भारत का
प्रजातंत्र संख्या की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है किन्तु भारतीय
प्रजातंत्र को विश्व में दोषपूर्ण प्रजातंत्र माना जाता है। इंग्लैंड और
स्विट्ज़रलैंड की संस्थाओं द्वारा बनाई गई सर्वोत्तम से निकृष्टतम प्रजातांत्रिक
देशों की सूची में भारत का स्थान लगभग मध्य में आता है।
आस-पास के देशों
की तुलना में हम इस सूची में बहुत ऊपर हैं किन्तु यह कोई गर्व की बात नहीं क्योंकि
इन देशों की प्रजातांत्रिक व्यवस्था हमारा लक्ष्य नहीं। सूची में नार्वे, स्वीडन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया,
स्विट्ज़रलैंड जैसे देश पहले दस में हैं तो वहीं
उत्तरी कोरिया, सऊदी अरब,
ईरान जैसे देश अंतिम दस में।
आइए भारतीय
प्रजातंत्र को दोषपूर्ण माने जाने के कारणों पर चर्चा करते हैं। प्रथम कारण है
चुनाव प्रक्रिया। भारत में चुनावी व्यवस्था तो बहुत हद तक निष्पक्ष और स्वच्छ है।
मत देना भी भारतीय नागरिक अपना अधिकार तो समझता है किंतु अपना राजनैतिक कर्त्तव्य
नहीं मानता। अभी भी तीस से पैंतीस प्रतिशत तक नागरिक मत डालने नहीं जाते। मतदान पर
अभी भी जातिवाद और संप्रदायवाद की काली छाया है। प्रजातंत्र में अपने मत का प्रयोग
न करना स्वयं अपने दुर्भाग्य को लिखने से कम नहीं है।
ऑस्ट्रेलिया के
प्रजातंत्र को लें। यहां मत देना अनिवार्य है। यदि किन्हीं कारणों से मतदाता मत न
दे पा रहा है तो चुनाव आयोग में प्रार्थना पत्र देना होता है। बिना उचित कारण के
यदि वह अपने मतदान अधिकार का प्रयोग नहीं करता तो कोर्ट में उस पर मुकदमा दायर
किया जा सकता है और मतदाता पर जुर्माना किया जाता है।
दूसरा कारण है
नागरिकों की राजनीति में सक्रिय भागीदारी। भारतीय प्रजातंत्र में चुनाव ही एक ऐसा
अवसर है जब राष्ट्र का नागरिक अपना मत देकर देश की राजनीति में अपनी प्रत्यक्ष
भागीदारी की घोषणा करता है। दुख इस बात का है कि यह भागीदारी आगे नहीं बढ़ती। अपना
मत देने के पश्चात वह राजनैतिक प्रक्रिया से अगले पांच वर्षों के लिए उदासीन हो
जाता है। महिलाओं की सक्रियता नगण्य है। राजनैतिक भागीदारी वहाँ होती है जब
राष्ट्र के सामने ज्वलंत मुद्दों पर सार्वजानिक बहसें होती हैं। सरकार और नागरिकों
के बीच संपर्क जीवंत रहता है और सरकार निरंतर जनता से प्रतिक्रिया प्राप्त करती
रहती है।
राजनैतिक
भागीदारी का अर्थ है ज्ञापन देकर अपनी बात सरकार तक पहुँचाना, सार्वजनिक बहसों में भाग लेना, अपने नेता या समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार
तक अपनी राय पहुँचाना, किसी राजनैतिक दल
को अपना समय देना इत्यादि। उत्तरी यूरोप के ऐसे कई देश हैं जहाँ सरकार और नागरिकों
के बीच संवाद बना रहता है और कई महत्वपूर्ण विषयों पर नागरिकों की राय जानने के
लिए रायशुमारी या मतदान संग्रह कराया जाता है।
तीसरा कारण है
प्रजातंत्र में मिले नागरिकों को बुनियादी अधिकार और उनके हनन। भारत के संविधान
में भी कई बुनियादी अधिकार और स्वतंत्रताएं शामिल हैं जैसे स्वतंत्रता अभिव्यक्ति
की, धर्म की, शिक्षा और संस्कृति की। अधिकार जीने का,
न्याय का, समान व्यवहार का इत्यादि। किंतु क्या हम विश्वास से कह सकते
हैं कि ये बुनियादी अधिकार और स्वतंत्रताएं देश के प्रत्येक नागरिक को हासिल है?
स्वतंत्र प्रजातंत्र के सत्तर वर्ष पूरे होने
को हैं किन्तु ये मौलिक अधिकार अभी सारे नागरिकों तक नहीं पहुंचे हैं। महिलाएँ तथा
निम्न वर्ग अभी भी शोषित हैं। एक सबल प्रजातंत्र में न्याय को वर्ण व्यवस्था के
अंतिम छोर तक पहुंचना आवश्यक है।
अंतिम कारण है
भ्रष्टाचार, जो हर
प्रजातांत्रिक देश की गंभीर समस्या है। ऊपर से यदि राष्ट्र आर्थिक विकास के मार्ग
पर हो तो यह समस्या और विकराल रूप ले लेती है। यही समय होता है जब सरकार चौकन्नी
और नेतृत्व दृढ़ निश्चय वाला हो ताकि भ्रष्टाचार अपना फन न फैला सके। डेनमार्क का
उदाहरण लें, प्रजातंत्र होते
हुए भी भ्रष्टाचार रहित देशों की सूचि में प्रथम स्थान पर है। इस छोटे देश में
जिसकी जनसंख्या मात्र पचपन लाख है किन्तु संसद में आठ दल हैं। आपको आश्चर्य होगा
कि पिछले सौ वर्षों में कभी किसी दल को बहुमत नहीं मिला और साझा सरकारों से यह देश
चलता है फिर भी सांसद बिकाऊ नहीं हैं। यह राष्ट्र हमारी उन मान्यताओं का खंडन करता
है जिसमें माना जाता है कि साझा सरकारों की वज़ह से सरकारों को कठिन निर्णय लेने
में बाधा होती है या साझा सरकारें भ्रष्टाचार की जड़ हैं। साफ है भारतीय प्रजातंत्र
को अभी इस दिशा में बहुत प्रगति करनी है।
दोषपूर्ण
प्रजातंत्र का लाभ निसंदेह नेता उठाते हैं अन्यथा इस व्यवस्था को सुधारने की पहल
शीर्ष से होती। परन्तु समय तेजी से बदल रहा है। मतदाता सूची में द्रुतगति से बढ़ती
शिक्षित युवाओं की संख्या और आम मतदाता की बढ़ती चेतना से परिवर्तन की लहरें साफ
दिख रही हैं। विश्वास है कि, अगले चुनावों तक
ये लहरें ज्वार का रूप ले लेगीं।
नेताओं के हित
में तो यही होगा कि वे भी भारतीय प्रजातंत्र के बढ़ते कदमों के साथ कदमताल करें
अन्यथा प्लेटफार्म पर खड़े होकर छूटी हुई ट्रेन को देखकर विलाप करने के अलावा पास
कोई उपाय नहीं बचेगा। घोड़े पर सवार होना है तो घुड़सवारी तो सीखनी ही होगी और यह भी
ध्यान रखना होगा कि घोड़ा पीछे की ओर नहीं चलता। क्या हम अपेक्षा करें कि भारत के
जागरूक नागरिक और नेता इस लेख की सामग्री को आत्मसात करेंगें?
सामाजिक
प्रजातंत्र के बिना राजनीतिक प्रजातंत्र अर्थहीन है। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ
समाज के लोगों को बराबर अधिकार देना है। दलितों को समाज में सम्मानपूर्वक स्थान
नहीं दे पाए हैं। जिस देश में सामाजिक असमानता है, वह देश विश्व के नक्शे में सर्वश्रेष्ठ देश का स्थान नहीं
पा सकता।
प्रजातंत्र के
मायने ???
प्रजातंत्र का
मतलब क्या होता है? हर नागरिक अपने
प्रतिनिधि को चुनता है, याने कि हर
नागरिक अपना भाग्य निर्माता स्वयं हैं। हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र
कहा जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ती से अब तक का लेखा-जोखा किया जाये तो जिस तरह से
दिन दौगुनी रात चौगुनी हमारे देश की समस्याएं गाजर घास की तरह बढ़ती ही जा रही हैं,
ऊपर ऊपर से तो लगता नहीं कि प्रजातंत्र सफल रहा
है।
प्रजातंत्र मतलब
भीड़तंत्र और भीड़ की कोई समझ नहीं होती। भीड़ हमेशा औसत बुद्धि की होती है। और औसत
बुद्धि जो भी कर सकती है, वह हमारे सामने
है कि जो हालात हमारे देश के हैं। भीड़ को बड़ी आसानी से किसी भी मुद्दे पर
भड़काया जा सकता है, हमने स्वतंत्रता
प्राप्ती के बाद से देखा है कि किस तरह से हमारे देश में भीड़ ने क्या-क्या गुल
लिखाए हैं।
जिस देश में भीड़
को धर्म, जाति, पैसा, गुंडागर्दी, बल, भय से उकसाया जा सकता है, भड़काया जा सकता है, उस देश मे प्रजातंत्र? हमारे देश की समस्याएं विकराल से विकराल होती जा रही है और
हमारे नेता टुच्ची बातों में लगे पड़े हैं। हर व्यक्ति या परिवार भविष्य के बारे
में सोचता है, आने वाले संकटों
के बारे में सुरक्षा करता है, लंबी योजनाएं
बनाई जाती हैं, जीवन बीमा करवाया
जाता है ताकि बुढ़ापे में तकलीफ न हो, लेकिन क्या हमारे देश में कोई भी लंबी परियोजना बनाई जा सकती है? बनाई गई है? सफल हुई है???
इस तरह की
मानसिकता आखिर हमें कहा लेकर जाएगी? कब तक हम इस तरह से एक अति से दूसरी अति की तरफ डोलते रहेंगे? आज राष्ट्रीय पार्टी जैसी बात नहीं रही है,
हर पार्टी को मिली-जुली सरकार बनानी पड़ती है,
हर छोटी-मोटी पार्टी का सरकार पर पूरा-पूरा
दबाव रहता है, हमने अच्छे से
देख लिया है कि ये घटक दल अपने हितों के लिए देश को गड्ढ़े में डालने से भी चुकते
नहीं है। अटल जी जैसा कद्दावर नेता भी कमजोर हो गया और मनमोहन सिंह जैसा समझदार
नेता भी असहाय है।
दागी उम्मीदवार
चुने जा रहे हैं, मंत्री बन रहे
हैं। लोग कहते हैं कि वोट देना चाहिए! जरूर दें लेकिन चुने किसे? सवाल तो बड़ा से बड़ा यह आता है, एक नागनाथ तो दूसरा सांपनाथ। और जैसे ही कोई
पार्टी सरकार में आती है हर छुट भैया नेता अपनी-अपनी ढपली बजाने लगता है। सभी को
खुश करना मजबूरी हो जाती है। पूरी नौकरशाही रूलिंग पार्टी से दबती है। पुलिस छुट
भैये नेताओं तक को खुश करती है। गड़करी साहब ने तो अभी से इन्कम टेक्स वालों को
इशारा कर दिया है?
सवाल पार्टी
विशेष का नहीं है, ओवनआल ऐसा क्या
किसी में फर्क है? विभिन्न राज्यों
में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें हैं, कौन सा फर्क दिखाई देता है? क्या वहां रूलिंग
पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं का मलखंब नहीं चल रहा? ऐसा क्या बड़ा फर्क दिखाई देता है? गुजरात को थोड़ा ऊपर रख सकते हैं, लेकिन गुजरात तो हमेशा से ही थोड़ा ऊपर रहा है और पक्का
मोदी जी ने कमाल किया है, लेकिन मोदी जी
प्रधानमंत्री बनते हैं तो घटक दल, उनके घुटने नहीं
दुखवा देगा, जैसे अटल जी के
दुखवा दिये थे। क्या मोदी जी केंद्र में उतने ही ताकतवर होंगे? क्या मोदी जी देश हित में कोई कठोर निर्णय कर
पाएंगे? अभी से विभिन्न पार्टियां
और नेता अपनी-अपनी बीन बजाने लगे हैं, मोदी जी को काम करने देंगे? अकेला चना भाड़
फोड़ लेगा?
देश की समस्याएं
खतरनाक से खतरनाक होती जा रही है और प्रजातंत्र के नाम पर हम औसत समझ के भरोसे हैं?
क्या होगा आखिर हमारे देश का? प्रजातंत्र की परिभाषा--औसत बुद्धि का, औसत बुद्धि के लिए, औसत बुद्धि द्वारा चुना गया तंत्र। नहीं, मैं प्रजातंत्र में भरोसा नहीं रखता। समझदार
तानाशाह इस विशाल देश को दिशा दे सकता है। इसी कारण मैं इंदिरा गांधी, बाला साहेब और मोदी जी का प्रशंसक हूं--हालाकि
इंदिरा गांधी को भी नाको चने चबवा दिये, अब देखते हैं कि मोदी जी क्या कमाल करते हैं?
लोकतंत्र (जिसे
गणतंत्र, जनतंत्र, और प्रजातंत्र के नाम से भी जाना जाता है)
अर्थात् डिमॉक्रेसी से अपने मोहभंग के कारणों की चर्चा आरंभ की थी । लोकतंत्र से
इतना अभिभूत क्यों हैं इस विश्व के लोग, खासकर अपने देश के लोग ? क्यों
लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था की इतनी हिमायत की जाती है ? क्या अन्य कोई भी व्यवस्था इससे बदतर होती है ? क्या राजतंत्र अनिवार्यतः घटिया दर्जे की
व्यवस्था होती है ? क्या अधिनायकवाद
का खतरनाक होना स्वयंसिद्ध है ? मैं समझता हूं कि
किसी भी देश की जमीनी हकीकत पर तार्किक विचार किये बिना अपनी धारणा बना लेना और उस
धारणा के विरोध में कोई भी तर्क न सुनना अनुचित रवैया कहा जायेगा ।
मेरी मान्यता है
कि कोई भी शासन-व्यवस्था स्वयं में अच्छी या बुरी नहीं होती है । व्यवस्था की
गुणवत्ता उन लोगों पर निर्भर करती है जिन पर उस व्यवस्था को चलाने की जिम्मेवारी
होती है । व्यवस्था को कोई प्रभावी और लुभावना नाम देने भर से वह उच्च श्रेणी की
नहीं हो जाती है । इस क्षण मुझे शेक्सपियर की नाट्यकृति, ‘Romeo and
Juliet’, में जूलियट द्वारा रोमियो
को संबोधित करते हुए कहा गया यह वचन याद आता है:
“What’s in a name? That which we call a rose
By any other name would smell as sweet.”
(नाम में धरा ही
क्या है ? हम जिसे गुलाब कहते हैं
वह किसी और नाम से भी उतना ही महकेगा ।)
अर्थात् किसी
व्यवस्था को कोई भी नाम दे दें, कोई फर्क नहीं
पड़ता । वह जो है सो ही रहेगा । महत्त्व नाम का नहीं उसके असली स्वरूप और गुणवत्ता
का है । हम अपनी शासकीय व्यवस्था को लोकतंत्र कहते हैं, क्योंकि उसकी शुरुआत मतदान से होती है जिसमें हर वयस्क को
मतदान का अधिकार है जिसका प्रयोग वह जनप्रतिनिधि चुनने के लिए करता है । किंतु
सार्थक लोकतंत्र के लिए इतना पर्याप्त नहीं है । क्या उसके आगे-पीछे और कुछ ऐसा
नहीं है जो प्रभावी एवं सफल लोकतंत्र की पहचान कही जा सके ? क्या अपने देश की इस व्यवस्था में अनेकों खामियां नहीं हैं
जिन्होंने इसे केवल नाम का लोकतंत्र बना छोड़ा है । मैं अभी यहां पर उनकी सविस्तार
चर्चा नहीं कर रहा हूं । वस्तुतः पूरी व्यवस्था कितनी सफल है, उसे सफल बनाने के लिए जिम्मेदार लोग कितने
प्रतिबद्ध हैं, वे लोग क्या अपनी
स्वार्थसिद्धि में लिप्त हैं, क्या वे येनकेन
प्रकारेण सत्ता को अपने कब्जे में रखने को तत्पर हैं, क्या वे समाज की समस्याओं के समाधान के लिए कृतसंकल्प हैं,
आदि अनेकों प्रश्न हैं जिनका उत्तर व्यवस्था की
गुणवत्ता तथा सार्थकता तय करने के लिए पूछे जाने चाहिए ।
यह मान लेना कि
राजतंत्र निर्विवाद रूप से अस्वीकार्य व्यवस्था है स्वयं में मूर्खतापूर्ण विचार
है । क्या यह सच नहीं है कि इतिहास में ऐसे राजाओं का नाम लिया जाता है जिनका शासन
प्रजा के हितों पर केंद्रित रहा है । हमारे देश के इतिहास में अशोक, विक्रमादित्य, अकबर आदि का उल्लेख उन शासकों के तौर पर मिलता है जिनका राज
स्मरणीय रहा है । पौराणिक काल के भगवान् राम के राज की गुणवत्ता के कारण उसे आदर्श
व्यवस्था के रूप में रामराज्य के नाम से आज भी जाना जाता है । क्यों ? क्योंकि राजतंत्र भी अच्छा हो सकता है । और
इसके विपरीत लोकतंत्र भी असफल हो सकता है, यदि उसके कर्णधार अयोग्य हों ।
मैं आगे की बात
देश में लोकतंत्र की स्थापना से संबंधित नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विचारों से
करता हूं । उनके वक्तव्य मुझे अंतर्जाल पर मिल गये थे । उन्होंने अपनी पुस्तक में
क्या कहा था इसका एक अंश नीचे प्रस्तुत है:
The writing in his famous book ‘The Indian Struggle’ about
the post-independence struggle period Netaji said “… If we are to have a
socialist economy, socialism cannot be established by the Western Democracy.
Socialist reconstruction can be done only by Dictatorship but that Dictatorship
should not be of individuals or of the cliques but of general masses… “
(यदि हम समाजवादी
अर्थतंत्र चाहते हैं, तो समाजवाद
पाश्चात्य लोकतंत्र से स्थापित नहीं हो सकता । समाजवादी पुनर्निर्माण केवल
अधिनायकवाद से ही संभव है, लेकिन ऐसा
व्यक्ति या गुटों का न होकर आम जनसमुदाय का अधिनायकवाद होना चाहिये ।)
(स्रोत: http://www.yorozubp.com/netaji/75birthday/yajee.htm)
किसी अन्य मौके
पर उन्होंने क्या कहा इसका उल्लेख भी मैं कर रहा हूं:
“The Fundamental Problems of India” (An address to the
Faculty and students of Tokyo University, November 1944): “You cannot have a
so-called democratic system, if that system has to put through economic reforms
on a socialistic basis. Therefore we must have a political system – a State –
of an authoritarian character. We have had some experience of democratic
institutions in India and we have also studied the working of democratic
institutions in countries like France, England and United States of America.
And we have come to the conclusion that with a democratic system we cannot
solve the problems of Free India. Therefore, modern progressive thought in
India is in favour of a State of an authoritarian character” (The Essential
Writings of Netaji Subhas Chandra Bose Edited by Sisir K. Bose & Sugata
Bose, Delhi: Oxford University Press, 1997, pp319-20)
(आप तथाकथित
जनतांत्रिक व्यवस्था नहीं अपना सकते, यदि उस व्यवस्था ने समाजवादी आधार पर आर्थिक सुधार आगे बढ़ाने हों । इसलिए
हमारे पास एक राजनैतिक तंत्र – राज्य – अधिकारवादी होना चाहिये । हमें भारत में
जनतांत्रिक संस्थाओं का कुछ-कुछ अनुभव हैं और हमने फ्रांस, इंग्लैंड, तथा संयुक्त
राज्य अमेरिका जैसे देशों के जनतांत्रिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली का भी अध्ययन
किया है । और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जंनतांत्रिक व्यवस्था से हम
स्वतंत्र भारत की समस्याएं नहीं सुलझा सकते हैं । अतः भारत में आधुनिक प्रगतिशील
विचारधारा अधिकारवादी राज्य के पक्ष में है ।)
(स्रोत: http://en.wikipedia.org/wiki/Subhas_Chandra_Bose#Political_views)
स्पष्ट है कि
नेताजी बोस स्वतंत्रता के बाद तुरंत जनतंत्र के पक्ष में नहीं थे । उन्होंने अवश्य
ही कहीं न कहीं अपनी धारणा को विस्तार से स्पष्ट किया होगा । मेरा विश्वास है कि
वे (तथाकथित) जनतंत्र के खतरों को भांप गये होंगे । मैंने जैसा सुना-पढ़ा है उसके
अनुसार वे समझते थे कि अपने देश के लोगों की मानसिकता अभी जनतंत्र के लिए नहीं ढली
है । वे सामंतवादी व्यवस्था के तहत इस कदर दबे पड़े हैं कि स्वतंत्र चिंतन उनकी सोच
से बाहर रहा है । वे स्वयं को बराबरी के स्तर पर खड़ा करके जनतांत्रिक प्रक्रिया
में भाग लेने से आज तक हिचकते आ रहे हैं । मैं स्वयं इन्हीं बातों को मानता हूं ।
नेताजी शायद यह मानते थे कि हीनभावना तथा गुलाम मानसिकता से उबरने में उन्हें कम
से कम एक पीढ़ी के वक्त की जरूरत होगी और यह कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद एक प्रकार
का अधिनायकवाद उनको सार्थक जनतंत्र के लिए तैयार कर सकेगा । अतः ऐसी अधिनायकवादी
व्यवस्था स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दौर
में अपना देश अपनाये शायद यही वे चाहते थे ।
मैं समझता हूं कि
नेताजी के अनुसार यह अधिनायकवाद किसी व्यक्ति का निरंकुश शासन नहीं था, बल्कि यह स्वयं जनता के द्वारा अपनाया गये कठोर
अनुशासन की व्यवस्था थी, जिसमें मर्यादित
स्वतंत्रता ही लोगों को प्राप्त होती, ताकि वे जंनतांत्रिक मूल्यों को समझ सकें और अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत हो
सकें, केवल अपने अधिकारों की ही
बात न करें ।
मेरे मतानुसार
अपने लोगों को जनतांत्रिक मूल्यों का पाठ पढ़ाये बिना ही इस देश ने एक ‘सतही’ लोकतंत्र अपना लिया । किंतु हकीकत यह है कि करीब छः दशक पुराने इस लोकतंत्र
में आम मतदाता आज भी जातीय, धार्मिक अथवा
क्षेत्रीय जैसे नकारात्मक आधारों से प्ररित हो किसी प्रत्याशी की योग्यता का आकलन
करता है । यह भी तथ्य है कि चुने गये जनप्रतिनिधियों की रुचि स्वस्थ जनतांत्रिक
परंपराओं एवं सिद्धांतों की स्थापना में शायद ही कभी रही है, कम से कम वर्तमान समय में तो मुझे ऐसे कोई
संकेत नहीं दिखते हैं । वे सिद्धांतों के लिए सत्ता का त्याग करने के बजाय सत्ता
के लिए सिद्धांतों का त्याग करना उचित मानते हैं । जिन राजनीतिक दलों में आंतरिक
लोकतंत्र का अभाव हो उनसे सफल लोकतंत्र की अपेक्षा कैसे की जा सकती है ? इन तमाम बातों की चर्चा मैं आगामी पोस्टों में
करने का इरादा रखता हूं । फिलहाल अभी इतना ही ।
भारत एक अलग
लोकतंत्र इस प्रकार से है - सिर्फ नाम का ही लोकतंत्र है, यहां राज करने वाले सब राजनेता है. यहां राजनेता कानून को
अपनी जेब में लेकर घूमते हैं. लोकतंत्र कम लेकिन लोकतंत्र का दुरूपयोग ज्यादा.
अगर आप एक
जिम्मेदार नागरिक हैं, तो आपको पता होगा कि प्रजातंत्र का मतलब क्या
है? प्रजातंत्र का मतलब है, लोगों की सरकार। ये
राजनेता कोई आसमान से नहीं टपके हैं। वे आपमें से ही हैं, जो कुछ करने के लिए आगे आए हैं।
यह तो एक
युनिवर्सल सत्य है कि हम भारतीय विश्व के अकेले सबसे बड़े लोकतान्त्रिक गणराज्य
में निवास करते है जिसका हमें गर्व भी है परन्तु वास्तव में सत्य क्या है यह एक
चिंतन का विषय हो सकता है क्योंकि इस गणराज्य को चलाने के लिए जिन राजनितिक दलों
के द्वारा शासन तंत्र/सरकार को चलाया जाता क्या उन राजनितिक दलों में आन्तरिक
लोकतंत्र है क्या इन सभी दलों में पदाधिकारियों का चयन लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के
अंतर्गत होता है ? शायद उत्तर नहीं में होगा — क्योंकि जब हम देखते हैं तो पते हैं कि
क्या यह लोकतंत्र
के नाम पर मजाक नहीं है तो और क्या है — चूँकि जब किसी
लोकतान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा नेताओं का चयन नहीं होता तो उसका नतीजा सबके सामने
है
यह सब तो राज
तंत्र में होता था , प्रजातंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए पर हो रहा
है। सच तो यह है कहने के लिए प्रजातंत्र है पर व्यवस्था वही है, वही राजा , वही मंत्री , वही नगर कोतवाल।
प्रश्न उठता है, जब सरकार में बैठे लोग, वही कर रहे हैं जो कि विदेशी शासक
करते आ रहे थे, फिर यह जनता की सरकार कहाँ से हो गई, हम आजाद कहाँ से हो गए।
ऐसा लगता है
विदेशी शासको ने केवल सत्ता का हस्तांतरण कर दिया था।वही अंग्रेजो के ज़माने के
कानून और वही अंग्रेजो के ज़माने की पुलिस। जो कि पहले भी शांत पूर्ण प्रदर्शन पर
बर्बरता पूर्वक लाठी चलाती थी और अब भी
वही करती है।
आज सबसे बड़ा
दुर्भाग्य यह है कि देश का लोकतंत्र काले धन और झूठ से शुरू होता है. लोकतंत्र का
पूरा ढांचा ठीक करने के लिए कुछ बुनियादी परिवर्तन - वर्तमान संसदीय प्रणाली में
कुछ हमें संशोधनों के साथ बदलाव लाना होगा. मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का चुनाव
सीधा जनता द्वारा होना चाहिए. पूरे चुनाव की व्यवस्था में धन का महत्व समाप्त किया
जाना चाहिए. अनुपातिक चुनाव प्रणाली लागू की जाए. विश्व के कुछ देशो में यह
प्रणाली सफलता पूर्वक काम कर रही है. चुनाव केवल पार्टियां लड़ें, उम्मेदवार नहीं और उनके चुनाव
प्रचार का खर्च सरकार दे. आज हर वर्ष किसी ना किसी प्रदेश में चुनाव होता है.
कानून द्वारा यह निश्चित कर दिया जाना चाहिए कि पूरे देश के सभी चुनाव पंचायत से
लेकर संसद तक पांच वर्ष में एक समय पर केवल एक बार हों, जिससे
सरकार के ही कई हज़ार करोड़ रुपये बचेंगे. आजकल भारत की लोकतंत्रता में सुधार लाना
बहुत जरूरी है. राजनैतिक दलों को निहित स्वार्थों से ऊपर उठ कर देश और केवल देश के
भविष्य का विचार करके पूरे लोकतंत्रता में एक पारदर्शिता और परिवर्तन लाने की
हिम्मत करें.
जनता गूंगी बैठी
शासन कितना बहरा है.
भूख,गरीबी,बेकारी,घाव बहुत ही गहरा है.
कोई कुछ ना बोल
रहा बैठे रहते मौन यहां
सबके चेहरे एक
जैसे अंगुली कौन उठायेगा
प्रतीक्षा करने
वालो की कोई पूछ नहीं होती
कोई तंत्र वंत्र
नहीं है बंधु कहीं
अगर कुछ है तो बस
भीड़तंत्र है
बस देश तो ऐ वें
घिसट रहा है
बाट जोह रहा है
कि
कहीं से कोई
उभरेगा कोई अवतार
और सब ठीक हो
जायेगा
हमारी लड़ाई कोई
और आकर लड़ेगा
हम तो बस
प्रतीक्षा करेंगे
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