससे देश का लाखों करोड़ रुपए का पैट्रोल व डीज़ल आदि का खर्चा कम होता है। जब कत्लखानों द्वारा इन सारे उपयोगी जीवों को मार दि या जायेगा और पूरी कृषि यान्त्रिकी तरीकों से होगी तो दे श का एक तरफ जहाँ डीज़ल/पैट्रोल में लाखों-करोड़ रुपये बरबाद हों गे, वहीं दूसरी ओर देश में प्रदूषण भी आैर कई गुणा बढ़ेगा। याद रहे डी ज़ल, पैट्रोल आदि में जितना भी दे श का धन खर्च हो रहा है उसका अधिकांश पैसा खाड़ी देशों को जाता है और देश की मुद्रा किसी भी तरह यदि देश से बाहर जाती है तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही घातक होती है, इससे देश कमजोर होता है।
  • शेयर बाजार में आम आदमी के अरबों रुपये की बर्बादी का कारण: कुछ भ्रष्ट , बेईमान , असंवदेनशील व अकर्मण्य अधिकारि यों एवं कुछ लालची, भ्रष्ट , व्यापारियों की सांठ-गांठ व गैर-जि म्मेदार नेताओं की गलत-नीयत की वजह से एवं अपारदर्शी, ढीले नियम एवं कानूनों की वजह से, देश के करोड़ों लो गों की मेहनत की कमाई के अरबां रुपये पहले तथा हाल ही में शेयर मार्केट में डूब गए। यह दर्द भरी दासतां महा-बेइ र्मान हर्षद मेहता व सत्यम कम्पनी के झूठे मालिक राजू से ही नहीं जुड़ी हुई है अपितु यदि शेयर बाजार के कारोबार में शामिल सभी कम्पनि यों की नि ष्पक्ष जांच की जा ये, तो न जाने कितने सत्यम-असत्यम की राह पर चलकर, असत्यम् कर रहे हैं, और देश को धोखा दे रहे हैं। कम्पनी प्रोफिट में न होते हुए भी, कम्पनी का मुना फा मात्र कागजों में दि खाकर, अपनी तथाकथित कम्पनि यों के कौड़ी के भाव के शेयरों को करोड़ों में बेच रहे हैं और यह सब सरकार की आँख के नीचे उसकी गलत नीति यों के चलते हुए हो रहा है। शेयर बाजार में आम आदमी को अरबों रुपये की बरबादी झेलनी पड़ती है। इस पू री लूट , भ्रष्टाचार एवं घोटालों के शिकार आम एवं निर्दोष लोग होते हैं। इनमें से किसी को तो तनाव (डिप्रेशन) घेर लेता है, किसी का परिवार सड़क पर आ जाता है, किसी की बेटी का विवाह रुक जाता है और कई तो आत्महत्या तक कर लेते हैं।
11‐ सज्जनों से डरो व दुष्टों का हनन करो! धर्मात्मा व्यक्ति यदि निर्बल, कमजोर एवं गरीबी हालात में हो तो भी उससे डरना उसका कभी अहित न करना क्योंकि उस पवि त्रात्मा को दुःख देने से तुम्हा री जिंद गी की सब खुशियां गमों में तबदील हो जायेंगी परन्तु भ्रष्ट बेईमान व अपराधी किस्म के लोग चाहे कितनी ही ताकत, सत्ता, शक्ति व सम्पत्ति के मालिक हों उनसे कभी भयभीत नहीं होना क्योंकि भ्रष्ट व बेईमान लो गों की आत्मा मर चुकी होती है और इनका विनाश करने के लिए ही परमात्मा ने हमें इस दुनि या व देश में जन्म दि या है। यही उपदेश योगेश्व र श्री कृष्ण ने गीता में हमें दि या है:
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ (गीता)
आओ! हम सब मिलकर आसुरी शक्तियों को परास्त करें, भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी कि स्म के लोगों को शक्ति व सम्पत्ति वि हीन करें और देशभक्त, ईमानदार व सात्विक लोगों को शक्ति सम्पन्न करें। आओ! हम सब मिलकर एक प्रण करें, एक प्रतिज्ञा करें, एक संकल्प लें कि हम भारत माता के माथे से यह भ्रष्टाचार का कलंक मिटाकर ही दम लेंगे। आओ! हम सब मिलकर भारत का खो या हुआ स्वाभिमान जगाएं, एक नया शक्तिशाली भारत बनाएं। जो भ्रष्ट व्यवस्थाएं, भ्रष्टाचार एवं देश की दुर्दशा हमने देखी है, हम आने वाली भारत की पीढि़यां को, भ्रष्ट भारत न सौंपकर अपने देश के बच्चों को, एक आदर्श व शक्तिशाली भारत सौंपना चाहते हैं। जिस भारत पर, वे गर्व कर सकें।
12‐ क्या भ्रष्टाचार मिट पायेगा देश से?
आखिर कब तक भ्रष्टाचार!
देश के सिस्ट म को लीड करने वाले लीडर्स का जब तक करेक्टर ठीक नहीं हो गा, तब तक देश से भ्रष्टा चार नहीं मिटेगा और करेक्टर वाले लो गों को देश का लीडर बनाने के लिए करेक्टर वाले चरित्रवान, देशभक्त लो गों को सं गठित करना एक सबसे बड़ी चुनाती है।
यह सत्य है कि देश में राष्ट्रभक्त, ईमानदार, संवेदनशील, पराक्रमी, दूरद र्शी, पारदर्शी व प्रबुद्ध लो गों का अकाल नहीं है। समस्या चरित्रवान् लो गों की कमी की नहीं है। आश्वयकता है, ऐसे लो गों को वोट करके उनको सत्ता व सिंहासनों पर बैठाने की। भारत स्वाभिमान का लक्ष्य है, देश के देशभक्त व चरित्रवान् लोगों का एक बहुत बड़ा वोट बैंक बनाना और वोट का प्रयो ग, देशभक्त लागों के लिए करवाना। लोग कहते हैं कि अधिकां श पढ़े-लिखे, ईमानदार व देशभक्त लो ग, चुनावों में अधिकांश भ्रष्ट नेताओं की भीड़ देखकर, चुनाव के समय मतदान नहीं करते। मेरा मानना है कि जब हम कपालभाति व अनुलोम-विलोम आदि प्राणायामों का लाभ बताकर, जब करोड़ों लो गों को, साल के 365 दिन जब प्राणायाम करवा सकते हैं तो क्या भ्रष्टाचार के न होने के लाभ बताकर, देश के लागों को, देश के लिए क्या 5 वर्ष में, केवल 1 दिन देशभक्त व ईमानदार लो गों को मतदान देने को संकल्पित नहीं कर सकते ?‐‐‐‐‐‐‐‐मे रा उत्तर होगा: हम लो गों को घरों से बाहर निकालने में, 100% कामयाब होंगे और देश के लोकत न्त्र में सत्ताओं के शीर्ष पर, बहुत जल्द ही राष्ट्रवादी, पराक्रमी, दूरद र्शी, पारदर्शी, मानवतावादी, अध्यात्मवादी, प्रबुद्ध, संवेदनशील, सं घर्षशील व विनयशील लो गों को स्थापित करेंगे और देश में एक नई आजादी, नई व्यवस्था व नया परिवर्तन आयेगा और भारत पूरी दुनि या में पुनः अपनी स्वर्णकालीन गरिमा के साथ छा जायेगा।
13‐ भ्रष्टाचार न होने से देश एवं देशवासियों को होने वाले लाभ
  • 1‐ भ्रष्टा चार न होने से: प्रत्यक्ष रूप से लगभग 10 लाख करोड़ रुपये एवं परोक्ष रूप से लगभग 10 लाख करोड़ रुपये देश के विकास में खर्च होंगे। और जब ये 20 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष देश के विकास में खर्च होंगे तो एक जिले में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से विकास कार्यों में प्रतिदिन लगभग 10-12 करोड़ रुपये से अधिक के विकास कार्य हो पायेंगे। जब प्रत् येक जिले में इतना धन विकास के का र्यों में लगेगा तो उस जिले में कोई बेरोजगार नहीं होगा। भ्रष्टा चार न होने से देश में कोई बेरोजगार नहीं रहेगा और बेरोजगरी के कारण से ही गरीबी, भूख, हिंसा व असमानता पैदा होती है। जब भ्रष्टाचार ही नहीं होगा, तो सबको समान रूप से सामाजिक न्याय व विकास के अवसर उपलब्ध होंगे।
  • 2‐ भ्रष्टाचार न होने से: जीवन के मूल स्रोत आहार व विचार हैं, जो विषैले व जहरीले हो चुके हैं, भ्रष्टा चार समाप्त होने से खाद्यान्न, वनस्पति तेल, घी, पीने का पानी, फल, सब्जियां तो शुद्ध होंगी ही, जन-जन एवं राष्ट्र का चरित्र पवित्र हो गा एवं वि शुद्ध वैचारिक-ि चन्तन से सशक्त भारत का नि र्माण हो गा। आपको बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं एवं चिकित्सा सुवि धाएं उपलब्ध होंगी। जब देश स्वच्छ रहेगा एवं प्रत्येक व्यक्ति को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध होगा। स्वच्छता एवं शुद्धता के मापदण्ड कठोर करने से खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट व अस्वछता तथा पानी की अस्वच्छता के कारण होने वाली लगभग 50ः बीमारियों पर नि यन्त्रण पाया जा सके गा। उपचार के नाम पर अत्या चार नहीं हो गा। भ्रष्ट लोग दवाओं एवं खाद्य पदार्थों में मिलावट नहीं कर पायेंगे व खाने-पीने का दूध, घी, खाद्यतेल, रसोई के मसाले: हल्दी आदि खाद्य पदार्थ शुद्ध मिलेंगे।
  • 3‐ भ्रष्टाचार न होने से: आपके बच्चों को विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में, अच्छी शक्षा एवं अच्छे संस्कार मिलेंगे। भारतीय संस्कृति एवं इति हास के साथ हुई छेड़-छाड़ का पुनः शोधन कर पाठ्यक्रम में देश के शहीदों एवं वीरों का गौरवगान समि् मलित किया जायेगा। साथ ही आपकी, देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी व अन्य भारतीय भा षाओं अर्थात् तमिल, तेलुगु, कन्नड़, उड़िया, गुजराती, मराठी, बंग्ला आदि भाषाओं में आपके बच्चों को विज्ञान, तकनीकी एवं प्रबन्धन आदि की शिक्षा उपलब्ध हो पा येगी और ऐसा होने पर एक गरीब, मजदूर, किसान का बेटा-बेटी डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, आई‐ए‐एस‐, आई‐पी‐एस‐ आदि बन सके गा और ट्यूशन के नाम पर एक आम आदमी शोषण का शिकार होने से बचेगा। शिक्षा के नाम पर हो रहे सामाजिक अन् याय से देश के ना गरिक को छुटकारा मिले गा।
  • 4‐ भ्रष्टाचार न होने से: शासन के नाम पर आप शो षण के शिकार नहीं होंगे। काम के बदले सरकारी कार्यालयों में रिश्वत/दाम नहीं देने होंगे। भ्रष्ट सरका री कर्मचा री, अधिकारी, ब्यूरोक्रेट्स व भ्रष्ट , बेईमान एवं अपराधी चरित्र वाले नेता आपसे राजनैतिक चंदा वसूली (राजनैतिक फिरोती) एवं रिश्वत की उगाही नहीं कर सकेंगे।
  • 5‐ भ्रष्टा चार न होने से: हम राष्ट्र को खद्यान्नों में आ त्म-नि र्भर बना सकेंगे। देश के लगभग 80 करोड़ लोगों का जीवन प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से कृषि पर आश्रित है। इन किसानों को, खेतीहर मजदू रों को विकास में समान रूप से सहभागिता मिले गी। देश की कृषि योग्य 10 करोड़ हेक्टेयर भूमि को पूर्ण रूप से उपजाऊ बनाकर खाद्यान्नो, खाद्यतेलों, फल-सब्जियों इत्यादि में एवं कपास आदि की खेती के द्वारा वस्त्रादि के क्षेत्र में दे श को आत्मनि र्भर बना सकेंगे। कृषि क्षेत्र में विकास एवं आत्मनि र्भरता ला कर, ग्रामीण अर्थ-व्यस्था को उन्नत बना कर के, दे श की सम्पूर्ण अर्थ-व्यवस्था जी‐ डी‐पी‐ में हम आशातीत वृद्धि कर सकेंगे और गांव को स्वावलम्बी बना सकेंगे।
  • 6‐ भ्रष्टा चार न होने से: रोटी, कपड़ा और मकान, जिन्दगी जीने के जरूरी सा मान, के साथ बिजली, पानी, सड़क की समस्या से देश के नागरिकों को रू-ब-रू नहीं होना पड़ेगा, अपितु प्रत् येक नागरिक पूर्ण आत्मसम्मान, पूरी आजादी, आत्म-अनुशासन के साथ जिन्दगी जी पायेगा।
  • 7‐ भ्रष्टाचार न होने से: स्वदेशी, घरेलू उद्यो गों, लघु उद्यो गों को विकास के अधिक अवसर उपलब्ध होंगे और देश की स्वदेशी अर्थ-व्यवस्था में प्रतिवर्ष लाखों-करोडों रुपये का इजाफा हो गा।
  • 8‐ भ्रष्टाचार न होने से: प्राड्डतिक सम्पदाओं का राष्ट्रहित में उचित दोहन हो गा और हीरा, लो हा, कोयला, सोना एवं एल्यूमीनियम आदि की खादानें जो अरबों-खरबों रुपये की राष्ट्रीय धरोहर हैं। इन करोड़ों-अ रबों की सम्पत्ति को कौडि़यां के भाव नहीं बेचा जा येगा, बल्कि इस राष्ट्रीय धन-सम्पदा का उपयोग देश के निर्धन लोगों के जीवन-स्तर को ऊपर उठाने को कि या जायेगा।
14‐ आखिर क्यों है मुझे देश की पीड़ा?
लोगों को कई बार यह कहते हुए, आप शायद सुनें कि आखिर बाबा को ही क्यों हो रही है देश के भ्रष्टा चार की पीड़ा! जब बाबा को सत्ता, सम्पत्ति व सिं हासन का कोई प्रलाभन नहीं तो क्यों रात-दिन देश की पीड़ा लिए घूमते हैं? तो मैं पूर्ण सच्चाई व ईमानदारी के साथ, अपने हृदय के भावों को व्यक्त करना चाहता हूँ:मैं भारत को अपनी माँ कहता व मानता हूँ और क्योंकि मैं भारत को अपनी माँ मानता हूँ इसलिए भारत माता के साथ हो रहे भ्रष्ट राजनैतिक षड्यन्त्र को, पतन होते लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मूल्यों तथा आदर्शों को मैं, भारतमाता के साथ राजनैतिक दुरा चार व व्यभिचार की दृष्टि से देखता हूँ। मैं, भारत माता का कायर, कमजोर, बुज़दिल, ला चार, बेबस व गुलाम पुत्र नहीं हूँ कि मेरी आंखों के सामने मेरी माँ का भ्रष्टाचार द्वारा वैभव लुटता रहे, भ्रष्ट , बेईमान , अपराधी चरित्र वाले गैर-जिम्मेदार व देश के गद्दार भारतमाता के साथ धोखा करते रहें और मैं मौन होकर देखता रहूँ?
मैं राष्ट्रध र्म को उतना ही पवि त्र मानता हूँ जितना सम्प्रदायिक परम्परा या देवी-देवता की आ राधना, पूजा-पाठ, मन्त्रादि पढ़ना अथवा चर्च आदि में प्रार्थना करने को कोई धा र्मक व्यक्ति पवित्र मानता है। मैं अब मौन होकर नहीं बैठूं गा! अब मैंने खुली बगावत की है, देश की भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्थाओं के खिलाफ! और हम सब मिलकार भ्रष्टाचार को दे श से खत्म करके ही दम लेंगे! न हम रुकें गे, न हीं झुकेंगे! अब तो भ्रष्टाचार को खत्म करके हम, बे रोज गारी, गरीबी, भय व भूख मुक्त एक भारत बनाने का सपना हम साकार करके ही रहेंगे। मेरा विश्वास है कि मेरी तरह करोड़ों देशभक्त भारतीय जो भारत को माँ की तरह पूजते हैं, जो भी भारत माता की जय या वंदेमारतम् का उद्घोष करते हैं, वे समस्त भारतीय, जो देश व देशवासि यों से प्यार करते हैं, वे सब मेरे साथ इस 21वीं शताब्दी की सबसे बड़ी अहिंसक क्रा न्ति में मेरे साथ खड़े होंगे और हम इस संग्राम में विजयी होंगे।
15‐ पाँच माताओं का सम्मान खतरे में
1‐ माँ, 2‐ भारत माँ, 3‐ वेदमाता, 4‐ गोमाता, 5‐ गंगा मैय्या
जिस माँ ने हमको जन्म दि या, उस माँ का आज सरेआम मजाक उड़ाया जाता है। कन् याएं, बहन-बेटि यां, एवं बहुएं: ये सब माँ के रूप हैं। विलासिता की भूख में नारी को, माँ को: मात्र भोग विलास, विज्ञापन या बाजार का बिकाऊ सामान मान लेना और यह तर्क देना कि नग्न ता बिकती है। इसलिए उसे हम दिखाते हैं, परोसते हैं और बेचते हैं। समाज नारी का उत्पीड़न करे, कामुकता की भूख मिटाने के लिए उससे कोइ र् भी दुरा चार, व् यभिचार करे, बस एड्स न हो इसलिए कण्डोम का प्रयोग करो, इस तरह की मानसिकता जननी, माँ या नारी का अपमान है। पबों, रेस्तराओं या डांस बारों में माँ की गरिमा या माँ के आदर्शों का मजाक उड़ाया जाता है:यह भारतीय संस्कृति के साथ घिनौना मजाक है। मैं विनम्रता के साथ पूछना चाहता हूँ कि कोई वेश् यावृत्ति करने वाली औरत भी क्या यह चाहती है कि उसकी बेटि यां, वह जिस कीचड़ में पड़ी है, उसमें पड़ें। क्या कोई भी सभ्य माता-पिता चाहते हैं कि उनकी जवान बेटी आवारा लड़कों के साथ पबों में शराब, सिग्रेट व नशे में धुत्त होक र, चरित्रहीन, मनचले व उद्दण्ड लड़कों के साथ अश्लीलता करे, दुरा चार व व्यभिचार करे। क्या कोइ र् सिग्रेट व शराब आदि नशों आदि का व्यापार करने वाला पिता ये चाहता है कि उसके मासूम बच्चे नशों के विनाशका री कुचक्र में फंसकर, अपना जीवन व जवानी बर्बाद करें। नशों में फंसा हुआ इंसान भी अपने बच्चों को नशों से बचाना चाहता है। चोर, दुराचारी व व्यभिचारी व्यक्ति भी चाहता है कि उसके बच्चे बेईमान , चोर व चरित्रहीन न हों। आज शराबि यों से, चरित्रहीनों से नारी एवं माँ की मर्यादा की एवं मानवीय मूल्यों की रक्षा हमें करनी है। विकास के इस दौर में जिस तरह के वैयक्तिक, चा रत्रिक मूल्यों का पतन या राष्ट्रीय चरित्र कहीं दफन हो रहा है:इन दोनों की रक्षा हमें पूरी दृढ़ता के साथ करनी है।
माँ के चरित्र पर दाग लगाने के सा थ-साथ भारतमाता के चरित्र पर भ्रष्टा चार, गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, अपराध, आतंकवाद, भूख, सामाजिक अन् यायऋ विषमता व शासन के नाम पर शोषण के गहरे दाग लगे हैं। हम भारतमाता को भ्रष्ट , बेईमान , अपराधी व चरित्रहीन नेताओं से मुक्त करेंगे। सृष्टि के आदिकाल से हमारे पूव र्ज ”स्तुता मया वरदा वेद माता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्“ कहकर ज्ञान-विज्ञान को देने वाली वेद माता की स्तुति करते थे। जो वेद सार्वभामिक सृष्टि का सबसे प्रा चीनतम ग्रन्थ है। उन वेदों या वेद माता की सुरक्षा:यह हमारा सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व राष्ट्रीय दायित्व है। वेद पर अध्ययन-अनुसंधान व शोध कर हम वेद एवं वैदिक परम्परा की रक्षा के लिए संकल्पित हैं।
जिस गो माता में 36 करोड़ देवी-देवताओं का वास है, जिस गौ की हमारे पूर्वज इसलिए पूजा व रक्षा करते थे क्योंकि गौ में माँ जैसी ममता, करुणा व वात्सल्य है, वह मानवमात्र का हित करने वाली है। उस गो माता का कत्लखानों में प्रतिदिन लाखों की संख्या में वध: महाविनाश प्राकृतिक असंतुलन बाढ़, भूकम्प अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हिंसा व क्रूरता आदि का एक प्रमुख कारण है। कत्लखानों में गाय, भैंस व अन्य निर्दोष जीवों की बेरहमी व बर्बरता के साथ की जाने वाली हत्या से, उनके करूण क्रन्दन व चीत्कार भरी चीखों से, सम्पूर्ण देश में एक नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है। गोह त्या महाविनाश व दुःख का कारण है। हम गाय, भैंस व अन्य किसी भी निर्दोष प्राणी की हत्या को अनैतिक मानते हैं। इस सृष्टि में मानव की तरह ही सम्पूर्ण जीवों को भी आजादी के साथ जीने व सृष्टि के सुख व सौन्दर्य का आनन्द भोगने का पूर्ण अधिकार है। भारत भगवान महावीर, महात्मा गांधी, स्वा मी विवेकानन्द व महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे अहिंसावादी संतों व महापुरुषों की कर्मभूमि है, जन्मभू है। भारत सत्य-अहिंसा व सदाचार के मूल्यों में वि श्वास रखने वाला देश है। ऐसे पवित्र राष्ट्र के राष्ट्रवासी हम सब भारत माता के माथे से गोमाता की हत्या का कलंक मिटायेंगे। गंगा मैया हमा री आस्था, भक्ति एवं विश्वास की प्रतीक है। भ्रष्ट नेताओं एवं सरकारों की अकर्मण्यता ही गंगा की निर्मलता एवं अविरलता में सबसे बड़ी बाधा है। इसकी अविरलता में, नि र्मलता में भ्रष्टाचार गहरे से फैला हुआ है, परिणामतः नरोड़ा- बुलन्दशहर के बाद वर्षाकाल के अतिरिक्त समय में गंगा माता में मात्र 2 प्रतिशत गंगा जल शेष रह जाता है। 98 प्रतिशत मल-मूत्र के अवशेष, फैक्ट्रियों व सीवेज का गंदा पानी होता है। जो गंगा, जन-जन को पावन करती थी, वह खुद मैली हो गई है। हम जल की स्वच्छता, पवित्रता को, धर्म से अधिक मानवीय हितों से जोड़क र देखते हैं। हमा रा मानना है कि देश का जल, भूमि, वायु व आकाश सब स्वच्छ पवित्र रहने से ही मानव का जीवन सुरक्षित रह सकता है। हम गंगा के साथ भारत वर्ष की समस्त नदि यों व पूरे देश को स्वच्छ बनाने के संकल्प से प्रतिबद्ध हैं।
16‐ पाँच राष्ट्रीय भ्रम और इनकी वास्तविकता
1‐ भारत एक गरीब देश है,
2‐ भारत में लगभग 5ः लोग ही टैक्स भरते हैं,
3‐ सब लोग बेईमान हैं,
4‐ भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता, भ्रष्टाचारी ही देश पर शासन करेंगे
5‐ विदेशी पूंजी निवेश के बिना देश में विकास एवं रोजगार सम्भव ही नहीं
सच्चाई
एक षड्यन्त्र के तहत पूरे देश में कुछ भ्रष्ट , बेईमान एवं शातिर किस्म के शैतानों के द्वारा ये पूरे झूठे प्रचार एवं प्रपंच रचकर एक षड्यन्त्र के तहत देश के लोगों में आत्मग्लानि पैदा करने के लिए ये झूठ एवं झूठ के आंकड़े घड़े गए हैं, जबकि हकीकत व वास्तविकता, यथार्थ एवं आंकड़ों के आधार पर हम देशवासियों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि देश के राष्ट्रवादी लोग संगठित हों एवं भ्रष्ट व बेईमान लो गों को बेनकाब कर दे श एवं देश की तकदीर बदलने के लिए आगे आ सकें:
  • 1‐ भारत एक गरीब देश है! ‐‐‐‐‐कोरा झूठ।
तथ्य : भारत दुनि या का सबसे ताकतवर एवं अमीर देश है। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि दुनि या के अधिकां श विकसित देशों के लोग कमजोर हैं परन्तु वहां का नेतृत्व एवं कानून मजबूत है। यहां भारत के लोग मजबूत हैं परन्तु देश का नेतृत्व कायर, बुज़दिल एवं भ्रष्ट है तथा कानून कमजोर है। भारत के स्थानीय निकायों, राज्य सरका रों एवं केन्द्र सरकार का कुल बजट 20 लाख करोड़ रुपये है। और यह बीस लाख करोड़ रुपये का बजट तो तब है जबकि देश में चारों तरफ भ्रष्टाचारि शखर पर है। इस देश में भ्रष्टाचार न हो तो भारत-देश का कुल बजट लगभग 35-40 लाख करोड़ का हो सकता है। आप ही सोचें, आप ही निर्णय करें कि क्या एक गरीब देश का इतना बड़ा बजट हो सकता है। जानबूझ कर देश के भ्रष्ट व बेईमान नेताओं ने देश को गरीब बनाया हुआ है। देश से यदि भ्रष्टाचार मिट जाये तो देश में एक भी व्यक्ति बेरोजगार व गरीब नहीं रह सकता। एक षड्यन् त्र के तहत लो गों को बेरोजगार, गरीब एवं अनपढ़ बनाया हुआ है। जिससे कि भ्रष्ट शासक देश के गरीब, बे रोज गार, अनपढ़ एवं अशिक्षित लो गों पर मनमाने ढंग से शासन कर सकें अथवा लोकतन्त्र के नाम पर तानाशाही कर सकें।
  • 2‐ भारत में लगभग 5ः लोग ही टैक्स भरते हैं!‐‐‐‐‐सफेद झूठ।
वास्तविकता : भारत में 100% लोग टैक्स देते हैं। जो भी देशवासी तन पर दो कपड़े ओढ़ता है या साल में एक-दो साबुन प्रयोग में लाता है अथवा जूते चप्पल पहनता है अथवा बाजार में, दुकान पर जाकर वह जीवन की जरुरी प्रयोग की वस्तु आटा, नमक, टू थपेस्ट , तेल, मसाले, कागज, कलम, लो हा, सीमेंट आदि खरीदता है, तो इन सब वस्तुओं पर वह वैट/एक्साइज आदि ड्यूटी भरकर ही दुकानदार से क्रय करता है। एक आम आदमी भी स्टैम्प ड्यूटी, पीने के पानी पर टैक्स ; गृहकर, ; सीवेज टैक्स, रोड़ टैक्स, सर्विस टैक्स, सेल टैक्स अर्थात् किसी न किसी प्रका र का टैक्स जीवनभर जरूर देता है, तो क्या यह सफेद झूठ नहीं है कि मात्र पाँच प्रतिशत लोग ही टैक्स भरते हैं! ये झूठा भ्रम/प्रचार एक षड्यन् त्र के तहत इसलिए किया जाता है कि देश के बेइ र्मान लोग यदि लूटें तो कोई आवाज न उठाये। उनकी आवाज दबाने के लिए ही यह झूठ बोला जाता है, ताकि जब कोइ र् इन भ्रष्ट बेइ र्मानों से टैक्स मनी के रूप में दिये गए टैक्स का हिसाब मांगे तो ये भ्रष्ट लोग कह सकें कि तुम तो टैक्स ही नहीं देते, तुम हिसाब मांगने वाले कान होते हो? अर्थात् 95% लोगों के दिलों में यह झूठ/भ्रम इन भ्रष्टों ने इतने गहरे से बिठा दि या है कि एक आम व्यक्ति की देश के विकास में कोइ र् सहभागिता ही नहीं है। जबकि सरकारों को जितनी धन-राशि 115 करोड़ से ज्यादा भारतीयों के द्वारा वि भन्न टैक्सों के रूप में, भारत के विकास के लिए दी गई है, उस टैक्स मनी के बारे में प्र त्येक भारतीय को देश की व्यवस्था से, दे श की सत्ता से, ये प्रश्न पूछने का हक है कि उनके द्वारा दिए गए टैक्स-मनी (धन) का हिसाब (आय-व्यय) क्या है?
  • 3‐ सब लोग बेईमान हैं!‐‐‐‐‐सबसे बड़ा षड्यन्त्र।
सच्चाई : भारत में 99ः आम व्यक्ति ईमानदार है अथवा ईमानदारी से जीना चाहते हैं। इस तरह के झूठ को कि सब लोग बेइ र्मान हैं, इस तरह फैलाया गया है कि एक दे शभक्त, ईमानदार एवं चरित्रवान भारतीय व्यक्ति के मन में ये भ्रम गहरा हो गया है कि सब बेईमान हैं। अविश्वास गहरा गया है। जबकि हकीकत यह है कि भारत देश के आम जन 99ः ईमानदार हैं या ईमानदारी से जीना चाहते हैं और देश के जनप्रतिनि धि अर्थात् तथाकथित नेता एम‐पी‐, एम‐एल‐ए‐ आदि लगभग 99ः बेईमान हैं। इन 99ः भ्रष्ट एवं बेईमान नेताओं ने अपनी बेईमानी छुपाने के लिए देश की 99ः ईमानदार प्रजा को बेईमान प्रजा कहकर बहुत बड़े झूठ के तहत देश के लो गों को झूठा एवं बेइ र्मान बनाने का षड्यन्त्र रचा है। जिस दिन देश के यह संवेदनशील, जागरुक, राष्ट्रभक्त, ईमानदार ये 99ः लोग संगठित हो जा येंगे, उस दिन ये 1ः बेइ र्मान लोग बेनकाब हो जायेंगे। और भारत, बेईमानों का देश नहीं अपितु ईमानदारों का देश कहलायेगा।
  • 4‐ भ्रष्टाचार कभी नहीं मिट सकता, भ्रष्टाचारी ही देश का शासन करेंगे!‐‐‐‐‐गहरी साज़िश।
संकल्प : राष्ट्रवादी, ईमानदार लोग ही देश पर करेंगे शासन। भ्रष्टाचारी लोग ही देश पर शासन करेंगे। यह झूठ भी एक साज़िश के तहत बोला जा रहा है। जिससे कि ईमानदार, देशभक्त लोग कभी सत्ता में नहीं आ सकते। और एक के बाद दूस रा बेईमान सत्ताओं के सिंहासन पर बैठकर बेरह मी एवं बेदर्दी के साथ देश को लूटे गा। इस देश में देशभक्त, ईमानदार, पढ़े-लिखे, चरित्रवान एवं जिम्मेदार लोग भी हैं, जो देश को:भ्रष्टा चार मुक्त, श्रेष्ठ शासन दे सकते हैं। तो समस्त देशवासियों के मन में एक सहज प्रश्न (शंका) उत्पन्न होता है कि क्या अच्छे व चरित्रवान लोग संगठित हो पायेंगे? क्या राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए राष्ट्रवादि यों को वोट दे पायेंगे? क्या ईमानदार लोग एम‐एल‐ए ‐, एम‐पी‐ नहीं बन पायेंगे? इसका सी धा, स्पष्ट एवं यथार्थ उत्तर है कि देश को नेतृत्व देने की क्षमता रखने वाले देशभक्त, चरित्रवान लोग तो हैं लेकिन देशभक्त, चरित्रवान, ईमानदार लोग संगठित नहीं हैं। जो उनको वोट देकर सत्ताओं के सिं हासन पर पहुँचा सकें। भारत स्वाभिमान का लक्ष्य है:इन्हीं दे शभक्त लो गों को सं गठित करना और इन्हें संगठित करके देश की सत्ताओं के शीर्ष पर दे शभक्त, ईमानदार, चरित्रवान, संवेदनशील एवं कर्त्तव्यनि ष्ठ लो गों को स्थापित करना। हम दे शभक्त लोगां को सं गठित करके इस झूठ का भी पर्दाफा श करेंगे कि भ्रष्ट लोग ही देश पर शासन कर सकते हैं। हमारा संकल्प है कि अब देश में देशभक्त लोग ही शासन करेंगे!
  • 5‐ विदेशी पूंजी निवेश के बिना, न तो देश का विकास सम्भव है और न ही देश में रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे! ‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐एक प्रायोजित झूठ।
विश्वास : संसाधनों का 100% उचित उपयोग होने से होगा राष्ट्र का विकास और नहीं रहेगा कोई बे रोज गार। यह भी दे श को लूटने का एक प्रा योजित झूठ एवं षड्यन्त्र है कि विदे शी पूंजी निवेश के बिना देश का विकास नहीं होगा। जबकि हकीकत ये है कि यदि देश की पूंजी, भ्रष्टाचार में बर्बाद नहीं हो तो देश का एक भी व्यक्ति बेरोज गार नहीं रहेगा एवं यदि बेईमान लो गों के पास पूंजी जमा न हो करके जब देश के ढांचागत विकास एवं व्यवसाय में लगेगी तो देश में इतनी समृद्धि आ येगी कि हम दूसरे दे शों को ब्याज पर पैसा देने की स्थति में होंगे। और भारत विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति के रूप में सम्मान के साथ खड़ा हो जायेगा। अभी भी हकीकत ये है कि देश के कुछ भ्रष्ट लो गों का लगभग 70 लाख करोड़ रुपया, ये जो भ्रष्टाचार करके लूटा हुआ देश का बेनामी धन, विदे शी बैंकों में जमा है। और भ्रष्टाचारि यों द्वारा यह लूट-खसोट नि रन्तर जा री है। हकीकत ये नहीं है कि विदेशी पूंजी निवेश ;थ्क्प्द्ध के बिना यह देश नहीं चले गा, अपितु हकीकत ये है जिस दिन हम अपने देश की लूटी हुई पूंजी/लूटा हुआ धन, विदेशी बैंकों से वापिस मंगवा लें गे, उस दिन दुनि या नहीं चले गी। दुनि याँ का व्यापार भ्रष्ट , बेईमानों द्वारा लूटे गए हमारे पैसों से ही चल रहा है। कम से कम स्वीट्जरलैण्ड जैसे ताकतवर देशां की अर्थव्यवस्था का आधार तो हमारे देश का भ्रष्टाचार है।
17‐ हमारे पाँच आगामी राष्ट्रीय-सामाजिक आन्दोलन
  • 1‐ भ्रष्टाचार उन्मूलन,
  • 2‐ देश के अन्तिम व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाना
  • 3‐ स्वच्छता अभियान,
  • 4‐ राष्ट्र में राष्ट्रभाषा एवं भारतीय भाषाओं को स्थापित करना,
  • 5‐ गरीबों को निःशुल्क शिक्षा देना एवं पाठ्यक्रम में योग शिक्षा को अनिवार्य रूप से लागू करवाना
1‐ भ्रष्टाचार उन्मूलन: हम योग के माध्यम से देश के लो गों को सं गठित कर, देश में एक राष्ट्रव् यापी आन्दोलन चलायेंगे और भ्रष्टाचार रूपी भारत माता के कलंक को देश से मिटायेंगे।
2‐ स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध करवाना: देश के 6 लाख 38 हजार 365 गांवों तक एक-एक यो गशिक्षक स्थापित करना व योग-शिक्षकों के माध्यम से नि :शुल्क योग का प्रशिक्षण देना। हम योग, आयुर्वेद एवं प्रड्डति के माध्यम से स्वस्थ जीवन जीने का मार्गदर्शन दे, भारत के अन्तिम व्यक्ति को, स्वस्थ एवं स्वावलम्बी जीवन जीने की कला सिखा येंगे।
3‐ राष्ट्रव् यापी स्वच्छता अभियान: एक कार्ययोजना बनाकर, स्वच्छता अभियान चलाकर, दे श में से गन्दगी को मिटायेंगे और भारत की एक स्व च्छ देश की छवि पूरे विश्व के मानचित्र में बनायेंगे।
4‐ राष्ट्र में भाषायी एकता पैदा करना: हम राष्ट्रभा षा हिन्दी के साथ-साथ भारतीय भाषाओें यथा गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, पंजाबी, बंग्ला आदि को उचित सम्मान दिलवायेंगे। विदेशी भाषाओं का ज्ञान रखना उत्तम बात है, परन्तु अन्य देश की भाषा का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग करना घोर अपमान व शर्म की बात है। विश्व का कोई भी सभ्य देश अपने नागरिकों को विदेशी भाषा में शक्षा नहीं देता।
तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा, प्रबन्धन आदि की शिक्षा भारतीय भाषाओं एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी में न होकर विदेशी भाषा में होने के कारण कई बच्चे वैज्ञानिक, डॉक्टर एवं प्रबन्धक आदि बनने के सपनों को पूरा नहीं कर पाते। कई मजदूर, किसान, गरीब के हजारों बच्चे अन्य विषयों में प्रति भा शाली होते हुए भी अं ग्रेजी भाषा की अनिवार्यता होने के कारण, उसमें फेल होने परि मडिल या मैट्रिक परीक्षा तक पास नहीं कर पाते तथा डॉक्टर, आई‐ए‐एस‐ अथवा वैज्ञानिक बनने से वंचित रह जाते हैं, हम अपने बच्चों को अपनी भाषा में समान अवसर उपलब्ध करवायेंगे। उन्हें मातृभाषाओं:मलयालम, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, पंजाबी, बंग्ला सहित राष्ट्रीय भाषाओं एवं राष्ट्रभाषा में व्यवसायिक शिक्षा उपलब्ध करवायेंगे।
5‐ गरीबों को नि :शुल्कि शक्षा उपलब्ध करवाना व योग शिक्षा को अनिवार्य रूप से शिक्षण पाठ्यक्रम में लागू करवाना: हम सरकारी एवं गैर-सरकारी विद्यालय के नि यमित समय से अतिरिक्त प्रातः एवं सायंकाल झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले गरीबों, मजदूरों, किसानों, ग्रामीणों, वनवासियों एवं आदिवासियों के बच्चों को पढ़ाक र, उनको भी शिक्षा देकर आत्मस म्मान एवं स्वावलम्बन के साथ जीवन जीने का अवसर उपलब्ध करवायेंगे एवं विकास में गरीबों की भागीदारी बढ़ायेंगे। कक्षा 1 से कक्षा 12 तक पाठ्यक्रम में योग को अनिवार्य करने के लिए हम सरकारों से संवाद करेंगे, यदि सरकारें न मानीं तो पूरे देश भर में स्कूल, कॉलेज के युवा-छात्र वर्ग, शिक्षकवर्ग एवं आमजन के सहयोग से एक आन्दोलन चलायेंगे कि हमें यौन-शिक्षा नहीं, योग-शिक्ष पढ़ाअो!
18‐ देश की बागडोर हम किन हाथों में सौंपे?
क्या हम देश की सत्ता भ्रष्ट , बेइ र्मान, चरित्रहीन, कायर, कमजो र, बुज़दिल लो गों के हाथों में सौंप दें? क्या हम देश का शासक उन लोगों में से बना दें, जो खुद आत्मानुशासन में नहीं रहते हैं! जिनके लिए राष्ट्रधर्म सर्वोपरि नहीं होक र, पैसा ही सर्वोपरि है, जो पैसे के लिए देश को बेच देते हैं, देश को धाखा दे सकते हैं व दौलत के लिए, देश के साथ गद्दा री करते हैं?
क्या हम देश की बागडोर उनके हाथों में सौंप दें जो दोहरे चरित्र के लोग हैं और जिनके पीछे बड़ा होने में उनके बच्चों को भी शर्म आती है, अर्थात् जिनके बच्चे जिनके पीछे खड़े होने के लिए तैयार नहीं, क्या हम दे शवासी ऐसे दुश्चरित्र लोगों के पीछे खड़े हो जाएं? यह घोर शर्म व अपमान की बात है कि हम उनको देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी देते हैं, जो खुद सुरक्षित नहीं हैं?
क्या हम उनको लोकतन्त्र की सत्ताओं के शीर्ष सिंहासनों पर बैठा दें, जिन पवित्र सिं हासनों पर कभी मर्यादा पुरुषोत्तम राम, यो गेश्वर श्री कृष्ण, सम्राट अशोक, विक्रमादि त्य, लोह-पुरुष सरदार पटेल, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, लाल बहादुर शा स्त्री व गुलजारी लाल नन्दा जैसे चरित्रवान् लोग बैठे थे। क्या हम देश उनके हवाले करे दें, जो खुद हवालातों में बैठे हैं? जिनका खुद का चाल-चलन ठीक नहीं है, वे देश को कैसे ठीक से चला पायेंगे?
जो खुद लड़खड़ा रहे हैं, वे देश को कैसे खड़ा कर पायेंगे?
एक वृद्ध पिता अपने व्यापार व परिवार की बागडोर अपने जवान बच्चों के हाथ में सांपकर, निश्चिंत रहता है व आवश्यकतानुसा र बच्चों का मार्गदर्शन करता है। क्या हमारे देश के नेता, एक पिता की तरह, अपने देश के हित के लिए, अपने देश की सत्ता में, अधिकांश युवाओं की भा गीदारी के लिए तैयार होंगे। क्या हम देश की सत्ता उन लोगों के हाथों में सांप दें, जिनका व्यक्ति गत तौर पर इस देश के विकास, निर्माण, समृद्धि व सेवा में कोई वि शेष योगदान नहीं है? आप ही विचार करें, नेहरू जी, सरदार पटेल व बाबू राजेन्द्र प्रसाद आदि ने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी, अपना पूरा जीवन व जवानी देश की आजादी के लिए लगा दी। आज जो लोग सत्ताओं के शीर्ष पर बैठे हैं या बैठना चाहते हैं, उन अधिकां श लो गों के व्यक्तिगत जीवन पर दृष्टि डालेंगे, तो आप पायेंगे कि देश की सेवा व विकास करना तो बहुत दूर की बात है, अधिकां श लो गों ने देश को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से खूब लूटा है। टैक्समनी को भ्रष्टा चार करके लूटने के साथ-साथ देश के बेशकीमती करोड़ों रुपये की जमीन कोडि़ यों के भाव बेच देते हैं। क्या इन लुटेरों को देश सौंप दें?
19‐ देशभक्त भारतीयों से मेरी पाँच अपेक्षाएं
  • 1‐ मेरी आवाज को अपनी आवाज दो
  • 2‐ राष्ट्रीय मुद्दों पर बिना भय, बिना प्रलोभन के पूर्ण सहयोग व समर्थन
  • 3‐ गलत काम का विरोध करने का साहस करो
  • 4‐ देश के लिए वोट व नोट दो
  • 5‐ एक सच्चा भारतीय बनकर जीने का संकल्प लो
न मुझे सत्ता चाहिए, न ही सम्पत्ति, न ही मुझे सिंहासन का प्रलोभन है। न वोट और न ही नोट की है मुझे चाहत। मुझे सत्ता, सम्पत्ति, सिं हासन, वोट व नोट:इन पाँच चीजों की अपेक्षा नहीं। मैं चाहता हूँ कि आप राष्ट्रहित के मुद्दों पर बिना स्वार्थ, बिना भय, बिना प्रलाभन के अपना पूर्ण सहयोग व समर्थन दें, मेरी आवाज को अपनी आवाज दें, देश के लिए वोट व नोट दें, गलत काम का विरोध करने का साहस करें एवं देश में एक सच्चा भारतीय या एक अच्छा हिन्दुस्तानी बनकर जीने का संकल्प लें। मेरी निजी जिंद गी के लिए मुझे सत्ता, सम्पत्ति, सिंहासन, वोट व नोट की इच्छा अथवा आवश्यकता न पहले थी, न आज है और न आगे रहेगी। लेकिन साथ ही देश की सत्ता व देश की सम्पत्ति्ा देशभक्त, श्रेष्ठ, ईमानदार व चरित्रवान लोगों के हाथों में हो, यह भी मेरा संकल्प है। भ्रष्ट , बेईमान व अपराधी लोगों का नोट से शक्ति व वोट से सत्ता मिलती है और वे शक्ति व सत्ता का उपयोग विकास के लिए नहीं विनाश एवं स्वार्थ के लिए ही सदा से कर रहे हैं। अतः दुष्टों को न नोट दो, न वोट दो!
वैयक्तिक व राष्ट्रीय चरित्र नि र्माण हेतु जो मैं आवाज दे रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी आवाज को अपनी आवाज दें (शब्द दें)। भारत स्वा भमान के इस महायज्ञ अथवा आंदोलन में तन-मन-धन व जीवन की आहुतियां देकर समर्थन दें। देशभक्त, चरित्रवान, प्रबुद्ध, पराक्रमी, दूरदर्शी व पारदर्शी लो गों को वोट दें, जिससे देश को भ्रष्टाचार, बेरोज गारी, गरीबी व भूख से मुक्त बना सकें। हम घरों में व वैयक्तिक जीवन में हन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन, सिख व ईसाई आदि सम्प्रदायों का पालन करें, परन्तु सा माजिक व राष्ट्रीय जीवन में हम एक सच्चे व आदर्श भारतीय व आदर्श हिन्दुस्तानी बनकर भारत को विश्व की सर्वोच्च शक्ति बनाने के लिए कार्य करें।
आप अपने साथ-साथ अपने पड़ोस के बारे में सो चें, अपने समाज एवं राष्ट्र के बारे में भी सोचें। यदि आपके आस-पास की सड़कें गन्दी हैं तो उस गन्दगी को मिटाकर स्वच्छता लाने का का र्य करें। यदि कोइ र् स्वच्छता अभियान चलाया जाए तो स्व यं आगे बढ़कर सहयोग करें, ऐसे कार्यों का नेतृत्व करने को आगे आएं! यदि आपके आस-पड़ोस के या गांव के सरका री विद्यालय में, बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दी जा रही है, यदि आपके पड़ोस के सरकारी चिकि त्सालय में, मरीजों के उपचार के स्थान पर उनके साथ अत्या चार हो रहा है, आपकी सुरक्षा, स्वतन्त्रता, सम्मान की रक्षा के लिए बनाया गया लोकतान्त्रिक ढांचा:पुलिस, प्रशासन, वार्ड मेम्बर, एम‐एल‐ए ‐, एम‐पी‐, मिनिस्टर आदि जन-प्रतिनि धि यदि अपने सामाजिक, लोकतान्त्रिक, संवैधानिक एवं राष्ट्रीय कर्त्तव्य का निर्वाह ठीक से नहीं कर पा र हे हैं, तो उनके खिलाफ आवाज उठायें! उनका विरोध करें! उनको कर्त्तव्यपरायण बनाने को आगे आएं!
सर्वप्रथम हम भारतीय हैं। हमा री सोच राष्ट्रवादी हो। हम हर समस्या का समाधान राष्ट्रवाद को सर्वोपरि रख कर ही खोजें। विकास के मुद्दां पर अनावश्यक विवाद या बहस न खड़ी करें, चाहे उससे हमारा वैयक्तिक नुकसान ही क्यां न हो रहा हो:कई बार हमारे आस-पास बन रही सड़क, ओवरब्रिज, विद्यालय, वि श्वविद्यालय या अन्य सार्वजनिक, सामाजिक व राष्ट्रीय विकास के कार्य ऐसे हो सकते हैं, उनसे प्रत्यक्षतः आपको नुकसान प्रतीत हो रहा हो, परन्तु यदि उससे समाज या राष्ट्र का हित हो रहा हो तो राष्ट्रहित को सर्वोपरि मान, उसका अनावश्यक विरोध-विवाद अथवा आंदोलन खड़ा न करें।
नि राशा की बात, आत्मग्लानि की बात, अविश्वास की बात कभी न करें। जब 700 साल की गुला मी से दे श को मुक्त कि या जा सकता है एवं कई-कई पीढि़यों से राज कर रहे 565 रजवाड़ों व रियासतों को अपनी सका रात्मक सोच , दृढ़ इच्छाशक्ति, दूरदर्शिता एवं पराक्रम के द्वारा एक करके माला में पि रोकर लोहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल एक अखण्ड भारत का नि र्माण कर सकते हैं और आजाद भारत में भी 1968 में राष्ट्र के सभी राजा-महाराजाओं की सम्पत्ति को एक साहसी, पराक्रमी एवं क्रान्तिकारी महिला प्रधानमंत्री द्वारा देश के राजाओं की सम्पत्ति को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित किया जा सकता है और हमारे पड़ोसी देश चीन के लोगों ने दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ देश की बढ़ती जनसंख् या पर प्रभावी तरीके से नि यन्त्रण पाकर के, दे श को बिना मालिकाना हक के, दे श के लाग, देश के हित के लिए, चला सकते हैं और आगे बढ़ा सकते हैं व विश्व में आत्मसम्मान के साथ खड़े हो सकते हैं तो हम भारत में भ्रष्टाचार को मिटाकर नई आजादी, नई व्यवस्था एवं नया परिवर्तन क्यों नहीं ला सकते एवं भारत को विश्व की सर्वोच्च महा शक्ति क्यों नहीं बना सकते।
पूरी दुनि या का इति हास साक्षी है कि जब किसी भी देश के करोड़ों लोग एक साथ किसी आंदोलन में खड़े होते हैं तो व्यवस्थाएं, सत्ताएं तथा इति हास बदल जाता है और असम्भव, सम्भव हो जाता है।
20‐ चुनाव आयोग में नेताजी की सम्पत्ति के ब्योरे पर प्रश्नों का घेरा
जब भ्रष्ट नेता चुनाव आयोग में अपनी सम्पत्ति का ब्योरा प्रस्तुत करने हेतु घर व जमीन आदि का मूल्यांकन करवाते हैं, तब उनके घर की कीमत 5 लाख रुपये होती है एवं जमीन की कीमत 50 लाख होती है। लेकिन जब वही नेता बैंक से ऋण लेने के लिए जाते हैं तो उनके उसी घर की कीमत 5 करोड़ एवं उसी जमीन की कीमत 50 करोड़ हो जाती है।
राष्ट्रहित में यह न्याय संगत हो गा कि तमाम नेताओं की सम्पत्ति का बाजार भाव से मूल्यांकन कर ले और पारदर्शिता न पाये जाने पर प्रथम तो यह कि जितना सम्पत्ति का मूल्य चुनाव आयोग के समक्ष घोषित किया गया है, इसको सरकार डेढ़ गुणा मूल्य देकर अपने पास रख ले अथवा उसकी ंनबज प वद ;बोली) करवा कर जितने मूल्य की सम्पत्ति नेताजी द्वारा शपथ पत्र पर घोषित की गई है, अपना पैसा या उतने मूल्य की जमीन उनके पास छोड़ करके शेष जमीन को अथवा अन्य संसाधनों को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दि या जाये।
21‐ नशों के व्यापारी लाखों निर्दोष लोगां की मौत के गुनहगार
मद्यपान को प्रोत्साहन देना मानवीय अधिकारों का अथवा स्वतन्त्रता का संरक्षण नहीं, अपितु पशुता के अधिकारों का संरक्षण है। क्योंकि शराब पीकर व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है और मननशील एवं विवेकशील होने से ही व्यक्ति मनुष्य कहलाता है। शराब मनुष्य को जड़, मूढ़ एवं पशुवत् बना देती है। अतः शराब का संरक्षण एवं प्रो त्साहन देना, नशा करना, नशे के साधन उपलब्ध करवाना:ये तीनों ही कार्य तथ्य, तर्क, जमीनी हकीकत एवं मानवीय मूल्यों के आधार पर नैतिक व सा माजिक अपराध की श्रेणी में आते हैं।
क्या कोई भी सभ्य माता-पिता चाहते हैं कि उनकी जवान बेटी आवारा लड़कों के साथ पबों में शराब, सि ग्रेट व नशे में धुत्त होक र, चरित्रहीन, मनचले व उद्दण्ड लड़कों के साथ अश्लीलता करे, दुराचार व व्यभिचार करे। क्या काइ र् सिग्रेट व शराब आदि नशों आदि का व्यापार करने वाला पिता ये चाहता है कि उसके मासूम बच्चे नशों के विनाशकारी कुचक्र में फंसकर, अपना जीवन व जवानी बर्बाद करें। नशों में फंसा हुआ इंसान भी अपने बच्चों को नशों से बचाना चाहता है। चो र, दुरा चारी व व्यभिचा री व्यक्ति भी चाहता है कि उसके बच्चे बेईमान , चोर व चरित्रहीन न हों। नशा-शराब तो एक सा माजिक अपराध एवं सर्वनाश की जड़ है। शराब, तम्बाकू आदि नशा कामुकता, दुराचार, व्यभिचार, महिलाओं के साथ दुर्व्यव हार, अपसंस्ड्डति , हिंसा, अपराध, पारिवारिक विनाश एवं लीवर रोगों:सिरोसिस ऑफ लीवर, लीवर कैंस र, किडनी रोगों, हृदय रो गों तथा टी‐बी‐ आदि प्राणघातक बीमारियों का मुख्य कारण है। भारत में प्रतिवर्ष शराब एवं तम्बाकू आदि नशीली वस्तुओं के प्रयोग के कारण से 5 लाख लोग लीवर सिरोसिस, किडनी फेलियर एवं कैंसर आदि रोगों के शकार होकर मरते हैं। ऐसे लाखों लागों की बेगुनाह मौंत का कारण शराब, तम्बाकू आदि का व्यापार करने वाले प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से इसके भा गीदार हैं। जब अमेरिका जैसे विकसित देश में तम्बाकू, शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करके बीमार हुए लो गों के उपचार के लिए नशा विक्रेताओं के ऊपर 5 हजार करोड़ का जुर्माना किया जा सकता है और 148 लो गों की हत्या के आ रोप में जब सद्दाम को फांसी पर चढ़ाया जा सकता है तो लाखों देशवासियों की मौत के गुनहगार या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से करोड़ों लो गों की जिन्दगी, घर, परिवार एवं बच्चों के विनाश के लिए जिम्मेदार इन नशा व् यापारि यों, शराब-माफि याओं पर हत्या के मुकदमें चलने चाहिए और इनको सलाखों के पीछे रखना चाहिए अथवा फांसी पर लटकाना चाहिए।
22‐ मद्यपान करके मतदान करना अपराध
जैसे नशे की अवस्था में कार, स्कूटर आदि कोई भी वाहन चलाना भारत सहित पूरी दुनि या में अपराध की श्रेणी में आता है, क्योंकि नशे की अवस्था में वाहन चलाने से स्व यं एवं दूसरां के जीवन को खतरा हो सकता है। मेरा तर्क, तथ्य एवं मतदान के महत्त्व को दृष्टि में रखते हुए यह स्पष्ट मानना है कि मतदान के द्वारा हम पूर्ण होश व वि वेक के साथ देश की सत्ता की बागडोर किसी व्यक्ति के हाथों में सौंपते हैं और यदि मतदान के समय हम होश में न होक र, मद्यपान करके, लगभग बे होशी की अवस्था में होते हैं और इस बे होशी की अवस्था में कि ये हुए मतदान से, देश की सत्ता गलत लो गों के हाथों में जा सकती है। अतः मद्यपान करके नशे की अवस्था में मतदान करना लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मूल्यों के पतन का बहुत बड़ा कारण हो सकता है।
भारत में मतदान के दौरान खुलेअाम शराब का गंदा धंधा चलता है। मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नियम, कानून , लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मूल्यों की खुलेअाम खिल्ली उड़ाइ र् जाती है। यदि शराब के नशे में मतदान करने से कोई क्रिमिनल, गुण्डा, बदमाश, भ्रष्ट , बेईमान व चरित्रहीन व्यक्ति एम‐एल‐ए‐ व एम‐पी आदि बन जाता है तो क्या यह एक स्वच्छ लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मूल्यों के लिए उचित है? दुर्भाग्य से वर्तमान में लोकतान्त्रिक चुनाव के दौरान शराब का खुल्ला खेल अर्थात् शराब की नदि यां बहाना, घोर शर्म व अपमान की बात है। चुनाव आयोग को मद्यपान करके मतदान करने को तत्काल अवैद्य घोषित कर लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा करनी चाहिए। ऐसा कानून बनाना चाहिए कि शराब पीकर मतदान करने आये मतदाता का वोटिंग बू थ स्थल पर ही मद्यपान परीक्षण हो जाये एवं उस क्षेत्र का चुनाव अधिकारी दोषी व्यक्ति को तत्कालीन मतदान में मतप्रयोग करने से रोकने के लिए अधिकृत हो। यह राष्ट्रहित में बहुत ही आवश्यक है। मद्यपान करके मतदान करना यह लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मूल्यों की अवमानना है, यह देश की अवमानना है।

हमारा राजनैतिक दृष्टिकोण

23‐ हम देश को न लूटेंगे, न कमजोर बनायेंगे, न तोड़ेंगे लेकिन साथ ही देश को न लूटने देंगे न कमजोर बनाने देंगे और ना ही देश को तोड़ने देंगे।
24‐ हम लोकतान्त्रिक व संवैधानिक व्यवस्थाओं को नहीं तोड़ेंगे लेकिन साथ ही बेबस, दया के पात्र व, गुलाम बन कर नहीं जीयेंगे, साथ ही बेईमान , अपराधी, भ्रष्ट किस्म के लो गों को लोकतांत्रिक व संवैधानिक व्यवस्थाओं को नहीं तोड़ने देंगे। जैसा लोकत न्त्र के मन्दिर में हो रहा है, वह कहाँ भारत के संविधान में लिखा है? लोकत न्त्र के मन्दिर में संविधान की कसम खाने वाले ही संविधान व लोकतन्त्र का कत्ल कर रहे हैं और भ्रष्टाचार व बेइमानी करके भारत माँ को नोच-नोच कर खा रहे हैं, हम माँ भारती की दुर्दशा बर्दाश्त नहीं करेंगे।
25‐ हम शासन नहीं करेंगे, परन्तु शासन के नाम पर शाषण नहीं सहेंगे।
26‐ हम राजनीति नहीं करेंगे, परन्तु भ्रष्ट बेईमान व अपराधी किस्म के लोगों का सार्वजनिक व सामाजिक बि हष्कार कर उनको घटिया राजनीति नहीं करने देंगे।
27‐ हम सिंहासनों पर नहीं बैठेंगे, साथ ही हमारा यह संकल्प है कि हम योग धर्म से जन-जन में राष्ट्र धर्म जागृत कर एक स्वस्थ, समृद्ध, संस्कारवान भारत का नि र्माण करेंगे। योग से वैयक्तिक चरित्र का नि र्माण कर राष्ट्रीय- चरित्र के निर्माण के लिए हम दे शभर में जन आन्दोलन चलाकर, देशभक्त लागों को सं गठित करेंगे, ताकि भ्रष्ट बेईमान एवं अपराधी किस्म के लोग सत्ता के सिंहासनों पर नहीं बैठ सकें।
राजनैतिक विचारधारा
28‐ मेरी राजनैतिक सोच है-सर्वदलीय व निर्दलीय। सब दलों में जो श्रेष्ठ व पवित्र चरित्र के लोग हैं, वे मेरे अपने हैं। इसलिए मैं सर्वदलीय हूँ और सभी राजनैतिक दलों में भ्रष्ट , बेईमान व चरित्रहीन लोग भी हैं, उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, इसलिए मैं निर्दली य हूँ। संगठन के मायने
29 संगठन में शक्ति है। पत्थर जब सं गठित होते हैं तो भवन बन जाता है। अंग सं गठित होते हैं तो शरीर बन जाता है। शिक्षक जब सं गठित होकर पढ़ाते हैं तो विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय बन जाता है। सैनिक जब संगठित होते हैं तो एक शक्तिशाली सेना बन जाती है। मोती जब इक्ट्ठे होते हैं तो माला बन जाती है। प्रान्त जब संगठित होते हैं तो एक शक्तिशाली राष्ट्र बन जाता है। धागे जब संगठित होते है तो एक वस्त्र बन जाता है और जो धा गा पृथक-पृथक रहने पर खुद नंगा था अब वह दूस रों का तन ढकने के काम आता है। श्रमिक जब संगठित होते हैं तो देश के उद्योग खड़े हो जाते हैं।
30‐ जहाँ व्यक्ति एवं राष्ट्र-नि र्माण अखण्ड यज्ञ चल रहा हो, वहाँ अपने जीवन की आहुति दे दो। नये अनुष्ठान का आरम्भ सर्वत्र उचित नहीं हो गा। भिन्न-ि भन्न धाराओं में बहने से लक्ष्य नहीं मिले गा। अतः आओ! हम सब राष्ट्रवादी एक हो जायें। वेद का भी यही उपदेश है:
ओ३म् समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सह-चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।
ओ३म् समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनोरथा वः सुसहासति॥ (ऋग्वेद 10‐191‐3-4)
31‐ जब भ्रष्ट लोग एक हैं तो श्रेष्ठ लोग एक होकर वीरता व शूरता के साथ क्रूरता को क्यों नहीं मिटा सकते। संगठन में अपार शक्ति है। सत्यनि ष्ठ, मानवतावादी, राष्ट्रवादी व अध्यात्मवादी शक्तियों के एक न होने के कारण ही समाज एवं संसा र में भय, भ्रष्टा चार-अपराध-गरीबी-बेरोजगारी-अराजकता, अशान्ति एवं असुरक्षा है। जिस दिन श्रेष्ठ लोग एक हो जायेंगे राष्ट्र एवं विश्व में शान्ति एवं सुख का सा म्राज्य होगा और दुष्टता का अन्त हो जायेगा। हम सं गठित होंगे और श्रेष्ठ लोगों को अपने साथ जोड़कर शक्ति संचय करेंगे। यही वेद का आदेश है:”संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्“। (ऋग्वेद 10‐191‐2)
32‐ किसी भी संगठन की दो सबसे बड़ी ताकत होती हैं:जन-शक्ति एवं धन-शक्ति। इन दोनों पर ही किसी संगठन की सफलता अथवा विफलता निर्भर होती है। भारत स्वाभिमान के आन्दोलन को सफल करने हेतु हम आह्नान करते हैं कि आप जहाँ स्व यं इस संगठन से जुड़ें, वहीं देशभक्त लोगों को संगठित कर इस वि राट संकल्पना से जोड़ें और इसि मशन को सफल करने हेतु आर्थिक रूप से भी सहयोग दें क्योंकि अर्थ से ही किसी कार्य में सार्थकता आती है। अर्थ के बिना ही अधिकांश अनर्थ होता है। लेकिन साथ में ही यह भी न भूलें कि अधर्मपूर्वक, अनैतिक-तरीकों/उपा यों से अर्जित अर्थ भी अनर्थकारी होता है। अतः पवित्रतापूर्वक, धर्मपूव र्क अर्थ- शक्ति का संचय करके हमें भारत स्वा भमान का लक्ष्य प्राप्त करना है। सर्वेष्ामेव शौचानामर्थश्ाचं परं स्मृतम् (मनुस्मृतिः 5‐106)। संगठन के स्थापित होने के बाद तो लाखों लोग तन-मन-धन से जुड़ते हैं, यद्यपि वह भी आदरणीय है, परन्तु आप नींव के पत्थर बनकर इस राष्ट्र-नि र्माण की संकल्पना में योगदान करें। स्थापित पर राज करने वाले साधारण श्रेणी के लोग होते हैं, पराक्रमी वीर पुरुष वे कहलाते हैं, जो पुरुषार्थ करके नई परम्परा व नये साम्राज्य का नि र्माण करते हैं।
33‐ अतः आओ! हम सब संगठित होकर एक नया भारत बनाएं। देश में नई आजादी व नई व्यवस्था लाएं और देशभक्त ईमानदार व श्रेष्ठ लो गों को संगठित कर, भ्रष्ट लोगों व भ्रष्टाचारियों को बेनकाब कर, एक शक्तिशाली, समृद्ध व संस्कारवान भारत बनाएं।
34‐ संगठन का अर्थ है:संवाद, सम्पर्क, परस्प र सम्मान, सहयोग व सामूहिक श्रम करके समर्पण के साथ तब तक संघर्ष करते रहना जब तक कि सफलता नहीं मिल जाए। देशभक्त, ईमानदार, सज्जन, सात्विक व श्रेष्ठ लो गों के परस्पर संवाद सम्पर्क व सहयोग से हमें दे श के राष्ट्रवादी, पराक्रमी, पारदर्शी, दूरद र्शी, मानवतावादी, अध्यात्मवादी व विनयशील लो गों को एक साथ सं गठित करके भारत के सोए हुए स्वाभि मान को पुनः जागृत करना है। बिना आत्मोन्नति के राष्ट्रोन्नति सम्भव नहीं
35‐ जगत की दौलत:पद, सत्ता, रूप एवं ऐश्व र्य के प्रलोभन से योगी ही बच सकता है। अतः राष्ट्र-जागरण के, भारत स्वा भमान के अभि यान में प्रत् येक योग-ि शक्षक, कार्यकर्त्ता एवं सदस्य का योगी होना उसकी प्राथमिक एवं अनिवार्य शर्त है क्योंकि योग न करने के कारण अर्थात् यो गी न होने से आत्मवि मुखता पैदा होती है। और आत्मविमुखता का ही परिणाम है:बेईमानी, भ्रष्टाचार, हिंसा, अपराध, असंवेदनशीलता, अकर्मण्यता, अविवेकशीलता, अजागरुकता, अजितेन्द्रियता, असंयम एवं अपवित्रता। तस्मात् योगी भव-अजु र्न
36‐ हमने योग जागरण के साथ राष्ट्र-जागरण का कार्य आरम्भ करके अथवा योग-धर्म को राष्ट्र-धर्म से जोड़ कर कोई विरोधा भासी कार्य नहीं कि या है अपितु योग को विराट रूप में स्वीकार किया है। योग धर्म एवं राष्ट्र-धर्म को लेकर हमारे मन में कोई संशय, उलझन, भ्रम या असामन्जस्य नहीं है। हमा री नीयत एवं नीति यां एकदम साफ हैं और हमारा इरादा वि भाजित भारत को एक एवं नेक करने का है। योग का अर्थ ही है:जोड़ना। योग को माध्यम बना, हम पूरे राष्ट्र को सं गठित करना चाहते हैं। हम देश के प्रत्येक व्यक्ति को प्रथम यो गी बनना चाहते है। जब देश का प्रत्येक व्यक्ति योगी हो गा, तो वह एक चरित्रवान युवा होगा, वह देशभक्त शिक्षक व चिकि त्सक हो गा, वह विचारशील चार्टर्ड एका उन्टेन्ट होगा, वह सं घर्षशील अधिवक्ता होगा, वह जागरुक किसान हो गा, वह संस्कारित सैनिक, सुरक्षाकर्मी एवं पुलिसकर्मी हो गा, वह कर्त्तव्य-परायण अधिका री-कर्मचारी एवं श्रमिक हो गा, वह ऊर्जावान व्यापारी होगा, वह देशप्रे मी कलाकार एवं पत्रकार हो गा, वह राष्ट्रहित को समर्पित वैज्ञानिक हो गा, वह स्वस्थ-कर्मठ एवं अनुभवी वि रष्ठ नागरिक होगा एवं वह संवेदनशील एवं विवेक शील न् यायाधीश, अधिवक्ता होगा क्योंकि हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि आत्मोन्नति के बिना राष्ट्रोन्नति नहीं हो सकती। योग करके एवं करवाकर हम एक इंसान को एक नेक इन्सान बनायेंगे। एक माँ को एक आदर्श माँ बनायेंगे। योग से आदर्श माँ व आदर्श पिता तैयार कर राम व कृष्ण जैसी सन्तानें फिर से पैदा हों, ऐसी संस्कृति एवं संस्का रों की नींव डालेंगे। योग से आत्मोन् मुखी हुआ व्यक्ति जब स्वयं में समाज, राष्ट्र, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व जीव मात्र को देखे गा तो वह किसी को धोखा नहीं देगा, वह किसी की हिंसा नहीं करेगा क्योंकि वह अनुभव करेगा कि दूस रों से झूठ बोलना, बेईमानी करना व धोखा देना मानो स्वयं से ही विश्वासघात करना है। आत्म-विमुखता के कारण ही देश में भ्रष्टाचार, बेईमानी, अनैतिकता, अराजकता व असंवेदनशीलता है। हम इस सम्पूर्ण योग-आन्दोलन से इस धरती पर ऋषियों की संस्कृति को पुनः स्थापित कर सुख, समृद्धि, आनन्द एवं शान्ति का सा म्राज्य ला येंगे।

योगधर्म

योग का परिचय
1‐ योगः समाधिः (योगसूत्र: व्यास भाष्य 1‐1) योग समाधि है, योग आत्मदर्शन , आत्मसाक्षा त्कार या आत्मबोध्ा का आध्यात्मिक दर्शन है। योग जीवन-दर्शन है। योग जीवन-प्रबन्धन है। योग आत्मानुशासन है। योग मात्र शा रीरिक व्यायाम नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन शैली है। योग चित्त को नि र्मल व निर्बीज करने की आध्यात्मिक विद्या है। योग एक सम्पूर्णि चकित्सा विज्ञान है। योग जीवन का विज्ञान है। योग व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व विश्व की सम्पूर्ण समस्याओं का समाधान है।
2‐ ”समत्वं योग उच्यते“ (गीता 2‐48) अंधेरों को उजालों में, दुःख को सुख में, प्रतिकूलता को अनुकूलता में व पराजय को विजय में बदलने की शक्ति तुम्हारे भीतर है। रोगी देह को नि रो गी बनाने की ऊर्जा तुम्हारे भीतर विद्यमान है। रोग, शोक, संकट या सं घर्षों की तो बात क्या, तुम मौत को भी मात देने का जज्बा, शार्य व स्वा भमान रखते हो। बस बिना वि चलित हुये समभाव से जीवन में नि रन्तर आगे बढ़ते रहना। एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी , यही योग है।
3‐ विषाद-योग से मुक्त होकर, तुम गीता के सांख्य, कर्म व ज्ञान-योग सहित अठारह (18) यो गों में प्रवेश्ा पाना चाहते हो, तो प्राणयोग का अभ्यास करना। प्राणयोग में सब योगों का संयाग है। अष्टांग योग
4‐ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि, यह अष्टांग योग है। बिना अष्टांग योग की साधना के कोई यो गी नहीं बन सकता। यम
5‐ अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह-ये पांच यम हैं। नियम
6‐ शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान-ये पांच नियम हैं। क्रिया-योग (कर्म -योग)
7‐ तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान यह क्रि यायोग (क र्मयोग) है। तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणि्ाधानानि क्रियायोग : (योगसूत्र 2‐ 1)। तप अर्थात् संघर्ष, पुरुषार्थ/प्रतिकूल अवस्थाओं में भी वि चलित नहीं होना। बाधाओं, तूफानों, झंझावातों से जूझते हुए नि रन्तर लक्ष्य की ओर अवि चलित आगे बढ़ते रहना ही तप है। हर विफलता के पीछे सफलता है। अपमान के पीछे सम्मान को देखना, जिन्दगी में कभी भी नि राश, हताश, उदास होकर नहीं बैठना। अध्यात्मवाद या भौतिकवाद के क्षेत्र में शिखर तक वे ही पहुंचते हैं जो तपस्वी एवं नि रन्तर संघर्षशील होते हैं।
8‐ स्वा ध्याय का अर्थ है:स्वयं का अध्ययन नि रन्तर, ‘स्व’ अपने स्वरूप के प्रति जागरुक रहना, होश पूर्ण जीवन जीना, सजग रहना, सदा आत्मभाव में बने रहना। आत्मा स्व भाव से ही ज्योतिर्मय, तेजोम य, आनन्दमय, निवि र्कार व सत्य स्वरूप है, आत्मा अजर, अमर, नि त्य, अविनाशी व शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, इस आत्म स्वरूप की विस्मृति नहीं होने देना, यह स्वाध्याय है। प्रतिपल आत्मभाव में जीना, यह स्वाध्याय है।
9‐ ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है परमपिता परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। यह तन, मन, धन, पद, सत्ता, रूप, यौवन सम्पूर्ण जगत् व जीवन भगवान् की ड्डपा से हमें मिला है, ऐसा मानकर जीवन जीना यह ईश्वर प्रणिधान है।
10‐ कर्म करते हुए सदा यह स्मरण बना रहे कि मैं निमित्त मात्र हूँ सब कुछ करने की शक्ति, मति, सामर्थ्य प्राण व गति तो परमेश्वर ही परोक्ष रूप से हमें दे रहा है। ऐसा अनुभव करते हुए अहंकार से मुक्त रहकर कर्त्तव्य-कर्म करना, यह ईश्वर प्रणिधान है। प्रतिपल तप, स्वाध् याय एवं ईश्वर प्रणिधान के पवि त्रभाव में जीना यह क्रिया योग है, यह कर्म योग है। कर्म योग का अर्थ कर्म का त्याग नहीं अपितु कर्त्तापन के अहंकार से मुक्त होकर, भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से ‘कर्म’ को भगवान की पूजा मानकर व स्वयं को निमित्तमात्र मानकर कार्य करना ही ‘कर्म योग’ है।
11‐ तप-स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान रूप क्रिया योग के नि रन्तर अभ्यास से अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष्ा एवं अभिनिवेश रूपी पंच-क्लेशों की निवृत्ति एवं समाधि की प्राप्ति सहज ही हो जाती है। सिद्धि की प्राप्ति
12‐ कुछ पुण्यात्माअों को जन्म से, कुछ को औषध से, कुछ साधकों को मन्त्र से, कुछ योगियों को तप से तो कुछ को समाधि से सिद्धियों की प्राप्ति होती है। ”जन् मौषधमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः“ (योगसूत्र 4‐1)। मन की पाँच वृत्तियाँ
13‐ प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा व स्मृति- ये पाँच वृत्ति याँ हैं। अभ्यास एवं वैराग्य से इनका नि रोध ही योग है। मुक्ति के साधन
14‐ विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति (श म, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति व तितिक्षा) व मुमुक्षत्व:ये मुक्ति के चार मुख्य साधन हैं।
महापुरुष या अवतार
15‐ मनुष्य योग के द्वारा जब ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न हो जाता है तो वह देवता, महापुरुष, युगपुरुष, युगनिर्माता, युगदृष्टा या महामानव बन जाता है उसमें भगवान् की शक्ति, ज्ञान व ज्योति वि राट् रूप में अवतरित होने लगती है। ईश्व रीय शक्ति से सम्पन्न इन्हीं महापुरुषों को संसार के लोग अवतार के रूप में मानने लगते हैं जैसे राम, कृष्ण, बुद्ध व महावीर आदि। ब्रह्मप रमात्मा एक ही होता है, उस परमेश्वर के यो गी पुत्र-पुत्रियों के रूप में देवता, महापुरुष या अवतार अनेक हो सकते हैं। सभी देवता अवतारी पुरुष भी एक ही ब्रह्म ओंकार की उपासना करते थे व करते हैं। अतः पुरुष चाहे कितना ही उन्नत हो जाए, वह परमात्मा नहीं हो सकता। योग का लक्ष्य
16‐ हम योग के द्वारा एक स्वस्थ, समृद्ध व संस्कारवान राष्ट्र व विश्व का नि र्माण करना चाहते हैं। यही हमारे जीवन का ध्येय है।
17‐ हम योग शक्ति से जन-जन में राष्ट्रभक्ति जगाना चाहते हैं। हम योगधर्म द्वारा जन-जन को राष्ट्रधर्म से जोड़ना चाहते हैं। हम योग जागरण से आत्मजागरण के पुण्य-अभि यान को आगे बढ़ाना चाहते हैं। हम योग से आत्मोन्नति कर राष्ट्रोन्नति के पवित्र अनुष्ठान में अपना सर्वस्व समर्पित करना चाहते हैं।
18‐ हम रो गी को नि रोगी, स्व स्थ को उपयोगी व भो गी को यो गी बनाकर देश के लो गों की स्व स्थता, उत्पादकता, सकारात्मकता, सृजनात्मकता व गुणवत्ता बढ़ाकर एक प्रगति शील सभ्य व समृद्ध समाज व राष्ट्र का नि र्माण करना चाहते हैं।
19‐ यद्यपि योग का मुख्य लक्ष्य समाधि है, साथ ही वैज्ञानिक तथ्यों के साथ असाध्य रोगों का निदान हो जाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। योग बहुत वि राट् है। योग के प्रति संकीर्ण दृष्टि रखना योग का अपमान है।
20‐ अज्ञान, आग्रह, स्वार्थ एवं अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति सत्य से परिचित नहीं हो सकता है। योग के विरोध के पीछे भी ये चार कारण ही हैं। जैसे-जैसे लोगों को योग का ज्ञान होगा सब आग्रह ध्वस्त हो जायेंगे फिर स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ और अहंकार के स्थान पर ओंकार प्रति ष्ठित हो जायेगा। भोग का परिणाम
21‐ रोग, भय, दुःख, अशांति , असुरक्षा, असहिष्णुता, अधैर्य, अज्ञान, घृणा, बुढ़ापा एवं मृत्यु भोग का परिणाम है।
22‐ भोगों को भोगने से सुख, संतुष्टि व शान्ति पाने का उपाय वैसे ही व्यर्थ होगा जैसे कोई व्यक्ति अग्नि में घी डाल कर उसके शान्त होने का विचार करे। संतुष्टि व शान्ति भोग से नहीं, विवेक-ज्ञान से होती है। योग का परिणाम
23‐ आरोग्य, नि र्भयता, सुख, शान्ति, सुरक्षा, सहिष्णुता, प्रेम, करुणा, धैर्य, विवेक, ओज, तेज, मृत्युंजय योग के परिणाम हैं।
24‐ योग से शक्ति, ज्ञान से मुक्ति, प्रेम से भक्ति व सेवा से भुक्ति मिलती है। सेवा से भुक्ति मिलने का अर्थ है कि जब हम सेवा करते हैं तो हमारे पवि त्र संकल्प को पूर्ण करने के लिए समाज व राष्ट्र हमारे साथ खड़ा हो जाता है। योग-एक विज्ञान
25‐ ज्ञान जब प्रायोगिक दौर से गुजरकर सामने आता है, तो वह विज्ञान बन जाता है। योग-आयुर्वेद सहित वैदिक ज्ञान पर जब वैज्ञानिक प्रयोग होंगे तब हम जिस परिणाम पर पहुंचेंगे वह प्रमाण हो गा। योग पर प्रयोग करके आज हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि आज यह प्रमाण हो गया है। आज यह वैज्ञानिक भी है व प्रामाणिक भी।
26‐ ज्ञान का तिरस्कार नहीं, सत्कार करो। योग एवं आ युर्वेद के ज्ञान का आ ग्रह, स्वार्थ, अज्ञान या अहंकारवश व्यर्थ विरोध करना उचित नहीं।
27‐ आरोग्य मानव मात्र का मौलिक अधिकार है। आ रोग्य मानवमात्र का जन् मसिद्ध अधिकार है। योग-प्राणायाम से, स्वास्थ्य में स्वावलम्बी बनो! आरोग्य की आत्मनिर्भरता पाओ। वैद्य, डॉक्टर, दवा, गुरु व शास्त्र सहित सभी आलम्बन तुम् हें कमजोर बनाकर पराधीन बना देंगे। अतः जागरुक बनो और पराक्रम के साथ जीवन में आगे बढ़ो। तुम्हारे भीतर तुम्हारा वैद्य, डॉक्टर व गुरु बैठा है। तुम्हारे भीतर सभी प्रका र की दवाएं हैं, सभी वेद-शास्त्र भी तुम्हारे भीतर हैं। अतः स्वावलम्बी व स्वाभि मानी बनो।
28‐ सब गुरु, सन्त व शास्त्र कहते हैं कि सत्य, ईश्वर, ज्ञान व सम्पूर्ण समाधान हमारे भीतर है, परन्तु यह अक्सर नहीं बताते कि भीतर की दुनि याँ में जाने का मार्ग क्या है? जान लो! प्राण या प्राणायाम भीतर की दुनि या में, अन्तः जगत् में, ज्ञात से अज्ञात में व प्रत्यक्ष से परोक्ष में जाने का मार्ग है।
29‐ हम जाति , पन्थ, मजहब व प्रान्तवाद की संकीर्णताओं को तोड़कर योग से पूरे राष्ट्र व मानवता को आपस में जोड़ना चाहते हैं। योग-चिकित्सा-पद्धति
30‐ रोगीहित सर्वोपरि है। यह सि द्धान्त जिस दिन आरोग्य के क्षेत्र में स्वीड्डत हो जायेगा उस दिनि चकित्सा पद्धतियों में सं घर्ष का वि राम हो जा येगा, विवाद के स्थान पर संवाद पैदा हो जायेगा।
31‐ योग एवं आयुर्वेद सिस्टेमिक ;ैलेजमउपबद्ध उपचार पद्धतियाँ हैं जबकि एलोपैथी सिम्प्टोमैटिक ;ैलउचजवउंज प बद्ध इलाज है। यही प्रा चीन व अर्वाचीन चिकित्सा विज्ञान में मुख्यभेद है।
32‐ योग एवं एलोपैथी का तुलनात्मक अध्ययन करके किसी चिकि त्सा पद्धति पर प्रश्न चिह्न लगाना मेरा लक्ष्य नहीं है, अपितु रोगी के सामने भिन्न-ि भन्नि चकित्सा विधाओं का विकल्प रखकर हम उसे आ रोग्य के लिए श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति चुनने का अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं।
33‐ व्यक्ति बाजार से जहर ख रीद कर मृत्यु को आमन्त्रण दे सकता है। मौत के पर्याय कैंसर जैसे रोगों को उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार तम्बाकू व शराब आदि को व्यक्ति कहीं से भी ख रीद कर खा सकता है, परन्तु रोग के कारण मौत के करीब पहुँच चुका इन्सान अपने आरोग्य के लिए अपनी मर्जी की चिकित्सा पद्धति का चयन नहीं कर सकता। रो गी के हितों को तिला´जलि देकर अपने व्यवसाय हितों के लिए कुछ शक्तिशाली दवा नि र्माता कम्पनि याँ उपचार के नाम पर अत्या चार करने में लगी हुई हैं। विश्व की परम्परागत निर्दोष उपचार पद्धतियों पर मिथ्यादोष लगाकर योग-आयुर्वेद-प्राकृतिकि चकित्सा-यूनानी, एक्युपंक् चर, हो म्योपैथी व अन्य उपचार पद्धतियां जो सस्ती, सरल वैज्ञानिक व प्रमाणित श्रेष्ठ विधाएं हैं, इनका विश्व में विरोध चिकित्सा के नाम पर धब्बा व धोखा है। योग समाधान
34‐ भोगों के भोगने से वासना की ज्वाला आैर अधिक भड़कने लगती है, जैसे अग्नि में घी डालने से वह कभी शान्त नहीं होती। अतः भोग नहीं, योग समाधान है। भो गों की आग में अब स्वयं को मत जलाओ! अब तो योगा ग्नि में स्वयं को तपाकर रो ग, जरा व मृत्यु पर विजय प्राप्त करो !!
35‐ वृत्ति्ायों एवं अपराध से निवृत्ति का मार्ग-भगवान् से पद, सत्ता, वैभव की याचना नहीं अपितु कृपा की याचना करनी चाहिये। जैसी व्यक्ति की मति श्मशान में, सत्संग में, रुग्ण अवस्था या विपत्ति में होती है, वैसी ही मति व्यक्ति की सदा बनी रहे तो अपराध की वृत्ति ही समाप्त हो जाती है। भोगी नहीं, योगी बनो!
36‐ त्यागपूर्वक भोग करते हुए सुख पाने के लिए प्रकृति है। बिना योग के भो ग, रोग, बुढ़ापा व मृत्यु देने वाले हैं। अतः भोगी नहीं योगी बनो।
37‐ परमात्मा को पाने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। सेवा, सत्संग, जप, तप व योग से जब जीव के मन का अज्ञान मिट जायेगा व अन्तःकरण शुद्ध हो जा येगा तो भीतर से ही भगवान् मिल जायेगा।
38‐ सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुश र्माण मदितिं सुप्रणीतिम्। दैवीं नावं स्वरि त्रामनागसम-वन्तीम् आरुहेमा स्वस्त ये॥ (ऋग्वेद 93‐10) भवसागर को पार करने के लिए शरीर एक सुगठित नाव है। योगी एवं आत्मज्ञानी पुरुष इस पर चढ़कर भवसागर तर जाते हैं और भो गी व अविवेकी पुरुष बीच भंव र में ही फंस जाते हैं।
ब्रह्मचर्य
39‐ विषयों से भरे इस जगत में प्राण और मन को टूटने-फूटने से बचाने के लिए आत्म-सुरक्षा का ‘ब्रह्मचर्य’ ही एकमात्र माध्यम है।
मन
40‐ मिटाना है मन की वृत्तियों को, मन के मिटने से नया जन्म होगा, नई दृष्टि मिलेगी और तुम पाओगे अपने आस-पास एक सुन्दर संसार आैर फिर तु म्हें जीवन के आनन्द का अहसास होगा। हम स्व यं ही अपने सुख्ा-दुःख के कारण हैं। यह सत्य जिस दिन हम समझ लेते हैं उस दिन जीवन के दुःख मिट जाते हैं।
41‐ सामाजिक-नैतिक मूल्य, सत्य, अहिंसा, मानवता, संवेदनशीलता, चारित्रिक-शुचिता एवं सि हष्णुता से वि श्वकल्याण होगा, दुनि या सुखी हो गी। इससे पहले यह भी मत भूलो कि यदि तुमने इन नैतिक मूल्यों में आस्था व नि ष्ठा नहीं रखी तो तुम वैयक्तिक जीवन में कभी भी सुखी नहीं हो पाओगे।
शरीर
42‐ ”अश्मा भवतु नस्तनूः“ (ऋग्वेद 6‐75‐12)। हमारे शरीर वज्र की भांति सशक्त व सबल होने चाहिए। बीमार होकर जीना पाप व अपराध है।
43‐ स्थूल, सूक्ष्म, कारण व तुरीय:चार शरीर हैं। शरीर तीन प्रकार के होते हैं:
1‐ दिखने वाला स्थूल शरीर, 2‐ न दिखने वाला सूक्ष्म शरीर, तथा 3‐ मूल प्रकृति रूप, कारण शरीर है।
पंचमहाभूतों के संगठन से बना हुआ स्थूल शरीर है। पंचप्राण, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच सूक्ष् मभूत (पंचतन्मात्राएँ), मन व बुद्धि इन सत्रह तत्त्वों का जिसमें समावेश है, वह सूक्ष् म शरीर है। मूल प्रकृति रूप, कारण शरीर है। (समाधि की सि् थति में परमेश्व र के आनन्द में जीव का मग्न हो जाना, यह तुरीय शरीर है।)
ध्यान
44‐ ध्यान, संसा र से पलायन नहीं है। यह स्वयं को समष्टि से अलग करने या अपने आपको चारों ओर से बन्द करने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह संसा र के सत्य की समझ है। यह संसार सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, आवास, भोजन , वस्त्र एवं इनसे जुड़े अनन्त दुःखों के सिवाय हमें दे ही क्या सकता है। ध् यान का अर्थ इस संसा र के पार चले जाना जहाँ प्रज्ञाप्रासाद पर आरूढ़ होकर तटस्थ, कूट स्थ या साक्षी होकर विवेक की आँख से तुम स्वयं को और दुनि याँ को देख पाओगे तब अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा या प्राप्त से असन्तोष नहीं होगा। तब तुम्हें इस सम्पूर्ण जगत् में ईश्व र का सौन्दर्य दिखे गा।
45‐ सक्रिय ध्यान का अर्थ है:सदा सजगता, सदा जागरुकता, प्रतिपल सहजता व विवेक शीलता। जब हम जागरुक, विवेकशील व सहज होते हैं तो अशुभ से शुभ की ओर प्रस्थान स्वतः होने लगता है।
46‐ जब तक ध्यान द्वारा व्यक्ति की स्व यं से पहचान नहीं होगी उसको आत्मसम्मान, आत्मसुख, आत्मसंतोष, आत्मसत्ता, आत्मशक्ति एवं आत्मसम्पत्ति नहीं मिले गी, तब तक सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान एवं शक्ति के लिए जगत् में खूनी संघर्ष व युद्ध कभी समाप्त नहीं हो पायेंगे।
47‐ ध्यान, जड़ता या मूढ़ता नहीं अपितु प्रज्ञा के उच्च शिखर ऋतम्भरा से पूर्ण चैतन्य हो जाना है, जहाँ जड़ता व मूढ़ता पूरी तरह से मिट जाती है और अन्त में सा धक का चित्त निर्बीज हो जाता है। उस निर्बीज चित्त में वासनाओं के अंकुर वैसे ही नहीं फूटते जैसे भुने हुए चने की अंकुरण क्षमता समाप्त हो जाती है। संबोधि को प्राप्त योगी के चित्त में वासनाओं का अंकुर नहीं फूटता।
48‐ वैराग्य नाम पलायन का नहीं अपितु विवेक-ज्ञान की पराकाष्ठा का नाम ही वैराग्य है। सम्यक् दृष्टि पाकर अनासक्त होकर नि रन्तर प्रगतिशील, सं घर्षशील, पुरुषार्थी बने रहना ही वैराग्य का पूर्ण लक्षण है, त्याग का अर्थ:सी माओं को लांघकर असीम अनन्त अपरिमित में प्रवेश करना, शून्य मे उतरकर ही सृजन एवं समाधान होता है। ध्यान से शून्य जैसी चैतन्यपूर्ण स्थिति में प्रवेश पाते हैं।
49‐ अज्ञात में उतर कर ही ज्ञात के द्वार खुलते हैं, निवि र्चार स्थिति मे पहुँचने पर ही दि व्य विचार का प्रादुभा र्व होता है। गुणों का प्रतिप्रसव होने पर व्यक्ति को बाह्य आकर्षण आकर्षित नहीं कर पाते व व्यक्ति जीवन्मुक्त हो जाता है।
50‐ सम्मान, सम्पत्ति, सत्ता, शक्ति व अहंकार के कारण विश्व में झगड़े व युद्ध हो रहे हैं। ध् यान, साधना से जब व्यक्ति को आत्मबोध हो जा येगा तो उसको भीतर की सम्पत्ति साम्राज्य व अनन्त शक्ति मिल जा येगी और विवादों व युद्धों का अन्त हो जायेगा।
51‐ प्राणायाम एवं ध्यान से निवि र्कार व निवि र्चार हुए चित्त में ही पवि त्र व दि व्य विचार उत्पन्न होते हैं।
52‐ श्रवण, मनन, नि दिध्यासन एवं साक्षात्कार-यह श्रवण चतुष्टय कहलाता है। चित्त की प्रसन्नता
53‐ सुखि यों के प्रति मैत्री, दुःखि यों के प्रति करुणा, पुण्यशील व्यक्तियों के प्रति मुदिता एवं अपुण्यशीलों (दुष्टों) के प्रति उपेक्षा रखने से चित्त प्रसन्न रहता है। प्राण औषधी है
54‐ प्राणस्येदं वशे सर्वर्ं त्रिदि वे यत्प्रति ष्ठितम्। (प्रश्नोपनिषद् 2‐13):प्राण औषधि है, प्राण माता-पिता व आचार्य है। प्राण वसु, रूद्र, आदित्य है। प्राण साक्षात् ब्रह्म है।
55‐ ”योग श्चित्तवृत्तिनि रोधः“ (योगसूत्र 1‐2)-असत्य, झूठ में, कल्पनाओं में, स्वप्नों में रहना मन को रुचिकर लगता है। मन या तो खो या होता है भूत की व् यथा में, पीड़ा में, अतीत की स्मृति यों में अथवा भविष्य की चन्ता में। योग का अर्थ है:वर्तमान मे जीना। जहाँ न ही व् यथा है और न ही चन्ता। वर्तमान में है सृजन , वर्तमान ही भूत को निर्मित करता है और वर्तमान ही भविष्य की आधारशिला तैयार करता है। भूत, भविष्यत् सत्तावि हीन हैं। सत्ता है केवल वर्तमान की। वर्तमान में जीना, जीवन को उत्सव बनाना है। मन के पार जाने से ही चेतन-आत्मा का अस्तित्व स्वरूप में आता है। अतः योग का अर्थ है:अपनी चेतना, केन्द्र या अस्तित्व से जुड़ना। स्व को पहचानना और अपने ही अन्तः में निहित अन्तर्यामी परमात्मा को पहचानना। पिण्ड को ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड को पिण्ड में देखना व पाना। मैं को संकीर्णता की पि रधि से बाहर सर्वत्र विस्तृत कर देना। मैं सब में हूँ और सब मुझ में हैं, इसी मैं का विस्तार है:योग।

सांस्कृतिक बोध

संस्कृति
1‐ 1,96,08,53,109 वर्ष पुराना गौरवशाली अतीत है हमारा। ‘सा प्रथ मा संस्कृतिर्विश्ववारा’। (यजुर्वेद 7‐14) हम विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति के संवाहक हैं। लगभग दो सा करोड़ वर्ष पुराना वैभवशाली इति हास है हमारा, वर्तमान की पीड़ाअों से माँ भारती को मुक्त करके विश्व का नेतृत्व करने वाला शक्तिशाली स्वर्णिम भारत, हम अपने पुरुष्ार्थ व राष्ट्र आराधन से बनायेंगे।
2‐ संय म, सदाचार सद्भावना, संयुक्त परिवार व सोलह संस्कारों की गौरवशाली परम्परा भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम सार्वभौमिक वैज्ञानिक संस्कृति है।
3‐ भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बर्मा, बंग्लादे श, व श्रीलंका सहित एशिया महाद्वीप में बसे सभी लो गों के पूर्वजों एवं उनकी संस्कृति , सभ्यता व दर्शन एक ही था। भारत का विश्व में चक्रवर्ती सा म्राज्य था। मध्यकाल में भौगोलिक व सांस्कृतिक वि भाजन हुआ और लोग अनेक मजहबों में बंट गए। अतः हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख व मुस्लिम आदि अनेक मजहबों को मानने के बावजूद हम सब के पूव र्ज एक थे और आज भी हम सबका खून एक है। सांस्कृतिक विविधताएं एवं सभ्यताएं हमें बांट नहीं सकतीं यही हमारा सांस्कृतिक व भौगोलिक अतीत व वर्तमान है।
4‐ जो संस्कृति जितनी विकसित होती है जो व्यक्ति, समाज जितना विकसित होता है, अधिकतर वह संस्कृति , व्यक्ति व समाज उतना ही आलसी हो जाता है और यही उसके पतन का कारण बन जाता है। अतः उत्कर्ष के साथ संघर्ष कम नहीं होना चाहिये।
5‐ भारतीय धर्म, दर्शन , अध्यात्म, समाजशा स्त्र, अर्थशा स्त्र, नीति शा स्त्र, वैदिक गणित ज्योति ष व वैदिक ज्ञान सार्वभामिक व वैज्ञानिक है। वि राट सांस्कृतिक वैभव के होते हुए:हमें आयातित धर्म, दर्शन , पाश्चात्य संस्कृति एवं विदेशी नीति यों की आवश्यकता नहीं। स्वदेश की संस्कृति व सभ्यता तथा स्वदेश की नीति यों में ही स्वदेश हित सन्निहित है।
संस्कृतियों का संघर्ष
6‐ भाषाओं का बोध व ज्ञान पर शोध नहीं होने से ही विश्व की संस्कृति , सभ्यताओं, समुदायों व देशों में संघर्ष या विरोध पैदा होता है। वेद , योग, आयुर्वेद व भारतीय संस्कृति के विरोध के पीछे भी संस्कृत-बोध व वैदिक ज्ञान पर शोध न होना ही है। इसी तरह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू व पंजाबी आदि भाषाओं में धर्म एवं भगवान् को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारने पर भ्रम पैदा हो रहा है। ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ (ऋग्वेद 1‐164‐ 46) एक ही सत्य के अनेक नाम हैं आैर यदि नामों का भ्रम मिट जाये तो हम विश्व शान्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। हमारा उद्देश्य है:वसुधैव कुटुम्बकम् (पंचत न्त्र 5‐38)।
वैराग्य
7‐ वैराग्य पलायन का नाम नहीं, अपितु विवेक की पराकाष्ठा का नाम ही वैराग्य है सम्यक् दृष्टि पाकर अनासक्त होकर नि रन्तर प्रगतिशील, सं घर्षशील व पुरुषा र्थी बने रहना ही वैराग्य का पूर्ण लक्षण है।
संन्यास
8‐ हमारा संन्यास या संस्कृति पलायनवादी नहीं है। विवेक की पराकाष्ठा ही, वैराग्य है। अतः न भागो, न भोगो। बस जागो और जगाओ यही है हमारा अध् यात्म। न जीवन से पलायन, न मौत का गम, हमें रहना है सदा सम, यही योग है। अनासक्त होकर कर्मफल की इच्छा से रहित होकर जीना ही संन्यास है।
उपासना की पूर्णता
9‐ ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से उपासना या साधना की परिपूर्णता होती है। अकेला ज्ञान मात्र अहं की अि भव्यक्ति देगा, केवल ज्ञान में जीवन जीने वाला व्यक्ति मरूभूमि की तरह जीवन में रूखापन, मिथ्या दंभ एवं कृत्रिम या काल्पनिक व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है। अतः ज्ञान की परिपूर्णता है कर्म, भक्ति ज्ञान के बिना कर्म एक बन्धन, आडम्बर बन जाती है। अतः विवेक पूर्वक कार्य करते हुए ही हम समाधि या मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं ज्ञान से सम्यक् दृष्टि मिलती है, दृष्टि पाकर उसका उपयोग कर्म एवं भक्ति में होना ही चाहिए, भगवान् भिखारिओं को नहीं, पात्र अधिकारि यों को देते हैं। चित्र नहीं सदैव चरित्र की पूजा करो।
10‐ स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं, स्व-माने आत्मा, तन्त्र-माने अनुशासन, आत्मानुशासन का नाम ही स्वतन्त्रता है। स्वावलम्बी आत्मनि र्भर जीवन जीते हुए दूसरों को आलम्बन दो, दूसरां को भी आत्मनिर्भर बनाओ, पहले साधक बनो, बाद में सुधारक तुम स्वयं बन जाओगे। ”माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव् याः“ धरती हमारी माँ है हम इसके पुत्र हैं। राष्ट्रदेव सबसे बड़ा देवता एवं राष्ट्रधर्म माने राष्ट्र के प्रति हमारे कर्तव्य, हमारे दायित्व यह सबसे बड़ा धर्म है।
11‐ अन्याय एवं अधर्म को करना जितना पाप है, उतना ही पाप एवं अत्याचार को सहना भी है। राष्ट्र के प्रति कृतज्ञता, श्रद्धा व स्वा भमान हर इंसान में होना चाहिए।
12‐ योग साधना, सद् गुरुओं के सत्संग तथा दर्शन , उपनिषदादि आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय, तप, अनासक्त कर्मयोग व सेवा से जब अन्तर्दृष्टि खुल जाती है या आत्मदृष्टि उपलब्ध या प्राप्त हो जाती है तो सब स्वरूपों में ब्रह्मस्वरूप नजर आने लगता है। सब सम्बन्धों में ब्रह्म सम्बन्ध की अनुभूति होने लगती है। यही साधना, भक्ति या उपासना की पूर्णता है।
भक्त की प्रार्थना
13‐ भगवान् से दौलत एवं उसके पदार्थ न मांगकर भगवान् से भगवान् को अर्थात् भगवत्ता को मांगे। प्रभु से, उसका आश्रय व उसकी भक्ति को मांगे। उससे धन-वैभव की मांग करना, तुच्छ मांग है।
14‐ भगवान् से पद, सत्ता, सम्पत्ति या दुनि या के वैभव की याचना नहीं करना क्योंकि वो दयालु पिता बिना मांगे हमारी क्षमता, योग्यता अथवा पात्रता से सदा ही अधिक देता है। भगवान से बस इतना मांगना कि हे प्रभु! मैं अपने कम र् को अपना धर्म मानकर पूर्ण नि ष्ठा से स्वधर्म को नि भा पाऊँ और हे नाथ! एक पल के लिए भी तुझे भूलूँ नहीं , बस यही वरदान देना।
महान् उपदेश
15‐ प्रजापति के तीन महान् उपदे श हैं:द-द-द। द-दाम्यत, देवों के लिए दमन-आत्मानुशासन है। आत्मानुशासन में जीने का नाम ही दमन है द-दयध्वम् असुरों के लिए दया की उपासना ही धर्म है। हिंसा, क्राध व प्रति शाध ही वैश्विक अशान्ति के कारण हैं। द-दत्त मनुष्यों के लिए। धर्मापदेश यही है कि बांटकर खाओ, संचय मत करो, वितरण का पाठ पढ़ो (वृहदारण्यक उपनिषद्)।
सोलह संस्कार
16‐ मानव जीवन के नि र्माण की आधारशिला है:”सोलह संस्कार“। अतः मैं गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, नि ष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्त्तन , गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन् यास व अन्त्येष्टि इन सोलह संस्कारों की संस्कृति से अपना व राष्ट्र का जीवन उन्नत बनाऊंगा।
यज्ञ
17‐ अग्निहोत्र से लेकर समस्त पुण्य कर्मों को यज्ञ कहते हैं।
18‐ ब्रह्मयज्ञ (ईश्वर की उपासना), देवयज्ञ (अग्निहोत्र), पितृयज्ञ, (माता-पिता की सेवा), बलिवैश्वदेव यज्ञ (दूसरों को भोजन कराकर या उनका अंश रखकर भोजन करना) एवं अतिथि यज्ञ (विद्वान् परोपकारी, जितेन्द्रिय, धार्मिक, सत्यवादी, छल-कपट रहित होकर नित्य भ्रमणशील मनुष्यों को अतिथि कहते हैं, उनकी सेवा करना) यह पाँच महायज्ञों की हमारी सनातन संस्कृति है।
सत्संग
19‐ जिसको करके असत्य या झूठ से छूटकर सत्य की प्राप्ति होती है, वही सत्संग है और जिसको करके जीव पापों में लिप्त हो जाते हैं, वह कुसंग है।
श्रद्धा
20‐ श्रद्धा माँ, और विश्वास पिता है। श्रद्धा पावन जीवन यज्ञ की सोम्यतम अग्नि है। श्रद्धा भगवत् ज्ञान की अनुभूति है। श्रद्धा सत्य ज्ञान की उपलब्धि एवं परमशान्ति का सोपान है। श्रद्धा आध्या त्मक जीवन का अि भषेक तत्त्व है।
बन्धन से मुक्ति का सूत्र
21‐ सत्संग, स्वाध्याय, श्मशान एवं संकट के समय जैसी व्यक्ति की मति होती है वैसी ही बुद्धि यदि सदा स्थिर हो जाए तो जीव मोह-माया के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
स्वर्ग-नरक
22‐ वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व आध्यात्मिक रूप से वि शेष सुख की प्राप्ति ही स्वर्ग, और वि शेष दुःख की परिसि् थति यों की प्राप्ति ही नरक है।
मुक्ति
23‐ दुःख एवं दुःख के कारण रो ग, भय, शोक, पंच क्लेश, जन्म-मरण आदि दुःखों से छूट जाना या मुक्त हो जाना ही मुक्ति है।
मृत्यु
24‐ मृत्यु समाधान नहीं, क्योंकि मरकर पुनः जन्म लेना सुनिश्चित है, अतः दुनि या से भयभीत होक र, अपनों की पीड़ा एवं विश्वासघात से आहत होकर अवसाद में मृत्यु को स्वीकारना मूर्खतापूर्ण हो गा।
25‐ मारना व मिटाना है, मन को। मन के मिटने से, नया जन्म होगा। नई दृष्टि मिलेगी और तुम पाओ गे अपने आस-पास एक सुन्दर संसार। और फिर तुम् हें जीवन के आनन्द का अहसास होगा। जीवन एक उत्सव बनेगा। जिस दिन हम जीवन को समझ लेते हैं, उस दिन जीवन से दुःख मिट जाते हैं। सत्य की कसौटी के आठ मापदण्ड
26‐ प्रत्यक्ष, अनुमान , उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये आठ प्रमाण हैं और इन्हीं से सत्य-असत्य का बोध होता है। ये मापदण्ड हैं अन्वेषण के, सत्यबाध के। ये आठ प्रमाण सत्यज्ञान की कसौटी हैं। सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक-वेद
27‐ भारतीय मान्यता के अनुसा र सृष्टि के आदि में अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा इन चार ऋषियों की पवित्र आत्माअों में जो पवित्र ज्ञान अवतरित हुआ, वह वेद है। भारतीय संस्कृति एवं संस्का रों का सबसे प्रा चीनतम ग्रन्थ वेद मात्र पूजा पाठ की पद्धति या मात्र कर्म-काण्ड के ग्रन्थ नहीं हैं ज्ञान-विज्ञान की समस्ति शक्षाओं से लेकर सार्वभामिक व वैज्ञानिक सत्यों के उद्घोषक ग्रन्थ वेद हैं।
28‐ ज्ञान-विज्ञान, धर्म एवं कर्मकाण्ड आदि से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सन्दर्भ में सृष्टि के आदिकाल में अग्नि, वायु, आदित्य व अिं गरा-इन चार ऋषियों की पवित्र आ त्माओं में क्रमशः ऋग्, यजु, साम व अथर्व के रूप में जो ईश्वरीय सत्य ज्ञान अवतरित हुआ उसे वेद कहते हैं।
आर्ष-ग्रन्थ
29‐ ऋषिकृत ग्रन्थों को आर्ष ग्रन्थ कहते हैं। उनमें पक्षपात रहित सत्य ज्ञान होता हैं। मनुष्य अज्ञान, पक्षपात, स्वार्थ या आग्रह से ग्रसित होकर गलत लेखन भी कर सकता है। अतः ऋषिकृत सत्यग्रन्थोें में, छः दर्शन , ग्यारह उपनिषद्, गीता, महा भारत, बाल्मीकि रामायण आदि एवं ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ वेद ही मुख्यतः स्वाध्याय की श्रेणी में आते हैं। यदि कोई विद्वान् वेदानुकूल, सत्य, प्रमाण-सम्मत एवं विज्ञान अनुकूल लिखते हैं तो उनकी लिखी पुस्तकों का भी अध्ययन कर सकते हैं। यदि कोई लेखक अनर्गल असम्भव व अवैज्ञानिक बातें लिखता है तो उसमें अपने बहुमूल्य समय एवं सम्पत्ति को बर्बाद नहीं करना चाहिए।
उपवेद
30‐ आयुर्विज्ञान के शास्त्र को आयुर्वेद, शस्त्र-अस्त्रादि विद्या को धनुर्वेद, गायनशास्त्र को गन्धर्ववेद औरि शल्पशास्त्र को शिल्पवेद कहते हैं। ये चार उपवेद हैं।
वेदांग
31‐ शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योति ष:ये आर्षज्ञान के सनातन शास्त्र हैं। इनको वेदांग कहते हैं।
उपनिषद्
32‐ ईश-केन-कठ व मुण्डकादि प्रामाणिक ग्यारह उपनिषद् हैं। अध्यात्म विद्या के, ऋषियों के गूढ़ ज्ञान को सन्देश व संवाद रूप में उपनिषद् में प्रस्तुत किया गया है।
दर्शन
33‐ जैमिनी, कणाद, गौतम, पतंजलि, कपिल व व् यास ऋि ष द्वारा रचित क्रमशः मीमांसा, वैशेषिक, न् याय, योग, सांख्य और वेदान्त इन छः शास्त्रों को, दर्शन या उपांग कहते हैं।
34‐ धर्म-ग्रन्थ
रामायण-महर्षि बाल्मीकि द्वारा संस्ड्डत भाषा में रचित रामायण ग्रन्थ मर्यादा पुरुषोत्त म राजा रामचन्द्र जी के पावन चरित्र का वर्णन करने वाला आदि महाकाव्य है। इसमें आदर्श पितृभक्ति, भ्रातृप्रेम एवं हितकारी राजधर्म आदि श्रेष्ठ जीवन के विविध सम्बन्धों, आयामों का वृहद् रूप में दिग्दर्शन होता है। इस ग्रन्थ से मर्यादित जीवन-मूल्यों का, नारी के शील, पवित्रता एवं पतिव्रता, भाई के आदर्श प्रेम तथा प्रजा हितैषी राष्ट्रवाद की उच्च मर्यादाओं व परिपाटी का संदेश मिलता है। इस ग्रन्थ का अनेक भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध है।
गीता-यह विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ महर्षि व्यास रचित महा भारत का अंग है। जिसके अठारह अध्यायों में अठारह प्रकार के योग का वर्णन योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने किया है। जिसमें मो हग्रस्त, धर्म युद्ध करने से उदासीन हुए अर्जुन को उसके क्षेत्र-धर्म का भगवान् श्री कृष्ण द्वारा बोध कराया गया है। समत्वं योग उच्यते के माध्यम से योग का महत्त्व बताते हुए व कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन एवं परित्राणाय साधूनां विना शाय च दुष्कृता म् आदि कर्मयोग के महान् उपदेश इसी गीता में मिलते हैं, जो आज भी नि राश, हताश, उदास व्यक्तियों को सत्कर्म में लगा देने की प्रेरणा देते हैं।
बाइबिल-मानव मात्र के लिए ईसाई धर्म ग्रन्थ बाइबिल में मानवता, प्रेम, मानव-सेवा का संदेश दि या गया है और इस बात पर जोर दि या गया है कि हमा रा प्रत्येक अच्छा कार्य ईश्व र को प्रसन्न करता है और प्रत् येक पाप कार्य ईश्वर को अप्रसन्न करता है। ईश्व र हर समय हमारे साथ है। कुरान -मुस्लिमों के इस धार्मिक ग्रन्थ में सभी इंसानों को अमन, शान्ति, सामाजिक सद्भाव एवं मानव कल्याण का उपदेश दि या गया है। इसमें तख्वा माने तप, त्या ग, धैर्य पर बल दि या गया है। खुदा के प्रति नमन करते हुए रोज़ा फर्ज माना गया है, ताकि गरीबों की भूख-प् यास हम महसूस कर सकें व अपने शरीर को तंदरुस्त रख सकें। गुरु ग्रन्थ साहिब- मानवता के कल्याण के लिए गुरुनानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी, गुरु अर्जुनदेव जी, गुरु हरगोविन्द जी, गुरु हर राय जी, गुरु हरकृष्ण जी, गुरु तेगब हादुर जी व गुरु गोविन्द सिंह जी ने शक्ति, भक्ति एवं पराक्रम जगाने के लिए इस पवित्र गुरु ग्रन्थ साहिब में उपदेश दि या है कि ”एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कान मन्दे“ अर्थात् वह दि व्य ज्योति एक है आैर सम्पूर्ण जगत् उसी का ही प्रकाश है।
षड्-दर्शन - षड्-दर्शनों का मूल विषय है: आत्मतत्त्व का दर्शन , संसार या प्रड्डति का सम्यक् दर्शन तथा परमात्मतत्त्व का साक्षा त्कार। भारतीय दर्शनों को दो भागों में वि भाजित कि या गया है:आस्तिक एवं नास्तिक। चार्वाक, जैन तथा बाद्ध दर्शनों को नास्तिक माना गया है तथा न्याय, वैशेषिक, सांख्य, यो ग, पूर्व मीमांसा और वेदान्त (उत्तरमीमांसा) ये छः अस्तिक दर्शन हैं। दर्शनों में दो-दो के युगल एक-दूसरे के पूरक हैं जैसे:सांख्य और योग का, न्याय और वैशेषिक का, तथा पूर्व मीमांसा और वेदान्त का युग्म है।
एकादशोपनिषद्- वेद, उपवेद , ब्राह्मण ग्रन्थ तथा आरण्यकों का ही सरलतम विधि से आध्यात्मिक वर्णन उपनि षदों का मूल विषय है। अर्थात् तप, समर्पण और ज्ञान के द्वारा 100 वर्ष तक नि ष्काम कर्म करते हुए, ईश्वर, जीव, प्रकृति का यथार्थ ज्ञान पाकर मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त करना।
जैन ग्रन्थ - महान् तपस्वी सन्त भगवान् महावीर ने अहिंसा, सत्य, अपरि ग्रह के आत्मज्ञान का दर्शन जैन ग्रन्थों में उपलब्ध करवाया। तीर्थंकरों को ‘जिन’ या सन्त कहा जाता है।
बौद्ध ग्रन्थ- आग्रह और भ्रम को त्याग, अष्टांग मार्ग एवं निर्वाण के रूप में दुःख-निवृत्ति एवं परम-शान्ति की शिक्षा बौद्ध ग्रन्थों से मिलती है।
ईश्वर
35‐ ईश्वर, जीव व प्रकृति ये तीन अनादि सत्ताएँ हैं।
36‐ हम सब ईश्वर की सन्तान हैं। वह ईश्व र सच्चिदानन्द स्वरूप, नि राकार, सर्वशक्ति मान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निवि र्कार, अनादि , अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्त र्यामी, अजर, अमर, अभय, नि त्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी एक ब्रह्म की सबको उपासना करनी चाहिए। वही हम सबका पिता व माता है।
37‐ ईश्वर की स्तुति से संसा र से अनासक्ति व प्रभु से अत्यन्त प्रीति , प्रार्थना से नि रभिमानता एवं उपासना से ईश्वरीय गुणों की प्राप्ति होती है।
38‐ जब हम भगवान् को अपनाते हैं तो यह भी धु्रव सत्य है कि हम पहले ही भगवान् के द्वारा अपना लिए गए होते हैं।
39‐ क्लेश (अविद्यादि पंच क्लेश), कर्म (शुभ-अशु भ), विपाक (क र्मफल जन्म-मरण) व आशय (वासना) से जो मुक्त है तथा जो सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्, न्यायका री व दयालु है, महर्षि पतंजलि उसे ईश्वर मानते हैं।
जीव
40‐ जीव परमात्मा का अमृत पुत्र है। जीवात्मा कभी परमेश्वर नहीं हो सकता। जीवात्मा कभी भी सर्वज्ञ, सर्वव् यापक व सर्वशक्तिमान् नहीं हो सकता। यही भेद है जीव और ब्रह्म में। जीव बिन्दु है, ब्रह्म सिन्धु है। जीव रूपी बिन्दु, सिन्धु में समाहित होकर सिन्धुमय हो जाता है! ऊपरी तौर पर यह कह भी देते हैं कि बिन्दु सिन्धु हो गया परन्तु यथार्थ तो यही है कि बिन्दु सिन्धु में पड़कर एक होकर भी एक बिन्दु है और सिन्धु, सिन्धु ही है। बिन्दु सि न्धुमय हो जाता है।
41‐ जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु कर्मानुसा र ईश्वरीय व्यवस्था के अनुरूप कर्मफल भोगने में परत न्त्र या ईश्वर के अधीन है।
कर्म व प्रारब्ध
42‐ मन, वचन एवं शरीर से जीव जो चेष्टा करता है, वह समस्त व्यवहार ‘कर्म’ कहलाता है। कर्म के तीन स्तर हैं:क्रियमाण, संचित व प्रा रब्ध। जो वर्तमान में कि या जा रहा है वह क्रियमाण कर्म है। क्रियमाण का चित्त में जा संस्कार होता है वह संचित कर्म है जबकि पूर्व जन्म एवं इस जन्म में किए गए शुभ-अशुभ कर्मार्ें के अनुरूप सुख-दुःख रूप फल का भोगना है उसको प्रा रब्ध कहते हैं।
43‐ बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भाषण, विवेचन, क्रिया, उत्सा ह, स्मरण, नि श्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संया ग, वि भाग, संयाजक, वि भाजक, श्रवण, स्पर्शन , दर्शन , स्वादन, गन्धग्रहण तथा ज्ञान इन 24 प्रकार के सामर्थ्यों से युक्त सत्ता को जीव कहते हैं।
प्रकृति
44‐ सत्व, रज व तम, के सं घात को मूल प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से महत्तत्त्व (बु द्ध), उससे अहंकार, अहंकार से मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ और पंच तन्मात्राओं से पृथिव् यादि , पाँचमहाभूत ये चौबीस तत्त्व और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर। यह है सा रा संसार।
45‐ प्रकृति हमा री माँ है। इसकी रक्षा करो तथा वृक्ष हमारी रक्षा करने वाले पिता रूप हैं। इस जन्म में तुमने जितनी ऑक्सीजन ली है, उतनी ऑक्सीजन वृक्षारोपण करके प्रकृति को वापस लौटाओ नहीं तो परमात्मा तुम्हें कहेंगे कि बेटा तुमने श्वासों के रूप में जितनी ऑक्सीजन ली थी तुमने वृक्ष लगाकर उतनी ऑक्सीजन तो नहीं लाटाई। अतः अब जाओ, अपना हिसाब-किताब बराबर करके आओ! तुम पेड़ बन जाओ और जितनी ऑक्सीजन तुमने प्रकृति से ली थी उतनी वापस लौटा कर आओ!
तीर्थ
46‐ जिससे जीव दुःख सागर से तर जाए उसे तीर्थ कहते हैं। माता-पिता, गुरु व विद्वान् यो गी पुरुषों की सेवा व सत्संग, धर्म का अनुष्ठान एवं समस्त पुण्य-कर्म तीर्थ हैं।
दुःख का कारण
47‐ जो तुम्हारे पास में होता है वही तुम दूस रों को बांटते हो ओर जो तुम दूसरां को देते हो वही तुम्हें वापस मिलता है यदि तुम्हारे पास प्रेम, करुणा, वात्सल्य, प्रसन्नता या खुशियाँ हों तो तुम दूसरों को भी यही बांटोगे और दूसरों से भी यही पाओगे। और यदि क्रोध व घृणा से भरे हुए हो, तो जो बाँटोगे, वही तो पाओगे। जो बोअो गे, वही काटोगे। हम बोते हैं बबूल और परिणाम में काँटों के बदले फूल चाहते हैं, जोकि मिलते नहीं हैं और यही हमारे दुःख का कारण है।
दुःख का अन्त
48‐ हम स्वयं ही अपने सुख-दुःख के कारण हैं। यह सत्य जिस दिन हम समझ लेते हैं। उस दिन जीवन के दुःख मिट जाते हैं। यदि तुम मुस्कुराते हो तो दुनि या मुस्कुराती है, आैर यदि तुम मायूस, उदास, हताश व नि राश होते हो तो दुनि या तुम्हें उदास सी दिखने लगती है।
49‐ सुख बाहर से नहीं, भीतर से आता है। जब तुम पूर्ण मौन सुषुप्ति या एकाग्र अवस्था में होते हो तब सुख प्रकट होता है। भीतर से उतरता है। हम प्र त्येक विषय में, धर्म, ईश्व र, सत्य, सन्त, जीवन, कर्म, कर्त्तव् य, अकर्त्तव्य , पिंड एवं समग्र ब्रह्माण्ड के प्रति अपने संचित , श्रुत , दृष्ट , अनुमानित ज्ञान के आधार पर आग्रह निर्मित कर लेते हैं।
50‐ जीवन के क्षेत्र में क्षितिज तक वे ही पहुँचते हैं जो आग्रह नहीं रखते। आग्रह हमे तोड़ते हैं। आग्रह अहं का मिथ्या भ्रम पैदा करते हैं, आग्रह हमें कुण्ठित एवं सकीर्ण बना देते हैं। आग्रह के टूटने पर सत्य का द्वार अनावृत होता है। अकेला ज्ञान, मात्र अहं की अभिव्यक्ति देगा। केवल ज्ञान मरुभूमि की तरह जीवन में रूखापन, मिथ्या दंभ एवं कृत्रिम या काल्पनिक व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है। अतः ज्ञान की परिपूर्णता है:कर्म। बिना कर्म, केवल ज्ञान से भक्ति एक बन्धन एवं ज्ञान के बिना भक्ति एक आडम्बर बन जाती है। अतः विवेकपूर्वक कार्य करते हुए ही हम समाधि या मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।
52‐ ज्ञान से सम्यक् दृष्टि मिलती है, दृष्टि पाकर उसका उपयोग कर्म एवं भक्ति में होना ही चाहिए। हर समय प्रतिपल उत्साह, ऊर्जा व आत्मविश्वास से भरा हुआ जीवन जीओ!
53‐ भगवान् ने महान् कार्य करने के लिए तुम्हारा सृजन किया है। सा माजिक, नैतिक मूल्य, सत्य, अहिंसा, मानवता, संवेदनशीलता, चारित्रिक शुचिता एवं सहिष्णुता से विश्वकल्याण हो गा, दुनि या सुखी होगी, इससे पहले यह भी मत भूलो कि यदि तुमने इन नैतिक मूल्यों में आस्था व नि ष्ठा नहीं रखी तो तुम वैयक्तिक जीवन में कभी सुखी नहीं रह सकते हो।
उद्योग
54‐ उद्योग माँ भारती के विकास के ऐसे मन्दिर हैं जहां कर्मचारी रूपी पुजा री अपने कर्म (कामद्ध पुरुषार्थ रूपी पूजा से माँ भारती की वन्दना करते हैं आैर देश को समृद्ध व शक्तिशाली बनाते हैं। यदि हम भारत को विश्व की महाशक्ति और वैभवशाली बनाना चाहते हैं, तो कारखानों, उद्यो गों व संस्थानों को हमें मन्दिर जैसा सम्मान देना होगा। जैसे मन्दिर में एक दिन भी हड़ताल नहीं होती और नित्य प्रति मन्दिर के पट खुलते हैं, वैसे ही कारखानों, उद्योग मन्दिरों मे हड़ताल नहीं होनी चाहिए। कारखानों की हड़ताल को हमें देशद्रोह जैसे अपराध की तरह देखना चाहिए।
मनुष्य
55‐ जो मननशील होकर कार्य करे वही मनुष्य है। ”मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्“ (अथर्ववेद 8‐1‐6)।
उपहार
56‐ उपहार में दी जाने वाली वस्तुओं की अपेक्षा उपहार में दि या जाने वाला प् यार, विचार, भावना व शक्ति बहुत अधिक मूल्यवान व महत्वपूर्ण होती हैं। अहंकार एवं आलस्य
57‐ अहंकार से बड़ा कोइ र् शत्रु नहीं और आलस्य से बड़ा कोई अपराध नहीं। मात्र पाप करना ही अपराध नहीं होता। पुण्य न करना भी तो अपराध की श्रेणी में ही आता है। आलसी व्यक्ति क्योंकि कोई पुण् य कर्म नहीं कर रहा है इसलिए वह अपराधी है। पाप, अन्याय व अधर्म का विरोध न करना भी अपराध है। इसी तरह यदि आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो आप स्वयं एक समस्या है।
संशय
58‐ बल का दुरुपयो ग, ज्ञान का अनादर तथा विश्वास में सं शय नहीं करना चाहिए। जीवन में संशय कम्प्यूटर के वायरस की तरह होता है। ” संशयात्मा विनश्यति“ (गीता)।
सच्ची विरासत
59‐ अपने बच्चों को कितनी सम्पत्ति दी, यह महत्वपूर्ण नहीं अपितु संस्का रों की वि रासत कितनी दी, यह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि संस्का रों की नींव पर ही जीवन की इमारत व संसा र का सा म्राज्य खड़ा होता है।
विकास के मायने
60‐ विकास का अर्थ यह नहीं कि एक समृद्ध व्यक्ति ने कितनी और अधिक सम्पत्ति अर्जित कर ली है अपितु विकास का सही अर्थ यह होना चाहिए कि देश व दुनि या के अंतिम आम आदमी को शक्षा, चिकित्सा, सामाजिक न् याय व सम्मान हम कितना दे पा रहे हैं।
वर्तमान की महत्ता
61‐ अपने सम्पूर्ण ज्ञान, बल, ऊर्जा, पराक्रम व स्वा भमान के साथ स्वधर्म या स्वकर्म को पूर्ण प्रयत्न से करना पुरुषार्थ कहलाता है। पुरुषार्थ प्रारब्ध अर्थात् भाग्य से बलवान् है। क्योंकि पुरुषा र्थ से ही प्रा रब्ध बनता है। इस क्षण का पुरुषार्थ (परिश्रम) अगले ही क्षण का भाग्य तय करता है। यह सत्य है कि जीवन्तता तो केवल वर्तमान में है, भूत व्यतीत हो चुका है। वह अस्तित्व खो चुका है, सत्ताविहीन हो चुका है। जो अभी आया नहीं है वह भविष्य है, भविष्य कभी आता ही नहीं है। इसीलिए वह अनागत् कहलाता है। जो आ गया वह तो वर्तमान हो जाता है। अतः सत्ता केवल वर्तमान की है और वर्तमान ही भूत एवं भविष्यत् का नि र्माता है। वर्तमान में जीना ही योग है।
चार आश्रम
62‐ जीवन में क्रमशः उन्नति के सोपान:ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चार आश्रम हैं। अवस्थाएँ
63‐ जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति:ये तीन अवस्थाएँ हैं।
64‐ जब मन इन्द्रियों द्वारा कार्य कर रहा होता है, वह जागृत अवस्था होती है। जब शयन समय में इन्द्रियों का कार्य बन्द होने पर मन कार्य कर रहा होता है, वह स्वप्न अवस्था है। और जब समस्त इन्द्रियाँ व मन कार्य करना बन्द कर देते हैं, केवल प्राण चलते हैं, तब वह अवस्था सुषु प्त अवस्था होती है।
संतुलन
65‐ अर्थ ही सब कुछ नहीं होता है परन्तु यह भी सत्य है कि अर्थ से ही सार्थकता आती है। बिना अर्थ के सब अनर्थ व व्यर्थ हो जाता है और अधिक अर्थ भी अनर्थ कराता है। अतः संतुलन ही जगत् व जीवन का शाश्वत सिद्धान्त है।
66‐ संतुलन ही स्वास्थ्य है। भौतिक एवं भावनात्मक असंतुलन, अनि यन्त्रण, अनि यमितता व विषमता से ही सब रो गों का जन्म होता है।
प्रशासक
67‐ जो स्वयं अनुशासन में जीता हो वही सच्चा अनुशास्ता, आचार्य, प्रशासक या नेता हो सकता है।
68‐ फूल से अधिक कोमल स्वभाव एवं वज्र से अधिक कठोर अनुशासन व दृढ़ता वाली प्रड्डति के लोग ही सच्चे अनुशास्ता, प्रशासक या नेता हो सकते हैं।
यौन-शिक्षा नहीं, योग-शिक्षा
69‐ युवाओं या विद्यार्थियों का चरित्र नि र्माण यौन-ि शक्षा से नहीं योग-शिक्षा से होगा। दुर्भाग्य से कुछ चरित्रहीन राजनेता नहीं चाहते कि देश के लोग योग-शिक्षा से चरित्रवान बनें, उनको भय है कि चरित्रवान देश बनने से चरित्रहीन लोग सत्तावि हीन हो जायेंगे। अतः वे यौन शि्ाक्षा की वकालत करके देश को गर्त में ले जाना चाहते हैं।
सांस्कृतिक बोध
70‐ अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय: ये पंचकोष हैं।
71‐ पंचभूतात्मक, सप्तधात्वात्मक व त्रिदोषात्मक स्थूल दृश्य का अस्तित्व:यह अन्नमयकोष है।
72‐ प्राण-अपान-समान, उदान और व्यान-ये पांच प्राण हैं एवं नाग, कूर्म, कृंकल, देवदत्त व धनन्जय-ये पांच उपप्राण हैं। यह प्राणमय कोष है।
73‐ मन, अहंकार और पांच कर्मेन्द्रियाँ वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (गुदा) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय): यह सात तत्त्वों का समुदाय मनोमय कोष है।
74‐ बुद्धि, चित्त एवं पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ख्श्रोत्र, नेत्र, त्वचा, रसना व प्राण (नासिका), : ये सात तत्त्वों का समुदाय विज्ञानमय कोष है।
75‐ जिसमें ज्योतिर्मय, तेजोमय, शान्तिमय व आनन्दमय आत्मा की जो अनुभूति हो वह सत्वगुणमय कारण रूप प्रकृति है, यह आनन्दमय कोष है।
76‐ प्राचीन ऐत रेय, शतपथ-ब्रह्मणादि ग्रन्थ ऋषि-मुनियों द्वारा लिखित पुस्तकें हैं, उन्हीं को पुराण, इति हास, कल्प, गाथा और नाराशंसी कहते हैं।
भक्त एवं संकट
81‐ यह भी परम सत्य है कि वह करुणामय दयालु प्रभु, अपने भक्त को अपने से बहुत दूर विपदा, संकट, दैन्य, अभावों और यातनाओं के बीहड़ कंटकाकीर्ण जंगलों में फेंकते हैं ताकि उसको छटपटाहट, व्याकुलता और मिलन की भूख लगे और हर घटक का रज लेते-लेते अन्त में नेति-नेति से प्रभु की ओर आए और उसके प्रेमामृत का पान करे।
सफलता के सूत्र
82‐ अहंकार से बड़ा शत्रु नहीं, आलस्य से बड़ा अपराध नहीं।
आत्मानं रथिनं वि द्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सा रथिं वि द्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आ त्मेन्द्रिय मनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः॥ (कठोपनिषद्)
शरीर रूपी रथ में आत्मा रथी है, बुद्धि सा रथी व मन की लगाम है। इन्द्रिय रूपी घोड़े, विषय रूपी पथों पर दौड़े जा रहे हैं। इन्द्रियों एवं मन की सहायता से आत्मा-भोग कर रहा है। जो प्रज्ञावान होकर मन रूपी लगाम का कसकर रखते हैं और इन्द्रियों के विषय-भोग-वासनाओं रूपी कुपथों से बचकर सत्य, संयम व सदाचार रूपी योग मार्ग पर चलते हैं, वे ही अपनी मंजिल पाते हैं।
83‐ रसना व वासना पर उपासना द्वारा विजय प्राप्त करना। जो बात का सच्चा व लं गोटी का पक्का होता है, उसको दुनि या की कोई भी ताकत हरा नहीं सकती।
84‐ बड़ी सोच, कड़ी मेहनत व पक्का इरादा:ये तीन सफलता के सूत्र हैं।
सुखी जीवन
85‐ जीवन का लक्ष्य भोग-विलास, जुआ, तम्बाकू, शराब, मांस, सैर-सपाटा एवं मनोरंजन नहीं है। सेवा से दूस रों को तृप्ति , सुख व संतुष्टि दे पाएं एवं साधना से स्व यं तृप्त, सुखी एवं पूर्ण संतुष्टि को उपलब्ध कर पाएं, इसके लिए ही यह जीवन है।
86‐ जीने के लिए दो गज जमीन, तन ढकने के लिऐ दो वस्त्र एवं भूख मिटाने के लिए दो रोटी तो सबको मिल ही जाती है। तृष्ण किसी भी व्यक्ति की कभी भी तृप्त नहीं होती। अतः वेद भगवान् कहते हैं: तेन त्यक्तेन भु´जीथाः (यजुर्वेद 40‐1) त्यागपूर्वक भोग करो एवं कर्म करते हुए सौ वर्ष तक अनासक्त भाव से दुनि या में जिओ।
”कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः“। (यजुर्वेद 40‐2)
87‐ उद्यानं ते पुरुष नावयानम् (अथर्ववेद 8‐1‐6):हे मनुष्य! प्रभु ने तुझे ऊँचा उठने के लिए बनाया है नीचे गिरने के लिए नहीं।
लोकप्रियता
88‐ छोटों से स्ने ह, बड़ों का सत्का र, सबसे प्यार, सफलता का श्रेय समूह को देने का स्व भाव, सदा प्रसन्नता व सकारात्मक सोच के व्यक्ति लाकप्रियता के शिखर पर पहुँचते हैं।
पुण्य
89‐ व्यष्टि और समष्टि का हित करना पुण्य, और अहित करना पाप है।
त्याग
90‐ त्याग का अर्थ है:सीमाओं को लांघकर असीम अनन्त व अपरिमित में प्रवे श पाना। त्याग का अर्थ छोड़ना नही, अपितु वि राट् को आत्मज्ञात करना है। शून्य में उतरकर ही सृजन एवं समाधान होता है। ध्यान से ही शून्य जैसी चैतन्यपूर्णि स्थति मे प्रवेश पाते हो।
91‐ अज्ञात में उतरकर ही ज्ञात के द्वार खुलते हैं। निवि र्चार स्थिति में पहुँचने पर ही दि व्य विचार का प्रादुर्भाव होता है।
92‐ गुणों के प्रति-प्रसव होने पर व्यक्ति को बाह्य-आकर्षण , आकर्षित नहीं कर पाते, व्यक्ति जीवन मुक्त हो जाता है।
93‐ परिवर्तन के लिए समय की नहीं, संकल्प की आवश्यकता होती है। एक क्षण के पवि त्र संकल्प या विचार से दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति भी परिवर्तित होकर सज्जन बन जाता है।
सफलता
74‐ जन्म से कोई व्यक्ति महान् नहीं होता, न ही जन्म से कोई ऊँ चा या नीचा होता है। भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था भी जन्म से नहीं, कर्म से मानी गयी है। कर्म व्यक्ति को महान् बनाता है सतत् सं घर्ष, शार्य, धैर्य, साहस, पुरुषार्थ व पराक्रम के साथ प्राणार्पण से स्वधर्म का निर्वहन करने वाला व्यक्ति जीवन में सफलता के शखर पर अवश्य पहुँचता है। सत्य एवं कर्म की सातत्यता ही सफलता है। कर्म का अखण्ड प्रवाह ही सफलता है।
प्रमाण
95‐ श्रोत्रनेत्रादि इन्द्रियों और मन का विषय के साथ सम्बन् ध से जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष, धुंआ आदि को देखकर अग्नि आदि का जो ज्ञान होता है, वह अनुमान , जो सादृश्य रूप है उपमा, जैसे गाय के समतुल्य (जैसी) नील गाय होती है, ऐसे ज्ञान को उपमान, पूर्ण आप्त पुरुष और परमेश्वर अर्थात् श्रोत्रिय ब्रह्मनि ष्ठ योगी पुरुषों का जो सत्य उपदेश होता है उसे ‘शब्द’ प्रमाण कहते हैं। जो शब्द प्रमाण के अनुकूल, असत्य रहित यथार्थ पर आधारित इति हास है उसे ऐतिह्य कहते हैं। एक बात के कहने से दूसरी बात को बिना कहे समझना-उसे अर्थापत्ति कहते हैं। जो बात प्रमाण, युक्ति और सृष्टिक्रम से युक्त हो उसे सम्भव कहते हैं। अभाव के नि मित्त से जो ज्ञान होता है, उसे ‘अ भाव’ कहते हैं। जैसे किसी ने किसी से कहा कि जल ले आओ। लाने वाले व्यक्ति ने देखा कि जल यहां तो नहीं है परन्तु जहां जल है वहां से ले आना चाहिए। इस बोध को ‘अभाव’ प्रमाण कहते हैं।
आस्तिकता
96‐ अस्तित्व के प्रति आस्था व विश्वास ही आस्तिकता है। प्रत्यक्ष में परोक्ष का दर्शन , अणु में महत् का दर्शन व बीज में वृक्ष का दर्शन करो। जो वामन है, वही विष्णु या वि राट् है।
भाग्य
97‐ जैसे एक मूर्तिकार पाषाण से प्रति मा बनाता है वैसे ही हम अपने भाग्य के स्वयं नि र्माता हैं।
आह्वान
98‐ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबाधत। (कठोपनि षद 3‐14) उठो! जा गो! साहस, शौर्य, विवेक, पराक्रम व पुरुषार्थ के साथ अपने ध्येय की ओर आगे बढ़ो! तुम्हारा लक्ष्य तुम्हें पुका र रहा है, उसे प्राप्त करो!
99‐ अभी करो, अभी पाओ, स्वयं करो, स्वयं पाओ। अभी नहीं तो कभी नहीं। ”कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयं“ करना है या मरना है। कट सकते हैं, हट नहीं सकते। वेद भगवान् उपदेश दे रहे हैं।
न मरिष्यति न मरिष् यति मा बि भेः।
न वै तत्र मृयन्ते नो यन्ध्न्तमः॥
सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्व : पुरुष : पशुः॥
यत्रेदं ब्रह्म क्रियते पि रधिर्जीवनायकम्॥ (अथर्ववेद 8‐2‐24-25)
तू मरेगा नहीं डर मत। जो डरता सो मरता है। जो नहीं डरता वह नहीं मरता। ब्रह्म की शक्ति को सुरक्षा कवच बनाओ, दुनि या की कोइ र् भी शक्ति तुम्हें परास्त नहीं कर पायेगी।
समर्पण
100‐ अहंकार का विसर्जन ही समर्पण है। अहं की ही विकृति है: ईर्ष्या, द्वेष घृणा, कटुता, तृष्ण, गुस्सा (क्रोध ) अतः सदा साक्षी भाव में जीवन जीना।
101‐ कभी भी स्वयं को मालिक नहीं मानो, हम सब भगवान् के ट्रस्ट के ट्रस्टी हैं, क्लेशों की पूर्ण समाप्ति ही भगवान् की प्राप्ति है।
शिष्य का संकल्प
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥ (गीता 18‐73)
हे गुरुदेव! आपका पावन सान्निध्य पाकर मेरा मोह नष्ट हो गया है। मैं अपने आत्मस्वरूप को उपलब्ध हो गया हूँ। आपकी कृपा के प्रसाद से मेरे समस्त अज्ञान, मोह व भ्रम टूट गए हैं और मुझे बोध हो गया है कि मैं अजर, अमर, नि त्य, अविनाशी, अविकारी, ज्योतिर्मय, तेजामय, शान्तिमय आत्मा हूँ। अब मैं अपने स्वरूप में स्थित हो गया हूँ, और अपने स्वरूप में तेरा प्रतिरूप देख रहा हूँ। हे योगेश्वर! हे गुरुदेव! अब मैं आपके वचन का सन्देह रहित होकर पूर्णरूप से पालन करूं गा।

वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय चिन्तन

1‐ दोहरा मापदण्ड छोड़, वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन करें पवित्र!
स्वार्थों की बलि चढ़ रहा चरित्र एवं स्वाभिमान
व्यक्ति के दोहरे मापदण्ड किसी भी समाज के उत्थान और विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं। आज हमारे वैयक्तिक व सामाजिक जीवन में वि रो धाभास अधिक दिखाई दे रहा है। भारतीय वैदिक परम्परा में ”यदंतर तद् बाह्य यद् बाह्य तदंतरम्“ के अनुसार हमारे बाह्य एवं आंतरिक जीवन में एकरूपता होती थी। दुर्भाग्य से आज धर्म एवं राजनीति के शीर्ष पर वि राजमान लो गों ने अपने कलंकित चरित्र को ढकने के लिए एक मिथ्या आलाप प्रार म्भ किया हुआ है कि हमारे सामाजिक जीवन को देखो, वैयक्तिक जीवन में झांकने का प्रयत्न व साहस न करो। लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शा स्त्री व महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती व यो गी श्री अरविन्द आदि ऐसे महापुरुष थे, जिनका बाह्य व आतंरिक जीवन शुचितापूर्ण व नि ष्कलंक था। दुर्भाग्य से आज शीर्ष पर वि राजमान धर्मगुरुअों एवं राजनैतिक लोगों ने मर्यादाओं एवं परम्पराओं को शीर्षासन करा दि या है। पहले दे श के शीर्ष नेता शीर्षासन किया करते थे, इसलिए देश ठीक चलता था। आज नेताओं ने शीर्षासन बन्द कर दि या। अतः देश शीर्षासन किए हुए है। इसीलिए तो शिक्षा क्षेत्र में योग-शिक्षा की जगह यौन-शिक्षा की वकालत हो रही है।
वर्तमान में देश भर में लगभग चार हजार पाँच सा कम्पनि यां शून्य तकनीकी से बना सामान दे श के लो गों को बेच रही हैं और प्रतिवर्ष लगभग 90 हजार करोड़ रुपये इन कम्पनि यों के लाभ के रूप में दूसरे देश से निर्गत हो जाते हैं। पड़ोसी देश चीन में भी बहुराष्ट्रीय कम्पनि यां चीन की सरकार के अनुसार चलती हैं। वहाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनि यों को लाभ का अधिकां श भाग स्थानीय विकास में खर्च करना होता है और लाभ को देश से बाहर ले जाने के लिए वहाँ की सरकार की अनुमति लेनी होती है। जबकि भारत में ऐसा कोई प्रव धान नहीं है। मुँह में वन्देमातरम् तथा कर्म में फन्देमातरम्, यह पाखण्ड राष्ट्र के लिए घातक होगा। राष्ट्रीय चरित्र एवं स्वाभि मान आज मिटता जा रहा है। स्वार्थों एवं संकीर्णताओं में जकड़ा समाज, मूल्यों को रौंदता हुआ, न जाने कहाँ जाकर रुकना चाहता है। हर व्यक्ति अभिनय में जी रहा है। यह सच है कि अभिनय देखने में बहुत सुन्द र होता है, लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि जीना तो व्यक्ति को हकीकत में ही पड़ता है। प्रेम, राष्ट्रभक्ति, शक्ति, ज्ञान, सामर्थ्य, ध्यान, भक्ति, रूप, लावण्य, शुचिता एवं पारदर्शिता का अभिनय करता हुआ इन्सान सच से कहीं दूर होता जा रहा है। यह मानवीय संस्कृति के लिए खतरनाक है इससे किसी भी देश और समाज का भला नहीं हो सकता है।
सच्चे व्यक्ति अभिनय में अधिक निपुण नहीं होते। उतना ही यह भी सत्य है कि अभिनय को हकीकत नहीं माना जा सकता है। लेकिन हमारी स्वयं की आत्मा को सदा ही अभिनय एवं सच का अहसास रहता है। अतः पूरे विवेक एवं शक्ति के साथ हमें आडम्बर, पाखण्ड, अंधविश्वास का छोड़कर सत्य के प्रति आस्थावान होना हो गा, तब ही हमारे बाह्य एवं आन्तरिक व्यक्तित्व में एकरूपता आएगी।
2‐ धर्म का ऐसा स्वरूप बनायें कि दुनियाँ का हर इन्सान उसे अपना सवेक धर्म, भगवान और संवि धान से जुड़े कुछ प्रश्न हमें साचने के लिए बाध्य करते हैं। धर्म, भगवान और देश में नियम कानून एक तरह से मैत्री, करूणा, प्रेम, सद्भाव, सुख, शान्ति, समृद्धि को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका नि भाते हैं। दुर्भाग्य से अलग-अलग संप्रदायों का प्रतिनि धित्व करने वाले कुछ व्यक्ति सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए, धर्म के नाम पर भ्रम फैलाते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि धर्म कभी भी देश और दिलों को तोड़ने तथा नफरत फैलाने की अनुमति नहीं देता है।
फिर भी संकीर्णता के चलते वे धर्म का दुरूपयोग करते हैं। ऐसे व्यक्ति देश एवं समाज के लिए बहुत अधिक घातक हैं। यद्यपि आप्त-पुरुषों/ऋषि यों के प्रमाणों में संशय नहीं करना चाहिए। परन्तु सम्भव है कि धर्म वह नहीं हा जो कि धर्मगुरु, पण्डित, ग्रन्थी, मुल्ला-मोलवी या पादरी आदि द्वारा व्याख्या किया जा रहा हो, वह धर्म के नाम पर भ्रम या धोखा हो सकता है। इन तथाकथित धर्म गुरुओं के निजी स्वार्थ, आग्रह, अज्ञान या अंधकार तु म्हें सत्य से परिचित नहीं होने देंगे। और यदि तुम स्वयं भी आग्रह, स्वार्थ, अहंकार या अज्ञान के वशीभूत होकर धर्म की व्याख्या करने लगते हो तो तुम भी सत्य से पि रचित नहीं हो पाओगे। अतः आग्रह रहित होकर ज्ञान-विज्ञान एवं आत्मज्ञान के आलोक में धर्म, सत्य एवं शुभ की तलाश करो। बाहर के सब गुरु व शास्त्र तु म्हें परावलम्बी बनाते हैं। अतः हमा रे तत्वदृष्टा ऋषि कहते हैं कि तुम स्वयं गुरु बनो। धर्म, सत्य एवं परमात्मा की तलाश भीतर से करो।
देश की आजादी के समय कुछ विद्वानों ने कई देशां के संवि धान का अध्ययन किया। ”फूट डालो आैर राज करो“ की नीति पर शासन करने वाले अंग्रेजों द्वारा निर्मित एवं अंग्रेजी शासन को बनाये रखने के लिए अंग्रेजों के जमाने में लागू कई कानून , भारतीय संवि धान में ज्यों के त्यों शामिल कर लिए गए। वर्तमान परिसि् थति यों में धर्म और संविधान से जुड़े कुछ कानूनों व उनके कुछ पहलुओं पर सकारात्मक दृष्टि के साथ संवाद होने की आवश्यकता है। यह ध्यान रखा जाए कि किसी की धा र्मक भावनाएं और आस्थाएं आहत न हों।
जातिवाद, उग्रवाद और मजहब के नाम पर वि भाजन को टालने के लिए, उपाय किए जाने चाहिए। इस समय कई ज्वलन्त मुद्दों और सवालों के समाधान की जरूरत है। प्राचीनकाल में जब कोई धा र्मक पुस्तक नहीं रही होगी, तब क्या अधर्म का सा म्राज्य था? हजा रों साल पहले धरती पर न तो कोई मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और न कोई गिरजा घर ही था। सब लोग खुले आसमान के नीचे ईश्वर की आराधना करते थे। प्रश्न है क्या उस समय लोग सुखी थे या आज मंदिरों, मस्जिदों में अराधना करके सुखी हैं?
पूरी दुनि याँ में विज्ञान की व् याख्याएं और परि भाषाएं एक समान हैं। धर्म भी जीवन का एक विज्ञान है। इसकी व्याख्या और परि भाषा एक जैसी क्यों नहीं हो सकती है। धर्म के नाम पर गठित कुछ संस्थाएं भ्रामक प्रचार कर रही हैं। समाज में एकता, नैतिकता, अनुशासन और न्याय को बनाए रखने के लिए संवि धान व नियम-कायदों की जरूरत पड़ती है। इसी तरह हमारे आन्तरिक जीवन में सुख शांति व आनन्द के लिए धर्म की आवश्यकता है। हम हिन्दू , मुसलमान, ईसाई होने से पहले इन्सान हैं। जब हम पहले इन्सान हैं, तब क्या पूरे विश्व का संवि धान और धर्म एक समान नहीं हो सकता है। क्या विश्व-शांति के लिए प्रबुद्ध व्यक्ति, समान नागरिक-संहिता और संवि धान तय नहीं कर सकते हैं? सभी महिलाओं को एक समान अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए? देश के संद र्भ में जाति और धर्म के आधार पर होने वाले आरक्षण पर भी गौर करना चाहिए। दरअसल, अब समय आ गया है कि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों, संसद और विधानसभाओं की छाँव से दूर खुले आसमान तले सभी नेक और विद्वान-व्यक्ति-धर्म व संवि धान की व्याख्या करें। स्वार्थ, संकीर्णता और रूढ़िवादी दुराग्रहों को त्यागकर, मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं के आधार पर, धर्म व संविधान की वैज्ञानिक व् याख्या की जाए। धर्म और संवि धान का ऐसा स्वरूप बनाया जाए कि हर देश और हर इन्सान उसे अपना सके। धर्म जोड़ने के लिए है, शान्ति व अहिंसा के लिए है, वह तोड़ने का, अशान्ति व हिंसा फैलाने का हथियार न बने।
3‐ ईश्वर की सत्ता का आनन्द समाधि में ज्ञान की चरम सीमा में छिपा जीवन की पूर्णता और मोक्ष का रास्ता आनन्दमय, ज्योति र्मय व शान्तिमय परमेश्वर का ध्यान करता हुआ साधक ओंकार-ब्रह्म-परमेश्वर में इतना तल्लीन, तन्मय सा हो जाता है कि वह स्वयं को भी भूल जाता है, मात्र भगवान् के दि व्य आनन्द का अनुभव होने लगता है, यही स्वरूप शून्यता है। मृत्युंजयी महानयो गी महर्षि दयानन्द जी महा राज कहते हैं कि ध् यान करने वाला, जिस मन से, जिस चीज का ध्यान करता है, वे तीनों विद्यमान रहते हैं। परन्तु समाधि में केवल परमेश्वर के आनन्दमय, शांतिमय, ज्याति र्मय स्वरूप व दि व्य-ज्ञान-आलोक में आत्मा निमग्न हो जाती है, वहाँ तीनों का भेदभाव नहीं रहता। जैसे मनुष्य, जल में डुबकी लगाकर थोड़ा समय भीतर ही भीतर रहता है, वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के आनन्द में मग्न होकर समाधि का आनन्द लेता है। इसी बात को ऋषि दूसरे शब्दों में यूं भी कहते हैं कि जैसे अग्नि के बीच लो हा डालने पर, वह लोहा भी अग्नि रूप हो जाता है, इसी प्रकार परमेश्वर के दि व्य-ज्ञान-आलोक में, आत्मा के प्रकाशमय होकर, अपने शरीर आदि को भी भूले हुए के समान जानकर, स्वयं को परमेश्वर के प्रका श स्वरूप आनन्द और पूर्ण ज्ञान में परिपूर्ण करने को समाधि कहते हैं।
श्री भोज महाराज समाधि का अर्थ इस प्रका र करते हैं:
”सम्यगाधीयते एकाग्री क्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र स समाधि :“। (भोजवृत्तिः विभूति पाद 3‐3)
जिसमें मन को विक्षेपों से हटाकर, यथार्थता से धारण किया जाता है अर्थात् एकाग्र कि या जाता है, वह समाधि है। योगद र्शन के प्रथम पाद में वर्णित ”सवितर्क समापत्ति “ को ध्यान की एक-एक अवस्था समझना चाहिए क्योंकि उसमें शब्द, अर्थ एवं ज्ञान के विकल्प होते हैं आैर निर्वितर्क समापत्ति को समाधि की अवस्था समझनी चाहिए। यह सम्प्रज्ञात समाधि उन्नत अवस्था में ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में, साधक को भगवत्-प्रसाद के रूप में प्राप्त होती है। इसके बाद समाधि की उन्नत श्रेणी है:निर्बीज समाधि। इस स्थिति में संसार के विषय-भोग-वासनाओं के चित्त में संस्कार के विषय रहते, ‘उन संस्कारों’ के बीज सहित नाश होने पर सब वृत्ति यों का पूर्ण नि रोध हो जाता है। फिर भव-बंधन में गिरने की संभावना भी नष्ट हो जाती है, उसे निर्बीज समाधि कहते हैं। यह योग की अथवा जीवन की पूर्णता है। ज्ञान की पराकाष्ठा (चरम सी मा) ही वैराग्य है। समाधि द्वारा ज्ञान के इस उच्चतम क्षितिज की प्राप्ति होने पर, मोक्ष अवश्यंभावी है, जिसे पाकर यो गी इस प्रकार अनुभव करता है कि प्राप्त करने योग्य सब कुछ पा लिया, क्षीण करने योग्य अविद्यादि क्लेश (अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनि वेश) नष्ट हो गए हैं। ऐसा भवसंक्र मण (एक देह से दूसरे देह की प्राप्ति रूप संसा र का आवागमन) छिन्न-भिन्न हो गया है।
4‐ अध्यात्म से ही सभी समस्याओं का समाधान आत्मज्ञान पाने वाले व्यक्ति भ्रष्टाचार, धार्मिक उन्माद और अपराध से दूर रहते हैं महर्षि पतंजलि का योग, मन के पार जाकर प्रा रम्भ होता है। मन से परे चेतना का वास्तविक अस्तित्व प्रार म्भ होता है और मन से ऊपर उठने पर ही हमारे व्यक्तित्त्व में दिव्यता, समग्रता व व्यापकता आती है। मन में होते हैं आग्रह, मन में होती हैं भूत की अस्तित्त्व वि हीन व्यथाएं और भविष्य की अनगिनत कल्पनाएं। हम ज्ञात में जीना चाहते हैं, अज्ञात से भय भीत रहते हैं। इसीलिए हम कुछ नया करने का साहस नहीं जुटा पाते:क्योंकि अज्ञात गूढ़ है, रहस्यमय है, अनावृत्त है। यह सत्य है कि दुनि या को उन्हीं लो गों ने कुछ नया दि या और वे ही व्यक्ति कुछ नया कर पाते हैं जो साहस करके एक बार अज्ञात में छलांग लगाना जानते हैं। वहाँ रहस्य खुलें गे, अनुसं धान हों गे, भ्रम, भय व भ्रान्ति मिटेगी। मन में स्वार्थ एवं संकीर्णता है, मन में सीमाएं एवं बंधन हैं। वि राट, असीम, अनंत को आत्मसात करने के लिए आपको चैतन्यभाव में उतरना ही पड़ेगा।
हमने जीवन के केंद्र बाहर बना लिए। मैं यानि भूमि, भवन, रूपया, सम्पत्ति, सत्ता, पद, यौवन अर्थात् बाह्य संपत्ति जोड़ने की इच्छा, यहीं से शुरू हो जाती है जीवन के पतन की यात्रा, क्योंकि व्यक्ति अपना अस्तित्व एवं व्यक्तित्व बाहर मान चुका है। इसलिए वह जीवन में बड़े या सुखी होने के मानदंड भी बाहर ही निर्मित कर लेता है। पहले व्यक्ति बड़ा माना जाता था:व्यापक दृष्टि, तप, त्याग, संयम, संघर्ष एवं जीवन मूल्यों में शुचिता के कारण। आज बड़प्पन का मापदण्ड बाहरी वैभव मात्र बनकर रह गया है। अतः व्यक्ति अर्थ का सं ग्र्रह करके, उसी के विकास को जीवन का अंति म सत्य मान लेता है और फिर अन्त समय पश्चाताप भी करता है कि जीवन में मैंने जो कुछ पाया वह सब जबरन मुझसे छूट रहा है। जिस धन, पद, और सत्ता को पाने के लिए मैंने रातों की नींद और दिनों का चैन गंवा या वह सब कुछ न चाहते हुए भी, आज ‘मृत्यु’ के समय मुझे छोड़ना पड़ रहा है।
तत्त्व ‘ज्ञानी’ कहते हैं कि दुःख मृत्यु का नहीं, अपितु सब कुछ छूटने का है और अज्ञात अर्थात् मृत्यु के बाद मैं कहाँ जाऊँगा इस बात का दुःख है। भारत के मनीषियों के चिंतन और मनन का मुख्य बिंदु जीवन और मृत्यु ही है। आज हम केवल जीवन को, केन्द्र बनाकर सोच रहे हैं। विकास एवं विज्ञान की समस्त अवधारणाएं केवल मात्र जीवन पर केंद्रित हैं। मृत्यु से व्यक्ति भय भीत रहता है इसलिए वह मौत के सम्बन्ध में सोचने के लिए ही तैयार नहीं हैं। हमारा विरोध भौतिकवाद, विज्ञान या विकास से कभी नहीं रहा। लेकिन यह भी सत्य है कि हमने जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मबोध ही रखा। भौतिकता एवं आ ध्यात्मिकता वेळ समन्वय के बिना स्व स्थ, समृद्ध एवं सुख्ा संसार की कल्पना स्वप्न ही रहेगी।
एक पूर्ण आध्यात्मिक व्यक्ति भ्रष्टाचार, अपराध, जाति वाद एवं धार्मिक उन्माद से मुक्त रह सकता है। शरीर एवं मन से परे जिसने अपने सच्चे ‘मैं’ की पहचान कर ली है और अपने ‘मैं’ का विस्तार स्वयं देख लिया है। वह दूसरों को धोखा नहीं दे सकता। वह राष्ट्र के साथ गद्दा री नहीं कर सकता:वह रिश्वतखोरी, चो री, डकैती, हत्या, अपराध जैसी वारदातों में सहभागी नहीं हो सकता। अध्यात्मवाद ही व्यक्ति एवं देश की ज्वलंत समस्याओं का समाधान है।
5‐ स्वार्थां के आधार पर हो रही धर्म की व्याख्या
माक्ष एवं स्वर्ग की कामना छोड़, कर्म करें!
देश की वर्तमान राजनैतिक एवं धार्मिक सोच में सकारात्मक परिवर्तन की आवश्यकता है। राजनीति से जुड़ा व्यक्ति अपने आपको धम र्-निरपेक्ष कहने में गौरव का अनुभव करता है। लेकिन वह भूल जाता है कि कोई भी व्यक्ति, धर्म रहित हो ही नहीं सकता, धर्म मात्र, मठ, मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा जाने का ही नाम नहीं है। धर्म उन नियमों, मर्यादाओं एवं मूल्यों का नाम है:जिन पर चलकर व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र एवं वि श्व में सुख, शांति एवं समृद्धि आती है। अपने दायित्वों एवं कर्तव्यों का नि ष्ठापूर्वक निर्वहन धर्म है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ अलग-अलग धार्मिक एवं आध्यात्मिक आस्थाएं रखने वाले लागों को अपमानित करना या उन पर निरंकुश प्रहार करना भी नहीं है, या फिर किसी बहुसंख्यक समाज को गाली देकर किसी अल्पसंख्यक समाज का हितचिंतक या पोषक कहलाना भी नहीं है। यद्यपि भाषा विज्ञान की दृष्टि से धर्म निरपेक्ष शब्द अर्थविहीन है क्योंकि कोइ र् भी व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ धर्म सापेक्ष होता है, धर्म निरपेक्ष नहीं।
यह विडम्बना ही है कि हमने पूजा-पाठ की बाह्य प्रक्रिया को ही धर्म घो षित कर दि या आैर पू री दुनि याँ में आज धर्म के नाम पर भ्रम, पाखण्ड, नफरत, धर्म-परिवर्तन जैसे कार्य ही अधिकांश संचालित हो रहे हैं। यदि विश्व के इति हास पर दृष्टि डालें तो पता चलेगा, दुनि या में दो हजार साल पहले कोई मठ, मंदि र, मस्जिद या गिरजाघर नहीं था। लगभग दो हजार वर्ष से पूर्व यहाँ पुराण, कुरान या बाइबिल का ज्ञान नहीं था। पाँच हजार वर्ष पूर्व गीता का ज्ञान और ना लाख वर्ष पूर्व रामायण तक की पुस्तक नहीं थी तो क्या इससे पूर्व धर्म नहीं था? भारतीय संस्कृति का इति हास लाखों वर्ष पुराना है और तब भारत के मनीषियों ने जीवन मूल्यों को ही धर्म की संज्ञा दी थी।
महर्षि मनु ने मनुस्मृति में धैर्य, क्षमा, संय म, शुचिता, इंद्रिय-निग्रह, विद्या, सत्य व अक्रोध को धर्म कहा है। अहिंसा, सत्य, समता, संतोष एवं विश्वव्यापी बन्धुत्व को भुलाकर बाह्य कर्मकांड को ही हम धर्म मान बैठे हैं। जैसे धर्म-निरपेक्ष शब्द अर्थविहीन है वैसे ही धर्म-परिवर्तन शब्द भी अर्थ वि हीन है क्योंकि जब सत्य, अहिंसा, त्याग, प्रेम, सौहार्द, सहिष्णुता, सेवा व परोपकार धर्म हैं तो फिर क्या अर्थ है धर्म-परिवर्तन का? यदि धर्म-परिवर्तन से जीवन मूल्यों का सरोकार नहीं हैं तो फिर धर्म-परिवर्तन क्यों? धर्म हमें स्वार्थ छोड़ परमार्थ करने के लिए प्रेरित करता है फिर धर्म के नाम पर आरक्षण का स्वा र्थ एवं भेदभाव का व्यवहार क्यों? धर्म के नाम पर षड् यंत्र एवं विवाद देश की प्रगति में बाधा है। अतः देश की विविध धार्मिक आ स्थाओं का प्रतिनि धित्व करने वाले लो गों को भी चाहिए कि धर्म की व्याख्या स्वार्थों के आधार पर न करें। धर्म एवं जाति के नाम पर समाज का वि भाजन राष्ट्रीय-एकता एवं अखंडता के लिए खतरनाक है। दुर्भाग्य से दे श के संवि धान में धर्म, जाति एवं जनजाति के नाम पर जो व्यवस्थाएं दी गई हैं, राजनेताओं ने उनका दुरुपयोग कर समाज को वि भाजित ही किया है। हमें अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर, अपनी पहचान जाति यों, मजहबों एवं वर्गोर्ं के आ धार पर निर्मित नहीं करनी चाहिए। यद्यपि आप्त-पुरुषों/ऋषियों के प्रमाणों में सं शय नहीं करना चाहिए। परन्तु सम्भव है कि धर्म वह नहीं हो जो कि धर्मगुरु, पण्डित, ग्रन्थी, मुल्ला-मोलवी या पादरी आदि द्वारा व्याख्या कि या जा रहा हो, वह धर्म के नाम पर भ्रम या धोखा हो सकता है। इन तथाकथित धर्मगुरुओं के निजी स्वार्थ, आग्रह, अज्ञान या अंधकार तुम्हें सत्य से परिचित नहीं होने देंगे। और यदि तुम स्वयं भी आग्रह, स्वार्थ, अहंकार या अज्ञान के वशीभूत होकर धर्म की व्याख्या करने लगते हो तो तुम भी सत्य से परिचित नहीं हो पाओगे। अतः आग्रह रहित होकर ज्ञान-विज्ञान एवं आत्मज्ञान के आलोक में धर्म, सत्य एवं शुभ की तला श करो। बाहर के सब गुरु व शास्त्र तुम्हें परावलम्बी बनाते हैं। अतः हमारे तत्वदृष्टा ऋषि कहते हैं कि तुम स्वयं गुरु बनो। धर्म, सत्य एवं परमात्मा की तलाश भीतर से करो। भारतीयता हमा री पहचान, मानवता हमारा धर्म एवं मनुष्य हमारी जाति है। इस भाव से जीते हुए, अपने कर्म को ही हम पूजा मानें।
6‐ अष्टांग योग से ही होगी वास्तविक विश्व शान्ति की स्थापना
यह जीवन पद्धति-धर्म, मानवता और विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरती है संसा र के सभी व्यक्ति सुख व शांति चाहते हैं। विश्व के सम्पूर्ण राष्ट्र भी इस बात पर सहमत हैं कि विश्व में शान्ति स्थापित होनी चाहिए। प्रतिवर्ष इसी उद्देश्य से ही एक व्यक्ति को जो शान्ति स्थापित करने के लिए समर्पित होता है, नोबल शान्ति पुरस्का र प्रदान किया जाता है। वैसे, शान्ति कैसे स्थापित हो, इस बात को लेकर असमंजस की स्थिति भी दिखलाई देती है।
सभी लोग अपने-अपने वि वेक के अनुसार इसके लिए कुछ चिंतन करते हैं, परन्तु एक सर्वसम्मत मार्ग नहीं निकल पाता। कोई कहता है, जिस दिन इस धरती पर केवल अमुक धर्म होगा उस दिन सभी सुखी हो जाएंगे। कोई कहता है, यदि सब किसी भगवान् वि शेष (महापुरुष, अवतार या गुरु) की शरण में आ जाएं तो सर्वत्र सुख और शान्ति हो जाएगी। भारत में तो कई संप्रदायों, मत-पं थों एवं गुरुअों की भरमार है और सभी यह दावा करते हैं कि उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलकर ही विश्व में सुख और शांति सम्भव है। इन सब मत-पंथों एवं संप्रदायों में वह उदात्तता, व्यापकता व समग्रता नहीं है, जिससे कि मानव मात्र उनको अपना सके। इन सबकी अपनी-अपनी सीमाएं हैं।
दुनि या में तथाकथित धर्मों की एकछत्र स्थापना हेतु, खूनी संघर्ष भी हुए परन्तु परिणाम कुछ भी नहीं निकला। अशान्ति बढ़ती ही जा रही है। इसका अर्थ है दुनि या के लोग जिन उपा यों पर विचार कर रहे हैं, उनमें सा र्थकता तो है परन्तु परिपूर्णता, समग्रता व व्यापकता नहीं। इन प्रचलित मत-पंथों, संप्रदायों एवं तथाकथित धर्मोर्ं को अपनाने से जहाँ व्यक्ति को एक ओर थोड़ी शांति मिलती है, वहीं इन संप्रदायों के पचड़े में पड़कर व्यक्ति कुछ ऐसे झूठे अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं मिथ्या आग्रहों में फँस जाता है, जिनसे निकलना मुश्किल हो जाता है। क्या ऐसे कुछ नियम-मान्यताएं व मर्यादाएं हो सकती हैं, जिन पर पू री दुनि या के सभी व्यक्ति चल सकें? जिससे किसी भी व्यक्ति व राष्ट्र की एकता व अखंडता खंडित न होती हो और न ही किसी का व्यक्तिगत स्वार्थ सि द्ध होता हो, जिसको प्र त्येक व्यक्ति अपना सकता हो और जीवन में पूर्ण सुख, शान्ति व आनन्द प्राप्त कर सकता हो? एक ऐसा पथ जिस पर नि र्भय होकर पूर्ण स्वतंत्रता के साथ दुनि याँ का प्रत् येक इन्सान चल सकता है और जीवन में पूर्ण सुख, शान्ति व आनन्द को प्राप्त कर सकता है। यह है महर्षि पतंजलि प्रतिपादित अष्टांग योग का पथ। यह कोई मत-पंथ या संप्रदाय नहीं, अपितु जीवन जीने की सम्पूर्ण पद्धति है। यदि संसा र के लोग वास्तव में इस बात को लेकर गंभीर हैं कि विश्व में शांति स्थापित होनी ही चाहिए तो इसका एकमात्र समाधान है:अष्टांग योग का पालन। अष्टांग योग के द्वारा ही वैयक्तिक व सामाजिक समरसता, शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति एवं आत्मिक आनन्द की अनुभूति हो सकती है। अष्टांग योग धर्म, अध्या त्म, मानवता एवं विज्ञान की प्रत् येक कसौटी पर खरा उतरता है। इस दुनि याँ के खूनी संघर्ष को यदि किसी उपाय से रोका जा सकता है तो वह अष्टांग योग ही है। अष्टांग योग में जीवन के सामान्य व्यवहार से लेकर ध्यान एवं समाधि सहित, अध्या त्म की उच्चतम अवस्थाओं का अनुपम समावेश है।
7‐ मांसाहार से मानवीय संवेदनाओं का हनन
मांस खाने से दया, करुणा, प्रेम व अन्य सद्गुणों का विनाश
आहार के विषय में महर्षि चरक का एक दृष्टांत बहुत ही सुन्दर है कि एक बार महर्षि चरक ने अपने शिष् यों से पूछा,
कोऽरुक्, कोऽरुक्, कोऽरुक्,? कौन रोगी नहीं अर्थात् स्वस्थ कान है?
महर्षि के प्रबुद्ध शिष्य वागभट्ट ने उत्तर दिया-
”हित-भुक्, मित-भुक्, ऋत-भुक्।“ हितकारी भोजन करने वाला, उचित मात्रा में भोजन करने वाला एवं ऋतु के अनुकूल भोजन करने वाला व्यक्ति स्वस्थ है।
अपनी प्रकृति (वात, पित्त, कफ) को जानकर उसके अनुसा र भोजन लें। आहार से मनुष्य का स्वभाव और प्रकृति तय होती है। शाका हार से स्व भाव शांत रहता है। मांसा हार मनुष्य को उग्र बनाता है। यदि वात प्रकृति है या शरीर में वायु विकार होते हैं तो चावल आदि वायुकारक एवं खट्टे भोजनों का त्याग कर देना चाहिए एवं छोटी पि प्पली, सौंठ , अदरक आदि का प्रयोग करते रहना चाहिए। पित्त, प्रकृति वाले को गर्म, तले हुए, पदार्थ नहीं लेने चाहिए एवं घीया, खी रा, ककड़ी आदि कच्चा भोजन लाभदायक होता है। कफ प्रकृति वाले को ठंडी चीजें चावल, दही, छाछ आदि का सेवन अति मात्रा में नहीं करना चाहिए। ऋतु के अनुसा र पदार्थों का मेल करके सेवन करने से रोग पास में नहीं आते। भोजन का समय नि श्चित होना चाहिए। असमय किया हुआ भोजन अपचन करके रोग उत्पन्न करता है।
प्रातःकाल आठ से नौ बजे के बीच हल्का पेय व फलादि लेना अच्छा है। प्रातःकाल में अन्न का प्रयोग जितना कम हो शरीर के लिए उतना उत्तम है। पचास वर्ष से अधि्ाक आयु के व्यक्ति सुबह अन्न न खाएं, तो अच्छा है। मध्यान्ह में ग्यारह से बारह बजे भोजन लेना उत्तम है। बारह से एक बजे का समय मध्यम, उसके बाद उत्तरोत्त र निकृष्ट माना जाता हैं सायंकाल सात से आठ का समय उत्तम, आठ से नौ का समय मध्यम और नौ बजे के बाद उत्तरोत्तर निकृष्ट समय होता है। भोजन करते समय वार्तालाप करने से भोजन अच्छी तरह से चबाया नहीं जाता तथा अधिक भी खा लिया जाता है। चबा-चबा कर भोजन करना चाहिए। एक ग्रास को बत्तीस या कम से कम बीस बार तो चबाना ही चाहिए। चबाकर भोजन करने से, हिंसा भाव की भी निवृत्ति होती है। संस्कृत में एक श्लोक आता है। जिसका तात्प र्य है-‘जो प्रातःकाल उठकर जलपान करता है, रात्री को भोजन के बाद दूध पीता है तथा मध्याह्न में भोजन के बाद छाछ पीता है उसे वैद्य की आवश्यकता नहीं होती।’ भोजन में मांस, अंडे आदि का प्रयोग न करें। भगवान् ने हमें शाका हारी बनाया है। जब हम रोटी खाकर जी सकते हैं, जिसमें हिंसा नहीं, तो किसी प्राणी की हत्या करके, उसके प्रिय जीवन को समाप्त करके, जीने की क्या आवश्यकता है? इस जीने से तो मर जाना बेहतर है। मांस खाने से दया, करुणा, सहानुभूति, प्रेम, अपनत्व एवं श्रद्धाभक्ति आदि मानवीय गुणों का अन्त हो जाता है। मानव-दानव होकर विचरता है। मांसा हारी का पेट एक मुर्दाघाट की तरह होता है।
8‐ खुद एवं खुदा पर भरोसा करो!
शुभ एवं अशुभ हमारे मन के अन्दर है
शुभ क्या है? यह प्रश्न बार-बार हमारे सामने उपसि् थत हो समाधान चाहता है क्योंकि हर व्यक्ति अशुभ से भयभीत रहता है। हम बचपन से ही सुनते आए हैं कि अशुभ कर्म न करो, अशुभ से बचो। अशुभ से बचने के लिए हम पूजा-पाठ करते हैं और जीवन का कोई भी प्रमुख निर्णय लेने से पहले हम शुभ घड़ी, शुभलग्न, शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं। दिनों में शुभ-अशुभ की विवेचना होती है, ग्रहों में शुभ-अशुभ को खोजते हैं, दि शाओं में भी शुभ-अशुभ निर्मित कर लेते हैं। पाणिग्रहण, उपनयन, नामकरण आदि संस्का रों का प्रसंग हो या फिर वि शेष प्रस्थान का योग हम हर बार शुभ-अशुभ के प्रति आशंकित रहते हैं और हम निकल पड़ते हैं उन लो गों की तला श में जो ज्ञानी कहलाते हैं या फिर पढ़ने लगते हैं पं चागों के अन्दर अपना राशिफल, ग्रहों की दशा व दि शाओं में दोष एवं दि शा शूल आदि ढूंढने लगते हैं। मनुष्य सब जगह ठोकरें खाकर सब प्रकार का प्रयत्न करने के बाद भी जब धोखा खाता है तो नि राश और मायूस होकर भाग्य के भरोसे बैठ जाता है या फिर नास्तिक होकर रह जाता है, लेकिन क्या तुमने कभी यह सोचने का साहस किया कि शुभ क्या है? यह दूस रों से पूछने की बजाय तुम खुद से पुछा? शुभ क्या है? यह हम स्वयं से पूछें और बस एक क्षण के लिए मौन हो जाएं। समाधान अपने आप, भीतर से निकले गा। दूसरे लोग तुम्हें धाखा दे सकते हैं, पर तुम स्वयं को धोखा नहीं दे पाओगे। क्या दुनि या के तमाम मुल्कों में, भारत की तरह ही शुभ-अशुभ के मापदण्ड हैं? मैं कहूँगा, हमने व्यर्थ के भ्रम पाल रखे हैं। बिल्ली रास्ता काट गई तो अशुभ हो गया, छींक आ गई तो अशुभ हो गया! छींक आ गई तो क्या हुआ, यह तो शरीर की सामान्य प्रक्रिया है। इसमें अशुभ क्या है?
यह बात तो समझ में आती है कि जंगल के जीव जब तुम्हारे सामने से गुजरें तो तुम उन्हें जाने दो। तुम थोड़ी देर ठहर जाना, क्योंकि रास्ते पर चलने का उन्हें पहले अधिकार है, परन्तु उनके द्वारा रास्ता काटना अशुभ है, यह कैसी भ्रांति है? कुछ खाने-पीने से पहले भी हम सोचते हैं कि मांस, शराब आदि खाना-पीना मेरे लिए शुभ है या नहीं? जब भी तुम कोइ र् कार्य करते हो, बस थोड़ी देर मौन होकर स्वयं ही अपनी चेतना आत्मा से पूछ लेना और भीतर से जो भी आवाज उत्पन्न हो बस उसे ध्यान से सुनकर जैसा आदेश आए वैसा कर लेना, आपको कभी भी धोखा नहीं होगा। जब भी तुम कोइ र् अच्छा काम करने के लिए सोचते हो और भीतर एक आनन्द, उत्साह व प्रसन्नता का भाव होता है तो बस समझ लेना भीतर का गुरू, ज्योति ष, शास्त्र व परमात्मा तुम्हें उस कार्य को करने के लिए प्रेरित कर रहा है, वह तुम्हारे लिए शुभ है। जब भी तुम कुछ भी गलत करने जाते हो और भीतर से अपने आप भय पैदा हो और तुम आशंकित हो उठते हो, लज्जा, घृणा का भाव पैदा हो, तो समझ लेना यह तुम्हारे लिए अशुभ है। दि शाएं, दिन, घड़ी, मुहूर्त सब परमात्मा के बनाए हैं। ये सब शुभ हैं। दूसरों पर भरोसा करने के बजाय खुद व खुदा पर भरोसा करो! सब कुछ शुभ होगा।
9‐ प्रतिभाओं का नहीं, आत्म गौरव का अभाव
पश्चिमी साम्राज्यवाद और विकृत संस्कृति को राष्ट्रवाद, अध्यात्म से पराजित करें। हमें गर्व है कि हम भारत वर्ष में पैदा हुए हैं और स्वाभिमान है हमें इस बात का कि हम दुनि या की सबसे प्राचीन व समृद्ध संस्कृति , सभ्यता व परम्पराओं के संवाहक हैं। विश्व की तमाम संस्कृति यां दो से तीन हजार वर्षों के इर्द-गिर्द घूमती हैं जबकि भारत में पारस्परिक धार्मिक वि धि यों से जो हम संकल्प करते हैं उसमें हम सृष्टि के आदिकाल से चले आए अपने वैभवशाली गौरवपूर्ण इति हास को याद करते हैं।
नए विक्रमी संवत्सर वर्ष के आगमन की इस पुनीत वेला में जरा हम सोचें, विचारें कि हमा रा अतीत, वर्तमान व भविष्य क्या है। हमें अतीत पर गर्व करते हुए एक संकल्पित, आशान्वित व उज्ज्वल भविष्य के लिए वर्तमान के प्रति सजग, जागरुक, विवेकशील व पुरुषार्थी होना चाहिए। जिस देश के लो गों में इति हास के प्रति गौरव व स्वाभिमान और पुरुषार्थ व भविष्य के प्रति आशा नहीं होती वह देश नष्ट हो जाता है, अंग्रेजों ने हमारे साथ यही किया। वंदे मातरम का गान करने वाले भारतवासियों को यह सिखा या गया व आज भी सिखाया जा रहा है कि हम धरती माता, भारत माता के पुत्र नहीं, हम बंद रों की संतान हैं। डार्विन के इस मिथ्या विकासवाद को अब तो पश्चिम के वैज्ञानिकों ने भी नकार दि या है और हम आज भी अपने स्वाभि मान व पहचान को मिटाने वाली इसी परम्परा के पोषक बने हुए हैं। हम बन्दर नहीं राम, कृष्ण, गौतम, कपिल, कणाद, जैमिनी, ब्रह्मा, पाणिनि , पतंजलि आदि ऋषि-मुनियों की संतान हैं। आज भी हम अपनी इति हास की पुस्तकों में गुला म बनाने वाली शिक्षा पढ़ रहे हैं।
हम अपने पूर्वजां के प्रति श्रद्धा व सम्मान नहीं रखते, केवल विदेशि यों के प्रशंसा-गीत ही हमें सुहाते हैं। विज्ञान के आदि प्रवर्तकों की बात की जाती है तो हम आइंस्टीन व न्यूटन आदि को याद रखते हैं परन्तु विश्वामित्र व भास्कराचार्य जैसे महान् वैज्ञानिकों को भूल जाते हैं। जब विश्व में विमान का नाम एक कहानी की तरह लोग सुनते थे। उससे पहले महर्षि भारद्वाज ने विमान शास्त्र की रचना की और वे विमान बनाना भी जानते थे। हम गणितज्ञों की चर्चा करते समय पाइथा गोरस जैसे विदेशी लो गों के नाम को इति हास के पन्नों पर पढ़ते हैं। पर महान् गणितज्ञ आर्य भट्ट एवं श्रीधर आदि भारत के गौरव पुरुषों को विस्मृत कर देते हैं। यह विडम्बना ही है कि आयुर्विज्ञान एवं शल्यचिकित्सा के प्रथम प्रणेता पितामह महर्षि चरक एवं सुश्रुत के देश में जब एक बच्चा एमबीबीएस या एमडी डॉक्टर बनता है ताे उसके पाठ्यक्रम में एक भी विषय महर्षि चरक व सुश्रुत से संबद्ध नहीं पढ़ाया जाता।
भारत जैसी प्रति भाएं पूरे विश्व में कहीं नहीं हैं। आज भी विश्व स्तर पर बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, चिंतक, विचारक, कवि , मनीषी, लेखक आदि भारत माता के गौरवशाली पुत्र हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में भी लक्ष्मी मित्तल जैसे लोगों ने बहुराष्ट्रीय निगमों की नींद हराम कर रखी है। देश में अभाव प्रति भाओं का नहीं है। हमारे आत्मविश्वास, स्वाभि मान में कमी आ गई है। और नववर्ष में हम सं गठित होकर व संकल्प लेकर पूरे आ त्मविश्वास व स्वाभिमान के साथ हर क्षेत्र में अग्रणी बनें और भारत माता का सम्मान बढ़ाएं।
10‐ संशयों व क्लेशों की पूर्ण समाप्ति ही ईश्वर की प्राप्ति
ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का संयोग होती है योग की पूर्णता
महर्षि पतंजलि बैसाखि यां छोड़ आत्मनि र्भर बनने के लिए प्रेरित करते हैं। शा स्त्र, गुरु, परम्परा, माला, तिलक, मन्दिर, मस्ज़िद, मठ, गुरुद्वारा, गरिजाघर: ये सब सहायक हैं, बैसाखियां हैं। महर्षि पतंजलि हमें सच्चा धार्मिक आैर आस्तिक बनाते हैं। परन्तु वे कोई अभिनय नहीं करते। वे कहते हैं, धर्म के केन्द्र तुम स्व यं हो। वे धर्म को प्रतीकों में वि भाजित नहीं करते। वे तुम्हें अपनी मंजिल की ओर खुद कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं नि रन्तर सुख-दुख, मान-अपमान, शीत-ऊष्ण, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जय-पराजय में सम रहो! तप करो! आत्मचिन्तन करो! तप, संघर्ष, पुरुषार्थ व कर्त्तव्य का निर्वहन करते हुए, तुम आत्मबोध की राह पर आगे बढ़ो, साथ ही भगवान के प्रति गहरा समर्पण रखो! इस पूरी प्रक्रिया से तुम्हारे मन के मैल धुल जायेंगे! क्लेश क्षीण हो जायेंगे।
महर्षि पतंजलि किसी मूर्ति या प्रति मा के दर्शन को ध्यान नहीं कहते। वे कहते हैं:क्लेशां की पूर्ण समाप्ति ही है ईश्वर की प्राप्ति। महर्षि कहते हैं:क्रियायोग का लक्ष्य है समाधि अर्थात् संबोध, स्वरूपोपलब्धि तथा क्लेशों की परिसमाप्ति। इसी चित्त की अशुद्धि को दूर करने के लिए वे अष्टांग योग का उपदे श देते हैं। महर्षि पतंजलि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि स्वरूप वाले अष्टांग योग का वर्ण करते हुए कहते हैं कि इनके पालन के बिना आत्मिक एवं वैश्विक-शान्ति असम्भव है। महर्षि पतंजलि का योग की समस्त प्रक्रियाओं एवं विधाओं के पीछे एक ही मुख्य उद्देश्य है कि अंधेरा व अशुद्धि मिटनी चाहिए। संश य, भ्रम, आग्रह टूटने चाहिएं। बस फिर तुम् हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं, सब समाधान तुम्हारे पास हैं। वे धारणा, ध्यान व समाधि के एकत्रीकरण से संयम करके, सिद्धियों की उपलब्धि की बात करते हैं। संयम द्वारा वे अतीत, अनागत के ज्ञान की वि धि बताते हैं, वे अंत र्धान होने का उपाय समझाते हैं। वे आकाशमान, परका या प्रवेश की प्रक्रिया भी सिखाते हैं। वे अणिमा, लघि मा, गरिमा आदि सिद्धि यों की प्राप्ति भी करवाते हैं। महर्षि पतंजलि शरीर विज्ञान, ब्रह्माण्ड विज्ञान के रहस्यों की पर्तों को भी खोलते हैं। महर्षि पतंजलि प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यों से परिचय करवाते हैं। वे सविकल्प, निर्विकल्प, सवि चार तथा निवि र्चार समाधि की विवेचना करते हैं। उनकी दृष्टि पू री तरह वैज्ञानिक है, उनकी राह सत्य, प्रेम, समर्पण एवं पूर्ण आनन्द की है। वह प्रकृति की यथार्थता, नश्वरता और दुःखपूर्णता का अहसास दिलाते हैं। वे योग की व् याख्या, विज्ञान की तरह करते हैं। प्रत्येक योग की वि धा का एक सुनिश्चित प्रतिफल भी बताते हैं। वे ज्ञानयो ग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के संयाग को ही योग की पूर्णता मानते हैं। वे एकां गी नहीं है। वे कोई आग्रह नहीं रखते हैं। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ, अध्यात्म की यात्रा करते हैं। वे तुम्हें भगाते नहीं, जगाते हैं। वे युद्ध एवं पलायन के बीच तु म्हें स्थिर रखते हैं। मुझे पतंजलि इसलिए प्रिय लगते हैं, क्योंकि मैं उनके उपदेशों को पूर्ण सत्य पाता हूँ। महर्षि पतंजलि से ज्यादा मुझे किसी ने प्रभावित नहीं कि या। जैसे-जैसे योग से हमा री चेतना का स्तर उन्नत होता जाएगा, वैसे-वेसे योग के रहस्यों के द्वार हमारे लिए खुलते जायेंगे। बस हम साधना की राह पर आगे बढ़ते रहें, स्वयं भगवान हमारी मदद करेंगे। मैं स्वयं एक साधक हूँ और देख रहा हूँ कि सत्य स्वतः धी रे-धीरे अनावृत हो रहा है। हम सबकी मंजिल है पूर्ण सत्य की उपलबि् ध, स्वरूप का बोध, अस्तित्व की तलाश।
11‐ विज्ञान विरोधी नहीं है भारतीय संस्कृति
यजुर्वेद के अनुसार सुखपूर्वक जीने के लिए विज्ञान के आविष्कार भी आवश्यक हैं
पश्चिम की संस्कृति से पूर्व की संस्कृति अर्थात् भारत एवं भारतीय संस्कृति किन कारणों से महान् है?:यह प्रश्न देश के युवाओं के मन में बार-बार उठता है। हमारे यहां के कुछ प्रौढ़ लो ग, ज्ञान-विज्ञान सहित विकास की परम्परा को नकारते हुए धर्म, अध्यात्म, जप, तप, व्रत एवं पूजा-पाठ आदि को ही भारतीय संस्कृति मानते हैं और जब कोई युवा मन्दिर नहीं जाता या तिलक नहीं लगाता, तो घर के बुजुर्ग नि राशा भरे लहजे में कोसते हुए एक राग अलापते हैं, क्या करें जमाना बदल गया:बच्चे संस्कार, संस्कृति एवं परम्पराओं को भूलकर बस पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। दूसरी ओर कुछ प्रबुद्ध भारतीय धर्म, अध्या त्म संस्कृति एवं सनातन परम्पराओं को रूढ़िवाद, अंधविश्वास, ढोंग, पाखण्ड एवं पुराण-पंथी कहकर नकारने में गर्व अनुभव करते हैं और समझते हैं कि वह विकसित हो गए हैं तथा धर्म परायण लागों को नासमझ, अबौद्धिक एवं भोलाभंडा री कहकर मजाक उड़ाते हैं। यजुवेर्द के 40वें अध्याय में लिखा है कि वे लोग गहरे अंधेरे में हैं जो केवल विज्ञान एवं प्राद्यागिकी के विकास को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं तथा इससे भी ज्यादा गहन अंधकार में वे लोग जी रहे हैं जो केवल भक्ति, पूजा, पाठ एवं अध्यात्म में निरत होकर जीवन-यापन कर रहे हैं।
यजुर्वेद में आगे वर्णन है कि संसा र में सुखपूवर्क जीने के लिए विज्ञान के आविष्कार भी आवश्यक हैं और आत्मिक सुख-संतोष एवं शान्ति के लिए उपासना, भक्ति, ध्यान, समाधि रूप अध्या त्म भी अति आवश्यक है अर्थात् भारतीय संस्कृति में भातिकवाद एवं अध्यात्मवाद को एक दूसरे का पूरक माना गया है। अध्ययन, मनन एवं समग्र चिन्तन के अभाव में आज जिस तरह से भारतीय-संस्कृति को मात्र मन्दिर एवं देव स्थानों पर ही केन्द्रित कर दि या है, यह उचित नहीं। यह भारत एवं भारतीय संस्कृति के साथ अन्याय है। वेदों में ज्ञान-कांड कर्मकांड , विज्ञान कांड एवं उपासना कांड का सर्वांगीण रूप से समावेश है। भारतीय संस्कृति एकांकी नहीं है, वह बहु-आयामी है। हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि भूगर्भ विद्या, क्षत्र-नक्षत्र विद्या, शस्त्र एवं शास्त्र विद्या में निपुण थे। विमान शास्त्र, दूरभाष, दूरद र्शन , शिक्षा एवं स्वास्थ्य सहित संपूर्ण विद्याओं का अभ्यास करते थे। दुर्भाग्य से महा भारत के बाद से भारतीय संस्कृति का पतन हुआ। कई चीजों का ट्ठास हुआ और कालांतर में धर्म एवं संस्कृति की व्याख्याएं अपने निहित स्वार्थों की पूति र् तक सिमट कर रह गईं और हमने अपने विज्ञान मूलक धर्म को मात्र बाह्य प्रतीकों तक ही सीमित कर दि या।
आज फिर से आग्रह एवं स्वार्थां से ऊपर उठकर, विज्ञान के आलोक में भारतीय सनातन मूल्यों परम्पराओं एवं संस्कृति को देखने की आवश्यकता है और यह अकाट्य व शाश्वत-सत्य है कि भारत एवं भारतीयता कभी भी विज्ञान की विरोधी नहीं रही, अपितु हमारी संस्कृति तो पूर्णतः विज्ञान सम्मत है।
वैदिक कालीन समाजवाद, वर्णव्यवस्था, वैदिक शिक्षा व्यवस्था, प्रा चीन आयुर्वेद में आयुर्विज्ञान की परम्परा, वैदिक कृषि व्यवस्था, वैदिक गणित, वैदिक ज्योति ष व वास्तु शास्त्र सहित परा-अपरा वि धाओं के समुचित अध्ययन, अनुशीलन, अनुसंधान एवं शोध की आवश्यकता है। भारत की प्रा चीन संस्कृति के समुचित आधार को समझकर, अनुभव करके ही हम गर्व से कह सकेंगे कि भारतीय संस्कृति पश्चिम की संस्कृति से श्रेष्ठ है!
12‐ खतरनाक रसायन से धरती बन रही है बंजर
यदि खाद के नाम से मिलने वाला लाभ किसानों को सीधा दे दिया जाए तो देश में खाद्यान्न की कमी नहीं रहेगी‐‐‐
संस्कृत भाषा की परम्परा में मानव देह और कृषि भूमि दोनों के लिए क्षेत्र शब्द का समान रूप से प्रयोग होता आया है। हिन्दी साहित्य में क्षेत्र का अपभ्रंश खेत:शब्द प्रयुक्त होता है। शरीर रूपी क्षेत्र और कृषि युक्त क्षेत्र का आपस में घनिष्ट सम्बन्ध है। क्योंकि जो कुछ खेत में बो या जाता है, वह अंततः मनुष्य के क्षेत्र अर्थात् पेट में ही आता है। खाद्यान्न भोजन के रूप में तथा घास आदि पशुओं के दूध से होकर मानव शरीर में प्रविष्ट होता है। तथाकथित कृषि क्रान्ति की मनघड़ंत कहानी से खेत व पेट दोनों का बुरा हाल है। खेत व पेट देनों बीमार हो चले हैं। खतरनाक रसायनों के कुप्र भाव से खेत या तो बंजर हो गया है या फिर बंजर होने की तैयारी है। पेट में रासा यनिक भोजन के प्रवेश के साथ-साथ कैंस र, डायबिटी ज़, हृदय रो ग, उच्च रक्तचाप, मोटापा, थायराइड, किडनी एवं लीवर आदि के भयंकर रोगों का आतंक मचा हुआ है। अत्यधिक रसायनों के प्रयोग से भूमि की ऊर्वरा शक्ति घट रही है, वहीं पुरुषों की यौन-शक्ति एवं फर्टीलाइजर्स के कारण महिलाओं में इनफर्टीलिटी की समस्या बढ़ रही है। भारत में सन् 2003 व 2004 में फर्टीलाइजर्स की कुल खपत पर नजर डालें तो हृदय कांप उठता है कि एक वर्ष की अवधि में 16 अरब 80 करोड़ किलों रसायनों को भूमि माता को अर्पित किया गया।
भारत की आबादी 112 करोड़ मानकर प्रति व्यक्ति के हिसाब से यदि इसे वि भाजित कि या जाए तो यह 15 किलो तक औसत आता है। एक व्यक्ति के परिवार में, बच्चे से लेकर बूढ़े तक लगभग सवा किलो जहर प्रति माह आता है। एक भ्रामक प्रचार निहित स्वार्थों के तहत पूरे देश में यह फैलाया जा रहा है कि यूरिया एवं डीएपी आदि रासा यनिक खादों के कारण पैदावार बढ़ी है। जबकि असलियत यह है कि यूरिया के प्रयोग से भूमि में स्वा भाविक रूप से पैदा होने वाले कीट-पतंग मर जाते हैं। इनके मरने से इनकी जो खाद तैयार होती है उससे फसलों की वृद्धि होती है न कि यूरिया से। यूरिया पशुओं के गोबर की खाद के साथ मिलकर एक रासा यनिक प्रतिक्रि या करता है, उससे फसलों की पैदावार में वृद्धि होती है। बिना गोब र की खाद या पत्तियों आदि की खाद के किसी खेत में केवल यूरिया डालकर देखो, तो पता चलेगा कि खेत की फसल भी जलकर नष्ट हो गई है। इन रासायनिक खादों के पीछे एक बहुत बड़ा चौंकाने वाला तथ्य यह भी जुड़ा है कि इनका उत्पादन करने वाले सरकार से प्रतिवर्ष 12 हजार 622 करोड़ रुपये सब्सिडी के रूप में प्राप्त करते हैं।
फर्टीलाइजर बनाने वाली कम्पनि यों को सरकार छूट इसलिए देती है, क्योंकि यूरिया आदि बनाने की कीमत अधिक है और किसानों को कम कीमत पर ये कम्पनि यां खाद बेचती हैं। अतः इनकी क्षतिपूर्ति सरकार करती है। यदि खाद के नाम से मिलने वाला लाभ किसानों को सीधा दे दि या जाए तो देश में पशु आधारित गोब र की खाद या जैविक खाद पर्याप्त मात्रा में फसलों के लिए उपलब्ध हो जाएगी। इससे खाद्यान्नों में कमी भी नहीं आएगी और धरती माता का खेत और मानवता का पेट दोनों ही सुरक्षित रहेंगे। साथ ही, दे श में प्रतिवर्ष कट रहा करोड़ों का पशुधन भी सुरक्षित रहेगा। ऐसा होने पर हम गोहत्या के कलंक से भी बच जाएंगे आैर खेती को बंजर होने से बचा पायेंगे। काश! हमारे देश के नीति नि र्धारकों के दिल-दि माग थोड़े से भी सकारात्मक होते, तो देश की हर क्षेत्र में दुर्दशा नहीं होती। (सन् 2005 में प्रकाशित लेखों से संकलित)

दैनिक स्तवन

1‐ वैदिक राष्ट्रगीत
ओ३म आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायता माराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव् योऽति व्याधी महा रथो जायतां दोग्ध्री धेनुवार्ढाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरनि् ध्यार्षा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्। निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु पफलवत्यो न औषध्यः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्॥
ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्मतेजधारी।
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी॥
होवें दुधारु गौवें, पशु अश्व आशुवाही।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही॥
बलवान् सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें।
इच्छानुसार वर्षे, पर्जन्य ताप धोवें॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी।
हो योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी॥
2‐ महर्षि पतंजलि को नमन
योगेन चित्तस्य पदेन वा चां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलि रानतोऽस्मि॥
3‐ प्रणव-ध्वनि (ओ३म्)
गहरा श्वास भरकर तीन बार ओ३म् (प्रणव-ध्वनि) का नाद करें।
4‐ गायत्री महामन्त्र
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥ (यजु०-३६/३), (ऋ०-३/३२/१०)
अर्थ- जो अकार (विराट्, अग्नि, विश्व आदि ), उकार (हिरण्यगर्भ, वायु, तैजस आदि) और मकार (ईश्वर, आदि त्य, प्राज्ञ आदि) के योग से ‘ओम्’ अक्षर सिद्ध है, सो यह परमेश्व र के सब ना मों में उत्तम नाम है, इसमें सब नामों के अर्थ आ जाते हैं और ‘भूरिति वै प्राणः’ जो सब जगत् के जीने का हेतु और प्राण से भी पि्रय है, इससे परमेश्वर का नाम ”भूः“ है। ‘भुवरित्यपानः’ जो मुक्ति की इच्छा करने वाले धर्मात्माअों को सब दुःखों से अलग करता है, वह अपान अर्थात् दयालु ईश्वर है, इससे उसका नाम ”भुवः“ है। ‘स्वरिति व्यानः’ जो सब जगत् में व्यापक होकर
सबको नियम में रखता और सबका ठहरने का स्थान महान् ब्रह्म है, इससे परमेश्वर का नाम ”स्वः“ है। (सवितुः) जो सकल जगत् को उत्पन्न करता है, वह सबका पिता, सबका स्वा मी ‘सविता’ परमात्मा है, (व रेण्यम्) जो अतिश्रेष्ठ होने से वरण करने योग्य है, (भर्गः) जो उपद्रवरहित, नि ष्पाप, नि र्गुण, शु द्ध, सब दोषों से रहित, पक्व, परमार्थ, विज्ञान स्वरूप है, (देवस्य) जो सारे जगत् को प्रका शत तथा आनन्दित करता है, उस परमात्मा देव की ही हम (धीमहि) उपासना करें। किस प्रयोजन के लिए? उसके धारण करने से ही हम विज्ञान आदि बल के द्वारा पुष्ट , दृढ़ और सुखी हो सकते हैं, इस प्रयोजन के लिये तथा (यः) जो परमेश्वर (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को (प्रचोद यात्) शुभ कर्मों में प्रेरित करे।
5‐ महामृत्युंजय मन्त्र
ओ३म्-त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योमुर्क्षीय माऽमृतात्॥
अर्थ-हम लोग (सुगन्धिम्) जो शुद्ध गंध युक्त, (पुष्टिवर्धनम्) शरीर, आत्मा और समाज के बल को बढ़ाने वाला (त्र्यंबकम्) रुद्ररूप जगदीश्वर है, उसी की (यजामहे) नि रन्तर स्तुति करें। इनकी कृपा से (उर्वारुकमिव) जैसे खरबूजा फल पक कर (बन्धनात्) लता के बंधन से छूटकर अमृत के तुल्य होता है, वैसे हम लोग भी (मृत्यो :) प्राण व शरीर के वि योग से (मुक्षीय) छूट जावें और (अमृतात्) मोक्ष सुख से (मा) कभी भी अलग न होवें।
6‐ स्वाध्याय मन्त्र
ओ३म् सह नाववतु। सह ना भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै॥
ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
हे सर्वरक्षक प्रभो! हम दोनों गुरु एवं शिष्य की रक्षा कीजिये। हमें आनन्द का पान कराइये। हम दोनों में शक्ति का आधान कीजिये। हमारा ज्ञान राष्ट्रहित में तेजस्वी हो। हम आपस में कभी द्वेष न करें, विरोध न करें, अपि तु अत्यन्त प्रेम से पढ़े व पढ़ायें। हमें आध्यात्मिक, आधिभातिक, आधिदैविक तीनों प्रकार की शान्ति प्राप्त हो।
7‐ प्रार्थना मन्त्र
ओ३म् असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योमार्ऽमृतं गमय।
ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
प्रभो! असत् से हमें हटाकर, सत्यमार्ग पर ले जाओ।
अन्धकार को दूर भगाकर, शुभ्र ज्योतिकण फैलाओ॥
जन्म-मरण के भव बन्धन से, हे प्रभो! मुझको मुक्त करो।
आनन्दरूप अमृतमय रस से, हे प्रभो! मुझको युक्त करो॥
8‐ प्रातःकालीन जागरण मन्त्र
ओ३म् प्रातरग्निं प्रातिरन्द्रं हवामहे प्रातिर्मत्रावरुणा प्रातरश्विना।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रं हुवेम॥1॥
ओ३म् प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेयार् विधर्ता।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह॥2॥
ओ३म् भग प्रणेत र्भग सत्यरा धो भगेमां धियमुदवा ददन्नः।
भग प्रणो जनय गो भरश्वै र्भग प्र नृभिन र्ृवन्तः स्याम॥3॥
ओ३म् उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपि त्व उत मध्ये अह्नाम्।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम॥4॥
ओ३म् भग एव भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम।
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह। ।5॥
9‐ शयनकालीन शिवसंकल्प मन्त्र
ओ३म् यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरÂमं ज्योतिषां ज्योति रेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥1॥
ओ३म् येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥2॥
ओ३म् यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योति रन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥3॥
ओ३म् येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकलपमस्तु॥4॥
ओ३म् यस्मिन्नृचः सामयजूंषि यस्मिन् प्रति ष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥5॥
ओ३म् सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभी शुभिवार्जिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥6॥
10‐ भोजन के समय उच्चारणीय मन्त्र
ओ३म् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यन मीवस्य शुषि् मणः।
प्र प्रदातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥
11‐ संगठन-सूक्त
ओ३म् सं समिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ।
इकस्पदे सि मध्यसे स नो वसून्याभर ॥१॥
हे प्रभो! तुम श्क्तिशाली हो, बनाते सृष्टि को।
वेद सब गाते तुम्हें हैं, कीजिये धन-वृष्टि को॥
ओ३म् सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥२॥
प्रेम से मिलकर चलो, बोलो सभी ज्ञानी बनो।
पूर्वजों की भांति तुम, कर्त्तव्य के मानी बनो।
ओ३म् स मानो मन्त्रः सि मतिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व : समानेन वो हविषा जुहोमि ॥३॥
हों विचार समान सबके, चित्त मन सब एक हों।
ज्ञान देता हूँ बराबर , भोग्य पा सब नेक हों॥
ओ३म् स मानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥४॥
हों सभी के दिल तथा, संकल्प अविरोधी सदा।
मन भरे हों प्रेम से, जिससे बढ़े सुख सम्पदा॥
12‐ संकल्प-मन्त्र
ओ३म् राष्ट्राय स्वाहा। इदं राष्ट्राय इदन्न मम॥
मेरा यह जीवन राष्ट्र के लिए है। मैं संकल्प लेता हूँ कि मैं माँ भारती का खोया हुआ गौरव, खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त करने के लिए अपने तन-मन-धन-जीवन को राष्ट्र-यज्ञ में आहूत कर दूँगा। योग शक्ति से आत्मशक्ति एवं राष्ट्रभक्ति को प्राप्त हो, मैं संकल्प लेता हूँ कि मेरा यह जीवन अब राष्ट्र के लिए है। मैं संकल्प लेता हूँ कि योग से स्व-धर्म एवं राष्ट्र-धर्म जगाकर मैं, भारत को फिर से विश्वगुरु बनाऊँगा।

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