Wednesday, June 15, 2016

मेरा देश

  प्रजातंत्र संसार की सर्वोत्तम शासन पद्धति है। इसमें अपने भाग्य का निर्माण प्रजा के अपने हाथ में रहता है, अपनी मर्जी की व्यवस्था उसके हाथ में रहती है। बोलने- लिखने की, करने की वहाँ तक आजादी रहती है, जहाँ तक कि सार्वजनिक सुविधा और राष्ट्र व्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न न हो। इन गुणों के रहते हुए भी उसमें कमी इतनी ही है कि यदि मतदाता शिक्षित और सतर्क न हो, तो चतुर लोग उन्हें बहकाकर वोट तो झपट ही लेते हैं, बल्कि लाभ भी वही लोग उठाते हैं। प्रजाजनों का हित उपेक्षित पड़ा रहता है। प्रजातंत्र का लाभ उठाने और उसका प्राण बनाये रहने के लिए मतदाता को दूरदर्शी, देशभक्त उपयुक्त निर्णय कर सकने में समर्थ होना ही चाहिए। अन्यथा यह शासन पद्धति स्वार्थी के निहित स्वार्थ पूरे करते का साधन मात्र रह जाती है, प्रजाजन कष्ट- पीड़ित एवं पिछड़े ही बने पड़े रहते हैं।

        प्रजातंत्री देश के असली मालिकों को, मतदाताओं को यह जानना चाहिए कि उन्हें अपने कर्मचारी कैसे रखने हैं और उनकी नियुक्ति से पूर्व क्या जाँच- पड़ताल कर लेनी है। तीस पैसे की मिट्टी की हाँड़ी खरीदते हैं, तब भी उसे ठोक- बजाकर खरीदते हैं। फिर इतनी बड़ी देशव्यापी अरबों- खरबों रुपये की सम्पत्ति की साज- सँभाल और देख- भाल करने के लिए जिसे मुख्तार आम नियुक्त किया जाना है, उस प्रतिनिधि की योग्यता और ईमानदारी भी कसौटी पर कसी ही जानी चाहिए। यह पद इतना छोटा नहीं है कि इस पर बिना समझे- बूझे किसी को भी नियुक्त कर दिया जाय। यह देशव्यापी सम्पत्ति जिसमें करोड़ों जनता के जान- माल, प्रभाव स्तर आदि की समस्त सम्भावनाएँ भी जुड़ी हुई हैं, इतनी छोटी- सी चीज नहीं है कि इस वैभव वसुधा को किसी के भी हाथ सौंप दिया जाय।

        राष्ट्र की सर्वांगीण व्यवस्था एवं प्रगति के कार्य की विशालता और महत्ता को जब तक ठीक तरह समझा नहीं जायेगा और प्रतिनिधियों द्वारा बिगाड़ने, बनाये जाने की सम्भावना पर जब तक दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए विचार नहीं किया जायेगा, तब तक मत और मतदान की महत्ता समझ में ही नहीं आवेगी और उसका सदुपयोग सम्भव ही न होगा। प्रजातंत्र के मूल आधार मतदाता का उत्तरदायित्व और प्रतिनिधि की नियुक्ति का क्रम जब तक ठीक से न बनेगा, तब तक सारा गुड़- गोबर ही होता रहेगा और लोग स्वराज्य की अपेक्षा पर- राज्य को तथा आजादी से गुलामी तक को अच्छा बताने की खीज़ व्यक्त करते रहेंगे।

        मतदाता को हजार बार यह सोचना चाहिए कि राष्ट्र के विकास और विनाश का उत्तरदायित्व प्रजातंत्र ने उसके कंधे पर सौंपा है। उसे यह अद्भुत अधिकार मिला हुआ है कि चाहे तो देश को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में योगदान करे अथवा उसे टाँग पकड़कर पीछे घसीटने एवं पतन के गहरे गर्त में धकेल देने की प्रक्रिया पूरी करे। इस अधिकार को वह कई वर्ष बाद- चुनाव के समय पर एक बार ही उपयोग में ला सकता है। चेक पर दस्तखत पाँच सेकिण्ड में हो जाते हैं, उतने से ही जिंदगी भर की कमाई का जमा पैसा बैंक से निकाला जा सकता है। किसी को अपनी जायदाद बेच देने के लिए रजिस्ट्रार के दफ्तर में पाँच मिनट खड़े होना और दस्तखत कर देना काफी होता है। बाप- दादों की कमाई उतने भर से ही पराई हो जाती है। ठीक चेक पर दस्तखत करने और रजिस्ट्री ऑफिस में स्वीकृति देने जैसी क्रिया ही यह मतदान की है। ये चन्द घण्टे जो मतदान में लगते हैं, वे इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्हें खिलवाड़ नहीं समझा जाना चाहिए। उनमें अपने और अपने देश के भाग्य को बेच देने जैसी प्रक्रिया सम्पन्न होती है। 
नशा पिला देने भर से प्रसन्न होकर जो जायदाद का बैनामा कर दे, उसे क्या कहा जाय? जो थोड़ी चापलूसी से बहक कर चेक पर दस्तखत कर दे, उसे समझदार कैसे कहा जायगा? लड़की की शादी करते हैं तब लड़के तथा उसके खानदान की पूरी- पूरी जाँच करते हैं। राष्ट्र- माता की गरिमा लड़की से भी बड़ी है, उसे किसी के हाथ जब सौंपना हो, तब क्या कुछ भी देख- भाल नहीं की जानी चाहिए? धर्म- भीरु लोग गाय को कसाई के हाथों नहीं बेचते। चाहे किसी भले मानस के हाथों कम पैसे में अथवा मुफ्त ही क्यों न देनी पड़े। भावनाशील लोग गौ- माता के सुख- दुःख का भी ध्यान रखते हैं और उसका रस्सा किसी के हाथों थमा देने से पहले हजार बार विचार करते हैं कि उसे किसके हाथ में सौंपा जाना ठीक होगा? भारत माता की महिमा गौ- माता से भी बड़ी है। उसे किसी को सौंपने की प्रक्रिया का नाम ही मतदान है। इस धर्मकृत्य को एक प्रकार का यज्ञ समझा जाना चाहिए और उस पुण्य- प्रक्रिया को करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि देव भाग को कहीं श्वान, शृगाल न खा जाएँ। 

        भारत माता जैसी महान् गौ का दान करते समय प्रतिनिधि की पात्रता का ध्यान रखा ही जाना चाहिए। गलत कदम उठ जाने से ही सारे समाज का अहित होगा और उस दावानल की चपेट से बचेगा, अपना भी घर नहीं। लोगों के बहकावे में आकर कोई अपने छप्पर में आग नहीं लगा लेगा। समझदार बच्चे किसी ठग द्वारा लैमन जूस की गोली देकर कोट उतरवा लेने की चालाकी को समझते हैं और बहकावे में नहीं आते। चिड़िया तक बहेलिये का जाल और दाने का भेद समझती है और उनमें से जो होशियार होती है, पकड़ में नहीं आती। चालाक चोर रखवाली वाले कुत्ते को रोटी के टुकड़े देकर भौंकने से बन्द रहने का प्रलोभन देते हैं कि वह चुप रहे और चोरी की घात लग जाय, पर समझदार कुत्ते उस भुलावे में नहीं आते। वोट माँगने और झपटने के समय ऐसी ही लाख चतुराई बरती जाती है, जिसमें भोले मतदाता को वस्तु स्थिति का पता ही न चले और छोटे प्रलोभनों और झूठे आश्वासनों के फेर में पड़कर उससे वह काम करा लिया जाय, जो उसे नहीं करना चाहिए। अब मतदाता की बुद्धिमानी रह जाती है कि वह वस्तु स्थिति को समझे और निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह अपना फैसला उसी के पक्ष में प्रस्तुत करे, जो न्यायानुसार उसका अधिकारी है।    

        कितने वोट माँगने वाले, भोले- भाले मतदाता को दिग्भ्रान्त करने के लिए क्या- क्या तरकीबें भिड़ाते हैं, उन्हें बारीकी से देखा जाय तो मनुष्य की धूर्तता का लोहा मानना पड़ता है।  जाति- बिरादरीवाद का बहुत जोर उन दिनों दिखाई पड़ता है, जिन दिनों वोट पड़ते हैं। अपनी बिरादरी वालों को कहा जाता है- अपने सो अपने ही होते हैं, हम आपकी बिरादरी, खानदान, रिश्तेदारी में से हैं, जो आपका भला करेंगे, सो दूसरों का थोड़ा ही कर सकते हैं। जो काम आपका हम से निकल सकता है, सो दूसरों से थोड़े ही निकलेगा। चुन जाने से अपनी बिरादरी का सिर ऊँचा होगा और दूसरी बिरादरी वाले हम लोगों का मुकाबला न कर सकेंगे। इस प्रकार की बातें भावनाओं को भड़काने में जादू की तरह काम करती हैं और भोले लोग सहज ही उनसे बहकाये- भरमाये जा सकते हैं। इसी सिलसिले में एक और बात भी कही जाती है कि दूसरी बिरादरी वाले ने हम लोगों को चुनौती दी है, गाली दी है कि इस बिरादरी वाले को नीचा दिखायेंगे। वे लोग अपनी बिरादरी वाले उम्मीदवार को जिताने में लगे हुए हैं और हम लोगों को हेटी करना चाहते हैं। अतः आप लोगों का काम है कि उन लोगों को मुँह तोड़ जवाब दें या नहीं। अपने भाई की- अपनी बिरादरी की बात ऊँची करें या नहीं। इस प्रकार का जोश दिलाकर- फूट पैदा करके- अपनी बिरादरी वालों का वोट इस बहकावे में और दूसरी बिरादरी वालों का वोट आदर्श सिद्धांत, लालच, खुशामद, दोस्ती, दवाब, आदि के आधार पर प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। आजकल यही हथकंडे प्रायः सारे देश में प्रयोग किये जाते हैं- इन्हीं धूर्तताओं से चुनाव जीते जाते हैं।    

        बिरादरी के हित के नाम पर उन्होंने कब क्या किया है? बिरादरी को कुरीतियों से छुड़ाने में उनका क्या योगदान रहा है? बिरादरी के दुःखी- दरिद्र लोगों की सुविधाओं के लिए उनने क्या किया है, इसका लेखा- जोखा माँगने से वे शून्य निकलते हैं। दूसरी बिरादरी वाले चुनौती देते हैं, यह बात भी प्रायः हर जाँच- पड़ताल में झूठ निकलती है। कहीं सच भी होती है, तो वह भी दूसरी बिरादरी वाले के मुँह से लोभ या दबाव देकर ऐसे शब्द कहलवा लिए जाते हैं, जिससे अपनी बिरादरी वालों में तनाव पैदा हो और उसका लाभ अपने को मिले। फिर बिरादरी- बिरादरी के बीच कोई युद्ध तो चल नहीं रहा है, जिसमें अपनी जाति के लोगों की जीत आवश्यक हो। कोई सरकारी न्यायानुकूल विधान भी ऐसा नहीं है, जिससे किसी जाति विशेष वाला अपनी जाति वालों को फायदा करा सके। यदि वह अन्याय और पक्षपात से कोई अनुचित लाभ कभी छल−बल से करा भी दें, तो उससे बदनामी, गलत परम्परा का प्रचलन एवं इतनी गड़बड़ी फैल सकती है कि जातिवाद के नाम पर सर्वत्र पक्षपात चल पड़े और उससे जन- साधारण को न्याय मिलना ही कठिन हो जाय। इन सब बातों को देखते हुए शासन में बिरादरीवाद का कोई महत्त्व नहीं रह जाता और यदि इस तरह के आधार स्थापित करने का प्रयत्न किया गया, तो सबका द्वेष एवं विरोध लेकर वह पक्षपात करने वाला जातिवाद ही घाटे में रहेगा। 
ठगों का धन्धा सर्वत्र चलता है। ठगी के तरीके भी असंख्य हैं। ठग लोग पुरानी तरकीबें पकड़ में आ जाने पर नई तरकीबें निकालते रहते हैं, जो पिछली से अधिक अनोखी होती हैं। पर इस ठगी के व्यवसाय में पीछे काम करने वाले तीन मुख्य आधार ज्यों के त्यों रहते हैं। उनमें परिवर्तन कर सकना अभी तक किसी ठग विधा के निष्ठावान् द्वारा भी सम्भव नहीं हो सका है। (१) मीठी बातें कहकर अपने को विश्वस्त और शुभ- चिन्तक सिद्ध करना। (२) छोटा प्रलोभन- उपहार देकर अपने को उदार एवं सज्जन सिद्ध करना। (३) जल्दी ही कोई बड़ा फायदा करा देने का सब्जबाग दिखाना। इन्हीं तीन सिद्धांतों को विभिन्न रूपों में प्रयुक्त करके ठग लोग भोले लोगों को आकर्षित करते हैं और जब वे इन तरकीबों से थोड़े नरम पड़ते ललचाते दीखते हैं, तभी उन्हें वे इस तरह ठगकर चारों खाने चित्त कर देते हैं।    

        दोस्ती की आड़ में दुश्मनी करने का आज एक फैशन ही हो गया है। पुराने- जमाने में जिसे नुकसान पहुँचाना होता था, खम ठोककर सामने आते थे और अपने को खुले आम दुश्मन कहते थे तथा अपने इरादे खोल देते थे। अब फैशन दूसरे किस्म का है। नये जमाने की तरकीब यह है कि जिसे ठगना, सताना या गिराना हो उससे पहले मित्रता गाँठी जाय और जब वह भरोसा करने लगे तभी ऐसा पल्टा लिया जाय कि बेचारा दोस्त बना हुआ व्यक्ति भौंचक्का ही रह जाय और इस अप्रत्याशित विश्वासघाती झटके से चित्त- पट्ट हो जाय। वोट माँगने के दिनों कितने ही निम्न स्तर पर चुनाव लड़ने वाले द्वारा प्रयुक्त इस हथकंडे को हर कोई समझदार व्यक्ति आसानी से देख सकता है। वोट लेने से पहले की मिठास, खुशामद और अपनेपन की जो वर्षा की जाती थी, कल्पवृक्ष की तरह मनोकामना को पूरा करा देने की आशा दिलाई जाती थी, उसमें कितनी दम थी इसका नग्न रूप देखना हो, तो चुनाव के बाद उन चुने हुए सज्जन का रंग- ढंग, तौर- तरीका देखकर आसानी से वस्तु स्थिति को समझा जा सकता है। यों सही तरीकों पर चुनाव लड़ने वाले सैद्धान्तिक मतभेद या कार्यक्रमों सम्बन्धी बातों को लेकर भी जनता के पास जाते हैं। वही तरीके काम में लाते हैं, जो ईमानदार प्रतिनिधि को लाने चाहिए, पर ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं होती। 

        समय आ गया कि मतदाता अपने को इतना भोला या मूर्ख सिद्ध न होने दे कि उसे हर बार ऐसे ही किसी हथकंडे से ठगा जाय और प्रतिनिधित्व का सेहरा उन लोगों के सिर पर बँध जाय, जिनसे लोकहित की कोई आशा नहीं की जा सकती। जो जुआ खेलता है वह कई गुने लाभ की आशा से खेलता है। व्यापार तो कम लाभ पर भी किया जा सकता है, पर जुए का दाँव तो तभी लगाया जा सकता है, जब कोई गहरा लाभ हो। चुनावों में अन्धाधुन्ध खर्च किया जाने वाला पैसा वस्तुतः जुआ है। जीतने की क्या गारण्टी? जुआ उसे कहते हैं, जिसका परिणाम पूर्ण अनिश्चित हो। चुनाव में जीत ही होगी, इसका क्या निश्चय है? इतने पर भी जो लोग अन्धाधुन्ध पैसा लगाते हैं, उनका जरूर कोई बड़ा दाव होना चाहिए और वह इतना फायदेमन्द होना चाहिए कि यदि दाव हार भी जाया जाय, तो उस सफलता से होने वाले लाभ को देखते हुए उस जोखिम को बर्दाश्त भी किया जाय। कुछ को छोड़कर चुनाव में अन्धाधुन्ध खर्च करने वालों का दृष्टिकोण प्रायः ऐसा ही होता है, वहाँ उसके पीछे किसी कुटिलता की सम्भावना तलाश की जानी चाहिए।    

        कोई ईमानदार व्यक्ति देश सेवा का अवसर पाने के लिए ही चुनाव में इतना खर्च करता हो, तो भी यह न्यायानुकूल नहीं। समय के साथ- साथ इतना धन भी क्यों देना पड़े और क्यों खर्च का इतना ऊँचा स्तर बढ़े, जिसे गरीब प्रतिनिधि वहन ही न कर सके। होना यह चाहिए कि चुनावों में इतना खर्च होने की स्थिति ही न आवे। बहुत खर्च होने पर उसे पूरा करने की जो चिन्ता करनी पड़ती है, वह किसी को भी न करनी पड़े, यही उचित है। 
प्रश्न यह है कि क्या जो हो रहा है, होता रहा है, उसे ही होने दिया जाय या उसमें कुछ परिवर्तन लाया जाय। अधिनायकवाद में तो प्रजा के बस की बात नहीं रहती, पर जनतन्त्र में यह गुंजाइश रहती है कि यदि प्रजा चाहे, तो अच्छा शासन लाया जा सकता है और उसके माध्यम से व्यक्ति एवं समाज की सुख शान्ति को सुरक्षित एवं समुन्नत किया जा सकता है। जब मतदाता अपनी जिम्मेदारी को अनुभव करे और यह सोचे कि मतदान के रूप में उसे कितना बड़ा अधिकार और उत्तरदायित्व मिला हुआ है। अपने और अपने देश के भाग्य भविष्य का निर्माण कर सकने में उसे कितना बड़ा योगदान कर सकने का अवसर प्राप्त है। इतने बड़े अवसर के उपलब्ध होते हुए भी यदि उसका उपयोग करना न आया, तो यही समझना चाहिए कि सोते समय सुरक्षा के लिए नियुक्त बन्दर के हाथ में तलवार देकर राजा ने भूल ही की है। 

        उसके मुँह पर मक्खी बैठी और उसे उड़ाने के लिए बन्दर ने तलवार चला दी फलस्वरूप उसे नाक से ही हाथ धोना पड़ा। अनाड़ी वोटर उस बन्दर की तरह है, जिसे तलवार चलाने के लिए उपयुक्त स्थान और अवसर ढूँढ़ने की समझ नहीं है। जलती दिया सलाई डाल देने से विपत्ति ही उत्पन्न हो सकती है। भले ही खेल- खेल में या असावधानी से ही वह भूल क्यों न हो गई हो, पर उसका परिणाम तो भयावह हुए बिना रहेगा नहीं। छूटा हुआ तीर वापस नहीं आ सकता, दिया हुआ वोट लौटाया नहीं जा सकता। इसलिए जब तक उसका प्रयोग नहीं हुआ है, उससे पहले ही हजार बार सोचना चाहिए कि इस राष्ट्र की अमानत और समाज की पवित्र धरोहर की श्रद्धांजलि को कहाँ अर्पित किया जाय? यह देवता के चरणों में चढ़ाने योग्य है या असुर को सौंपा जाय। वोट किसे दिया जाय, किसे न दिया जाय। इसके सम्बन्ध में देश के हित और समाज के भविष्य का ध्यान रखते हुए उपयुक्त पात्र की तलाश की जाय, तभी यह सम्भव है कि देश के सुदिन आये और उसका सौभाग्य सूर्य उदय हुआ है।    

        राष्ट्र को पतन या उत्थान की ओर ले चलने को वोट के रूप में मिले हुए अधिकार और अवसर का दूरदर्शिता के साथ उपयोग किया जाना चाहिए। यह तथ्य हमें अपने देश के मालिकों को तत्परतापूर्वक समझाना ही चाहिए और उन्हें पूरे मनोयोग एवं गम्भीरता के साथ इसे समझना चाहिए। प्रजातंत्र की सफलता के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि मतदाता दूरदर्शी एवं जिम्मेदार बनकर अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को समझें और उसे दृढ़ता के साथ निबाहें। वोट केवल उन्हें मिले, जो उसके हकदार हैं। चुनाव में वे जीतें, जिनके हाथ में न्याय और लोकहित सुरक्षित है। ऐसे लोग कथनी से नहीं करनी से परखे जाने चाहिए और उनके अब तक के क्रिया कलाप को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखा जाना चाहिए कि इनके रक्त में अनैतिकता के विष- बीजाणु तो नहीं हैं। जिस प्रकार किसी घातक रोग के रोगी से हम अपनी कन्या का विवाह करने से स्पष्ट इन्कार कर देते हैं, उसी साहस और विवेक को अपनाकर हमें उन लोगों को वोट देने से स्पष्ट इन्कार कर देना चाहिए, जो नीति, सदाचार और आदर्शों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।    

        इतना साहस न होने और वस्तु स्थिति को आँख मूँदकर स्वीकारते रहने का अर्थ यह होगा कि राजनैतिक अनीति और अवांछनीयता जितना चाहें, खुलकर खेलें। राज सत्ताएँ जहाँ कहीं दुर्दशा हुईं उनका जितना कारण शासकों की अनियन्त्रित महत्त्वाकांक्षाएँ रहीं, उससे अधिक प्रजा का अन्याय चुपचाप सहन करते रहने की मूर्खता भी रही है। प्रजातंत्र जहाँ भी असफल हो रहा हो, वहाँ यह बात स्पष्ट देखी और समझी जा सकती है।   

        चोर का दाव तब लगता है, जब मालिक सो रहा हो। जागते घर में चोरी नहीं हो सकती। प्रजातन्त्र की शासन व्यवस्था में सरकार प्रजा के हित के लिए प्रजा के द्वारा ही चलती है। पर यदि प्रजा का हित न हो रहा हो, चंद मुट्ठी भर लोगों की सम्पन्नता तथा सुविधाएँ प्राप्त करने की स्थिति बढ़ती जाय और प्रजाजनों के कष्ट बढ़ते जायँ, तो समझना चाहिए कहीं कोई बड़ी गलती रह रही है। अपने देश में हमें यह गलती मतदाता की गफलत और अदूरदर्शिता के रूप में दिखाई पड़ती है। मालिक सो जाय, तो चोरों की घात लगती है। मतदाता अपने बहुमूल्य मतदान का उपयोग समझ- बूझ कर न कर रहा हो, तो फिर उसे लाभ कैसे मिलेगा? मतदाता की असावधानी तथा अदूरदर्शिता को हटाने के लिए हमें प्राणपण से चेष्टा करनी चाहिए, ताकि इस श्रेष्ठ शासन पद्धति का लाभ सर्व साधारण को मिल सके। 
 किसी एक कारखाने में एक क्लर्क की जरूरत थी विज्ञापन छपा। अर्जी लेकर मुलाकात के लिए कितने ही बाबू आये। मैनेजर ने योग्यता के हिसाब से एक व्यक्ति को पसन्द किया और अपनी सिफारिश के साथ उसे मालिक के पास नियुक्ति के लिए ले गया। मालिक भी योग्यता की दृष्टि से सन्तुष्ट हुआ, पर जब उसके लिवास- पहनाव को देखा, तो अधिक पूछताछ शुरू की। मालूम हुआ कि वह कपड़े कई सौ रूपये के हैं और वह सदा से ऐसे ही पहनने का आदी रहा है। मालिक ने उसे काम देने से यह कहकर इन्कार कर दिया कि यहाँ तो २०० रुपये मासिक मिलेंगे। इतना तो आपके ठाठ- बाट के लिए ही पूरा नहीं पड़ेगा। गुजारे के लिए आपको कोई न कोई अनुचित रास्ता ढूँढ़ना पड़ेगा। इससे मुझे सदा सन्देह और अविश्वास बना रहेगा। मुझे तो सादगी से रहने वाला ऐसा ईमानदार व्यक्ति चाहिए, जो नियत वेतन में ही सन्तोषपूर्वक अपना गुजारा चला ले।    

        चुनाव जीतने के लिए अब इतना अधिक खर्च करना पड़ता है कि उसे पूरा कर सकना मामूली आदमी के बलबूते की बात नहीं रही। कानून के अनुसार थोड़ा- सा ही पैसा प्रतिनिधियों को चुनाव में खर्च करने का अधिकार है। हिसाब भी देना पड़ता है, पर वह कागजी कार्यवाही भर है। वास्तविक खर्च उससे कितने गुना होता है, उसे भुक्तभोगी या निकट सम्पर्क में आने वाले भली- भाँति जानते हैं। सवारी, पर्चे- पोस्टर, भाषण जुलूस आदि में होने वाले खर्चे तो गौण हैं। असली खर्चा तो लोगों को अपनी ओर मोड़ने के लिए किया जाता है। प्रभावशाली लोगों को अपने पक्ष में मिलाने के जोड़- तोड़ में न जाने कितना धन लग जाता है? चुनाव के दिन वोटरों को मुफ्त सवारी और मुफ्त भोजन आदि देने की मनाही है, पर अमल कहाँ होता है? कानून तो हर बुरे काम के विरुद्ध बने हुए हैं और नियम तोड़ने पर कड़े दण्ड की व्यवस्था है, पर वह व्यवस्था कितनी चलती है, यह हम आँखों से देखते हैं। कानून कायदे भर ही बात होती, तब तो कितना अच्छा होता? पर जो हो रहा है आखिर आँखें उसे भी देखती तो हैं ही। चुनाव जीतना इन दिनों कम खर्च का काम नहीं है। यों अपवाद तो हर जगह होते हैं। ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो उचित तरीकों के लिए उचित खर्च ही करते हों, पर उनकी संख्या नगण्य ही होगी।    

        जब तक चुनाव इतना महँगा रहेगा, तब तक केवल सम्पन्न लोग ही विजयी होते रहेंगे। आदर्शवादी और लोकसेवी जीवन- क्रम अपनाने वाला कोई विरला व्यक्ति ही इतने साधन जुटा सकता है कि इतने महँगे चुनाव का बोझा वहन कर सके। ऐसी दशा में परखे हुए और तपे हुए ऐसे व्यक्तियों का शासन सूत्र सँभाल सकने के स्थान तक पहुँचना कठिन ही बना रहेगा, जो निर्भीक और निष्पक्ष हैं तथा जिनमें सूझ- बूझ और क्षमता इस कार्य को सँभालने की विद्यमान है।    


        कई राजनैतिक पार्टियाँ अपने प्रतिनिधियों को पैसा देती हैं। यह पैसा जिन लोगों से आता है, उनका प्रभाव और दबाव उन संस्थाओं पर रहना सम्भव है। इसके अतिरिक्त उतनी बड़ी धनराशि जुटाने के लिए भी उन संस्थाओं को न जाने क्या- क्या ऊँच- नीच करनी पड़ती होगी, उसकी प्रतिक्रिया के क्या- क्या परिणाम होते होंगे? यह आम चर्चा का विषय नहीं है। वस्तु स्थिति को जो लोग समझते हैं, उन्हें इस निष्कर्ष पर ही पहुँचना पड़ता है कि पार्टियों द्वारा दिए हुए धन से जीतने वाले प्रतिनिधि की भी स्वतन्त्रता निष्पक्षता, अक्षुण्य नहीं रह सकती और उसे भी अपनी स्वतन्त्र चेतना के अनुसार उपयुक्त सुझाव या दबाव देने का अधिकार नहीं रहता। उस बेचारे को कठपुतली ही बनकर रहना पड़ता है। ऐसी दशा में स्वतन्त्र चिंतन का कुछ मूल्य नहीं रह जाता।    

        स्वयं सम्पन्न न हो और पार्टी अप्रत्यक्ष दबाव से बचने के लिये बाहरी सहायता लेना भी उचित न समझे, तो फिर एक ही उपाय रह जाता है कि चुनाव का खर्च न्यूनतम हो, उसे क्षेत्र के मतदाता स्वयं वहन करें। जो अपना समय ईमानदारी से लोकहित के कार्यों में देना चाहता है, उसे इस बात के लिए मजबूर न किया जाना चाहिए कि वह चुनाव में खर्च करने के लिये लम्बी- चौड़ी धनराशि भी निकाले। इसका दबाव जिस पर पड़ेगा, उसकी ईमानदारी अटल बनी रहना संदिग्ध हो जायेगा, जो वेतन चुने हुए प्रतिनिधियों को मिलता है, वह उनके पद और कार्य के साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारियों को पूरा करने लायक ही होता है। उसमें से इतनी बचत सम्भव नहीं कि खर्चीले चुनाव का बोझ भी वहन किया जा सके।    

        राजनैतिक पार्टियों में से जिसे जो पसन्द हो वह उसमें रहे, इससे कुछ बनता- बिगड़ता नहीं। प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियाँ देशभक्त होती हैं और हर कार्यक्रम के अनुसार देश को आगे बढ़ाया जा सकता है। शर्त इतनी भर है कि प्रतिनिधि सच्चे अर्थों में देशभक्त और सच्चे अर्थों में ईमानदार तथा कर्तव्यपरायण हो। राजतन्त्र, जो इन दिनों बहुत बदनाम और पिछड़ा हुआ माना जाता है, किसी जमाने में रामचन्द्र जी के राजा होने पर उसी पिछड़े समझे जाने वाले तन्त्र के आधार पर सतयुग के दृश्य उपस्थित हो गये थे और एक राज्य- धर्म राज्य के सपने गाँधीजी तक देखते रहे। अच्छे से अच्छे वाद और संगठन जब बुरे लोगों से भर जाते हैं, तो उसके परिणाम बुरे ही होते हैं। इसलिए कि राजनैतिक पार्टी ने अपने घोषणा- पत्र में क्या छापा है, इतना देख लेना पर्याप्त नहीं। सवाल यह है कि उन घोषणाओं को ईमानदारी से पूरा कौन करेगा? यदि व्यक्तियों का स्तर ऊँचा न रहे- तो ऊँची घोषणाओं और आश्वासनों के बावजूद, जो कुछ सामने आवेगा निराशा और चिंताजनक ही होगा। 

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने और चापलूसों द्वारा अपनी बड़ाई कराने का इन दिनों खूब रिवाज है। समय आने पर अच्छाइयों के तिल का ताड़ बना देने और बुराइयों के ऊँट को घड़े में छिपा देने की कला में लोग बहुत प्रवीण हो गये हैं। चुनावों के समय जनता को गुमराह करने के लिए भले को बुरा और बुरे को भला साबित करने के लिए जो कुछ जिस ढँग से कहा जाता है, उसे देख- सुन के आश्चर्य होता है कि युद्ध और प्रेम में सब कुछ सही गलत किया जाता है। युद्ध और प्रेम का अनुभव जिन्हें न हो, वे चुनावों के समय जो कुछ होता है, उसे तटस्थ और सूक्ष्मदर्शी की बारीकियों से देखें, तो पता चलेगा कि उलटी- सीधी पट्टी  का जैसा सुव्यवस्थित क्रम चुनावों के दिनों अपनाया जाता है, उससे और सब अवसर पीछे रह जाते है। इस प्रचार- प्रोपेगैंडा के कुहासे को चीरकर हमें वस्तु स्थिति का पता लगाना चाहिये और प्रतिनिधि के पिछले जीवन की गतिविधियों का बारीकी से मूल्यांकन करना चाहिए। कोई व्यक्ति एक दिन में ही लोकसेवी परमार्थी या देश भक्त नहीं बन जाता। जिनके अन्दर यह प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे पग- पग पर उन्हें अनायास ही कार्यान्वित करते रहते हैं और उन प्रयत्नों तथा घटनाक्रमों की जाँच- पड़ताल की जाय, तो सहज ही पता लग जाता है कि किसी व्यक्ति का चरित्र- अन्तःकरण एवं लक्ष्य प्रयोजन किस दिशा में किस गति से काम कर रहा है।    

        विदेशों में व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को अलग- अलग कहा जाता है और व्यक्तिगत जीवन की भ्रष्टता को सार्वजनिक कार्यों की चर्चा चलने पर आड़े नहीं आने दिया जाता। यह गलत दृष्टिकोण है। व्यक्ति एक है, उसका चिंतन और चरित्र एक ही हो सकता है। इसलिए व्यक्तिगत जीवन को सार्वजनिक जीवन के साथ जुड़ा ही होना चाहिए। निजी जीवन में जिसके दोष- दुर्गुण भरे पड़े हैं वह सार्वजनिक जीवन में सही खड़ा रह सकेगा इसमें पूरा सन्देह है।    

        प्रतिनिधि के चुनाव में उसकी सक्रियता, सूझ- बूझ लोकमंगल की भावना, प्रगतिशीलता, प्रतिभा, शिक्षा, योग्यता आदि सभी बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए, इन विशेषताओं के बिना सही रूप से प्रतिनिधित्व कर सकना और अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन सम्भव ही न हो सकेगा। इसके अतिरिक्त सबसे मुख्य बात जो रह जाती है, वह है चरित्र निष्ठा, सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता की। आदर्श के प्रति हर परिस्थिति में खड़े और डटे रहने का साहस जिसमें है, उसे ही प्रतिनिधित्व के योग्य स्वीकार किया जाना चाहिए। शिक्षा, सम्पन्नता या कुशलता के आधार पर ही किसी को इस योग्य नहीं मान लिया जाना चाहिए कि यह प्रतिनिधित्व के साथ जुड़े हुए कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को ठीक तरह निभा सकेगा। व्यक्तिगत चरित्र पिछले जीवन के क्रिया- कलाप तथा भविष्य में आगत उत्तरादायित्वों का निर्वाह कर सकने योग्य तत्परता एवं सूझ- बूझ की कसौटी पर भावी प्रतिनिधियों की पंक्ति में खड़े लोगों को परखा जाना चाहिए और उनमें से जो सर्वोत्तम हो, उसी के पक्ष में विचारशील लोगों के द्वारा निर्णय लिया जाना चाहिए। 

        अच्छा हो यह निर्णय विवेकवान निष्पक्ष लोगों के बहुमत द्वारा व्यक्तिगत परामर्श से लिया जाय। सभा- सम्मेलनों में तो पक्षपात पड़ जाता है और उसमें उपद्रवी लोगों का ही पल्ला भारी रहता है, वे चीख- चिल्लाकर उल्टा सीधा वातावरण भी बदल देते हैं। इसलिये इस संबंध में विचारशीलों और दूरदर्शियों की विचार विनिमय वाली गोष्ठी ही उपयुक्त माध्यम मानी जानी चाहिए। राजनैतिक पार्टियों ने जो राग- द्वेष का रूप इन दिनों ले रखा है, वह भी ऐसे ही भले लोगों के पहुँचने पर समाप्त होगा। ९९ प्रतिशत शासन व्यवस्था तो सबके लिए समान हल ही प्रस्तुत करती है। 

        नीतियों सम्बन्धी थोड़े से आधार ही मतभेद के रह जाते है, जो यदि प्रतिनिधियों में सद्भावना, दूरदर्शिता एवं मिल- जुलकर काम करने की भावना हो, तो वे थोड़े मतभेद भी आड़े नहीं आते। पार्टियों को कसौटी पर कसने की अपेक्षा प्रतिनिधि को उनके चरित्र और आदर्शों की कसौटी पर ही कसा जाना चाहिए और जो उपयुक्तता की दृष्टि से सर्वोत्तम हों, उन्हें ही समर्थन मिलना चाहिए। उनके विरोध में खड़े होने वाले को समझाया जाना चाहिए कि यह किसी की इज्जत घटने बढ़ने का व्यक्तिगत सवाल नहीं, देश सेवा का ही एक प्रकार है। आप लोग उलझने की अपेक्षा सेवा का दूसरा रास्ता चुन लें। समझदार होंगे, तो मान भी सकते हैं। नहीं तो लोकमत के विपरीत चलने का फल भी उन्हें असफलता के रूप में भुगत लेने दिया जा सकता है।    

        दूसरा प्रश्र खर्च सम्बन्धी तथा प्रचार व्यवस्था सम्बन्धी रह जाता है। इस भार को उठाना विशुद्ध रूप से मतदाताओं का कर्तव्य है, क्योंकि प्रतिनिधि उन्हीं की सेवा करने जा रहा है। हम घर में- कारखाने में नौकर रखते हैं, तो उनका निर्वाह खर्च भी देते हैं। ट्रेनिंग, ड्रेस, छुट्टी, किराया आदि का प्रबन्ध भी करते हैं। मुकदमे में वकील खड़ा करते हैं, तो उसकी फीस भी देते हैं। प्रतिनिधि जब अपना ही काम करने भेजा जा रहा है, तो नियत स्थान तक पहुँचाने का खर्च भी इस क्षेत्र की जनता को ही देना चाहिए। न केवल खर्च वरन् प्रचार की व्यवस्था भी उन्हीं लोगों को सँभालनी चाहिए। कोई व्यक्ति अपनी प्रशंसा करता फिरे और अपने लिए आप वोट माँगे यह उसके सम्मान की बात नहीं है और न उस जनता की जिसने उसे खड़ा किया है। यह कार्य भी उस क्षेत्र के समझदार और प्रभावशाली लोगों के द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए।
    
        मतदाताओं को अपना उत्तरदायित्व समझने और कर्तव्य पालन करने की शिक्षा एक सुव्यवस्थित आन्दोलन के रूप में दी जानी चाहिए। ‘अपने मालिकों को समझायें’ नारे को ध्यान में रखते हुए हमें एक ऐसा अभियान खड़ा करना चाहिए, जो सब राजनैतिक पार्टियों से सर्वथा स्वतंत्र हो और उसकी नींव विशुद्ध देशभक्ति, चरित्रनिष्ठा एवं कर्तव्य पालन की जागरूकता उत्पन्न करने के आधार पर खड़ी की जानी चाहिए। राजनीति, धर्म- सम्प्रदाय, सामाजिक मान्यताओं को इसमें आड़े न आने दिया जाय, वरन् सभी वर्गों के विचारशील लोग इसे प्रजातंत्र को उपयोगी बनाने के प्रयास का शिलान्यास मानकर उसकी महत्ता को समझें और राष्ट्र निर्माण के इस नितान्त आवश्यक एवं अति महत्त्वपूर्ण कार्य में बिना किसी भेद- भाव के अग्रसर बनाने के लिए अपना पूरा योगदान दें।    

        मतदाता को वोट का महत्त्व और उसके सदुपयोग दुरुपयोग के सम्भावित भले- बुरे परिणामों को विस्तारपूर्वक उदाहरणों के साथ समझाया जाना चाहिए। असल में हुआ यह है कि अब तक पार्टियों ने प्रतिनिधियों ने वोट माँगे झपटे तो हैं, पर वोटरों के कर्तव्यों का ज्ञान कराने और मतदान की पवित्रता की गरिमा को समझाने का प्रयत्न नहीं किया। सम्भव है इसलिए न किया गया हो कि उनमें से अधिकांश इस कसौटी पर खोटे सिद्ध हो सकते थे और उनका ही पत्ता कट सकता था। जो हो उस भूल को अब सुधारा जाना चाहिए और गिनती भूल जाने पर नये सिरे से गिनने- अथवा ‘सुबह का भूला शाम को घर आवे’ वाली उक्ति के आधार पर वह कार्य अब आरम्भ कराना चाहिए, जो आज से वर्षों पूर्व किया जाना चाहिए था। 
वोटरों को न केवल उनका उत्तरदायित्व समझाया जाय, वरन् उपयुक्त प्रतिनिधि छाँटने की सांगोपांग विधि व्यवस्था भी समझाई जाय। बात लगती छोटी है, पर वस्तुतः वह एक समग्र दर्शन की तरह है कि चुने जाने के लिए लालायित लोगों को धक्का मारकर आगे बढ़ निकलने को आतुर लोगों में से उपयुक्त व्यक्ति कैसे किस आधार पर छाँटा जाये? धूर्त लोग इस अवसर पर भी अपने पिट्ठुओं द्वारा कभी धक्का- मुक्की और घुसपैठ कर सकते हैं, इस कुहराम के बीच दूध और पानी को कैसे छाँटा जाय? यह कार्य काफी सूझ- बूझ का है, सो उसे विवेकशील लोगों द्वारा पूरा किया ही जाना चाहिए।

        इस आन्दोलन की ऐसी सर्वांगपूर्ण संरचना होनी चाहिए, जिसे अपनाकर उस क्षेत्र की जनता अपने प्रिय प्रतिनिधि को चुनाव संग्राम में विजयी बनाने में सफल हो सके। कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवकों की एक सेना का गठन इस व्यवस्था का आवश्यक अंग होगा, जो घर- घर जाकर प्रजातंत्र का स्वरूप और उसमें वोट के उपयोग का महत्त्व समझायें। वे कार्यकर्ता निश्चित प्रतिनिधि के पक्ष में जो आवश्यक जानकारी है, उसे सर्वसाधारण को समझायें और अपने स्वतंत्र विवेक का उपयोग कर बिना किसी दबाव, लोभ या बहकावे में आयें, विशुद्ध देश भक्ति की भावना से वोट देने के लिए तैयार करें। 

        ऐसा निष्पक्ष साहस उत्पन्न करना इस संगठन सेना का प्रधान कार्य होना चाहिए और उन्हें ही यह काम भी सौंपा जाना चाहिए कि चुनाव के दिनों में मतदाता को हजार काम छोड़कर उत्साहपूर्वक अपने पैरों मतदान के लिए पहुँचने और उसके बदले में प्रतिनिधि पर किसी प्रकार का आर्थिक अथवा बुलाने, याद दिलाने का बोझ न पड़ने दें। न अहसान ही प्रतिनिधि पर जतायें। यह कार्य उसे अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य का अनिवार्य अंग मानकर ही सम्पन्न करना चाहिए। प्रचार, पर्चे, पोस्टर, सभा, जुलूस यदि आवश्यक हों और उनकी व्यवस्था करनी ही पड़े, तो इसका खर्च भी मतदाताओं को हर घर से एक- एक मुट्ठी अनाज या पैसा इकट्ठा करके जमा करना चाहिए। उपयुक्त प्रतिनिधि चुने जाने का यही तरीका है और ऐसे चुनावों को ही वास्तविक जनमत पर आधारित कहा जा सकेगा और इसी में अपने देश तथा प्रजातंत्र आदर्श का मस्तक ऊँचा होगा। 

न्याय के पहरेदार कहाँ हैं, स्त्री के अधिकार कहाँ हैं,
नारी के हमदर्द थे जो, अब वो सब मक्कार कहाँ हैं
क्रोध भारी लगता होगा ना, तुमको नेक विचारों पर,
ज्वाला को बुझा दिया होगा, बस झूठे नक्कारों पर
क्या केवल लिखना सीखा है, तुमने अत्याचारों पर,
मैं भी तो देखूँ तुम जैसे, नीच और लाचार कहाँ है
नारी के हमदर्द थे जो, अब वो सब मक्कार कहाँ हैं
बड़ी – बड़ी बातें करते हो, शोषण की, अबला नारी की,
ग्रन्थ भी लिख सकते हो तुम, व्यथा पे इस बेचारी की,
कलम बुदक्का लेकर अपना तुम करो प्रतीछा बारी की
मैं भी तो देखूँ जग के सम्मानित रचनाकार कहाँ है
नारी के हमदर्द थे जो, अब वो सब मक्कार कहाँ हैं
अन्याय देख जो मूंदे आँखें, वो निश्चित इन्सान नहीं
बुरा लगा तो त्यागो मुझ को, मेरा सच नादान नहीं
मेरा भी वो मित्र नहीं जिसमे बिलकुल अभिमान नहीं
मैं भी तो देखूँ तुम जैसे, लज्जा के अवतार कहाँ है
नारी के हमदर्द थे जो, अब वो सब मक्कार कहाँ हैं
न्याय के पहरेदार कहाँ हैं, स्त्री के अधिकार कहाँ हैं,
नारी के हमदर्द थे जो, अब वो सब मक्कार कहाँ हैं

No comments:

Post a Comment