इस धरती पर ईश्वर प्रदत्त सभी सर्वसुलभ प्राकृतिक संसाधनों पर सभी जीव का समान अधिकार है .प्रकृति की गोद में पल रहे मानव से लेकर पशु पंक्षी कीड़े मकोड़े इत्यादि सभी जीव जन्तु को प्रकृति से यह मौलिक अधिकार प्राप्त है कि वह अपने दायरे में रहकर प्राकृतिक सम्पदाओ का उपभोग करके अपना सुखमय जीवनयापन करे ,किन्तु कोई किसी के स्वतंत्र ज़िन्दगी में अनायास दखलंदाजी न करे और न ही अपनी सीमाओ का उलंघन करके किसी के जीवन प्रवाह में बाधक बने . प्रकृति के बनाये इस नियम के विरुद्ध यदि किसी ने अपने कुटिल स्वार्थवश अपने सीमित दायरे को लाँघकर किसी प्राणी के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न करता है अथवा उसके सहज जीवन जीने में गतिरोध उत्पन्न करके उसके लिए विपरीत हालात जैसी परिस्थिति पैदा कर देता है तो यह गम्भीर अपराध की श्रेणी में माना जायेगा तथा इसके लिए कठोर दण्ड देने के प्रावधानों के तहत प्राकृतिक न्यायालय से उस प्राणी समूह को उसके अपराध के अनुपात में सख्त से सख्त सज़ा दिया जायेगा .
प्राकृतिक सिद्धांत जियो और जीने दो का दायरा सभी प्राणियों के जीने और रहने के अधिकार तक फैला है . स्थल ,जल ,वायु तथा जंगल जैसी अमूल्य निधि पर प्रकृति ने सभी को उसके आवश्यकतानुसार कुछ शर्तो एवं उपबन्धों के साथ सीमित अधिकार दिए है जिससे सभी के जीवन की गाड़ी सहज और सुचारू रूप से गतिमान हो सके ताकी सभी प्राणियों के बीच समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करके सृष्टिकर्ता के सृष्टि के संचालन को निर्बाध गति से गतिशील बनाया जा सके .किन्तु ऐसा कुछ होता दीख नही रहा है क्योकि आज प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य जो सबसे अधिक चतुर और स्वार्थी है अपने लोभवाद के कारण प्रकृति के बनाये इन नियमो का खुल्लमखुल्ला उलंघन करके प्राकृतिक संतुलन को असंतुलित कर दिया है जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति से उसका विरोधाभास बढ़ता ही जा रहा है .
प्रकृति के प्रिय और चितेरे अन्य जीव जन्तु तथा प्राणियों के साथ मानव के विरोधाभास का फ़ासला दिनप्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है क्योकि मनुष्य अपने लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर प्राकृतिक विरासतों के साथ लगातार छेड़खानी करता जा रहा है जिसके अंतर्गत वह जल और जंगल पर कुछ ज्यादा ही जुल्म कर रहा है उसके इस कृत्यों से अन्य जीवो के अस्तित्व पर संकठ खड़ा हो गया है .हद तो तब हो गयी जब प्रकृति का अनुज यह मनुज उन जंगली जानवरों को नेस्तनाबूद करने में जुट गया है जो जल और जंगल के अभाव में आश्रय लेने के उद्देश्य से उस आश्रयदाता मनुष्य की बस्तियों की ओर चल पड़े थे जो उसके बसी बसाई बस्ती को उजाड़ कर मही को जंगल विहीन करता चला जा रहा है .
श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बुद्धि और ज्ञान रखने वाला यह मनुष्य अपने क्षुद्र स्वार्थ और लोभवश प्रकृति के अनुपम श्रृंगार जंगलो को काटता जा रहा है जिससे घने जंगल अब उजड़ कर वीरान होते जा रहे है परिणामस्वरूप जंगल में रहने वाले जीव जन्तु अब मानव बस्तियों की ओर रुख कर लिए है जो मानव के लिए गम्भीर संकठ बन गया है और इससे निज़ात पाने के लिए मनुष्य अब इनका वध करना शुरू कर दिया है जिससे इन बेजुबान प्राणियों के अस्तित्व पर खतरा खड़ा हो गया है .अपने वध पर उनकी खामोश होती आंखे पूछ रही है आखिर उनका अपराध क्या है ?क्यों हमारा वध किया जा रहा है ?किन्तु ढीठ मनुष्य जबाब न देकर उलटे उन्हें हलाल ही कर रहा है बेचारे बेबस असहाय प्राणी पशु की पीड़ा समझे तो कौन समझे सभी तो बहते नाले में हाथ धोने वाले है .आखिर मनुष्य चाहता क्या है ?क्या मनुष्य यह चाहता है है कि उसके सिवाय इस धरती पर और कोई न रहे ?क्या इसलिए मनुष्य जंगलो और नदियों को उजाड़ने के पीछे पड़ गया है ?
रे मनुष्य तू चाहता क्या है ?तू जंगल को उजाड़ रहा है .तू नदियों को प्रदूषित करके उसके जल को जहर बना दे रहा है .वायु और ताप को भी तूने छला है .और अब बेजुबान जंगली जानवरों के सफाया के लिए तूने मुहीम छेड़ रखी है ये सब क्या है ?क्या तू अपनी इन सभी काली करतूतों से धरती से सभी अन्य प्राणियों को नेस्तनाबूद कर देना चाहता है .आखिर बोल तेरी मंशा क्या है क्या तू अकेला धरती पर रहना चाहता है जिसके लिए तू ये सब प्रकृति नियम विरुद्ध कार्य कर रहा है .यदि तेरी मंशा यही है तो सावधान हो जा प्रकृति के प्रकोप से बचने के लिए क्योकि अभी सुखा ,गर्मी ,ठंड और बाढ़ का कहर तूने देखा कहाँ है ?अगर तू इसी तरह प्रकृति के सौगातो को छल से नष्ट करता रहा तो वह दिन दूर नही जब तूझे प्रकृति के भयंकर प्रकोप से दो चार होना पड़े इसलिए अब भी समय है सुधर सको तो सुधर जाओ और प्रकृति के चितेरे पशु पंक्षियों को गले लगाओ, अधिक से अधिक वृक्षारोपण करके जंगल बचाओ तथा जल संचय कर अपने प्राण बचाओ तो फिर शायद प्रकृति की मेहरबानी पाओ .
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