माता पिता अपने
बच्चे का मल मूत्र साफ करते हैं,
मल मूत्र से गंदे वस्त्र
धोते हैं, इसमे उनका मान नहीं जाता. डाक्टर या नर्स
आपरेश्न हुए मरीज का मल मूत्र साफ करते हैं, छूते हैं या उसकी जांच
करते हैं, इसमे उनका भी मान नहीं जाता. फिर घर में पाखाना
साफ करने वाले को ही क्यों समाज में सबसे नीचा देखा जाता है? शायद इस लिए कि यही उसकी पहचान बन जाती है या फिर इस लिए कि बात सिर्फ सफाई की
नहीं, उस मल मूत्र को सिर पर टोकरी में उठा कर ले जाने की भी है? क्या हमारे शहरों में ऐसा आज भी कोई करने को बाध्य है?
ऐसी ही कुछ बात
है रिक्शे में बैठ कर जाने की. तीन पहिये वाले रिक्शे से कम बुरा लगता है पर
कलकत्ते के दो पहियों वाले रिक्शे जिसे भागता हुआ आदमी खींचे, उस पर बैठना मुझे मानव मान के विरुद्ध लगता है. आज जब साईकल का आविश्कार हुए
दो सौ साल हो गये, क्यों बनाते हैं हम यह दो पहियों वाले रिक्शे? क्या बात केवल बनाने के खर्च की है?
अनुनाद जी ने
लिखा है, “क्या इसका कोई आंकडा है
कि समान भार लादे हुए दोपहिया रिक्शा और तीनपहिया रिक्शा में किसको चलाने मे अधिक
बल/शक्ति/उर्जा की आवश्यकता होती है”.
सच कहूँ तो लिखते
समय आंकड़ों के बारे में नहीं सोचा था पर शायद अनुनाद जी ठीक कहते हैं, केवल भावनात्मक वेग में समाज नहीं बदला जा
सकता. मुझे बैल जैसे हल में जुते, नंगे पाँव भागते,
रिक्शा खींचते उन इंसानों का सोच कर तर्क नहीं
याद रहा. पर नंगे पांव भागने से साईकल चलाना अधिक आसान होता है यही सोच कर दो
पहियों को तीन पहिये वाले रिक्शों में बदलने की सलाह दे रहा था.
जब जीवन यात्राओं
से भरा हो तो, किस यात्रा में
क्या हुआ, किस शहर में कौन सी चीज
देखी, कहाँ किससे मिला, आदि बातें याद रखना आसान नहीं. पर फिर भी कुछ
यात्राएं ऐसी होती हैं जो साल बीतने के बाद भी पूरी याद रहती हैं.
काम समाप्त होने
पर हमें दो ननस् साथ ले कर वापस चलीं. उनकी गाड़ी में आगे तीन लोगों के बैठने की
जगह थी, पीछे खुला पिकअप था
जिसमें वे लोग किनशासा समान ले कर जा रहीं थीं. आगे बैठने की जगह पर ड्राइवर के
साथ दो ननस् बैठीं. पीछे की जगह नारियल और केलों से भरी थी जिस पर मेरे साथ बैठे
थे मेरे इटालियन साथी एन्ज़ो, गाँव की एक
गर्भवती स्त्री, उसका एक पाँच साल
का बच्चा और एक और स्त्री.
उस यात्रा में सब
कुछ हुआ. तेज धूप, मूसलाधार बारिश,
मेरी चीनी छतरी जो तेज हवा के साथ उड़ गयी,
छोटा बच्चा जो या रोता था या उल्टी कर रहा था,
गर्भवती स्त्री जिन्हें प्रसव की पीड़ा शुरु हो
गयी. इन सब बातों के दौरान, खड्डों पर से
झटके देती गाड़ी और सख्त नारियलों पर बैठे हम लोग, कुछ घंटों की पीड़ा के बाद लगा कि शरीर का निचला भाग सुन्न
हो गया हो. जब होटल पहुँचे तो उठ कर गाड़ी से उतरने में ही समझ आ गया कि मामला कुछ
गम्भीर था. कई दिनों तक बैठते उठते, नितम्बों पर पड़े छाले जब ठीक नहीं हुए, दर्द के मारे आई आई करते रहे.
कभी कभी लगता है
कि समय के साथ साथ, हमारा सब कुछ
मिला जुला हो रहा है. भाषा, संस्कृति,
संगीत, वस्त्र, नाम, सब कुछ मिला जुला. कितने लोग आज अपने जन्म
स्थान, अपने घर से दूर आ जा रहे
हैं शायद इतिहास में यह पहली बार, इतने बड़े स्तर पर
हो रहा है ? आम बात सी लगती
है आज एक जगह पैदा होना, दूसरी जगह पढ़ायी
पूरी करना, किसी अन्य प्रांत में काम
करना या किसी अन्य प्रांत के पुरुष या स्त्री से विवाह करना.
शायद यह मुझे इस
लिए लगता है क्यों कि यही मेरे जीवन का किस्सा है. शायद, हजारों, लाखों लोग,
जो छोटे शहरों या गाँवों में रहते हैं, उनके लिए यह बात सत्य नहीं है ? पर अगर आप अपनी जगह से नहीं भी हिलें तो भी,
टेलीविजन, फिल्म और अंतर्जाल कुछ न कुछ तो मिलावट डाल ही रहें हैं
हमारी अपनी पहचानों में ?
चिट्ठे लिखना
पढ़ना तो जैसे एक नशा है, एक बार यह नशा चढ़
गया तो बस कुछ अन्य न दिखता है न करते बनता है. ऐसा कुछ कुछ मेरा विचार बन रहा है.
कल के समाचारों
में दो बातों ने सोचने पर मजबूर किया. पहली खबर थी शाहरुख खान के नये विज्ञापन की
चर्चा, यानि लक्स साबुन का
विज्ञापन जिसमें वह टब में नहाते हुए दिखाये गये हैं.
दूसरी बात थी
दिल्ली के क्नाट प्लेस की जहाँ कार चलाती हुई २७ वर्षीय युवती को मोटर साइकल पर जा
रहे दो लड़कों ने छेड़ा और मार पिटाई की. उस समय कार में युवती के साथ उसकी माँ,
छोटा भाई और मंगेतर भी थे.
सोच रहा था कि
कैसे धीरे धीरे स्त्री और पुरुष के रुप और समाज स्वीकारित व्यवहार बदल रहे हैं.
पुरुषों के लिए
कोमल होना, संवेदनशील होना, नृत्य, संगीत या संस्कृति की बात करना, लाल या गुलाबी रंग के कपड़े पहनना, आँसू बहाना, जैसी बातें उसमें
किसी कमी या फिर उसकी पुरुषता के बारे में शक पैदा कर देती हैं. ऐसे में बिना यह
सोचे कि दूसरे क्या सोचेंगे या कहेंगे, जो मन में आये करना केवल विकसित आत्मविश्वास वाले लोग ही कर सकते हैं. पर छोटी
छोटी बातों में कुछ परिवर्तन सभी पुरुषों के जीवन में आये हैं. पिता के लिए बच्चे
से प्यार जताना पहले पुरुष व्यवहार के योग्य नहीं समझा जाता था, सड़क पर कोई आदमी गोद में बच्चे के साथ दिख जाये
तो कुछ अजीब सा लगता था, पर आज इसमें किसी
को अजीब नहीं लगता.
दूसरी तरफ औरतें
घर से बाहर निकल रहीं हैं, बहुत बार पुरुषों
से अधिक कमाती हैं, उनमें आत्म
विश्वास है. जो युवक क्नाट प्लेस में कार चलाती युवती के साथ बद्तमीजी कर रहे थे,
शायद उसकी वजह केवल गुंडा गर्दी ही हो पर मुझे
शक है कि उसके साथ साथ स्त्रियों के बढ़ते आत्मविश्वास के सामने नीचा महसूस करने का
गुस्सा भी हो सकता है ?
आज की तस्वीरों
में आज के नये स्त्री पुरुष जिन्हें समाज स्वीकृति या अस्वीकृति की चिंता नहीं:
सुबह और शाम जब
गावों में गायें धूलि उड़ाती हुई, घंटियां बजाती
हुई चलती हैं, शहरों में धूँआ
उगलती, होर्न बजाती बस और स्कूटर
पर काम से लोग लौटते हैं, हमारा
कुकुरमुत्ता बाग जाने का समय हो जाता है. जिन जिन के यहाँ कुत्ते हैं वह अपने
लाडलों और लाडलियों को ले कर सैर के लिए निकल पड़ते हैं. हमारे परिवार में यही नियम
है कि अगर मैं घर पर हूँ तो यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं समय पर अपने कुत्ते को
उसकी मल मूत्र (क्षमा कीजिये पर इन शब्दो के लिए पर इस बारे में बात करने का कोई
अन्य तरीका भी नहीं है) आदि की जरुरतों के लिए बाहर सैर पर ले जाऊँ.
शहरों में जहाँ
एक बिल्डिंग में रह कर भी, अपने पड़ोसियों को
नहीं पहचानने का नियम है, कुत्ते आप की जान
पहचान बढ़ाने का काम करते हैं. अन्य कुत्ता स्वामियों से पहचान तो अपने आप ही हो
जाती है क्योंकि कुत्तों ने अभी “पड़ोसियों को न
पहचानने” वाले नियम के बारे में
नहीं सुना, और शायद सुनना ही नहीं
चाहते. उनके इलावा, अन्य लोग जो
अकेलेपन को महसूस करते हैं, जैसे घर के बड़े
बूढ़े, उनसे भी जान पहचान
कुत्तों के बहाने आसानी से हो जाती है. हालाँकि कभी कभी यह जान पहचान कुछ अजीब सी
होती है, जैसे हमारे बाग में,
हम सभी कुत्तों के नाम तो जानते हैं, उनके मालिकों से हमेशा हँस कर दुआ सलाम होता है
पर हमें किसी का भी नाम नहीं मालूम. यानि हम लोगों को “एशिया के मालिक”, “टक्की की मालकिन”, “साशा की वह मोटी
मालकिन”, के नामों से याद रखते
हैं.
इसमे गलती उनकी
नहीं कि अपना नाम नहीं बताना चाहते, हमारे कुत्ते की है जो घर में गुमसुम सा भोला भाला रहता है पर बाहर निकलते ही
बाकी कुत्तों को देखते ही या तो “भौंकना चैम्पियन”
बन जाता है या शक्त्ति कपूर की तरह अपनी सभी
सखियों के ऊपर चढ़ने की कोशिश करता है, इसलिए किसी से ठीक से बात करने का मौका नहीं मिलता.
पर जिसने भी यह
सोचा कि जहाँ कुत्ते मूतते हैं वहाँ कुकुरमुत्ते निकल आते हैं, यह ठीक नहीं है. हमने अपने वैज्ञानिक जाँच से
इसकी गहराई में जाँच पड़ताल की है. अगर यह सच होता तो हमारा बाग अब तक कुकुरमुत्तों
का जंगल बन गया होता, पर हमारे बाग में
कभी एक भी कुकुरमुत्ता नहीं दिखाई दिया.
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