प्रेम बाई अपने बेटे की शादी में बनी मिठाइयों से बची हुई चाशनी से चीनी बना रही हैं लेकिन यह चिंता उन्हें खाए जा रही है कि कहीं कुछ दिन बाद यह मिठास कड़वाहट में न बदल जाए.
उनके छोटे बेटे 23 वर्षीय अनिल रैगर की चार जून को शादी हुई थी और घर के युवाओं की ज़िद के चलते पहली बार उनका बेटा घोड़ी पर बैठा.
राजस्थान के कोटपुतली तहसील के पाथरेड़ी गांव के उनके दलित परिवार की सात पीढ़ियों में ऐसा पहली बार हुआ कि कोई दूल्हा घोड़ी पर बैठकर कुलदेवता भोमियांजी के मंदिर गया और दुल्हन के घर भी.
यह सब प्रशासन की मदद और कोई 100-125 पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में हुआ. क्योंकि इस परिवार को आशंका थी कि गाँव के उच्च जाति-वर्ग के लोग इसका विरोध कर सकते हैं.
'अब बड़े बन गए'
परिवार की प्रार्थना पर प्रशासन ने अन्य जाति के लोगों को 'छह महीने के लिए पाबन्द' कर दिया है.
प्रेम बाई ने बीबीसी को बताया कि वह 'बेहद डरी हुई थीं और उन्हें रक्तचाप बढ़ गया था.'
उन्होंने तीन दिन तक खाना नहीं खाया. लोगों की बातों से वह और परेशान न हों इसलिए घरवालों ने उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया.
करीब 22 साल पहले परिवार की एक शादी में बान बिन्दौरी (विवाहपूर्व मंगल प्रसंग का एक रिवाज़) निकालने को लेकर ज़बरदस्त संघर्ष हो गया था.
वह डर रही थीं कि "हम छोटी जात वाले कभी घोड़ी पर नहीं चढ़े. अब सब कह रहे हैं कि क्या हम उनसे बड़े बन गए?"
दूल्हे के पिता नाथूराम अटल और दादा पांचूराम का भी ऐसा कोई आग्रह नहीं था पर दूल्हे के बड़े भाई इंद्रराज ने ठान रखी थी कि उनके भाई की बारात घोड़ी पर ही निकलेगी. उन्होंने प्रशासन और पुलिस की मदद ली ताकि कोई रुकावट न हो.
अनिल के 75 वर्षीय दादा कहते हैं कि वह अपनी शादी में 'पैदल' ही गए थे. हंसते हुए वह बताते हैं कि उनके पांवों में कितनी धूल चढ़ गई थी. वह पढ़े भी नहीं क्योंकि उनके गाँव के स्कूल में कोई 'रैगरों का बच्चा' आ जाता तो उसे कहा जाता कि परे बैठ यानि दूर बैठ.
उनके बेटे नाथूराम भी पैदल ही प्रेम देवी को ब्याहने गए थे.
'सपना सच हुआ'
इंद्रराज कहते हैं कि शिक्षा और जागरूकता की कमी के चलते उनका परिवार अभी तक यह हिम्मत नहीं कर पाया. वैसे पाथरेड़ी की करीबी ढाणियों में भी अब सामान्य रूप से दलित बारातें निकलती हैं.
वहां से 25 किलोमीटर दूर उनके गांव सहित कोई चार-पांच स्थान ही ऐसे बचे हैं जहां दलित अब भी गांव के मुख्य मार्ग से बारात निकालने से डरते हैं.
दूल्हे अनिल ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि "मेरा शुरू से ही यह सपना था. घोड़ी पर बैठकर जाने की बात ही कुछ अलग होती है. पैदल जाओ तो लगता है जैसे रैली में जा रहे हों."
वह अपने बड़े भाई के प्रति बहुत शुक्रगुजार है जिनकी मेहनत से यह सपना सच हुआ.
राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 से महज छह किलोमीटर दूर करीब 4,200 वोटरों वाले इस गाँव में दलित परिवारों के मुकाबले ठाकुर और मीणा जाति के घर अधिक हैं.
गांव के 80 वर्षीय बुजुर्ग गोपीराम मीणा कहते हैं कि पहले घोड़े या ऊंट गाड़ियों से बारात ले जाना 'सामर्थ्य' पर निर्भर था.
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए वह थोड़ा मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि जब 1949 में उनकी शादी हुई तो वह भी पैदल ही मंदिर तक गए थे. उस ज़माने में अधिकतर लोग पैदल ही यात्रा करते थे या ऊंट गाड़ी पर चलते थे.
'सामर्थ्य'
पाथरेड़ी ग्राम पंचायत के सरपंच शम्भू दयाल मीणा कहते हैं कि पहले दलित परिवार इतने सक्षम नहीं थे, कुछ पैसे की कमी भी थी. अब सभी पढ़े-लिखे शिक्षित हैं.
वह कहते हैं, "हमारा तो यह भाव है कि सब समान होना चाहिए, कोई भेदभाव नहीं बरता जाएगा और न ही बरत रहे हैं. हमने, प्रशासन ने खूब धूमधाम से इनकी शादी करवाई है."
पाथरेड़ी में एक नई शुरुआत हुई है.
राज्य के दलित मानव अधिकार केंद्र समिति के अध्यक्ष पी एल मीमरोठ ने हाल ही में एक जनहित याचिका दायर कर कोर्ट से दलित बारातों से बदसलूकी का संज्ञान लेने का आग्रह किया है.
याचिका के अनुसार गत तीन सालों में राज्य में दलित दूल्हों को घोड़ी पर से उतार देने, बाधा डालने या बारातियों के साथ बदसलूकी की 26 घटनाएं दर्ज हुई हैं. इनमें से करीब 20 घटनाएं 2014 में दर्ज की गई हैं.
'घोड़ी पर ही जाएंगे'
इंद्रराज सवाई माधोपुर में शिक्षक हैं और आनाे वाले नवम्बर में उनकी शादी है. उनका विश्वास है कि "दो-चार बारातें बिना विघ्न के निकल जाएं तो फिर आगे कोई दिक्कत नहीं."
वह कहते हैं कि "मैं डरता नहीं पर उड़ती-उड़ती धमकियों कि 'छह महीने बाद देख लेंगे' को लेकर परिवार के प्रति चिंतित ज़रूर हूं. इसीलिए सरकार से तबादले की गुज़ारिश की है."
वैसे इस दलित परिवार की युवा पीढ़ी अपने निश्चय पर अटल है कि वे अपनी शादी में घोड़ी पर ज़रूर चढ़ेंगे.
छोटी बहन कविता को भी उस दिन का इंतजार है जब उसका दूल्हा भी घोड़ी पर सवार होकर उसे लेने आएगा.
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