ऐसे मनुष्यों का सर्वथा अभाव नहीं है कि जिन्होंने अपनी पहुँच, पुरुषार्थ, प्रयत्न एवं प्रारब्ध तक साँसारिक सुख जैसे स्वास्थ्य सुख; सन्तान-सुख; सामाजिक एवं पारिवारिक सुख, न प्राप्त कर लिया हो। अनेकों ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जिन्हें कोई विशेष दुःख न हो और किसी हद तक उन्हें सुखी ही कहा जा सकता है।
किन्तु ऐसे सुखियों से भी यदि सच्चाई के साथ बतलाने का अनुरोध किया जाये तो निश्चय ही वे यही कहेंगे कि उन्हें कोई दुःख तो अवश्य नहीं है, फिर भी इस सुख में एक अभाव, एक अतृप्ति खटकती रहती है। कुछ ऐसा अनुभव होता रहता है जैसे हमें वह सुख, वह तृप्ति नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिये और मिल भी सकती है। इस अभाव, इस खटक और इस अतृप्ति का कारण खोजने में पर भी नहीं मिलता है।
निःसन्देह इस प्रकार की अतृप्ति बड़े से बड़े सुखी व्यक्ति में रहा करती है। यह अभाव, यह अतृप्ति उसकी आत्मा की माँग होती है जो पूरी नहीं की जाती है। संसार के सारे सुख इन्द्रिय-जन्य शारीरिक ही होते हैं। शरीर का अंश न होने से आत्मा की तृप्ति उस से नहीं होती। आत्मा की यही अतृप्ति सुखी व्यक्ति को भी अभाव बनकर खटकती रहती है।
जहाँ शरीर का सुख अर्थ है वहाँ आत्मा का सुख परमार्थ है। जब तक परमार्थ द्वारा आत्मा को संतुष्ट न किया जायेगा, उसकी माँग पूरी न की जायेगी तब तक सर्व सुखों के बीच भी मनुष्य को एक अभाव एक अतृप्ति व्यग्र करती ही रहेगी। शरीर अथवा मन को, संतुष्ट कर लेना भर ही वास्तव में सुख नहीं है। वास्तविक सुख है—आत्मा का संतुष्ट करना, उसे प्रसन्न करना।
साँसारिक भोग भोगने और मनभाई परिस्थितियाँ पा लेने से शारीरिक सुख मिलता है, किन्तु आत्मा सुखी होती है—परोपकार एवं पर सेवा रूपी परमार्थ कार्यों से। अतएव विवेकशील व्यक्ति सच्चा सुख पाने के लिये स्वार्थ सुख की अपेक्षा परमार्थ सुख को अधिक महत्व देते हैं। वे परमार्थ सुख के लिये स्वार्थ सुख का भी त्याग कर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शारीरिक सुख छाया है और आत्मिक सुख सत्य है, यथार्थ है। जिसके प्रति हमारी इतनी जिज्ञासा है, इतना आकर्षण है उसके बिम्ब को क्यों प्राप्त किया जाये, क्यों न चन्द्रमा की ही उपलब्धि की जाये।
मीरजाफर द्वारा विश्वासघात—
सन् 1757 की बात है—अंग्रेज बंगाल पर अपना कब्जा करने का प्रयत्न कर रहे थे। किन्तु नवाब सिराजुद्दौला की नीतिमयी वीरता से उनकी दाल न गलती थी। बार-बार मुँह की खाने पर अंग्रेजों ने कूटनीति से काम लिया। उन्होंने सिराजुद्दौला के सेनापति मीरजाफर पर डोरे डालने शुरू किये। उन्हें पता लग गया कि मीरजाफर एक कुशल सेनापति होते हुये भी बड़ा लालची और कमजर्फ आदमी है। अंग्रेजों ने उसका लाभ उठाया और उसे बंगाल का नवाब बना देने का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। मीरजाफर नवाबी का स्वप्न देखता हुआ बड़ा खुश रहने लगा।
इधर अंग्रेजों ने नई तैयारी करके बंगाल पर फिर आक्रमण किया। सिराजुद्दौला ने सेनापति मीरजाफर को मोर्चे पर भेजा। नवाब के मन बढ़े सिपाही बड़ी वीरता से लड़े किन्तु गद्दार मीरजाफर ने उन्हें हतोत्साहित करके अस्त-व्यस्त कर दिया। अंग्रेजों की जीत हो गई जिसके फलस्वरूप बंगाल पर उनका अधिकार हो गया।
मीरजाफर ने जब अपना वचन पूरा करने को कहा—तो अंग्रेज सेनापति ने घृणा से यह कहकर उसे तलवार के घाट उतार दिया—”कि ऐ विश्वास घाती कुत्ते! तू बंगाल का सुलतान होने का स्वप्न देख रहा है। तेरे जैसे गद्दार को दुनिया में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। जब तू अपने मालिक और मुल्क का न हुआ, तो हमारा ही क्या होगा?”
परोपकार अथवा पर-सेवा ही परमार्थ का सच्चा एवं सक्रिय स्वरूप है। योग, ध्यान, साधना अथवा आराधना की अपेक्षा आत्मिक सुख के मार्ग परमार्थ की ओर बढ़ने के लिये—’सेवा’ सबसे सरल साधन एवं उपाय है।
सेवा संसार में सबसे बड़ा परमार्थ है। इसमें मानव जीवन की महती मान्यताओं का मूल्याँकन रहता है। सेवा द्वारा किसी दूसरे को सुखी बनाने में जो आत्मतोष होता है, उसकी तुलना में शारीरिक सुख तुच्छ एवं नगण्य है। दूरदर्शी व्यक्ति जानते हैं कि परोपकार से मनुष्य का न केवल लोक ही सुधरता है अपितु परलोक भी बनता है। संसार यात्रा के समय जो जिस मात्रा में अपनी आत्मा को प्रसन्न एवं उन्नत बना लेगा, महाभियान के समय वह उतने ही उच्च लोकों का अधिकारी बनेगा। इस प्रकार की अहैतुक प्रसन्नता आत्मा को यदि मिल सकती है तो केवल परोपकार रूपी परमार्थ से। जो परोपकार अथवा परसेवा का कोई व्यावहारिक सत्कर्म न करके आत्मतोष के लिये तप अथवा योग साधन मात्र करते रहते हैं, वे भी एक प्रकार के स्वार्थी ही होते हैं। भले ही उनका वह स्वार्थ तुच्छ, हेय अथवा निकृष्ट न कहा जाये। हाँ, यह आध्यात्मिक स्वार्थ तब अवश्य ही परमार्थ बन सकता है जब यह पर-सेवा अथवा परोपकार के लिये ही किया जाये। यदि तप द्वारा प्राप्त होने वाले आत्म संयम, आत्मशक्ति अथवा आत्मरोध का उद्देश्य यह हो कि हम इस प्रकार एक सच्चे सेवक की पवित्रता प्राप्त करके जन-सेवा, लोक सेवा अथवा परोपकार कार्य में ही संलग्न होंगे तब तो वह तप श्लाघ्य होगा अन्यथा वह भी जायेगा स्वार्थ की परिधि में ही।
आध्यात्मिक उद्योग अथवा परमार्थ साधना का प्रतिफल क्या है —आत्म-बोध। आत्म-बोध, आत्मतोष, आत्म प्रसाद अथवा आत्म सुख। सेवा के सत्कर्म करने पर इस सुफल की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। आज ही कोई छोटा-सा सेवा कार्य की याद कर देखिये—आप पायेंगे कि उक्त छोटे सेवा कार्य में जितनी आत्म प्रसन्नता, आत्म संतोष प्राप्त हुआ है उतना सप्ताह भर की पूजा उपासना अथवा तपश्चर्या में भी नहीं प्राप्त हुआ। यह यथार्थ तथा व्यक्तिगत अनुभव कोई भी बड़ा-छोटा व्यक्ति स्वयं ही करके निर्णय कर सकता है कि परोपकार तथा सेवा सत्कार्य सद्य फल-दाता होते हैं। तब ऐसे सद्य-फल-दाता सेवा तप को छोड़कर मनः-मार्गीय उस तपश्चर्या में समय क्यों दिया जाये, जिसका कि प्रतिफल निश्चित नहीं होता।
स्थैर्य तप के नियम नितान्त वैज्ञानिक एवं विलक्षण हैं। यह तलवार की धार से भी अधिक तीक्ष्ण तथा मृणाल-तन्तु से भी अधिक कोमल होते हैं। एक तो इनका सम्पूर्ण निर्वाह ही कठिन है दूसरे यदि इनका निर्वाह भी किये जाने का प्रयत्न किया जाये तो यह तनिक सी मानसिक छलन से टूट जाते हैं। एक लम्बे समय की साधना क्षण मात्र में भंग हो जाती है। वर्षों के साधे हुये संकल्प चारित्रिक विकल्प से नष्ट हो जाते हैं और तब बहुधा साधक को पुनः ‘अ’ ‘आ’ से यात्रा प्रारम्भ करनी पड़ती है। इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों का क्रम न जाने कब तक चलता रहता है। यह मनः मार्गीय अध्यात्म साधना जन्म जन्मान्तरों तक की अवधि ले सकती है। सेवा मार्ग से जिस मनःशाँति के लिये मनुष्य को एक जीवन ही काफी है उसके लिये हठ पूर्वक जन्म जन्मान्तरों का मूल्य चुकाना महंगा ही कहा जायेगा। वैसे जो सामर्थ्यवान हैं वे चुकाते भी हैं और एक लम्बी यात्रा का श्रम करके अपना लक्ष्य प्राप्त भी कर लेते हैं। किन्तु जनसामान्य के लिये यह व्यवहार-सम्मत कहा जाना उपयुक्त नहीं जान पड़ता। मन बड़ा दुराग्रही, चंचल तथा बलवान है। यह बिना रज्जु-संयोजन अथवा योजना के यों ही शून्य में पकड़ने से वश में नहीं आता। इसको वश में लाने, अनुद्धत राहगीर बनाने के लिये परोपकार पथ पर जोतना ही होगा—इसे सत्कर्मों में नियोजित करना ही होगा—इसे सेवा की कठोर लगाम देनी ही होगी। सेवा के सत्कर्म में नियोजित मन को इधर उधर भागने का अवकाश ही नहीं मिलता। सेवा कार्य के साथ सम्बंधित दया, करुणा, सहानुभूति तथा आत्मीयता आदि इतने शीतल गुण होते हैं कि इनके स्पर्श सुख से मन स्वयं ही एकाग्र होने लगता है और इस प्रकार धीरे-धीरे शिव संकल्पी स्वाधीन मन स्वतः ही निर्मल होकर आत्मा को एक स्थायी सुख, एक अक्षय प्रसन्नता प्रदान करता है। यही है परमार्थ और यही है मनुष्य का साध्य, जो कि परोपकार तथा सेवा भाव से सहज ही पाया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त स्वयं भी ठीक-ठीक नैतिक नागरिक तथा आचरणवान बनना, अपनी विकृतियों, विकार तथा असभ्यता को दूर करके सभ्य, शिष्ट तथा अनुशासित बनना भी एक परोपकार ही है। क्योंकि ऐसा बनने से आप समाज में एक सभ्य नागरिक बनेंगे, अपने संतुलित व्यवहार से दूसरों को शीतल एवं प्रसन्न करेंगे और अपने उदाहरण से दूसरों को सभ्य, शिष्ट तथा सदाचारी बनने की प्रेरणा देंगे। अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को ठीक-ठीक समझना और उनका सुधारना सामाजिक ही नहीं सार्वदेशिक सत्कर्म है। इस प्रकार के अन्य न जाने कितने छोटे-छोटे सेवा कार्य हो सकते हैं जिनको सामान्य से सामान्यजन भी प्रतिपादित करके परमार्थ लाभ कर सकता है। दिन भर की व्यस्त जिन्दगी में किया हुआ एक छोटा-सा सेवा कार्य उस दिन को स्वर्गीय सुख-संतोष से भर देगा। उस दिन की कोई भी निराशा, असफलता अथवा विषाद जैसी तीव्र स्थिति आपको व्यग्र अथवा त्रस्त नहीं रख सकती। इस प्रकार आप बिना किसी विशेष श्रम के प्रतिदिन एक छोटा-सा सेवा कार्य करके अपनी पूरी जिन्दगी को हर्ष, उल्लास, सुख और संतोष को आगार बना सकते हैं जो कि आपको एक स्थायी आत्मिक सुख देने में सर्वथा समर्थ होगी। जब साधारण से साधारण जन इस प्रकार निःस्वार्थ सेवा से परमार्थ लाभ कर सकता है, तब धनी मानी तथा साधन सम्पन्न व्यक्ति तो न जाने क्या क्या कर सकते हैं। और यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रत्येक कार्य को राष्ट्र, समाज, संसार अथवा ईश्वर का सेवा कार्य समझकर करने लगे तब तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाये। न शारीरिक सुख का अभाव रहे और न आत्मिक सुख का अभाव खटके। मनुष्य सम्पूर्ण रूप से सुखी तथा संतुष्ट हो जाये।
सेवा कार्यों में एक बात का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता यह है कि जो भी सेवा की जाये वह सत्पात्र की ही की जाये। अपात्र की सेवा पुण्य के स्थान पर पाप वाहिका ही सिद्ध होगी। न जाने कितने वंचक, अपंग, अन्ध आवश्यकता ग्रस्त समाज में भोले, भले और परोपकारी व्यक्तियों की दया, करुणा तथा सहानुभूति ठगने के साथ अपना आर्थिक उल्लू भी सीधा करते घूमते हैं। ऐसे वंचकों की सेवा अथवा सहायता करने से एक तो बेचारे अधिकारी पात्र वंचित रह जायेंगे दूसरे यह ठग और वंचक समाज में बिना श्रम के जीते हुये विकृतियाँ उत्पन्न करेंगे। सस्ती अथवा अनियंत्रित सहायता सहानुभूति समाज में वंचकों को बढ़ा देती है और उनकी संख्या में वृद्धि करती है। इसलिए इस बात का भी विशेष ध्यान रखना है कि हमारी व्यावहारिक, भावनात्मक, मौन अथवा मुखर सेवा का दुरुपयोग न हो।
इस प्रकार का विवेक विचार रखते हुये आज से ही सेवा कार्य में लगकर लगे रहिये, आपका आत्मिक अभाव दूर होगा, आपको सच्ची तथा स्थायी सुख-शाँति प्राप्त होगी।
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शिष्ट एवं सभ्य व्यवहार ही मनुष्य की शोभा है।
शील एवं शिष्टता मनुष्य के मानसिक-विकास के परिचायक गुण हैं। जिस अनुपात से मनुष्य का मानसिक-विकास होता जाता है उसी अनुपात से वह पशुता से उठकर मनुष्यता की ओर बढ़ता जाता है। इस प्रकार, एक दिन, वह शनैः शनैः बढ़ता हुआ अपने आत्म-स्वरूप तक पहुँचकर चिरन्तन सुख शान्ति का अधिकारी बन जाता है।
आत्म-स्वरूप की उपलब्धि सहसा नहीं होती। यह धीरे-धीरे क्रमपूर्वक मानसिक विकास द्वारा ही संभव होती है। शील एवं शिष्टता मनुष्य के मानसिक विकास के लक्षण हैं। इन्हीं लक्षणों द्वारा मनुष्य यह जान सकता है कि उसने कितना मानसिक विकास कर लिया है। जब कोई प्रत्येक क्षण प्रत्येक व्यक्ति के साथ यथायोग्य शीलता एवं शिष्टता का व्यवहार करने लगे तो उसे समझ लेना चाहिये कि उसका मानसिक विकास होना प्रारम्भ हो गया है। जिस दिन यह व्यवहार औरों के साथ रहने के अतिरिक्त अपनी आत्मा और आत्मा से बढ़कर समस्त जड़ चेतन के साथ होने लगे तो समझ लेना चाहिये कि अब हम आत्म-स्वरूप की परिधि के पास पहुँचने लगे हैं।
मनोविकास का अर्थ है—मनोविकारों का दूर होना। काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकार जितनी मात्रा में कम होते जाते हैं, उतनी ही मात्रा में मनोविकास होता जाता है। दुःशीलता एवं अशिष्टता के कारण भी ये मनोविकार ही हैं। काम मनुष्य को शील-रहित बना देता है। एक बार उसकी कामजन्य दुःशीलता अन्य किसी पर प्रकट नहीं होती तो अपनी आत्मा पर तो प्रकट हो ही जाती है। वह अपनी आत्मा के प्रति तो अशिष्ट एवं असभ्य हो ही जाता है। कामनाओं के रूप में जो काम मनुष्य में तीव्रता एवं लिप्सा उत्पन्न कर देता है। इससे मनुष्य में छल-कपट, शोषण, अपहरण आदि के दोष उत्पन्न हो जाते हैं।
क्रोध तो मनुष्य को एक प्रकार से सामयिक पागल ही बना देता है। क्रोध होने पर मनुष्य शिष्टता तथा सभ्यता की सारी सीमायें तक भूल जाता है। वह न कहने योग्य बातें कहने और न करने योग्य काम कर बैठता है। क्रोध में लोग छोटों के साथ तो दुर्व्यवहार करते ही हैं बड़ों के साथ भी अशिष्टता का व्यवहार कर बैठते हैं। क्रोध में मनुष्य बड़ों का बड़प्पन और आदरणीयों की गुरुता का भी मान नहीं करता। लोग अपने बड़े भाइयों यहाँ, तक कि माता-पिता तक को भी बुरा भला कहने लगते हैं क्रोध, धृष्टता एवं अशिष्टता का बहुत बड़ा कारण है।
मद मनुष्य को संसार में किसी को भी शालीन व्यवहार के योग्य नहीं समझने देता। मद का नशा क्रोध के वेग से अधिक बुरा होता है। जिसे धन वैभव रूप यौवन शक्ति , बल अथवा अधिकारों का अहंकार रहता है वह सचराचर जगत को तृणवत् ही समझा करता है। किसी से सीधे मुँह बात करना तो वह जानता ही नहीं। अहंकार मद से मतवाले व्यक्ति बहुधा दया, क्षमा, सहानुभूति एवं संवेदना जैसे मानवी गुणों को तिलाँजलि दे देते हैं। जरा-सी प्रतिकूलता पाकर अहंकारी व्यक्ति आपे से बाहर हो जाता है और बड़े-बड़े अनर्थ कर डालने पर उतर आता है। अनाचार, अत्याचार तथा अनीति आदिक दोष प्रायः अहंकार से ही जन्म पाते हैं। अहंकार मनुष्य को आततायी भी बना देता है। वह अपने दम्भ की तुष्टि में दूसरों की सुख-सुविधा का भी ध्यान नहीं रखता। वह अपनी प्रसन्नता के स्वार्थ में यह तक विचार नहीं कर पाता कि मेरे अमुक व्यवहार से अमुक व्यक्ति को अमुक कष्ट, दुःख अथवा क्लेश हो सकता है। अहंकारी एक अपने को प्रसन्न करने के लिये हजारों पर अत्याचार करने, उनका अधिकार छीनने में संकोच नहीं करता। अहंकार जैसा भयानक रोग मनुष्य को किस सीमा तक शील एवं शिष्टता से दूर हटा सकता है इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
पंडित नेहरु का वजन
एक बाल सम्मेलन के अवसर पर पंडित नेहरू बालक बालिकाओं के बीच प्रश्नोत्तर का आनन्द ले रहे थे। तभी एक बालिका ने प्रश्न किया—
“क्या आपने कभी अपना वजन भी लिया है?” पंडित नेहरू ने तुरन्त उत्तर दिया—”अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के कारण मैंने अनेक बार अपना वजन लिया।”
बालिका ने फिर दूसरा प्रश्न किया—”अच्छा बताइये, आपका सबसे ज्यादा और सबसे कम वजन कब और कितना था?”
नेहरू ने बिना रुके कहा—”मेरा सबसे ज्यादा एक सौ बासठ पौण्ड उस समय था जब मैं अहमदनगर जेल में था और सबसे कम साढ़े सात पौण्ड वजन जब मैं पैदा हुआ तब था।”
बालिका ने ताज्जुब से पूछा— “जेल में तो वजन कम हो जाना चाहिये बढ़ कैसे गया?”
पंडित नेहरू ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुये कहा— “उस समय मेरा वजन इस खुशी में बढ़ गया कि मैं अपने देश की सेवा में जेल का कष्ट सहन कर रहा हूँ।”
लोभ भी मनुष्य को स्वार्थी, संकीर्ण, निष्ठुर एवं क्रूर बना देता है। लोभी की तृष्णायें भयानक रूप से बढ़ जाती हैं। संसार की सारी दौलत पाकर भी लोभी की वित्तेषणा पूरी नहीं होती। बहुत कुछ पास होने पर भी लोभी की “और” नामक रट लगी ही रहती है। लोभी को जहाँ अपने लिये वस्तुओं की स्पृहा होती है वहाँ दूसरे की चीजों के प्रति बड़ी डाह होती है। वह यही चाहता है कि जो वस्तु मेरे पास है वह किसी दूसरे के पास न हो और यदि किसी के पास है तो मुझे मिल जानी चाहिये। संसार को विपन्न कर स्वयं सम्पन्न बनने की इच्छा लोभी की सहज स्वाभाविक मानसिक दुर्बलता होती है। अपने स्वार्थ-साधन अथवा लिप्सा की पूर्ति में लोभी कपटपूर्ण व्यवहार करने में भी नहीं चूकता। वह झूठ बोलकर आडम्बर बनाकर लोगों को ठगा ही करता है। अपने स्वार्थ के लिये वह किसी के साथ भी क्रूरता का व्यवहार कर सकता है। लोभी व्यक्ति धनी, निर्धन, सबल निर्बल, स्त्री, पुरुष, बालक, वृद्ध किसी का भी सम्मान करना नहीं जानता। दया, दाक्षिण्य, सहायता, सहयोग, सहानुभूति एवं संवेदना, सद्व्यवहार मानों उसके शब्द कोष में नहीं होते। लालची व्यक्ति पराकाष्ठा तक कृपण होता है। वह किसी क्षुधार्त को भूखा मरते आँखों देख सकता है, किन्तु उसका पाषाण हृदय उसे एक बार भोजन कराना स्वीकार नहीं करेगा। एक पैसे के लिये किसी का बड़े से बड़ा काम बिगड़ते देख सकता है किन्तु एक पैसा देना स्वीकार नहीं करेगा। लोभी व्यक्ति तो अशिष्टता एवं अभद्रता का जीता जागता नमूना ही होता है।
इस प्रकार के मानसिक विकारों के रहते हुये कोई किस प्रकार अपना मानसिक विकास कर सकता है, और मानसिक विकास के अभाव में उसका आत्म स्वरूप की ओर बढ़ सकना सम्भव न होगा। अतएव आवश्यक है कि मनुष्य अपने मानसिक विकारों को दूर करे उन पर विजय प्राप्त करे और चिर साध्य सच्ची सुख-शाँति का अधिकारी बने।
मनोविकारों पर विजय पाने का साधारण-सा उपाय है—अपने अन्दर सभ्यता, शिष्टता तथा नम्रता का भाव उत्पन्न करना है। शिष्टता में एक अनुपम मिठास रहती है। एक बार का शिष्ट व्यवहार अपनी मधुरता से अनेक बार शिष्टता का व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है। जो सुशील है, सभ्य एवं शिष्ट है वह न केवल औरों को ही सुखी एवं शीतल बनाता है बल्कि अपने को भी सुखी बनाता है। शील एवं शिष्टता दैवी गुण हैं। इनका अवतरण कर लेने से मनुष्य सहज ही मानसिक विकास की ओर बढ़ने लगता है। अपने मनोविकास के लिये एक सच्चे, शिष्ट तथा शालीन व्यक्ति को किसी तप साधना अथवा पूजा अर्चना की जरूरत नहीं पड़ती। शिष्ट व्यवहार स्वयं ही अपने में एक पूजा है, एक उपासना है। एक उपासक तो केवल एक ईश्वर की कल्पना करके उसकी पूजा किया करता है, उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न किया करता है, किन्तु एक नम्र एवं शिष्ट व्यक्ति न जाने कितने मनुष्यों की आत्मा प्रसन्न किया करता है जो कि ईश्वर का ही अंश होती है। उपासक एक देव की पूजा करता है और शिष्ट व्यक्ति अपने शालीन व्यवहार से सार्वजनिक विराट भगवान की पूजा किया करता है शिष्ट व्यवहार को केवल व्यवहार नहीं पूजा के भाव से ही देखना चाहिये।
भगवान की बनाई हुई चराचरमय सारी सृष्टि अपने युक्त व्यवहार से ही सुरक्षित एवं शाश्वत बनी हुई है। सृष्टि में अयुक्तता आते ही प्रलय एवं विनाश की सम्भावना उपस्थित हो जाती है। मनुष्य में जब तक शिष्टता एवं सभ्यता का उदय नहीं हुआ वह भी पशुओं की कोटि में बना रहा और उन्हीं की तरह जंगली जीवन व्यतीत करता रहा। ज्यों-ज्यों उसमें सभ्यता एवं शिष्टता की वृद्धि होती गई, उसका मनोविकास होता गया तो वह आज की उन्नत स्थिति में पहुँच सका। अपने सभ्यता एवं शिष्टता के जिन गुणों के आधार पर मनुष्य पशुता से वास्तविक मनुष्यता में आ सका है उसका त्याग कर देने से स्वाभाविक है कि वह अपनी आदिम अवस्था में वापस जाने लगे। आज भी जो व्यक्ति अश्लील, अशिष्ट अथवा असभ्य व्यवहार किया करता है उसे लोग नर-पशु ही मानते हैं। यह शील एवं शिष्टता का ही चमत्कार है कि मनुष्य पारस्परिक सहयोग एवं सहायता से अपने जीवन में इतनी सुख-सुविधाओं का समावेश कर सका है। यदि जंगलियों की तरह वे एक दूसरे से अशिष्ट तथा अभद्र व्यवहार करते रहे होते तो कैसे वो मिल-जुल कर रहते? कैसे मिलकर खेती तथा व्यवसाय करते? और कैसे मिल जुलकर विचार विमर्श करते हुये सभ्यता एवं संस्कृति का विकास कर पाते?
आत्मिक उन्नति के साथ-साथ शील एवं शिष्टता भौतिक उन्नति का भी आधार है। जो अशिष्ट है, असभ्य अथवा शील रहित है वह जीव जीवन में किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। नौकरी, व्यवसाय आदि किसी भी क्षेत्र में किसी धृष्ट की सफलता का कोई उदाहरण आज तक नहीं पाया है। धृष्ट अथवा अशिष्ट व्यक्ति को कोई भी पसन्द नहीं करता और न कोई उससे सहयोग ही करना चाहेगा। मनुष्य के बड़े से बड़े गुण, बड़ी से बड़ी क्षमतायें अशिष्टता के दोष से दूषित होकर नष्ट हो जाती हैं। बहुत कुछ उपयोगी होने पर भी दुष्ट अथवा दुर्मुख व्यक्ति के पास कोई जाना तक पसन्द नहीं करेगा। अशिष्ट व्यक्ति एक प्रकार से समाज से बहिष्कृत ही रहता है।
धृष्ट अथवा अशिष्ट विद्यार्थी बहुत कम सफल होते हैं। कर्कशा पत्नी कभी भी पति का प्यार नहीं पा सकती और कठोर पति कभी भी गृहस्थी की सुख-शाँति नसीब नहीं कर सकता। धृष्ट तथा अशिष्ट बच्चे और तो और स्वयं अपने माता-पिता के लिये भी घृणा के पात्र बन जाते हैं। असफलता एवं अशाँति अशिष्टता एवं असभ्यता का सुनिश्चित परिणाम है।
इसके विपरित विनम्रता, मधुरता, शिष्टता एवं सभ्यता पूर्ण व्यवहार मनुष्य को सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा देने में सक्षम होते हैं। निर्धन होने पर भी शिष्ट विद्यार्थी की शिक्षा रुकने नहीं पाती। किसी नौकरी में शिष्टता एक बार योग्यता की कमी को भी पूरा कर देती है। जो स्वयं सही मायनों में शिष्ट एवं सभ्य है उसे किसी काम के लिये किसी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं पड़ती। विनम्रता एवं मधुरता क्रूर से क्रूर शत्रु को जीत लिया करते हैं। सहयोग, सहायता एवं सहानुभूति शिष्ट एवं शीलवान व्यक्ति की विरासत ही माननी चाहिये। घर बाहर, देश परदेश, कहीं भी क्यों न रहे विनम्रता एवं शिष्टता मनुष्य को मित्र की तरह हर जगह सहायता करती रहती है। विनम्र व्यवहार विरोधों के बीच भी अपना मार्ग बना लिया करता है।
जो शिष्ट एवं सभ्य होता है वह सहिष्णु भी होता है। शिष्ट दूसरे से तो दुखदायी व्यवहार नहीं करता है यदि उसके साथ भी दुःखद व्यवहार किया जाता है तब भी वह अधिक दुखी नहीं होता। न तो उस पर कोई अप्रिय प्रतिक्रिया होती है और न उसे क्रोध ही आता है। विपरित व्यवहार में भी उसकी मनः शाँति अक्षुण्ण बनी रहती है। बदले में बुरा व्यवहार न करके वह अपने धृष्ट विरोधी को भी लज्जित कर देता है। शिष्ट एवं सभ्य के सम्मुख संघर्ष की परिस्थितियाँ बहुत कम आती हैं और यदि आती भी हैं तो वे उलझकर अधिक भयानक नहीं बनने पातीं। वह बिना किसी हानि के उन्हें सुलझा लिया करता है। इस प्रकार कोई भी शिष्ट एवं सभ्य व्यक्ति सदा ही संघर्षहीन, निर्द्वन्द्व एवं सौहार्द्रता पूर्ण सुख शाँति का जीवन व्यतीत किया करता है। मनुष्य को चाहिये कि वह स्थायी सुख शाँति के लिये विकारों को दबाकर शिष्ट एवं सभ्य बने तथा शिष्ट एवं सभ्य व्यवहार के अभ्यास से विकारों पर विजय प्राप्त करें।
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