Sunday, June 26, 2016

खुला खत

सहारा के पत्रकारों को मरता देख चुप क्यों ?

आदरणीय रवीश जी,
मुझे नहीं मालूम इस पत्र की शुरुआत कहां से करूं, बहुत दिन सोचने के बाद अब रहा नहीं गया इसलिए आपको ये खुला पत्र लिख रही हैं। खुला पत्र इसलिए क्योंकि आपके लिखे खुले पत्र पढ़ने के बाद मुझे यही सही तरीका लगा अपनी बात परेशानी और दर्द बयां करने का। आपको ये पत्र इसिलए भी लिख रही हूं क्योंकि आपसे उम्मीद है कि आप दूसरे शोषित, परेशान,तबके की तरह हमारी समस्या के लिए भी आवाज़ उठाएंगे ।
मथुरा में जवाहर बाग कांड के बाद आपने ने पुलिस अधिकारियों- कर्मचारियों के नाम खुला पत्र लिखा तो उम्मीद जगी कि आप मीडिया संस्थान से जुड़े लोगों पर चुप नही रहेंगे। मैंने अपने तथाकथित पत्रकारिता जीवन के 12 साल एक राष्ट्रवादी संस्था सहारा इंडिया परिवार को दे दिए लेकिन आज मैं वहीं खड़ी हूं जहां से शुरुआत की थी, मैं बल्कि संस्था के सैंकड़ो कर्मचारी मेरे जैसे हालात में हैं । राष्ट्रीय सहारा को इस बरस 25 साल पूरे हुए हैं। लेकिन यहां अपनी ज़िंदगी देने वाले कर्मचारी आज राष्ट्रीय सहारा कैंपस के बाहर अपने बारह महीने का वेतन लेने के लिए धरने पर हैं।
आप ही की तरह मुझे भी पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की खामोशी कचोटती है जिन्हें अपने ही तरह के लोगों का दर्द दिखाई नहीं दे रहा है। इतना भयंकर सन्नाटा और अंधेरा है कि डर लगता है कि हमने कहां अपना जीवन स्वाहा कर दिया। दूसरे के हक की बात करते करते हम अपने हक के लिए समर्थन नहीं जुटा पा रहे है। एक हज़ार से ऊपर के कर्मचारी दो सालों से परेशान हैं, वेतन नहीं मिलने के वजह से भूखे मरने की नौबत आ गई है, साथ काम करने वालों के बच्चों के नाम कट गए, कुछ अपना परिवार गांव छोड़ आए , दर्जनों लोग लाखों रुपए के कर्ज में डूब गए और अब उनका कर्ज खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। कोई हार्ट अटैक से मर गया किसी को लकवा मार गया । किसी ने बेटी की शादी के लिए घर बार बेंच दिया तो कोई अपने बच्चे की फीस नहीं दे पाने की वजह से स्कूल नहीं भेज रहा है। बच्चों की टाफी, खिलौने तो दूर उनका दूध तक बंद करना पड गया है। 12 महीने की वकाया वेतन के इंतजार में लोग समय से पहले बूढे हो गए हैं।
प्रबंधन बार बार आश्वासन देता है,अब तो नौबत ये आ गई प्रबंधन कह रहा है काम करना है तो ऐसे ही करो वरना बाहर बैठो। सैंकड़ों कर्मचारी नौकरी छोड़ कर जा चुके हैं और जो हैं वो जून में खुले आसमान के नीचे बैठे हैं। आपको ये पत्र लिखने का मकसद सिर्फ इतना कि शायद मीडियाकर्मियों , पत्रकारों के कानों पर जूं रेंगे। वैसे उम्मीद किसी से नहीं करनी चाहिए फिर भी आपकों ये खुला पत्र लिख रही हूं क्योंकि आप शायद चुप ना रहें।
मुझे नहीं पता कि आपको हमारे साथियों की बदहाली के बारे में पता है या नहीं लेकिन एक कोशिश कर रही हूं आप तक अपनी बात पहुंचाने की । हम दूसरों के खबर बनाते रहे दिखाते रहे लेकिन देखिए ना हमने ज़िंदगी में ये कमाया कि कोई न्यूज़ चैनल हमारी खबर सुपर फीफ्टी या वीएसटी तक में नहीं चला रहा है, अखबारों में हम सिंगल कॉलम खबर तक नहीं हैं। जैसे आपको दो पुलिस अधिकारियों की शहादत पर बाकी पुलिस अधिकारियों की चुप्पी कचोट रही थी वैसे ही मझे भी मीडिया मेंकाम करनेवाले साथियों की खामोंशी काट रही है। क्योंकि जिन्होंने अपनी ज़िंदगी पत्रकारिता के नाम कर दी वो आज गुमनाम अंधेरे में मरने को हैं।
आदरणीय रवीश जी ,सवाल सिर्फ हमारे मुद्दे पर खामोशी का नहीं है बल्कि तमाम मीडिया संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों पत्रकारों के शोषण का भी है, दूसरों के हक का झंडा बुलंद करने वाले मीडिया कर्मी को कब कोई न्यूज़ चैनल या अखबार प्रबंधन बाहर का रास्ता दिखा देगा पता ही नहीं चलता है, जीवन में इतना डर तो फिर हम कैसे दूसरों को अधिकार दिलाने का दम भरतेहैं, जो अपने ही साथियों की बदहाली पर चुप है। किसी को फर्क नहीं पड़ रहा है कि हज़ारों कर्मचारी सड़क पर आ गए है। डर इस बात का है कि ये चुप्पी हम सबको एक एक कर निगल रही है। 
बिहार, उत्तराखंड, यूपी या किसी अन्य प्रदेश में पत्रकार या संवाददाता की हत्या पर तो बवाल मचता है, कुछ बड़े पत्रकार सोशल मीडिया पर भड़ास निकालते हैं, मामला ज्यादा बड़ा हो तो दिल्ली में विरोध प्रदर्शन हो जाता है लेकिन जब तमाम बड़े न्यूज़ चैनल और अखबार बिना किसी वजह के बेड पर्फोर्मेंस का हवाला देकर दर्जनों कर्मचारियों को एक साथ निकाल देते हैं तो ऐसा हंगामा क्यों नहीं होता है। आखिर इस चुप्पी की वजह क्या है,क्या रसूखदार मालिकों के सामने बोलने की हिम्मत आपमें और किसी और बड़े पत्रकार में नहीं है। मुझे नहीं पता कि मेरा ये खुला पत्र आपके लिए या किसी और के लिए मायने रखता है या नहीं लेकिन हम सब उम्मीद लगाए हैं इस चुप्पी के टूटने की, क्योंकि लोगों ने जिस मीडिया को अपनी ज़िदगी दे दी वही मीडिया उनको अनसुना कर रहा है।
हमारा होना ना होना किसी के लिए मायने नहीं रखता है शायद आपके लिए भी ना हो, लेकिन जब आप मथुरा वाले मामले पर पुलिस अधिकारियों को उनकी चुप्पी पर खुला पत्र लिखते हैं तो मुझसे भी रहा नहीं गया, मैं एक छोटी सी मीडियाकर्मी जो अपने साथियों के साथ जूझ रही है अपने हक के लिए। आशा है कि कोई ना कोई ये खुला पत्र आप तक पहुंचा ही देगा और तब शायद आप भी हमारी हिम्मत और हौसला बढ़ाए क्योंकि हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं वो कल किसी और की भी हो सकती है।
आपकी लेखनी और पत्रकारिता को नमन करने वाली

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