ज़िन्दगी जीने के लिए है न की निराश हताश उदास रहकर बेमन से इसे ढोने के लिए .निरंतर चलते रहने का नाम ही ज़िन्दगी है .जीवन के हर पल का लुत्फ़ उठाना ही वास्तविक जीने की कला है .जीवन तो सभी जीते है लेकिन कुछ जीते है तो कुछ इसे बोझ समझकर ढोते है .कुछ इसके प्रत्येक क्षण का आनन्द लेते है तो कुछ ऐसे है जो जीवन के हर कदम कदम पर कराहते रहते है उनको अपने जीवन से बहुत गिला शिकवा रहता है वे बात बात पर अपने भाग्य का रोना रोते है किन्तु अपना कर्म नही देखते है .लेकिन वही कुछ ऐसे है जो जीवन को ईश्वर का अमूल्य भेट समझते है और उसके प्रत्येक क्षण को खुलकर और हंसकर जीने की कला में पारंगत होते है .इसलिए बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के जीवन को सुखमय और आनन्दमय बनाने के लिए यह जरूरी है कि आप जीवन का कितना मूल्य समझते है और इसके जीने की कला में आप कितना कुशल और माहिर है .जीवन को हल्का या फिर बोझ बनाना यह स्वयम के विचारो और कर्मो पर निर्भर होता है .
ज़िन्दगी के विविध रंग होते है इसलिए जीवन का कोई रंग बदरंग न हो इसके लिए हमे अपने जीवन जीने की शैली और कला पर खास ध्यान देना पड़ता है चाहे वह किसी भी क्षेत्र के कर्म से सम्बन्धित क्यों न हो और इसके लिए जरूरी होता है की हमारे अंदर किसी भी काम को करने की लगन और हुनर दिल से हो और जब तक हमारे हुनर में निखार नही आ जाता है तब तक हमारी ज़िन्दगी में सफलताओ और खुशियों की बहार नही आती है .अतः यह जरूरी है कि हमारे कर्मो में परिपक्वता एवं सम्पूर्णता हो वरना इसके अभाव में ज़िन्दगी की पूर्णता में भी अभाव ही अभाव होता है और हाथ निराशा और हताशा के सिवाय कुछ भी नही लगता है .
विश्व में आज हमारा ही देश सबसे अधिक युवाओं वाला देश है किन्तु इतना अधिक संख्या में युवा शक्ति वाला देश यदि आज तक सुपर शक्ति देश न बन पाया हो तो उसके पीछे का कारण जानने में कोई विशेष कठिनाई नही होगी .आज का हमारा युवा खुद का बोझ बना हुआ समझता है ,घर परिवार और समाज उसके हाल से बेहाल होकर चिंतित रहता है .देश की सरकार भी युवाओ की बड़ी संख्या में बेरोज़गारी से परेशान है .पढ़े लिखे हमारे नौजवानों की फ़ौज रोज़गार के लिए दर दर की खाक छान रहा है किन्तु उसे नौकरी नही मिल रही है जिससे उसकी ज़िन्दगी दुश्वार हो गयी है आज देश में लाखो लाखो युवा पढ़ लिखकर अनपढ़ जैसा घर पर बिना काम का बैठा काम पाने की आशा में टकटकी लगाये रोज़गार की बाट जोह रहा है .
ऐसा नही है कि देश में रोज़गार के अवसर की कमी है बस कमी है तो हमारे पढ़े लिखे युवाओ के कौशल और हुनर में जिससे उनको काम नही मिल पा रहा है .अभी देश में इंजीनियरिंग और विजनेस कोर्स की पढ़ाई करके निकलने वाले छात्रो के योग्यता पर कई तरह के सवाल खड़े किये जा रहे है .उनके अधकचरे ज्ञान से देश की शिक्षा व्यवस्था पर भी सवालिया निशान लग रहे है .जब हमारी समूल शिक्षा व्यवस्था में ही खोट हो तो बच्चें करे तो क्या करे .समय के साथ हमरे शैक्षिक पाठ्यक्रम में बदलाव नही हो पा रहा है आज भी वही पुरानी शिक्षा प्रणाली लागू है .जिस पर शासन और शिक्षा नीति बनाने वाले ध्यान नही दे पा रहे है .समय के साथ कदमताल मिलाकर न चलने के कारण ही आज के युवा पढ़ लिखकर भी अयोग्य है .
अभी इंजीनियरिंग क्षेत्र में रोज़गार पर सर्वे करने वाली संस्था अस्पायरिंग माईंड की ताज़ा रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि देश में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले कुल छात्रों में से 8 प्रतिशत से भी कम छात्र ऐसे है जिन्हें अपने कोर्स का ज्ञान है अर्थात उन्हें कोर इंजीनियरिंग की भूमिका वाले सेवा में योग्यता हासिल है .अभी कुछ दिन पहले बिजनेस की पढ़ाई करने वाले छात्रों पर कुछ इसी तरह की रिपोर्ट एसोचैम ने दी थी .अब जरा सोचिये !जब इन्हें अपने पढ़ाई का ज्ञान ही नही है तो ये बेरोज़गार नही रहेगे तो क्या रहेगे .बड़ी बिडम्बना है की हमारे देश के युवा परीक्षा में फर्स्ट क्लास फर्स्ट पास हो रहे है किन्तु विषयों का ज्ञान रत्तीभर भी नही है .
अतः देश में न तो अवसर की कमी है और न रोज़गार की ..कमी है तो हमारे युवाओ में हुनर लगन और ज्ञान की जिससे देश में बेरोज़गारी की समस्या बढती जा रही है .जो हुनरमंद और लगनशील है उनके लिए रोज़गार में बहार ही बहार है लेकिन जिनके पास ज्ञान और हुनर की कमी है उन्हें लगन और मेहनत से इसमें अपेक्षित सुधार करने की जरूरत है जिससे देश को कुशल,पारंगत और हुनरमंद नौजवानों की फ़ौज मिल सके और हमारा देश तरक्की की नयी ऊँचाईयों को लाँघ सके और हमारे नौजवानो के ज़िन्दगी में बहार आ सके .
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लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती पर अब मुझे जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. जिसे कोई बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक असर डाल सकता है.
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक ज़रूरत है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है ऐसा नहीं है कि इसके उदाहरण अभी मौज़ूद नहीं हैं.बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं.
पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श मात्र देता है.
आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं.
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे..........
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लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती पर अब मुझे जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. जिसे कोई बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक असर डाल सकता है.
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक ज़रूरत है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है ऐसा नहीं है कि इसके उदाहरण अभी मौज़ूद नहीं हैं.बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं.
पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श मात्र देता है.
आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं.
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे..........
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