बदलते परिवेश में रिश्तो की परिभाषा जरूर बदली है, पर रिश्तों की अहमियत आज भी पहले जितनी ही है। हर स्थिति में अपने हर रिश्ते को सदाबहार रखने का एक ही मंत्र है- हर रिश्ते को समुचित आदर देना।
हमारा समाज विभिन्न रिश्तों की मधुर डोर से बंधा है। हर रिश्ते का अपना एक अलग स्थान और अहमियत होती है। अलग-अलग अहमियत होते हुए भी हर रिश्ते में स्नेह, समर्पण और आदर ये तीन तत्व होना बेहद जरूरी है। क्योकि ये तत्व विपरित विचारधारा वाले लोगों को भी एक अटूट बंधन में बांधने का सामथ्र्य रखते हैं। कुछ रिश्ते बेहद नाजुक और संवेदनशील होते हैं। इसलिए उन्हें बेहद सावधानी से संभालना पडता है। यदि रिश्तों में उचित आदर की भावना हो तो यह काम आसान हो जाता है। एक-दूसरे के प्रति आदर की भावना ही रिश्तों की जडों को सींचकर उन्हें सबल, समर्थ और संवेदनशील रूप प्रदान करती है।
रिश्तों की शुरूआत : सामाजिक रिश्तों की शुरूआत मां और शिशु के रिश्ते से होती है। मां और बच्चो का रिश्ता इस संसार में सबसे सुंदर और भावनात्मक होता है। मां ही उसे हर रिश्ते का एहसास कराती है। मां के व्यवहार और पिता की बातों का अनुसरण करते हुए ही बच्चा समाज और रिश्तों की महत्ता को समझता हुआ बहुत से नए रिश्तों से जुडता चला जाता है।
दोस्ती का रिश्ता : दोस्ती जैसे पावन रिश्ते में भी ईष्र्या घर करने लगी है। दूसरों से आगे निकलने की ललक और सनक इंसानी रिश्तों में कटुता का सृजन करने लगी है। ऎसी प्रवृति एक सुंदर समाज के निमार्ण में घातक सिद्ध होती हैं। कैलास और श्रीरम बचपन के दोस्त थे। बडे होने पर दोनों ने एक ही कैरियर चुना और जुट गए दोनो को साथ साथ एक ही मार्गदर्शन मिलता था लेकिन श्रीराम को वोह रास नही आया और कैलास को बहुत अछा लगता था कैलासने उस हिसाबसे तैयारी की। और कैलास को अछे राह चलने वाले दोस्त मिलगये. लेकिन श्रीरामने कैलास की एक ना सुन्नी और श्रीराम रास्ता भटकगया.फिर श्रीराम के हाथ सफलता नहीं लग पाई। इसके बाद कैलास ने श्रीराम से बात कही का भाई सही रास्ता चुनों लेकिन श्रीरामने कैलास कि एक न सुनी.श्रीराम ने कैलास से दूरी बढ़ा ली और कैलास ने इस दूरी को पाटने का बहुत प्रयास किया लेकिन श्रीराम ने बुरी सोंच के चलते दोस्ती के साथ अपना राह बदल दिया।कैलास और श्रीराम का। फलत: दोस्ती का खुबसूरत रिश्ता इस मोड पर दम तोड गया।
शादी के बाद के रिश्ते : पति-पत्नी का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का माना जाता है। इस रिश्ते में परस्पर विश्वास और आदर की भावना ही एक दूसरे के स्नेह व समर्पण का बीज बनती है। कई जोडे़ आपसी सामंजस्य के अभाव में रिश्तों में पड रही दरारों से दुखी हैं। ऎसे रिश्तो की नींव में कई अपेक्षाएं, अनादर, क्रोध और हताशा की भावनाएं पनपती हैं और रिश्ता बोझ प्रतीत होने लगता है। लेकिन रिश्तों में आदर हो तो, यह एक दूसरे के गुण-दोषों को आत्मसात् कर लेता है। ननद-भाभी का मोहक रिश्ता हो या देवर-भाभी का सौहाद्रपूर्ण रिश्ता, हर रिश्ते की नींव आदर के जल से सिक्त होने पर ही सुदृढ परिवार का बल बनती है। विचारों के आदान-प्रदान से मतभेद संभव है। यदि सम्मान की भावना हो तो रिश्तों में दरार नहीं पडती।
बुजुगों से संबंध : आदर की कमी के कारण ही अपनों के बीच आज बुजुर्ग अपना अधिकार खोते जा रहे हैं। आज की पीढी ग्लैमर और भौतिक सुखों के पीछे अंधी हो रही है। उनका बुजुर्गो के साथ समन्वय नहीं हो पाता। बुजुर्गो को आदर सम्मान देना उनके लिए अब बीते हुए कल की बात हो गई है। आज जगह-जगह खुलते वृद्धा आश्रम और ओल्ड ऎज होम्स इस तथ्य की गवाही दे रहे हैं। आज परिवार का अर्थ पति-पत्नी और बच्चो मात्र रह गए हैं। संयुक्त परिवारों के विघटन का कारण बुजुर्गो के प्रति अनादर ही है।
गुण-दोषों को अपनाएं : आदर शब्द में एक गुढ़ अर्थ निहित है, रिश्तों को उसके गुण-दोषौं के साथ अपनाने का। गुणों को प्रशंसा की दृष्टि से देखना और दोषों को दूर करने का प्रयास ही आदर है। आदर देने पर आदर ही प्राप्त होता है। माता-पिता को भी बच्चों की भावनाओं का आदर करना चाहिए। पति यदि पत्नी की भावनाओं और संवेदनाओं को सम्मान देगा तो पत्नी भी पति को परिवार सहित आदर-भाव अवश्य देगी।
ज्यादा अपेक्षाएं ना रखें : हर रिश्ता प्यार के कोमल एहसास से बंधा होता है इसलिए हर रिश्ते का आदर करना जरूरी भी है और हमारा कर्तव्य भी है। हर व्यक्ति की एक क्षमता होती है अत: किसी से भी ज्यादा अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए। हमारी संस्कृति में संस्कारों का भी महत्तव है और हमारे संस्कार यही शिक्षा देते हैं।
अपशब्दों के प्रयोग से बचें : सम्मान की भावना “सम्बोधन” और “शब्दौं” के माध्यम से प्रसारित होती है। इसलिए किसी भी रिश्ते में अपशब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। सम्बोधन की सुंदरता पर ही घनिष्ठता निर्भर करती है। “सम्बोधन” ही रिश्तों को आदर के साथ जो़डता है। इसलिए हर रिश्ते में आदर सूचक शब्द होना जरूरी है।
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रिश्तों की शुरूआत : सामाजिक रिश्तों की शुरूआत मां और शिशु के रिश्ते से होती है। मां और बच्चो का रिश्ता इस संसार में सबसे सुंदर और भावनात्मक होता है। मां ही उसे हर रिश्ते का एहसास कराती है। मां के व्यवहार और पिता की बातों का अनुसरण करते हुए ही बच्चा समाज और रिश्तों की महत्ता को समझता हुआ बहुत से नए रिश्तों से जुडता चला जाता है।
दोस्ती का रिश्ता : दोस्ती जैसे पावन रिश्ते में भी ईष्र्या घर करने लगी है। दूसरों से आगे निकलने की ललक और सनक इंसानी रिश्तों में कटुता का सृजन करने लगी है। ऎसी प्रवृति एक सुंदर समाज के निमार्ण में घातक सिद्ध होती हैं। कैलास और श्रीरम बचपन के दोस्त थे। बडे होने पर दोनों ने एक ही कैरियर चुना और जुट गए दोनो को साथ साथ एक ही मार्गदर्शन मिलता था लेकिन श्रीराम को वोह रास नही आया और कैलास को बहुत अछा लगता था कैलासने उस हिसाबसे तैयारी की। और कैलास को अछे राह चलने वाले दोस्त मिलगये. लेकिन श्रीरामने कैलास की एक ना सुन्नी और श्रीराम रास्ता भटकगया.फिर श्रीराम के हाथ सफलता नहीं लग पाई। इसके बाद कैलास ने श्रीराम से बात कही का भाई सही रास्ता चुनों लेकिन श्रीरामने कैलास कि एक न सुनी.श्रीराम ने कैलास से दूरी बढ़ा ली और कैलास ने इस दूरी को पाटने का बहुत प्रयास किया लेकिन श्रीराम ने बुरी सोंच के चलते दोस्ती के साथ अपना राह बदल दिया।कैलास और श्रीराम का। फलत: दोस्ती का खुबसूरत रिश्ता इस मोड पर दम तोड गया।
शादी के बाद के रिश्ते : पति-पत्नी का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का माना जाता है। इस रिश्ते में परस्पर विश्वास और आदर की भावना ही एक दूसरे के स्नेह व समर्पण का बीज बनती है। कई जोडे़ आपसी सामंजस्य के अभाव में रिश्तों में पड रही दरारों से दुखी हैं। ऎसे रिश्तो की नींव में कई अपेक्षाएं, अनादर, क्रोध और हताशा की भावनाएं पनपती हैं और रिश्ता बोझ प्रतीत होने लगता है। लेकिन रिश्तों में आदर हो तो, यह एक दूसरे के गुण-दोषों को आत्मसात् कर लेता है। ननद-भाभी का मोहक रिश्ता हो या देवर-भाभी का सौहाद्रपूर्ण रिश्ता, हर रिश्ते की नींव आदर के जल से सिक्त होने पर ही सुदृढ परिवार का बल बनती है। विचारों के आदान-प्रदान से मतभेद संभव है। यदि सम्मान की भावना हो तो रिश्तों में दरार नहीं पडती।
बुजुगों से संबंध : आदर की कमी के कारण ही अपनों के बीच आज बुजुर्ग अपना अधिकार खोते जा रहे हैं। आज की पीढी ग्लैमर और भौतिक सुखों के पीछे अंधी हो रही है। उनका बुजुर्गो के साथ समन्वय नहीं हो पाता। बुजुर्गो को आदर सम्मान देना उनके लिए अब बीते हुए कल की बात हो गई है। आज जगह-जगह खुलते वृद्धा आश्रम और ओल्ड ऎज होम्स इस तथ्य की गवाही दे रहे हैं। आज परिवार का अर्थ पति-पत्नी और बच्चो मात्र रह गए हैं। संयुक्त परिवारों के विघटन का कारण बुजुर्गो के प्रति अनादर ही है।
गुण-दोषों को अपनाएं : आदर शब्द में एक गुढ़ अर्थ निहित है, रिश्तों को उसके गुण-दोषौं के साथ अपनाने का। गुणों को प्रशंसा की दृष्टि से देखना और दोषों को दूर करने का प्रयास ही आदर है। आदर देने पर आदर ही प्राप्त होता है। माता-पिता को भी बच्चों की भावनाओं का आदर करना चाहिए। पति यदि पत्नी की भावनाओं और संवेदनाओं को सम्मान देगा तो पत्नी भी पति को परिवार सहित आदर-भाव अवश्य देगी।
ज्यादा अपेक्षाएं ना रखें : हर रिश्ता प्यार के कोमल एहसास से बंधा होता है इसलिए हर रिश्ते का आदर करना जरूरी भी है और हमारा कर्तव्य भी है। हर व्यक्ति की एक क्षमता होती है अत: किसी से भी ज्यादा अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए। हमारी संस्कृति में संस्कारों का भी महत्तव है और हमारे संस्कार यही शिक्षा देते हैं।
अपशब्दों के प्रयोग से बचें : सम्मान की भावना “सम्बोधन” और “शब्दौं” के माध्यम से प्रसारित होती है। इसलिए किसी भी रिश्ते में अपशब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। सम्बोधन की सुंदरता पर ही घनिष्ठता निर्भर करती है। “सम्बोधन” ही रिश्तों को आदर के साथ जो़डता है। इसलिए हर रिश्ते में आदर सूचक शब्द होना जरूरी है।
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कई छोटे बच्चे ऐसे मिले जिनमें बाल्यकाल से ही विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विकास आयु के अनुपात से कई गुना अधिक था। न्यूयार्क (अमेरिका) के डाक्टर रेनी स्पिट्ज ने उनकी पारिवारिक परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त की तो मालूम हुआ कि उनमें से 99 प्रतिशत ऐसे थे जिन्हें अपनी माँ का प्रेम नहीं मिला था। या तो उनकी माँ का देहावसान हो चुका था या सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें माँ से अलग कर दिया था- स्थिति कुछ भी रही हो परिणाम एक ही था कि वे बच्चे आत्मिक दृष्टि से बड़े क्रूर और उत्पाती थे।
इस प्रारम्भिक अन्वेषण ने डॉ. रेनी स्पिट्ज को प्रेम भावना के वैज्ञानिक विश्लेषण की प्रेरणा भर दी। उन्होंने दो भिन्न सुविधाओं वाले संस्थानों की स्थापना की एक में वह बच्चे रखे गये जिन्हें थोड़ी थोड़ी देर में माँ का वात्सल्य और दुलार प्राप्त होता था। वे जब भी चाहें, जब भी माँ को पुकारें उन्हें अविलम्ब वह स्नेह सुलभ किया जाता था और दूसरी ओर वह बच्चे रखे गये जिनके लिये बढ़िया से बढ़िया भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, क्रीड़ा के बहुमूल्य साधन उपस्थित किये गये पर मातृ प्रेम के स्थान पर इन्हें एक संरक्षिका भर मिली थी जो दस-दस बारह-बारह बालकों का नियन्त्रण करती थी। प्रेम और दुलार इतने बच्चों को वह भी कृत्रिम वहाँ अकेली नर्स कहा से दे पाती ? हाँ कभी-कभी झिड़कियाँ उन बच्चों को अवश्य पिला देती। उन बच्चों का यही था जीवन क्रम।
एक वर्ष बाद दोनों स्थानों के बच्चों का परीक्षण किया गया। उनकी कल्पना शक्ति की मनोवैज्ञानिक जाँच, शारीरिक विकास की माप, सामाजिकता के संस्कार, बुद्धि चातुर्य और स्मरण शक्ति का परीक्षण किया गया। जिस प्रकार दोनों संस्थानों की परिस्थितियों में पूर्ण विपरीतता थी परिणाम भी एक दूसरे से ठीक उलटे थे, जिन बच्चों को साधारण आहार दिया गया था- जिनके लिए खेलकूद, रहन-सहन के साधन भी उतने अच्छे नहीं दिये गये थे किन्तु माँ का प्रेम प्रचुर मात्रा में मिला था पाया गया कि उन बच्चों की कल्पना शक्ति, स्मृति सामाजिक सम्बन्धों के संस्कार शरीर और बौद्धिक क्षमता का विकास 101.5 से बढ़कर एक वर्ष में 105 विकास दर तक बढ़ गया था। दूसरे संस्थान के बच्चों की, जिन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं की तो भरमार थी पर प्यार के स्थान पर गहन शून्यता, विकास दर 124 से घटकर 72 रह गयी थी। इन बच्चों को उसी अवस्था में एक वर्ष तक और रखा गया तो पाया कि वह औसत 72 से भी घटकर बहुत ही आश्चर्यजनक बिन्दु 42 तक उतर आया है। पहली संस्था के बच्चों के शारीरिक विकास के साथ दीर्घ जीवन में भी वृद्धि हुई क्योंकि देखा गया कि उस संस्थान में जो 236 बच्चे रखे गये थे उनमें से इस दो वर्ष की अवधि में एक भी शिशु की मृत्यु नहीं हुई जबकि प्यार-विहीन बच्चों वाले संस्थान के 37 प्रतिशत शिशु काल के मुख में अकाल समा गये।
प्रेम की विधायक शक्ति संसार की समस्त शक्तियों से सर्वोपरि है आज का संसार प्रेम के लिए तड़प रहा हैं किन्तु परिस्थितियाँ मनुष्य ने अपनी ही भूल से ऐसी विकृत करलीं कि घर-बार--धन-सम्पत्ति--मकान परिवार सब कुछ होते हुये भी किसी को निस्वार्थ प्रेम उपलब्ध नहीं। इन्द्रिय सुखों की हुड़क और ललक का तो सर्वत्र बोलबाला है किन्तु आत्मा को असीम शक्ति और शान्ति प्रदान करने वाला प्रेम कहीं नाम मात्र को भी दिखाई नहीं देता। डा0 एड्रीन वान्डेर के अनुसार आज जो सर्वत्र पागलपन (न्युरासिस) की स्थिति दिखाई दे रही है वह मातृवत् प्रेम के अभाव के कारण ही हैं।
मनुष्य सर्वोपरि आत्मा है शेष सब पीछे की बातें हैं। शरीर गौण है आत्मा प्रधान-सो आत्मा की तृप्ति का स्थान प्रथम और शारीरिक सुविधाओं का गौण है। जड़ को खुराक, पानी मिलता रहे तो वृक्ष अपने विकास की सुविधायें कहीं से भी अपने आप जुटा लेता है पर बाहर से उसकी पत्तियों में पानी छिड़का जाता रहें, धूप दी जाती रहें खाद और कीटाणु नाशक बुरके जाते रहें पर जड़ को न तो दिया जाये पानी और न खुराक ऐसी स्थिति में पेड़ जी सकेगा ? प्रेम आत्मा की प्यास और हर हृदय की एकमात्र चाहना है यदि प्रेम न मिलेगा तो जीवन हरा-भरा न रह सकेगा। वह मुरझायेगा और अवश्य मुरझायेगा चाहे बाहर से उसे धन-सम्पत्ति यश और वैभव के भाण्डागार में ही क्यों न गाड़ दिया जाये।
एक राजा को यह अभिमान था “मैं ही राजा हूँ और सब जगत् का पालक हूँ, मनु आदि शास्त्रकारों के व्यर्थ विष्णु को गत् पालक कहकर शास्त्रों में घुसेड़ दिया है।’ एकबार एक संन्यासी शहर के बाहर एक पेड़ के नीचे जा बैठे। लोग उनकी शान्तिप्रद मीठी-मीठी बातें सुनने के लिए वहाँ जाने लगे। एक दिन राजा भी वहाँ गया और कहने लगा कि मैं ही सब लोगों का पालक हूँ।’ यह सुनकर सन्त ने पूछा-’तेरे राज्य में कितने कौए, कुत्ते और कीड़े हैं ?’ राजा चुप हो गया। सन्त ने कहा-’जब तू यही नहीं जानता तो उनको भोजन कैसे भेजता होगा ? राजा ने लज्जित होकर कहा-’तो क्या तेरे भगवान कीड़े-मकोड़े को भी भोजन देते हैं ? यदि ऐसा है तो मैं एक कीड़े को डिबिया में बंद करके रखता हूं, कल देखूँगा भगवान इसे कैसे भोजन देते हैं ? दूसरे दिन राजा ने सन्त के पास आकर डिबिया खोली तो वह कीड़ा चावल का एक टुकड़ा बड़े प्रेम से खा रहा था। यह चावल डिबिया बन्द करते समय राजा के मस्तक से गिर पड़ा था। तब उस अभिमानी ने माना कि भगवान ही सबका पालक है।
डा0 फ्रीट्स टालबोट एकबार जर्मनी गये। वहाँ उन्होंने ड्यूशेल्डोर्फ नगर का बच्चों का अस्पताल देखा। इस अस्पताल में उन्होंने एक वृद्ध स्त्री देखी जो देखने में आकर्षक भी नहीं थी किन्तु जितनी भी बार डा0 टालबोट ने इसे देखा उसकी मुखाकृति में एक विलक्षण शांतिप्रद सौम्यता और मुस्कान उन्होंने देखी। हर समय उसकी बगल में कोई न कोई बच्चा दबा हुआ होता। टालबोट के मन में उस स्त्री को देखकर उसे जानने की अनायास जिज्ञासा उत्पन्न हो गई उन्होंने अस्पताल के डाइरेक्टर ने उस स्त्री का परिचय पूछा तो-डाइरेक्टर ने बताया - वह तो अन्ना है श्रीमान जी ! डाक्टरों की डाक्टर ! एक ही औषधि है उसके पास-’प्रेम’ जिन बच्चों को हम असाध्य रोगी घोषित कर देते हैं अन्ना उन्हें भी अच्छा कर देती है।
यह घटना उन दिनों की है जब अमेरिका - इंग्लैंड आदि विकसित देशों में भी अस्पतालों में भरती होने वाले अधिकांश बच्चे मृत्यु के ग्रास बन जाते थे क्योंकि वे अपनी बीमारी बता नहीं पाते थे और डाक्टर रोगों को पहचान नहीं कर पाते थे किन्तु अन्ना ने यह दिखा दिया कि बच्चे ही नहीं प्रेम तो हर मनुष्य की औषधि है संजीवनी है, अमृत है प्रेम पाकर कोई व्यक्ति मर नहीं सकता। अन्ना इसे प्रयोग करके दिखाती थी। अस्पताल के असाध्य रोगी बच्चों को छाती से चिपकाये वह अस्पताल के अहाते रोगी घूमती, काम करती और अपने इस सामान्य जैसे जीवन क्रम में ही केवल बच्चों को चूम-चूमकर उन्हें हार्दिक स्नेह दुलार के साथ कभी नहला कर, कभी चोटी गुह कर, कभी खेल खिलाकर यह विश्वास करा देती कि अन्ना के अन्तःकरण में प्रेम का सागर लहराता है और वह समस्त समुद्र उसी के लिये है रोगी अपना कष्ट भूल जाता अच्छा होने लगता पथरी जो आपरेशन से निकालना कठिन होता अन्ना का प्यार उसे गला कर नष्ट कर देता जो कीटाणु वर्षों औषधि खाने पर भी नहीं मरते अन्ना का प्रेम उन्हें दो दिन में नष्ट कर देता और अन्ना ही वह प्रकाश थी जिसने योरोप को पहली बार शिशु सदनों में बाल विकास अस्पतालों में रोगियों की चिकित्सा में प्रेम-माधुर्य को सर्वोपरि स्थान देने की व्यवस्था बनाईं।
प्रेम की “सृजन शक्ति” दुनिया की हर ताकत से बड़ी है। प्रेम की तुलना तो भगवान से ही हो सकती है प्राणियों का जीवन आधार यह प्रेम ही है प्रेम सुधा पीकर मरणासन्न भी जी उठते हैं फिर यदि जीवितों को प्रेम पयपान का अवसर मिल जाये तो वसुन्धरा स्वर्ग बन जाये न कोई रोगी रहे न दुःख यदि संसार में एकबार निस्वार्थ प्रेम का सागर लहरा जाये।
एक ही रक्त और कुल के क्यों न हों अनेक लोगों का एक साथ रहना मात्र ही पारिवारिक जीवन नहीं है। एक साथ एक घर में अनेक भाई और उनके बच्चे रहते हों किन्तु वे आपस में लड़ते, संघर्ष करते और कलह मचाते रहें, तो इससे पारिवारिक जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होता। इस प्रकार तो वह एक घर परिवार न कहा जाकर संग्राम-स्थल ही कहा जायेगा।
अनेक पशु-पक्षी समूह बना कर रहते हैं। साथ-साथ चरते, घूमते, उठते, बैठते, सोते और जागते हैं किन्तु उनको एक परिवार नहीं कहा जा सकता। परिवार का प्रमुख लक्षण है, एक-दूसरे से प्रेम, सहानुभूति, आत्मीयता और स्वार्थ रहित सेवा-भाव। एक-दूसरे के लिये त्याग तथा उत्सर्ग की तत्परता। जिस मानव समूह में एक दूसरे का सुख-दुःख अपना सुख-दुःख न बन सका, वहाँ पारिवारिक भावना नहीं मानी जायेगी। पशु-पक्षी का साथ रहते हुए भी इसी आत्म-भाव के अभाव में पारिवारिक नहीं माने जाते। पारिवारिक जीवन का लक्षण है- ‘‘प्रेम, आत्मीयता, सहयोग, सहायता, संवदेना, सद्भाव तथा सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार सबकी मंगल-कामना, सबकी सुख-सुविधा का विचार आदि के सात्विक गुण।” जहाँ बड़ों का छोटों के प्रति आशीर्वाद नहीं, छोटों में गुरुजनों के प्रति आदर और विनम्रता का भाव नहीं, जहाँ भाई-भाई और भाई-बहन में एकात्मकता नहीं वहाँ पारिवारिक भावना का अभाव है, यही मानना ही पड़ेगा।
परिवार का अर्थ है- एक-दूसरे की साँसारिक सुख में सहायता के साथ आत्मोन्नति में यथासाध्य सहयोग करना। जहाँ लोग एक-दूसरे का अधिकार छीनना चाहते हों, एक-दूसरे से ईर्ष्या व डाह करते हों, पीछे खींचने का प्रयत्न करते और अपने स्वार्थ पर ही दृष्टि रखते हों, वहाँ परिवार कहाँ? वहाँ तो पाशविक समूह जैसी भावना ही समझना चाहिये।
घर में जब प्रत्येक सदस्य दूसरे के लिए त्याग करने को तत्पर रहे, उसका अपना स्वार्थ दूसरों के स्वार्थ के साथ जुड़ा हो, एक की पीड़ा सबकी पीड़ा और एक की उन्नति सबकी उन्नति बन कर प्रकट हो, तब समझना चाहिये कि हम पारिवारिक जीवन यापन कर रहे हैं। दूसरे हमसे अच्छा खायें पहनें, घर की सुख-सुविधा का उपभोग पहले दूसरे लोग करें, हमारी खुशी इसी में है। हमारा कर्तव्य तो अधिकाधिक त्याग और दूसरों की सुख-शाँति और विकास में सहायक होना है। ‘मेरे रहते किसी को दुःख-तकलीफ न हो आदि की उदार भावना ही पारिवारिक भावना को प्रकट करती है।
परिवार की प्रतिष्ठा हमारी प्रतिष्ठा, परिवार की उन्नति हमारी उन्नति, उसकी समृद्धि हमारी समृद्धि और उसका लाभ-हानि हमारा लाभ-हानि है, ऐसी आत्म-भावना पारिवारिकता का विशेष लक्षण है।हम कोई ऐसा काम न करें, जिससे परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच आये। किसी सदस्य पर कोई अवाँछनीय प्रभाव पड़े, परिवार की उन्नति में अवरोध उत्पन्न हो अथवा उसकी समृद्धि एवं वृद्धि में प्रतिकूलता आये, ऐसा सतर्क भाव ही तो पारिवारिकता कहा जायेगा। जहाँ यह सब बातें पाई जांय, वहाँ समझना चाहिए कि लोग वास्तविक रूप में परिवार बन कर रह रहे हैं। जहाँ स्वार्थ, वैषम्य, विचार-वैषम्य, भाव-वैषम्य अथवा सुख-दुःख में विषमता की गन्ध पाई जाये वहाँ मानना होगा कि एक साथ अनेकों के रहने पर भी वहाँ परिवार भावना नहीं है। लोग किसी कारणवश एक साथ रहे जा रहे हैं।
परिवार एक पवित्र तथा उपयोगी संस्था है। इसमें मानव की सर्वांगीण उन्नति का आधार सहयोग, सहायता और पारस्परिकता का भाव रहता है। यह भाव वह शक्ति है जिसके आधार पर मनुष्य आदि जंगली स्थिति से उन्नति करता-करता आज की सभ्य स्थिति में पहुँचा है। सहयोग की भावना ही मनुष्य जाति की उन्नति का मूल कारण रही है। एकता, सामाजिकता, मैत्री आदि की सहयोग मूलक शक्ति ने ही आज मानव सभ्यता को उच्चता पर पहुँचा दिया है। सभ्यता के प्रारम्भिक युग में जिस व्यक्ति ने सहयोग की शक्ति समझ कर उसका प्रकटीकरण तथा प्रवर्तन किया होगा, वह निश्चय ही एक बड़ा दार्शनिक तथा समाज हितैषी महापुरुष रहा होगा। सहयोग की शक्ति जान कर लोगों ने अपनी स्थूल तथा सूक्ष्म विशेषताओं को मिला कर संगठन की चेतना प्रबुद्ध की होगी और कन्धों-से-कन्धा, विचार-से-विचार, शक्ति-से-शक्ति तथा साधन-से-साधन मिला कर एक तन-मन से काम किया होगा, जिसके फलस्वरूप सभ्यता तथा मानवीय समृद्धि के एक के बाद एक द्वार खुलते चले गये होंगे।
आज भी तो पूरा समाज सहयोग और पारस्परिकता के बल पर ही चल रहा है। यदि समाज से सहयोग की भावना नष्ट हो जाये तो तुरन्त ही चलते हुए कारखाने, होती हुई खेती और बढ़ती हुई योजनाएँ व विकास पाती हुई कलायें, शिल्प, साहित्य आदि की प्रगति रुक जाये और कुछ ही समय में समाज जड़ता से अभिभूत होकर नष्ट हो जाये। सहयोग मानव विशेषताओं में एक बड़ी विशेषता है, परिवार में जिसका होना नितान्त आवश्यक है। इसी पर परिवार बनता, ठहरता, चलता और उन्नति करता है।
परिवार में जब तक सच्ची पारिवारिक भावना नहीं होती उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता। आज सच्ची पारिवारिक भावना के अभाव में ही तो परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। उनकी शक्ति तथा दक्षता नष्ट होती जा रही है। उनकी वृद्धि, समृद्धि रुकती जा रही है और दिन-दिन उन्हें दीनता, दरिद्रता घेरती चली आ रही है। पारिवारिक भावना के अभाव में ही भाई-भाई लड़ते, बहनें एक-दूसरे से मन-मुटाव मानती, सास-बहू के बीच बनती नहीं और देवरानी, जिठानी एक-दूसरे से डाह व ईर्ष्या करती हैं। जितने मुकदमें दूसरों के विवाद के नहीं चलते उससे कई गुने मुकदमें पारिवारिक कलह के कारण दायर होते और चलते रहते हैं। चाचा-ताऊ, बाप-बेटों और बाबा-पोतों तक में संघर्ष होता चलता है।
इस अनिष्ट का एकमात्र कारण यही है कि एक परिवार होते हुए भी वे सब पारिवारिक भावना से रहित होते हैं। अपना भिन्न तथा पृथक अस्तित्व मानते और तदनुरूप ही आचरण करते हैं। सच्ची पारिवारिक भावना का विकास तो तब ही होता है, जब परिवार का प्रत्येक सदस्य अपना अस्तित्व पूरे परिवार में मिला कर अभिन्न हो जाता है। इस आत्म विसर्जन के पुण्य से ही लोगों में सच्चे प्रेम और सच्ची आत्मीयता का विकास होता है।
परिवारों से मिल कर समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यदि परिवार, संगठित, शक्ति सम्पन्न और समृद्ध हो जायें तो समाज तो वैसा आप-ही-आप बन जायेगा। उसके लिये अलग से कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता न रह जायेगी। परिवारों में सच्ची पारिवारिक भावना का अभाव किन कारणों से हुआ है, या हो रहा है, यदि इस पर विचार करते हैं, तो यह विदित होता है कि आज का हमारा रहन-सहन और आचार-विचार इसके लिए मुख्य उत्तरदायी हैं।
हम परिवार तो बड़े शोक से बसा लेते हैं, किन्तु उसका उचित निर्माण नहीं करते। वह अपने आप स्वतंत्र रूप से कुशकंटकों की भाँति जिधर चाहता बढ़ता और विकसित होता चला जाता है। यदि किसी चतुर माली की तरह हम अपने परिवार को एक सुन्दर वाटिका मान कर उचित पालन और निर्माण करें तो निःसन्देह उसका एक-एक सदस्य खुशनुमा फूल की तरह गुणों की सुगन्ध से भर कर खिल उठे, जिससे न केवल परिवार को ही बल्कि अन्य लोगों को सुख की प्राप्ति हो।
परिवार का निर्माण बच्चों के निर्माण से प्रारम्भ होता है। बच्चों का समुचित निर्माण तभी सम्भव है, जब हमारे उतने ही बच्चे हों जितनों का ठीक से पालन और देख-रेख की जा सके, जिनको शिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिये हमारे पास साधन हों। परिस्थिति से परे अनावश्यक बच्चे पैदा करते जाने वाला गृहस्थ लाख प्रयत्न करने पर भी अपने परिवार का वाँछित निर्माण नहीं कर सकता। जिस बोझ को उठाया ही नहीं जा सकता उसको लक्ष्य तक नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए परिवार निर्माण का मुख्य आधार छोटा तथा नियोजित परिवार ही मान कर चलना चाहिये।
बच्चों को केवल भोजन-वस्त्र दे देना और उनकी शिक्षा के लिये प्रबन्ध कर देने मात्र से उनका निर्माण नहीं हो सकता। स्कूलों में बच्चों को केवल पुस्तकीय शिक्षा ही मिल पाती है। आचरण की शिक्षा, गुण कर्म तथा स्वभाव की शिक्षा जो उनके निर्माण के लिए अत्यावश्यक है, वह आज के शिक्षालयों में नहीं मिलती है।
बच्चों के निर्माण में पिता का व्यक्तिगत आचरण बहुत महत्व रखता है। बच्चे सहज ही अनुकरणशील होते हैं, वे जैसा पिता को करते देखते हैं, वैसा ही सीख लेते हैं। अतः पिता को अपना रहन-सहन, आचार-विचार और स्वभाव उसके अनुकूल रहना चाहिये, जिस आदर्श में वह अपने बच्चों को ढालना चाहता है। यदि पिता अपने इस महान दायित्व को समझे और अपने को त्याग, प्रेम, परिश्रम, पुरुषार्थ, सदाचार के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करे तो कोई कारण नहीं कि उसके बच्चे न बन जायें। जो पिता स्वार्थी, क्रोधी, कर्कश, और व्यसनी विलासी होता है, वह न तो आदर का पात्र रहता है और न उसके बच्चे ही अच्छे बन पाते हैं।
माता के व्यक्तिगत आचरण का प्रभाव कन्याओं पर विशेष रूप से पड़ता है। जो मातायें अधिक साज सज्जा, श्रृंगार, फैशन, पाउडर, लिपस्टिक और गहनों में रुचि रखती हैं और सास, ननद, देवरानी, जिठानी आदि से लड़ती-झगड़ती रहती हैं, उनकी कन्यायें भी फैशनेबुल, छबीली और विलास-प्रियता की शिकार बन जाती हैं और उनके स्वभाव में भी विवाद, असहयोग और कलह के अंकुर उग आते हैं। माता-पिता को चाहिये कि परिवार के सारे सदस्यों तथा व्यक्तियों से यथायोग्य प्रेम और आदर का व्यवहार करें, सबके लिये त्याग तथा उदार भावना को प्रश्रय दें, अधिक-से-अधिक सादगी और शालीनता से रहें, इससे उनके बच्चों पर पारिवारिकता के अनुकूल प्रतिक्रिया होगी। वे प्रेमभाव की मिठास और त्याग का महत्व समझेंगे।
अभिभावकों के व्यक्तिगत आचरण के साथ परिवार का वातावरण भी बच्चों और सदस्यों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। जिन घरों में दिन-रात लड़ाई-झगड़ा तथा आपा-धापी होती रहती है। उस परिवार के बच्चे और अन्य सदस्य परस्पर सहयोग का मूल्य नहीं समझ सकते। उनमें स्वार्थ और कलह की प्रमुखता हो जायेगी। चाचा-ताऊ आदि जो भी सदस्य एक परिवार में रहते हों, जो भी भाई-बहन एक घर में रहते हों उन सबको अपना तथा अपने बच्चों से अधिक ख्याल भाई-बहन के बच्चों और उन खुद का रखना चाहिये। परिवारों में बच्चों के प्रति अपना-अपना भाव रखने से ही अधिकतर कलह के अंकुर उगते हैं। यदि सब बच्चों को अपना बच्चा और अपने को उनका सगा अभिभावक समझा जाये और वैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाये तो कोई कारण नहीं कि सबमें समान रूप से प्रेम-भाव न बना रहे और सारे बच्चे समान रूप से सारे गुरुजनों का आदर न करें अथवा अनुशासन न मानें। सारे प्रौढ़ सभी बच्चों को अपने बच्चे और सारे बच्चे सभी गुरुजनों को अपना शुभ-चिन्तक और अभिभावक मान कर वैसा ही आचरण करने लगें, तो निश्चय ही परिवार में दृढ़ता और स्थिरता के साथ-साथ सुख-शाँति की परिस्थितियाँ रहने लगें।
इसके साथ परिवार का वातावरण अधिक-से-अधिक पवित्र तथा शालीन रहना चाहिये घरों में ऐसा साहित्य ऐसे चित्र तथा ऐसे मनोरंजन को नहीं धँसने देना चाहिये जिससे बच्चों के स्वभाव अथवा आचरण पर अवाँछनीय प्रभाव पड़े। घरों में गन्दी मजाक, तानाकशी और हल्का विनोद अथवा गाली-गलौज का वातावरण नहीं होना चाहिये। रूढ़िवादिता, कुरीतियाँ और कुप्रथाओं के बहिष्कार से भी बच्चों के निर्माण में बहुत कुछ सहायता मिलेगी। पारिवारिक रूढ़ियों और अन्ध-विश्वास बच्चों पर इतना बुरा प्रभाव डालते हैं कि वे जीवन भर के लिये पढ़े-लिखे होने पर भी विचारों की स्वतन्त्रता तथा नवीनता से वंचित रह जाते हैं। यह विकृति उन्हें निश्चित रूप से पक्षपाती, दुराग्रही तथा स्वार्थी बना देती है।
इस प्रकार व्यक्तिगत आचरण, घरेलू वातावरण तथा विचार विकृति दूर कर परिवार का निर्माण कीजिये, आपके घरों से कलह, क्लेश तथा फूट-टूट की दूषित विकृति दूर हो जायेगी और उसके स्थान पर सच्ची पारिवारिकता, सहयोग, प्रेम तथा पारस्परिकता की भावना बढ़ेगी, जिससे परिवार के साथ, समाज तथा देश का कल्याण होगा।
शरीर में जिस प्रकार अंग अवयव गुँथे हुए हैं उसी प्रकार शरीर के साथ परिवार के सदस्य भी जुड़े हुए हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका निर्वाह एकाकी नहीं हो सकता आवश्यकता एवं समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि उनका समाधान मिलजुल कर अपनाई जाने वाली सहकारिता के आधार पर ही निकलता है। मनुष्य की मूल प्रवृत्ति सामाजिक सहकारिता है उसी ने उसे बुद्धि वैभव प्रदान किया है और साधन सम्पदा बढ़ाने तथा खर्चने का वह उपाय सुझाया है जिसे आज की भाषा में पदार्थ विज्ञान, अर्थशास्त्र, एवं क्रिया कौशल कहते हैं। बुद्धिमत्ता के यही क्षेत्र हैं। इनमें अतीत से लेकर अधावधि जो भी प्राप्ति हुई है उसके मूल में सहकारिता की सत्प्रवृत्ति की परोक्ष भूमिका निभाते हुए देखा जा सकता है। समाज का वह भाग जो निरन्तर साथ सम्बद्ध रहता है—परिवार कहा जाता है।
परिवार की सुरक्षा एवं प्रगति का ध्यान भी उसी तरह रखना कर्त्तव्य है जितना कि शरीर का रखा जाता है। जिन लोगों के बीच निवास निर्वाह होता है वे सभी कुटुम्बी हैं। अपने स्त्री बच्चों से ही परिवार का सीमा बन्धन नहीं जोड़ना चाहिए वरन् वे भी परिजन कहलाते हैं, जो एक साथ रहते और परस्पर स्नेह सहयोग का आदान−प्रदान करते हैं। इसमें विवाहित− अविवाहित होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। वंशधरों की तरह व्यवसाय और विचार भी मनुष्यों में घनिष्ठता उत्पन्न करते हैं। एक नाव में बैठने वाले सभी कुटुम्बी बन जाते हैं क्योंकि उनका डूबना उतरना साथ−साथ ही होता है।
परिवार के भरण−पोषण की जिम्मेदारी आमतौर से समझी और निभाई जाती है। इसमें एक कड़ी प्रज्ञा परिजनों की और भी जोड़नी चाहिए कि परिजनों के शरीरों को ही पोसने से सम्पन्न एवं प्रसन्न बनाने तक ही अपनी जिम्मेदारी सीमित न रखी जाय वरन् इस समूची व्यवस्था से भी कहीं अधिक भारी उत्तरदायित्व उनके व्यक्तित्व निखारने का समझा जाना चाहिए। यदि इस सम्बन्ध में उपेक्षा बरती गई तो समझना चाहिए कि व्यक्तित्व अनगढ़ कुसंस्कारी बने रहने पर सम्पन्नता शिक्षा बलिष्ठता मात्र से उनका भला न हो सकेगा। दुर्गुणी व्यक्ति उपलब्धियों का दुरुपयोग करते हैं। फलतः अपनी तथा साथियों की दुर्गति ही मनाते रहते हैं। वैभव आवश्यक तो है, पर स्मरण रखने योग्य तथ्य यह भी है कि शालीनता के अभाव से उससे दुष्प्रवृत्तियों का ही परिपोषण होता है और साँप को दूध पिलाने की तरह उलटा दुष्परिणाम ही उत्पन्न होता है। लाड़−चाब में जो अपने परिवार को दुर्गुणी बना लेते हैं उनका अविवेक भरा प्यार भी अत्याचार से भी भारी पड़ता
परिवार संस्था को सद्गुणों की प्रयोगशाला, पाठशाला, फैक्ट्री, नर्सरी मानकर चला जाय और इसके लिए “एक आँख प्यार की दूसरी सुधार की” रखने वाली नीति अपनाई जाय तो आत्मीयजनों के उस छोटे समुदाय को सच्ची सेवा कहा जायगा। इस दिशा में आरम्भ से ही ध्यान रखा जा सके तो बहुत ही उत्तम अन्यथा गिनती भूल जाने पर उसे नये सिरे से गिनना चाहिए। देर से समझ आये तो भी उसे समझदारी ही कहा जायगा। प्रज्ञा परिजनों की दृष्टि अपने सम्बद्ध परिजनों को सुसंस्कारी बनाने की रहनी चाहिए। सम्पन्नता की कमी रह जाने पर भी सज्जनता के सहारे काम चल सकता है,किन्तु सज्जनता रहित सम्पन्नता अन्ततः दुःखद दुष्परिणाम ही प्रस्तुत करती है।
उत्तराधिकारियों के लिए कुबेर जितना वैभव छोड़ मरने की ललक न उनके हित में है न अपने हित में। मुफ्त का माल पचता नहीं। भले ही वह अत्याचार छल छद्म से कमाया गया हो या उत्तराधिकार लाटरी आदि के माध्यम से पाया गया हो। विष खाद्य छोड़ मरने की अपेक्षा यह अच्छा है कि अपना पुरुषार्थ उन्हें सद्गुणों बनाने के लिए नियोजित रखा गया है। किसी से सम्पन्नता की प्रतिस्पर्धा नहीं करती चाहिए। होड़ करनी हो तो शालीनता का उन्मुक्त क्षेत्र उसके लिए खुला पड़ा है। उसी में अपने पराक्रम एवं कौशल का परिचय देना चाहिए।
जानकारियाँ तो कहने−सुनने से भी मिल सकती हैं। भूगोल, गणित, शिल्प, संगीत तो उस्तादों से भी सीखा जा सकता है, पर चरित्र निर्माण की प्रेरणा प्रदान करने वाले को अपना उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ता है। आगे चलने पर ही अनुयायी भी पीछे लगते हैं। बातूनी नसीहतें इस प्रयोग में तनिक भी काम नहीं आतीं। अपनी फजीहत दूसरों को नसीहत देने वाले व्यंग उपहास का कारण ही बनते हैं। उनकी बात गले नहीं उतरती भले ही वह हित कारक क्यों न हो। साँचे में खिलौने ढलते हैं, परिवार में जिन सत्प्रवृत्तियों का प्रचलन करना हो उनका अभ्यास प्रयोक्ताओं की सर्वप्रथम करना पड़ता है। परिवार को सुसंस्कृत बनाने की आकाँक्षा तभी पूरी होती है जब अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सदाशयता का समावेश उत्साहवर्धक, प्रेरणाप्रद मात्रा में किया जा सके। दोनों प्रयोजन सम्बद्ध हैं। आत्मनिर्माण और परिवार निर्माण की प्रक्रिया गाड़ी के दो पहियों की तरह साथ−साथ चलती है। दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वाले के अपने हाथ अनायास ही रच जाते हैं। परिवार के प्रति यदि सच्ची आत्मीयता शुभेच्छा और सद्भावना हो तो उसे क्रियान्वित करने का उपयुक्त मार्ग एक ही है कि उन्हें सद्गुणी, सज्जन, प्रतिभावान एवं सुसंस्कृत बनाया जाय। इसका शुभारम्भ अपने को सुधारने और ढालने के साथ ही बन पड़ता है। आदर्श उपस्थित करने से ही उत्साह उत्पन्न होता है।
पारिवारिक पंचशीलों की चर्चा समय−समय पर की जाती रही है। श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययता, शालीनता और सहकारी उदारता की आदत घर परिवार के लोगों में डाली जा सके तो आरम्भ में अनख लगने पर भी—आनाकानी अवहेलना अवज्ञा होने पर भी—यदि उस बीजारोपण, परिपोषण को जारी रखा जा सके तो इस पुण्य प्रयास के सत्परिणाम हाथों−हाथ देखने को मिल सकते हैं। आत्म सन्तोष, एवं दूसरों का सम्मान सहयोग पाने पर कोई भी अपनी विशिष्टता पर गर्व गौरव अनुभव करता है। उस मार्ग पर उठते कदम उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना को सुनिश्चित बनाते हैं। औलाद के लिए दौलत छोड़ मरने उनकी बेतुकी फरमाइशें पूरी करते रहने की अपेक्षा समझदारी इसमें है कि उनके स्वभाव एवं व्यवहार में आदर्शवादिता का अनुपात बढ़ाया जाय। यह ऐसा उपकार है जिसके प्रति कुटुम्बियों की अन्तरात्मा चिरकाल तक कृतज्ञ कृत−कृत्य बनी रहेगी। यह ऐसा उपहार है। जिसकी तुलना में उन्हें हीरक हारों से लाद देना भी हलका पड़ता है। दूसरों के यहाँ क्या होता है इसकी नकल करने—ललचाने की आवश्यकता नहीं। हमें अग्रणी होना चाहिए और पड़ौसी परदेशियों के सामने यह आदर्श उपस्थित करना चाहिए कि उन्हें इस परिवार का अनुकरण करते हुए गौरवान्वित होना चाहिए। अनुयायी क्यों बनें? अग्रणी क्यों नहीं। कुप्रचलनों को अस्वीकार करने में भी साहसिकता है। अन्धी भेड़ों की तरह हेय उन लोगों का अनुसरण नहीं करना चाहिए जो वैभव का उद्धत प्रदर्शन करने के लिए अन्तरात्मा वेध चुके। आदर्श छोड़ चुके और चरित्र गँवा चुके।
प्रज्ञा परिजनों को अपने घर परिवार में पंचशील के प्रति ऐसा सम्मानास्पद वातावरण बनाना चाहिए जैसा कि धार्मिक लोग पाँच देवताओं के प्रति अपनाते और संसारी लोग पाँच रत्नों के रूप में धन, लक्ष्मी को पूजते हैं। सभी बलिष्ठता सुन्दरता, विद्वत्ता, ख्याति, सम्पन्नता चाहते हैं। यदि आकाँक्षाओं में शालीनता के पक्षधर पंचशीलों का भी समावेश किया जा सके तो समझना चाहिए कि सुरुचि जागी और पाने योग्य उपलब्धियों की महत्ता समझाने वाली विवेक बुद्धि उभरी। यह जागरण ऐसा ही है जैसा कि रात्रि को मृतक, मूर्छितों जैसी घोर निद्रा का परित्याग कर लोग प्रभातकाल में जगते, निवृत्त होते और श्रेयष्कर क्रियाशीलता में संलग्न होते हैं।
घर से आलस्य प्रमाद को विदा करना चाहिए और वातावरण ऐसा बनाना चाहिए कि हर सदस्य को हर समय उपयोगी कार्यों में व्यस्त रहने का अवसर मिले। निठल्ले न स्वयं बैठें न आत्मीयजनों को बैठने दें। विश्राम की भी आवश्यकता है किन्तु आलस्य प्रमाद को विश्राम या बड़प्पन का चिन्ह नहीं माना जाना चाहिए। जीवन का स्वरूप है—समय। समय का सदुपयोग श्रम पराक्रम के साथ ही किया जा सकता है। घर में ऐसे क्रिया−कलापों का प्रचलन करना चाहिए जिसमें हर समर्थ सदस्य को अपने−अपने ढंग से व्यस्त रहना पड़े। उनसे उनका आरोग्य, बुद्धिबल, कौशल बढ़ेगा, साथ ही व्यक्तित्व निखरेगा। घर को सुव्यवस्थित, सुसज्जित रखने तथा गृह उद्योग स्तर के, शाकवाटिका, टूट−फूट मरम्मत कपड़े धोना, सीना जैसे हलके ऐसे अनेकों छोटे−बढ़े काम खड़े किये जा सकते हैं जो श्रम सामर्थ्य को अस्त−व्यस्त होने से बचाये रह सकें, जो सृजनात्मक प्रवृत्ति का परिपोषण करते रह सकें।
स्वच्छता, सुन्दरता, सुव्यवस्था यह सारे उपक्रम सुरुचि के परिचायक हैं सच्ची कलाकारिता इसी में है कि शरीर, वस्त्र, उपकरण, निवास का हर पक्ष सुन्दरता किन्तु सादगी से भरा−पूरा दृष्टिगोचर हो, गन्दगी सहन न करना ही सौंदर्य की आराधना है। अस्त−व्यस्तता और कुरूपता एक ही बात है। शरीर का गठन ईश्वर के हाथ है। खर्चीली सजधज में विलासिता और अहमन्यता के उद्धत प्रदर्शन की गंध आती है किन्तु हर वस्तु को, हर निर्धारण को, हर प्रयास को योजनाबद्ध सुव्यवस्थित रखा जा सके तो समझना चाहिए कि दृष्टिकोण में गौरवास्पद कलाकारिता का समावेश हो रहा है। समझना चाहिए कि ‘मैनेजर’ का पद संसार में सबसे ऊँचा है। जो अपनी−अपने परिवार की सुव्यवस्था का अभ्यास कर रहा है वह किसी दिन महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निर्वाह में अपनी प्रतिभा का परिचय भी देगा।
मितव्ययता से सादगी और सज्जनता की, दूरदर्शिता और आदर्शवादिता का परिचय मिलता है। फैशन आदि अपव्यय करने वाले अपने मन में जो भी समझते रहें, विचारशैली की दृष्टि में ओछे बचकाने एवं अप्रामाणिक ही सिद्ध होते हैं। धन अपव्यय के लिए नहीं कमाया जाता, उसकी एक−एक पाई ऐसे सत्प्रयोजनों में खर्च करनी चाहिए जिससे भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के साधन जुटते हों। समाज को भी सत्प्रवृत्तियां संवर्धन के लिए उदार अनुदानों की निरन्तर आवश्यकता रहती है। और सब कुछ उन्हीं से बन पड़ता है जो अपव्यय से पैसा बचा सकते हैं। जो पैसे को कूड़ा समझते हैं और उसकी फुलझड़ी जलाते हैं उन्हें उपयोगी प्रसंग पर मन–मसोलना पड़ता है, कर्जदार बनना पड़ता है। इस सारे जंजाल से वे सहज ही बच सकते हैं जो खर्च करने से पहल हजार बार विचार करते हैं और गाँठ तभी खोलते हैं जब खर्च को औचित्य की कसौटी पर हजार बार कस लें। ऐसी विवेक युक्त कृपणता उस उद्धत अपव्यय से हजार गुनी अच्छी हैं पर अनेकानेक दुर्गुणों, दुर्व्यसनों को जन्म देती और भविष्य को अन्धकारमय बनाती है।
शालीनता चौथा पारिवारिक पंचशील है। घर के लोग परस्पर मीठा बोलें, शिष्टाचार बरतें, एक दूसरे का आदर करें हाथ बढ़ावें और मान मर्यादा का ध्यान रखें। असमय अनगढ़ लोग उच्छृंखलता बरतें और अनुशासन हीनता का परिचय देते देखे जाते हैं। बात−बात में आवेश लाने वाले और संतुलन गँवा बैठने वाले मानसिक रोगियों में गिने जाते हैं। उन्हें कोई दया का पात्र समझता है कोई घृणा का। सज्जनता के साथ धैर्य जुड़ा हुआ है उसमें सहिष्णुता और तालमेल बिठा कर चलने की दूरदर्शिता का समावेश रहता है। परस्पर स्नेह−सौजन्य बनाये रहने, सहयोग भरा आदान−प्रदान चलाने के लिए स्वभाव में शालीनता का समावेश करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यह समझा ही नहीं, व्यवहार में भी लाया जाना चाहिए। निरन्तर पर्यवेक्षण और अभ्यास करते कराते रहने से यह आदत भी स्वभाव का अंग बन जाती है।
उदार सहकारिता से—एक−दूसरे का हाथ बटाने की प्रवृत्ति को प्रधानता दी जाती है। कर्तृत्व को प्रधान, अधिकार को गौण रखना पड़ता है। उदारता बरतने पर उलट कर सद्भावना मिलती है जो पूँजी की अपेक्षा अनेक गुना लाभाँश उत्पन्न करने वाली उच्चस्तरीय भाव प्रेरणा देती है।
प्रज्ञा परिजनों को अपने परिवार में इन पंचशील की सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण अभिवर्धन करना चाहिए। वे देखेंगे कि इस आधार पर कैसी हरीतिमा लहलहाती है और कैसी बहुमूल्य फसल कटती है।
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इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि परिस्थिति की जन्मदात्री मनःस्थिति है। दैवी प्रकोप, प्रकृति विग्रह इसके अपवाद हैं। जो कभी−कभी ही देखने को मिलते हैं। आमतौर से आकाँक्षाएँ विचारणाओं को प्रेरित करती हैं। विचारों से कर्म बनते हैं और कर्म की प्रतिक्रिया भली−बुरी परिस्थिति बनकर सामने आती है। सृष्टि क्रम यही है। मानव जीवन का—समाज प्रवाह का— विधि−विधान यही है। तथ्यों को समझते हुए प्रतिकूलताओं को सुधारने के प्रत्यक्ष प्रयत्न तो होने ही चाहिए, सामयिक सन्तुलन बिठाने वाले कदम तो उठने ही चाहिए किन्तु यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि मनःक्षेत्र यदि मूढ़ता और दुष्टता से भरा रहा तो प्रगति एक शान्ति की अभिलाषा मृग, तृष्णा मात्र ही बनी रहेगी।
सुधार प्रयासों में जन मानस का स्तर उठाया जाना आवश्यक है। उसमें बसी अवाँछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस दिशा में उपेक्षा बरती गई तो सुधार के लिए किये गये प्रयत्न बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों के गर्त्त में गिर कर नष्ट होते रहेंगे। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रगतिशील पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा किये जाने वाले पराक्रम का निरर्थक चला जाना, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। वैज्ञानिक, बौद्धिक एवं आर्थिक प्रगति के अनेकों द्वार इन दिनों खुले हैं और उनमें सन्तोषजनक सफलता भी मिली है फिर भी हर क्षेत्र में दिन−दिन संकटों का घिरते जाना, इस बात का प्रमाण है कि चिन्तन और चरित्र की गिरावट समस्त उपलब्धियों को नष्ट निरस्त करके रखे दे रही है।
दूसरे लोगों को प्रगति के प्रत्यक्ष प्रयत्नों में लगे रहने देना चाहिए। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को अपने हिस्से का उत्तरदायित्व यह मानना चाहिए कि उन्हें लोक मानस के परिशोधन परिष्कार का काम विशेष रूप से अपने कन्धों पर उठाना है। दूसरे लोग उसका महत्व नहीं समझ पा रहे और प्रयत्न नहीं कर रहे तो किसी का कोसने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उस अभाव की पूर्ति में हम जुट पड़े और प्रयास का प्रतिफल प्रस्तुत करते हुए सर्वसाधारण को इस तथ्य से अवगत—सहमत करें कि सर्वसाधारण को इस तथ्य से अवगत—सहमत करें कि सर्वतोमुखी प्रगति के अन्यान्य प्रयासों में विचार−क्रान्ति की—प्राथमिकता दी जाय साथ ही दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन का प्रत्यक्ष प्रयास परिवर्ण तत्परता−तन्मयता के साथ सम्पन्न किया जाय। प्रज्ञा परिजन इस युग धर्म को समझें और अपने हिस्से का काम श्रद्धा विश्वास के साथ सम्पन्न करने के लिए आगे आयें।
इस दिशा में दो उपाय अपनाने होंगे—दो कदम उठाने एक लोक व्यवहार की अधिक जानकारी देने वाली शिक्षा का संवर्धन। दूसरा चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करने वाली विद्या का पुनरुत्थान। यह दानों काम साथ−साथ चलने चाहिए।
शिक्षा के लिए निरक्षरों को साक्षर बनाया जाना और साक्षरों को अधिक ज्ञानवान बनाया जाना आवश्यक है। विद्या के लिए स्वाध्याय सत्संग जैसे प्राणवान माध्यम खड़े करने होंगे और व्यक्तिगत रूप से जन−जन को दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने के लिए मनन चिन्तन की आदत डालनी होगी।
अपने देश में इन दिनों 70 प्रतिशत व्यक्ति अशिक्षित हैं। साक्षरों शिक्षितों की संयुक्त संख्या 30 प्रतिशत है। सर्वविदित है कि शिक्षा के अभाव में मनुष्य विज्ञ बहुज्ञ नहीं बन सकता है। इसके बिना कूप मंडूक बना मनुष्य उतना ही सोच सकेगा जितना कि सीमित घिराव में रहते हुए सम्भव है। सर्वतोमुखी विचार क्रान्ति से लेकर भौतिक प्रगति की सामयिक जानकारी प्राप्त करने तक में शिक्षा का विस्तार नितान्त आवश्यक है।
अगले दिनों प्रज्ञा अभियान के पैर मजबूत होते ही साक्षरता संवर्धन की जिम्मेदारी भी अपने ही कन्धों पर आने वाली है। शिक्षितों को विद्या ऋण चुकाने के लिए अनुरोध ही नहीं आग्रह भी किया जाना है। अध्यापकों की आवश्यकता उसी उदार समयदान से सम्भव होगी। आकर्षित नर−नारियों के गले यह बात उतारी जायेगी कि ही नहीं वयस्कों, अधेड़ों और वृद्धों को भी बिना नर−नारी का अन्तर किये शिक्षा सम्पदा उपार्जित करना आवश्यक है। प्रौढ़−पाठशालाओं की हर गली मुहल्ले में स्थापना करने की बात प्रज्ञा अभियान की प्रमुख योजनाओं में से एक है। साधनों और सहायकों की सामर्थ्य के साथ तालमेल बिठाते हुए उसे व्यापक बनाने का क्रम यों चल तो इन दिनों भी अधिक विलम्ब लगने लिए बालकों की शिक्षा व्यवस्था ही भारी पड़ रही है प्रौढ़ अशिक्षितों को साक्षर बनाने की बात तो जन आन्दोलन के सहारे ही बन सकना सम्भव है।
शिक्षा विस्तार का दूसरा उपाय यह है कि अक्षरों को अधिक शिक्षित बनाया जाय। सामान्य जीवन में सुव्यवस्था और प्रगतिशीलता ला सकने वाले ज्ञान का सम्पादन का अंग बना दिया जाय। विदेशों में लोग आजीविका उपार्जन के उपरान्त मिलने वाले अवकाश में से एक−दो घण्टे का समय उपयोगी ज्ञान को बढ़ाने के लिए बने रात्रि विद्यालयों में नाम लिखाते और पढ़ने जाते है। आजीविका उपार्जन और ज्ञान संवर्धन की दुहरी प्रक्रिया किसी के लिए भी कठिन नहीं पड़ती। दुहरा लाभ उठाना हर किसी को रुचिकर होता है। यह प्रचलन अपने यहाँ भी होना है। व्यस्त शिक्षितों को अधिक ज्ञानवान बनाने के लिए रात्रि विद्यालयों की व्यापक व्यवस्था बनानी पड़ेगी। विदेशों में अनेक विद्यालय शनिवार,रविवार की साप्ताहिक छुट्टी के दो दिन चलते हैं। अपने यहाँ एक दिन के साप्ताहिक अवकाश का उपभोग भी विभिन्न विषयों के विद्यालयों के लिए हो सकता है। साक्षरता एवं ज्ञान संवर्धन के दोनों प्रयास साथ−साथ चलाने से ही अपने देश की बौद्धिक सम्पदा बढ़ेगी। इतना बन पड़े तो सम्पन्नता, समर्थता एवं प्रगतिशील की भी कमी न रहेगी।
यह व्यापक क्षेत्र में अपनाई जाने वाली ज्ञान संवर्धन योजना की चर्चा हुई। प्रज्ञा परिजनों को अपने निजी कार्यक्षेत्र परिवार में—इसका कार्यान्वयन तत्काल आरम्भ कर देना चाहिए। घर में जो अशिक्षित हों उन्हें पढ़ने के शान्त चित्त से—धीमी गति से— प्रयत्न करना चाहिए। एक बारगी दबाव डालने से तो आवेश में इन्कार भी कर सकते है। और उस इनकारी को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर न करने के लिए अड़ भी सकते हैं। ऐसा विग्रह मनोमालिन्य खड़ा न हो इसलिए इन प्रयत्नों को धीमीगति से ही चलने देना चाहिए। आवश्यक नहीं कि सभी सहमत हों जो बात मानले उन्हीं को लेकर कार्य आरम्भ याचना से ही जुटेंगी, पैसा देकर नहीं। अपने घर में भी ऐसा ही चले। शिक्षित अशिक्षितों को पढ़ायें। दोनों की सुविधा के समय का तालमेल बैठ जाना कुछ कठिन नहीं है। एक−एक करके घर के सभी अशिक्षित ज्ञानयज्ञ की इस शिक्षा साधना में भागीदार बनते जायें यह प्रयास बिना सकें, बिना खीजे, बिना निराश हुए जारी रखा ही जाना चाहिए भले ही उसकी गति मन्द ही क्यों न हो।
यही बात साक्षरों को अधिक शिक्षित बनने—अधिक ज्ञानवान बनने की इच्छा जगाने के सम्बन्ध में भी लागू होती है। ऐसी पाठशालाएँ गली−मुहल्लों में चल सकती हैं। पर वैसा न बन पड़े तो भी अधिक ज्ञानवान, कम ज्ञानवानों को पढ़ाने का प्रचलन आरम्भ करें। निजी प्रयत्न से भी यह चलता रह सकता है। स्कूली परीक्षा देने की बात दूसरी हैं उसके लिए ट्यूटर चाहिए। घर ज्ञान सम्पदा के लिए अध्यापन जारी रखने के लिए स्वाध्याय में रुचि जगा देने भर से बात बन जाती है। किसी विषय का साहित्य लगातार पढ़ते रहने पर अभीष्ट ज्ञान को बिना किसी दूसरे की सहायता के प्रचुर परिमाण में एकत्रित किया जा सकता है। स्कूली परीक्षाओं में भी कितने ही छात्र बिना स्कूलों में भर्ती हुए भी घर पर बिना किसी सहायता के पढ़ते है। कुँजियों के सहारे काम चलाते और अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होते रहते हैं। अपने घर में भी ऐसी ही अभिरुचि जगानी चाहिए। उसे जगाने में अपनी नम्र, मधुर धीमी भूमिका होनी चाहिए कि एक−एक करके सभी उस नव निर्धारण को अपनाने में रुचि लेने लगे। तत्पर दीखने लगें।
इसके लिए पुस्तकालयों की नितान्त आवश्यकता है। हर व्यक्ति खरीद कर कहाँ तक पढ़े। अपने देश में तो दरिद्रता और अरुचि का दुहरा दबाव होने से उपयोगी पुस्तकें नियमित रूप से मिल सकें ऐसी व्यवस्था कठिन है। ऐसी दशा में पुस्तकालय हो, ज्ञान सम्पदा की सहकारी समिति, उदार बैंक एवं समर्थ अध्ययन की भूमिका निभा सकते है। अगले सम्पादन मिलने वाला है। पर निजी क्षेत्र में इतना तो अभी भी हो सकता है कि बजट में परिवार की बौद्धिक भूख बुझाने के लिए घरेलू पुस्तकालय बढ़ते रहने की भी एक मद रहे। अन्न,वस्त्र की तरह ही यदि बौद्धिक आवश्यकता पूरी करने वाले सत्साहित्य को भी महत्वपूर्ण मान लिया जाए तो फिर उसके लिए कुछ राशि नियमित रूप से निकालते रहने में कठिनाई नहीं रह जायगी। दस पैसा ज्ञान घटों में डालने की न्यूनतम शर्त प्रायः सभी प्रज्ञा परिजन निभाते हैं। इसे बढ़ाकर पच्चीस पैसा—एक रुपया—या महीने में एक दिन की आमदनी जितना बना लिया जाय तो उतने से एक अच्छा घरेलू पुस्तकालय बन सकता है। उसमें नया साहित्य नियमित रूप से बढ़ता रह सकता है। इसके न केवल घर के वरन् मित्र पड़ौसी भी लाभ उठाते रह सकते हैं।
आत्मिक प्रगति के चार सूत्रों में(1) साधना (2)स्वाध्याय (3)संयम (4)सेवा के चार चरण निर्धारित है। साधना के बाद दूसरा नम्बर स्वाध्याय का है। स्वाध्याय कथा पुराणों का नहीं, वरन् युग मनीषियों के उस प्रतिदिन का जो व्यक्ति और समाज के सामने प्रस्तुत सामयिक समस्याओं को आदर्शवादी समाधान प्रस्तुत करते हैं। ऐसा साहित्य छपता तो कम है, पर ढूंढ़ने पर जहाँ−तहाँ से उसे चुना बीना जा सकता है। स्वाध्याय के प्रति प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को अपने परिवार में रुचि जगानी चाहिए। जो पढ़ नहीं सकते उन्हें प्रज्ञा साहित्य सुनाने की व्यवस्था बनानी चाहिए। कथा श्रवण वाचन का शास्त्रों में बहुत पुण्यफल बताया। गया है। इस धर्म कृत्य का हमें अपने−अपने घरों में मनोयोगपूर्वक पढ़ने और उसका सार तत्व हृदयंगम करने व्यवहार में उतारने का प्रयत्न करने की घर में नित्य धर्म कथा होने की तरह ही पुण्य प्रचलन मानना चाहिए। इस संदर्भ में नव प्रकाशित प्रज्ञा पुराण का उपयोग भी श्रद्धापूर्वक किया जा सकता है। पारिवारिक सत्संग यही है। इससे उस ब्रह्म विद्या की— महाप्रज्ञा की आराधना बन पड़ती है जिसकी परिणति आत्म−सन्तोष, जन सम्मान एवं दैवी अनुग्रह जैसी विभूतियाँ उपलब्ध कराने में होकर ही रहती है।
जन्म दिवसोत्सव, षोडश संस्कार, पर्व त्यौहार सभी धर्म आयोजनों में वे प्रेरणा भरी पड़ी है जिनके सहारे आत्मज्ञान तथ्य ज्ञान एवं व्यवहार ज्ञान की त्रिविधि आवश्यकताएँ पूरी होती है। इन अवसरों पर सामूहिक आयोजन की विधि−व्यवस्था स्थानीय प्रज्ञा पुत्रों के का ह देने पर बिना किसी कठिनाई के सम्पन्न हो जाती है। वैसा न बन पड़े तो इन शुभ अवसरों—पुण्य पर्वों पर स्वयं ही अपने परिवार को प्रगतिशील बनने के लिए समझाने को निजी सत्संग का प्रबन्ध समय−समय पर स्वयं ही करते रहा जा सकता है। धार्मिक वातावरण में उपलब्ध हुई उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ अपेक्षाकृत अधिक सरलतापूर्वक हृदयंगम होती हैं। व्यवहार में उतरने पर अपना उत्साहपूर्वक चमत्कार भी दिखाई है। शिक्षा और विद्या की अभ्यर्थना उपरोक्त उपायों का अवलम्बन लेकर प्रज्ञा परिजनों को अपने−अपने परिवारों की परिधि में करनी और करानी ही चाहिए। नव सृजन के लिए करने को तो अनेकानेक सृजनात्मक क्रिया−कलपना है, उनमें शिक्षा संवर्धन को प्रथम और हरितिमा आरोपण को दूसरा स्थान दिया जा सकता हे। मनुष्य वनस्पतियों से जीवन धारण करने वाला प्राणी है। अन्न, शाक, फल वनस्पतियों की देन है। यहाँ तक कि जिन पशु−पक्षियों का मांस खाया जाता है वे भी शाकाहारी ही होते है। इस प्रकार भी वनस्पति का ही उत्पादन है। दूध, घी, शहद जैसे पदार्थ भी प्रकारान्तर से वनस्पति का प्राणियों द्वारा किया गया रूपांतरण ही है। अन्न के बाद जल मनुष्य का दूसरा आहार है। वृक्ष आकाश से बादलों को अपनी आकर्षण शक्ति से खीचते और बरसने को विनहि सम्भव न हो सके। यह ठीक है कि पौधे जल से सींचे जाते है, पर यह भी उतना हो सही है कि पेड़ जल बरसाने प्राणियों के लिए भी पानी की व्यवस्था बनाते है। जिस सांस को लेकर हम सब जीते है उसमें हवा के साथ ऑक्सीजन भी धुली रहती है। इसी के सहारे शरीर को ऊर्जा मिलती है। यह प्राणवायु वृक्षों की देन है, वे सांस से निकलने वाली ‘कार्बन’ को सोखते है। और बदले में जीवन तत्व फेंकते है। इस प्रकार मनुष्य और पीछे एक−दूसरे के जीवन निवहि में निमित्त कारण बन कर रह रहे है। यह तथ्य है कि यदि पेड़ न रहें तो मनुष्य भी प रहेगा। जड़ों के अभाव में वह जायगी और सर्वत्र खाई टील ही दृष्टिगोचर होंगे।
हरितिमा संवर्धन इस धरती पर विद्यमान जीवन तत्व की जड़ को सींचता है। यदि अपने लोक में सजीवता बनाये रखनी है ध्यान रखना होगा कि वृक्ष वनस्पतियों की वन भी घटने न पाये। ईंधन के बिना न भोजन पकता है और न ठंड से निपटने बन सकता है। ईंधन की अधिकाँश आवश्यकता जलाऊ लक्कड़ों के बिना बनती नहीं। फर्नीचर बक्से, तथा पैकिंग पार्सलों के लिए लकड़ी पर निर्भर रहना पड़ता है। फलों की पौष्टिकता और फलों की शोभा सुषमा की अन्यत्र होती ही है मनुष्यों के लिए भी थकना मिटाने वाले आच्छादन की आवश्यकता पूर्ण करते है।
वृक्षों को देवता की उपमा दी गई है। विल्व, आंवला, वट, पीपल को देवता की तरह पूजा जाता है। तुलसी का विरवा देव मन्दिर बनाने की तरह आँगन में रोपा जाता है। सूर्य को अर्ध चढ़ाने की तरह उस पर भी जल चढ़ाते है। नित्य दीपक जलाने और परिक्रमा करने का धार्मिक घरों में वैसा ही प्रचलन है जैसा कि देवालयों के सम्मान में श्रद्धापूर्वक सम्पन्न किया जाता है।
जड़ी बूटियाँ संजीवनी मूरी है। रोग निवारण में उनका ही आश्रम लेना पड़ता है। च्यवन ऋषि को यौवन और लक्ष्मण को पुनर्जीवन प्रदान करने में उनकी अद्भुत शक्ति का परिचय मिलता है। इनकी शोध में चरक, सुश्रुत, बाणभट्ट, आदि अनेकानेक ऋषि तपस्वियों ने अपने जीवन रुपा दिये। अभी भी उस प्रयास का अन्त नहीं हुआ है। जराजीर्ण काया को नव यौवन प्रदान करने में जिस कल्प चिकित्सा की कभी भारत ने विश्व ख्याति प्राप्त की थी, इसकी पुनःखोज निकलने के प्रयास अभी भी चल रहे है। वनस्पति को देवता प्रतिष्ठा देने के लिए तुलसी ही बूटी से संसार के समस्त रोगों के निवारण को अनुपम रूप से विज्ञजन चिकित्सा करते पाये जाते है। चंदन को शिर पर लगाने के लिए मनुष्य ही नहीं डडडड सी आतुर रहते है। यज्ञ कर्म में समिधाएं ही डडडड होती है। जन्म के समय पालने से लेकर मरण डडडड के चिता संस्कार तक काष्ठ ही साथ रहता है। दिन के की कुर्सी पर और रात्रि में चारपाई पर बैठ ही बिताते है। हल हो या हथौड़ा, लकड़ी साथ रहेगी। ऐसे डडडड मित्र, साथी और सहचर कदाचित ही और काँई मिलता हो जैसा कि वृक्ष परिकर। आंखों को शीतलता, मस्तिष्क को शान्ति देने में वनस्पतियों की तुलना और किसी से नहीं की जा सकती है। इतना सुन्दर और कोई नहीं जितना कि फूल के अति−रिक्त प्रकृति ने और किसी में नहीं किया।
हमें वनस्पति से स्नेह, सहयोग, सौजन्य प्राप्त है। बदले में हमें भी वैसी ही कृतज्ञता बरतनी चाहिए और आदान−प्रदान का सिलसिला जारी रखना चाहिए। उनका वशं नष्ट न होने दें। हरितिमा हमारा परिपोषण करती है हम उसके संवर्धन में रुचि लेकर कृतज्ञता व्यक्त करें। सभ्य देशों में सामान्य नागरिकों को देहाती जीवन पसन्द है। वहाँ वे अपने घरों के चारों ओर हरियाली लगाते है। व्यस्त, व्यवसायियों या दारिद्री, व्यसनी आलसियों को छोड़कर बड़े नगरों में काम करने वाले भी देहातों में रहने की व्यवस्था बनाते है। भले ही आवागमन में पैसा या समय खर्च होता हो। वे जानते है कि जिस वातावरण में जीवन की अन्तःसत्ता विकसित होती है। वह वृक्ष वनस्पतियों के छोड़कर बड़े नगरों में भी अब जो नये निर्माण हो रहे है उनके घर डडडड उद्यान लगाने के लिए उपयुक्त भूमि सुरक्षित रखो का प्रावधान रहता है। घरों की हरितिमा के साथ जोड़ रखा का तात्पर्य है —जीवन और प्रकृति का सहचरत्व रहना। इस और कुरुचि भर जाने का ही प्रमाण परिचय मिलता है।
घर छोटे हो या बड़े। सवन हो या बिरल उनमें परिवार के अन्य सदस्यों की पौधों के लिए भी स्थान रहना चाहिए। डडडड को पालने की तरह उन्हें भी पाला−पोसा जाना चाहिए। छोटी−सी पुष्प वाटिका हर घर में हो। तुलसी विरबा हर आंगन में दृष्टिगोचर हो और वह श्रद्धा एवं सुरुचि के जीवन रहने का परिचय दें। आँगन वक्का हो तो गमलों का उपयोग ही सकता है। आंगन में जगह कम पड़ती हो तो अधर में भी लटकाये जा सकते है। बेलें छप्पर पर चढ़ सकती है। छत पर भी बक्सों, गमलों, टोकरों में एक उद्यान लग सकता है। घर के अगल−बगल में जगह में भी शाकवाटिका, पुष्प वाटिका लग सकती है। उसकी साज सम्भाल में शिशु पालन जैसी आह्लाददायिनी सेवा साधन बन पड़ता है। इतना ही नहीं उसकी सिंचाई, गुड़ाई, निराई छटाई में हलकी−फुल्की दैनिक कसरत भी बन पड़ता है। विनोबा सबसे अच्छी कसरत बागवानी को बताते है, इससे उत्पादक श्रम बन पड़ता है और स्वास्थ्य रक्षा के अतिरिक्त सुरुचि पोषण और का त्रिविधि लाभ मिलता है।
इस संदर्भ में दो और भी महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश किया जा सकता है। एक है—आहार सम्बन्धी वर्तमान प्रचलन में क्रान्तिकारी परिवर्तन। दूसरा है गृह उद्योगों का घर−घर में संस्थापन। कमटोरी बीमारी से निपटने के लिए हमें अपनी भोजन रुचि बदलनी होगी और निठल्ले मनके सहचर दारिद्रभ से पीछा छुड़ेगा। इन दोनों ही पुष्प प्रयोजनों के बीजाँकुर गृह उद्यान के उपक्रम में विद्यमान है।
हमारा आहार जीवन्त होना चाहिए। भुना, तला, सूखा, मसलों की उत्तेजना से भरा आहार एवं प्रकार से अखाद्य है। पोषक पदार्थों का कोयला बना कर खान की आदत बदलनी होगी, अन्यथा धनी दरिद्र सभी की कुपोषणजन्य दुर्बलता डडडड अपने शिकंजे में डडडड रहेगी। हरे शाकभाजी, मौसमी फल एवं अंकुरित अन्न का प्रचलन चल पड़े तो गरीबी के रहते हुए भी किसी को कुपोषण का शिकार नहीं बनना पड़ेगा। घरों में शाक भाजी उगाने का उपक्रम स्वास्थ्य की दृष्टि से इस लिए आवश्यक है कि उससे आहार की उत्कृष्टता समझने समझाने में जीवित पदार्थों की उपयोगिता पर ध्यान टिकता हैं। शाक−वाटिका की उपज से उतना तो लाभ मिल ही जाता है जितने से परिवार भर को कुपोषण के अभिशाप से बचाया जा सके। जगह और रुचि हो तो एक छोटे परिवार के लिए शाक भाजी, आंगन,छप्पर और छत पर उगने वाली शाक वाटिका से ही उपलब्ध होते रह सकते हैं। हरी मिर्च,पोदीना,धनिया, सलाद, पालक, अदरक, प्याज आदि से घर को हरी चटनी मिल सकती है और उतने से भी कुपोषणजन्य संकट टल सकता हैं।
इन दिनों वातावरण में प्रदूषण भरते जाने की विभीषिका से उत्पन्न होने वाली हानियों से सभी विचारशील परिचित और आतंकित हैं। इसका सर्वसुलभ समाधान हरितिमा संवर्धन ही हैं। विषाक्तता को खाने पचाने में समर्थ नील कंठ भगवान के उपरान्त दूसरा नम्बर वनस्पति सम्पदा का ही आता हैं। इसके लिए उत्साह दिखाया जा सके तो परिवार को प्रदूषणजन्य हानियों से बचाने के अतिरिक्त समूचे वातावरण के परिशोधन से भी इस आधार पर योगदान मिल सकता हैं। इसमें स्वार्थ के साथ−साथ परमार्थ का समन्वय भी है।
शाकवाटिका एक गृह उद्योग होने वाला आर्थिक लाभ स्पष्ट है। इन दिनों शाक भाजी की कितनी महंगाई है और मनमाने दाम देने पर भी गन्दे नालों से उगाई,हुई कई−कई दिन की रखी वासी सब्जी खरीदनी पड़ती है। इसकी तुलना में घर उगाये शाकों से स्वास्थ लाभ के अतिरिक्त आर्थिक लाभ भी हैं। इस दृष्टि से इसे एक गृह उद्योग ठहराया जा सकता है। इस दिशा में पहल करना नितान्त आवश्यक है। बेकारी और गरीबी के नागपाश से छूटने के लिए, घर में सौभाग्य लक्ष्मी का दर्शन, करने के लिए जापान की तरह हमें भी घर−घर में सहकारी गृह उद्योग लगाने होंगे। इसका प्रतीक पूजन—शुभारम्भ, शाक वाटिका लगा कर किया जा सकता है।
उत्पादन का दूसरा पक्ष है—बचत। इसे भी गृह उद्योग में सम्मिलित किया जा सकता है। कपड़ों की सिलाई, धुलाई, पुरानों को काटकर छोटे नये बना लेना एक बचत उद्योग हैं। टूट−फूट की मरम्मत भी इसी श्रेणी में आती है और बताती है कि बचाना भी कमाने के ही समतुल्य लाभदायक है। सुई, कैंची, साबुन, बुहारी फिनायल जैसे उपकरण सभी घरों में होते हैं। इन्हीं में पोतने का चूना, किवाड़, फर्नीचरों का रंग वार्नस भी सम्मिलित रखा जा सकता है बर्तन, फर्नीचर आदि के टूट−फूट को सुधारने के लिए थोड़े से अभ्यास से काम चल सकता है। पुस्तकों की जिल्द बाँध से अभ्यास से काम चल सकता है। पुस्तकों की जिल्द बाँध देना कठिन नहीं। चूहों के छेद,छत की दरारें, फर्सों के गड्ढे बन्द करने में तनिक से अभ्यास और थोड़े से उपकरणों की आवश्यकता है आरी, छैनी, हथौड़ी, वसूली, कन्नी, जैसी थोड़े से उपकरणों से घर में छोटी मरम्मत फैक्टरी चल सकती है। चारपाई की टूटी रस्सियों के साथ थोड़ी नई मिला कर उसे कम खर्च में बुना जा सकता है। सस्ता और अच्छा साबुन घर पर ही बन सकता है। बालकों के लिए तरह−तरह के खिलौने बना कर देते किसी कुशल गृहणी के बाँये हाथ का खेल है। आटा पीसने की चक्की लगा ली जाय और पति−पत्नी रोज की काम चलाऊ पिसाई मिल−जुलकर कर लिया करें तो मनोरंजन, स्वास्थ्य संवर्धन और आत्म बचत के तीनों प्रयोजन साथ−साथ सधते रह सकते हैं।
गृह उद्योगों की उपरोक्त चर्चा शाक वाटिका, पुष्प वाटिका के संदर्भ में, इसलिए की गई है कि वह पुण्य प्रक्रिया बहुमुखी लोगों से भरी−पूरी होने के साथ−साथ सधते रह सकते है।
गृह उद्योगों की उपरोक्त चर्चा शाकवाटिका, पुष्पवाटिका के संदर्भ में इसलिए की गई है कि वह पुण्य प्रक्रिया बहुमुखी लाभों से भरी−पूरी होने के साथ−साथ गृह−उद्योगों की एक छोटी इकाई रहने पर भी उस महान प्रयोजन की ओर ध्यान आकर्षित करती है जिसमें न केवल लाभ वरन् रचनात्मक प्रवृत्तियों के स्वभाव में सम्मिलित होने का सुयोग सौभाग्य भी सम्मिलित है।
प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक का ध्यान इस और रहना चाहिए। वे तत्काल कुछ गमले खरीद कर लायें। एक में तुलसी दूसरों में फूल तथा चटनी के पौधे बोये। इसके अतिरिक्त शाक वाटिका पर ध्यान दें। जिनके पास जमीन है उन्हें वृक्षारोपण की बड़ी योजना कार्यान्वित करने में भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। फूलों के ही नहीं आज तो जलावन के लिए काम आने वाले पेड़−पौधे लगाना उतना ही आवश्यक है जितना कि इमारती सामान और फर्नीचर के लिए प्रयुक्त होने वाले बड़े पेड़ों का उद्यान लगाना। इस दिशा में हम सबको जिससे जो बस पड़े शुभारम्भ अविलंब ही करना चाहिए।
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